श्रेणी:उत्तरकाण्ड
भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
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- नारि बिबस नर सकल गोसाईं
- निंदा अस्तुति उभय सम
- निज अनुभव अब कहउँ खगेसा
- निज उर माल बसन
- निज कर कमल परसि मम सीसा
- निज दास ज्यों रघुबंसभूषन
- निज प्रभु जन्म अवध सुनि पायउँ
- निज मति सरिस नाथ मैं गाई
- निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा
- नित जुग धर्म होहिं सब केर
- नित नइ प्रीति राम पद पंकज
- नित नव चरित देखि मुनि जाहीं
- नित हरि कथा होत जहँ भाई
- निराकारमोंकारमूलं तुरीयं
- निराचार जो श्रुति पथ त्यागी
- निरुपम न उपमा आन राम
- निर्गुन रूप सुलभ अति
- निसिचर कीस लराई
- निसिचर निकर मरन बिधि नाना
- नीचि टहल गृह कै सब करिहउँ
- नीति निपुन सोइ परम सयाना
- नील कंज लोचन भव मोचन
- नेम धर्म आचार तप
- नौकारूढ़ चलत जग देखा
प
- पति अनुकूल सदा रह सीता
- पन्नगारि असि नीति श्रुति
- पर त्रिय लंपट कपट सयाने
- पर द्रोही पर दार रत
- पर संपदा बिनासि नसाहीं
- पर हित सरिस धर्म नहिं भाई
- परबस जीव स्वबस भगवंता
- परम धर्ममय पय दुहि भाई
- परम प्रकास रूप दिन राती
- परम प्रीति समीप बैठारे
- परम प्रेम तिन्ह कर प्रभु देखा
- परमातुर बिहंगपति आयउ
- परमानंद कृपायतन
- परे भूमि नहिं उठत उठाए
- पाई न केहिं गति पतित पावन
- पाछिल मोह समुझि पछिताना
- पाट कीट तें होइ तेहि
- पावन जस कि पुन्य बिनु होई
- पावन पर्बत बेद पुराना
- पीत झीनि झगुली तन सोही
- पीपर तरु तर ध्यान सो धरई
- पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं
- पुनि कृपाल पुर बाहेर गए
- पुनि कृपाल लियो बोलि निषादा
- पुनि निज जटा राम बिबराए
- पुनि प्रभु गीध क्रिया जिमि कीन्हीं
- पुनि प्रभु हरषि सत्रुहन
- पुनि रघुपति निज मंदिर गए
- पुनि रघुपति बहु बिधि समुझाए
- पुनि रघुपति सब सखा बोलाए
- पुनि लछिमन उपदेस अनूपा
- पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ
- पुन्य एक जग महुँ नहिं दूजा
- पुन्य पुंज तुम्ह पवनकुमारा
- पुर सोभा कछु बरनि न जाई
- पुरुष त्यागि सक नारिहि
- पुरुष नपुंसक नारि वा
- पूँछिहु राम कथा अति पावनि
- पूरन काम राम अनुरागी
- पूरुब कल्प एक प्रभु जुग
- प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी
- प्रगट चारि पद धर्म के
- प्रगटीं गिरिन्ह बिबिधि मनि खानी
- प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं
- प्रथम जन्म के चरित अब
- प्रथम तिलक बसिष्ट मुनि कीन्हा
- प्रथमहिं अति अनुराग भवानी
- प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा
- प्रबल अबिद्या कर परिवारा
- प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई
- प्रभु अगाध सत कोटि पताला
- प्रभु अपने अबिबेक ते