सरस्वती नदी

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सरस्वती नदी / Saraswati / Sarasvati River

सरस्वती नदी
Saraswati River

कई भू-विज्ञानी मानते हैं, और ॠग्वेद में भी कहा गया है, कि हज़ारों साल पहले सतलुज (जो सिन्धु नदी की सहायक नदी है) और यमुना (जो गंगा की सहायक नदी है) के बीच एक विशाल नदी थी जो हिमालय से लेकर अरब सागर तक बहती थी। आज ये भूगर्भी बदलाव के कारण सूख गयी है। ऋग्वेद में, वैदिक काल में इस नदी सरस्वती को 'नदीतमा' की उपाधि दी गयी है। उस सभ्यता में सरस्वती ही सबसे बड़ी और मुख्य नदी थी, गंगा नहीं। सरस्वती नदी हरियाणा, पंजाब व राजस्थान से होकर बहती थी और कच्छ के रण में जाकर अरब सागर में मिलती थी। तब सरस्वती के किनारे बसा राजस्थान भी हराभरा था। उस समय यमुना, सतलुज व घग्गर इसकी प्रमुख सहायक नदियाँ थीं। बाद में सतलुज व यमुना ने भूगर्भीय हलचलों के कारण अपना मार्ग बदल लिया और सरस्वती से दूर हो गईं। हिमालय की पहाड़ियों में प्राचीन काल से हीभूगर्भीय गतिविधियाँ चलती रही हैं।

सरस्वती का विलुप्त होना

संभवतः ऐसी ही किसी हलचल के कारण सरस्वती का प्राकृतिक मार्ग अवरुद्ध हुआ और वह मार्ग बदलकर बहने लगी। बदले मार्ग पर इसे हिमालय से जल नहीं मिला और यह वर्षा जल से बहने वाली नदी बनकर रह गई। धीरे-धीरे राजस्थान क्षेत्र में मौसम गर्म होता गया और वर्षा जल भी न मिलने के कारण सरस्वती नदी सूखकर विलुप्त हो गई।


के एस वल्दिया की पुस्तक 'सरस्वती, द रिवर दैट डिसेपीयर्ड' और बी पी राधाकृष्णा व एस एस मेढ़ा की पुस्तक 'वैदिक सरस्वती' में कहा गया है कि मानसरोवर से निकलने वाली सरस्वती हिमालय को पार करते हुए हरियाणा, राजस्थान के रास्ते कच्छ पहुंचती थी।

सरस्वती का महत्व

  • वैदिक काल में सरस्वती की बड़ी महिमा थी और इसे परम पवित्र नदी माना जाता था। ऋग्वेद के नदी सूक्त में सरस्वती का उल्लेख है, 'इमं में गंगे यमुने सरस्वती शुतुद्रि स्तोमं सचता परूष्ण्या असिक्न्या मरूद्वधे वितस्तयार्जीकीये श्रृणुह्या सुषोमया'[1] सरस्वती ऋग्वेद में केवल 'नदी देवता' के रूप में वर्णित है (इसकी वंदना तीन सम्पूर्ण तथा अनेक प्रकीर्ण मन्त्रों में की गई है), किंतु ब्राह्मण ग्रथों में इसे वाणी की देवी या वाच् के रूप में देखा गया और उत्तर वैदिक काल में सरस्वती को मुख्यत:, वाणी के अतिरिक्त बुद्धि या विद्या की अधिष्ठात्री देवी भी माना गया है और ब्रह्मा की पत्नी के रूप में इसकी वंदना के गीत गाये गए है।
  • ऋग्वेद में सरस्वती को एक विशाल नदी के रूप में वर्णित किया गया है और इसीलिए राथ आदि मनीषियों का विचार था कि ऋग्वेद में सरस्वती वस्तुत: मूलरूप में सिंधु का ही अभिधान है। किंतु मेकडानेल्ड के अनुसार सरस्वती ऋग्वेद में कई स्थानों पर सतलज और यमुना के बीच की छोटी नदी ही के रूप में वर्णित है। सरस्वती और दृषद्वती परवर्ती काल में ब्रह्मावर्त की पूर्वी सीमा की नदियां कही गई हैं। यह छोटी-सी नदी अब राजस्थान के मरूस्थल में पहुंचकर शुष्क हो जाती है, किंतु पंजाब की नदियों के प्राचीन मार्ग के अध्ययन से कुछ भूगोलविदों का विचार है कि सरस्वती पूर्वकाल में सतलुज की सहायक नदी अवश्य रही होगी और इस प्रकार वैदिक काल में यह समुद्रगामिनी नदी थी। यह भी संभव है कि कालांतर में यह नदी दक्षिण की ओर प्रवाहित होने लगी और राजस्थान होती हुई कच्छ की खाड़ी में गिरने लगी। राजस्थान तथा गुजरात की यह नदी आज भी कई स्थानों पर दिखाई पड़ती है। सिद्धपुर इसके तट पर है। संभव है कि कुरुक्षेत्र का सन्निहत ताल और राजस्थान का प्रसिद्धताल पुष्कर इसी नदी के छोड़े हुए सरोवर हैं। यह नदी कई स्थानों पर लुप्त हो गई है।
  • हापकिंस का मत है कि ऋग्वेद का अधिकांश भाग सरस्वती के तटवर्ती प्रदेश में (अंबाला के दक्षिण का भूभाग) रचित हुआ था। शायद यही कारण है कि सरस्वती नदी वैदिक काल में इतनी पवित्र समझी जाती थी और परवर्ती काल में तो इसको विद्या, बृद्धि तथा वाणी की देवी के रूप में माना गया। मेकडानल्ड का मत है कि यजुर्वेद तथा उसके ब्राह्मण ग्रंथ सरस्वती और यमुना के बीच के प्रदेश में जिसे कुरुक्षेत्र भी कहते थे रचे गये थे। सामवेद के पंचविंश ब्राह्मण (प्रौढ या तांड्य ब्राह्मण) में सरस्वती और दृषद्वती नदियों के तट पर किए गए यज्ञों का सविस्तार वर्णन है जिससे ब्राह्मण काल में सरस्वती के प्रदेश की पुण्यभूमि के रूप में मान्यता सिद्ध होती है। शतपथ ब्राह्मण में विदेघ (विदेह) के राजा माठव का मूल स्थान सरस्वती नदी के तट पर बताया गया है और कालांतर में वैदिक सभ्यता का पूर्व की ओर प्रसार होने के साथ ही माठव के विदेह (बिहार) में जाकर बसने का वर्णन है। इस कथा से भी सरस्वती का तटवर्ती प्रदेश वैदिक काल की सभ्यता का मूल केंद्र प्रमाणित होता है।

रामायण में सरस्वती

वाल्मीकि रामायण में भरत के केकय देश से अयोध्या आने के प्रसंग में सरस्वती और गंगा को पार करने का वर्णन है- 'सरस्वतीं च गंगा च युग्मेन प्रतिपद्य च, उत्तरान् वीरमत्स्यानां भारूण्डं प्राविशद्वनम्'[2] सरस्वती नदी के तटवर्ती सभी तीर्थों का वर्णन महाभारत में शल्यपर्व के 35 वें से 54 वें अध्याय तक सविस्तार दिया गया है। इन स्थानों की यात्रा बलराम ने की थी। जिस स्थान पर मरूभूमि में सरस्वती लुप्त हो गई थी उसे विनशन कहते थे।[3] इस उल्लेख में सरस्वती के लुप्त होने के स्थान के पास आभीरों का उल्लेख है।

  • यूनानी लेखकों ने अलक्षेंद्र के समय इनका राज्य सक्खर रोरी (सिंध, पाकि0) में लिखा है। इस स्थान पर प्राचीन ऐतिहासिक स्मृति के आधार पर सरस्वती को अंतर्हित भाव से बहती माना जाता था, 'ततो विनशनं गच्छेन्नियतो नियताशन: गच्छत्यन्तर्हिता यत्र मेरूपृष्ठे सरस्वती।<balloon title="विनशन" style="color:blue">*</balloon> महाभारत काल में तत्कालीन विचारों के आधार पर यह किंवदंती प्रसिद्ध थी कि प्राचीन पवित्र नदी (सरस्वती) विनशन पहुंचकर निषाद नामक विजातियों के स्पर्श-दोष से बचने के लिए पृथ्वी में प्रवेश कर गई थी।[4]
  • सिद्धपुर (गुजरात) सरस्वती नदी के तट पर बसा हुआ है। पास ही बिंदुसर नामक सरोवर है जो महाभारत का विनशन हो सकता है। यह सरस्वती मुख्य सरस्वती ही की धारा जान पड़ती है। यह कच्छ में गिरती है किंतु मार्ग में कई स्थानों पर लुप्त हो जाती है। 'सरस्वती' का अर्थ है सरोवरों वाली नदी जो इसके छोड़े हुए सरोवरों से सिद्ध होता है। महाभारत में अनेक स्थानों पर सरस्वती का उल्लेख है। श्रीमद् भागवत <balloon title="श्रीमद् भागवत (5,19,18)" style="color:blue">*</balloon> में यमुना तथा दृषद्वती के साथ सरस्वती का उल्लेख है।<balloon title="मंदाकिनीयमुनासरस्वतीदृषद्वदी गोमतीसरयु" style="color:blue">*</balloon> मेघदूत<balloon title="मेघदूत पूर्वमेघ" style="color:blue">*</balloon> में कालिदास ने सरस्वती का ब्रह्मावर्त के अंतर्गत वर्णन किया ह। <balloon title="कृत्वा तासामभिगममपां सौम्य सारस्वतीनामन्त:शुद्धस्त्वमपि भविता वर्णमात्रेण कृष्ण:" style="color:blue">*</balloon> सरस्वती का नाम कालांतर में इतना प्रसिद्ध हुआ कि भारत की अनेक नदियों को इसी के नाम पर सरस्वती कहा जाने लगा। पारसियों के धर्मग्रंथ जेंदावस्ता में सरस्वती का नाम हरहवती मिलता है।
  • प्रयाग के निकट गंगा-यमुना संगम में मिलने वाली एक नदी जिसका रंग लाल माना जाता था। इस नदी का कोई उल्लेख मध्यकाल के पूर्व नहीं मिलता और त्रिवेणी की कल्पना काफी बाद की जान पड़ती है। जिस प्रकार पंजाब की प्रसिद्ध सरस्वती मरूभूमि में लुप्त हो गई थी उसी प्रकार प्रयाग की सरस्वती के विषय में भी कल्पना कर ली गई कि वह भी प्रयाग में अंतर्हित भाव से बहती है। गंगा-यमुना के संगम के संबंध में केवल इन्हीं दो नदियों के संगम का वृत्तांत रामायण, महाभारत, कालिदास तथा प्राचीन पुराणों में मिलता है। परवर्ती पुराणों तथा हिंदी आदि भाषाओं के साहित्य में त्रिवेणी का उल्लेख है। [5] कुछ लोगों का मत है कि गंगा-यमुना की संयुक्त धारा का ही नाम सरस्वती है। अन्य लोगों को विचार है कि पहले प्रयाग में संगम स्थल पर एक छोटी-सी नदी आकर मिलती थी जो अब लुप्त हो गई है। 19 वीं शती में, इटली के निवासी मनूची ने प्रयाग के किले की चट्टान से नीले पानी की सरस्वती नदी को निकलते देखा था। यह नदी गंगा-यमुना के संगम में ही मिल जाती थी।<balloon title="दे0मनूची, जिल्द 3,पृ0 75." style="color:blue">*</balloon>
  • (सौराष्ट्र) प्रभास पाटन के पूर्व की ओर बहने वाली छोटी नदी जो कपिला में मिलती है। कपिला हिरण्या की सहायक नदी है जो दोनों कर जल लेती हुई प्राची सरस्वती में मिलकर समुद्र में गिरती है।
  • (महाराष्ट्र) कृष्णा की सहायक पंचगंगा की एक शाखा। कृष्णा पंचगंगा संगम पर अमरपुर नामक प्राचीन तीर्थ है।
  • (ज़िला गढ़वाल, उ0प्र0) एक छोटी पहाड़ी नदी जो बदरीनारायण में वसुधारा जाते समय मिलती है। सरस्वती और अलकनंदा (गंगा) के संगम पर केशवप्रयाग स्थित है।
  • (बिहार) राजगीर के समीप बहने वाली नदी जो प्राचीन काल में तपोदा कहलाती थी। इस सरिता में उष्ण जल के स्त्रोत थे। इसी कारण यह तपोदा नाम से प्रसिद्ध थी। तपोद तीर्थ का, जो इस नदी के तट पर था, महाभारत वनपर्व में उल्लेख है। गौतमबुद्ध के समय तपोदाराम नामक उद्यान इसी नदी के तट पर स्थित था। मगध-सम्राट बिंदुसार प्राय: इस नदी में स्नान करते थे।
  • केरल की एक नदी जिसके तट पर होनावर स्थित है।
  • प्राची सरस्वती।
  • (ज़िला परभणी, महाराष्ट्र) एक छोटी नदी जो पूर्णा की सहायक है। सरस्वती-पूर्णा संगम पर एक प्राचीन सुदंर मंदिर स्थित है।

टीका-टिप्पणी

  1. ॠग्वेद 10,75,5
  2. वाल्मीकि रामायण अयो0 71,5
  3. 'ततो विनशनं राजन् जगामाथ हलायुध: शूद्राभीरानृ प्रतिद्वेषाद् यत्र नष्टा सरस्वती' महा0 शल्य0 37,1
  4. 'एतद् विनशनं नाम सरस्वत्या विशाम्पते द्वारं निषादराष्ट्रस्य येषां दोषात् सरस्वती। प्रविष्टा पृथिवीं वीर मा निषादा हि मां विदु:
  5. 'भरत वचन सुनि भांझ त्रिवेनी, भई मृदुवानि सुमंगल देनी'-तुलसीदास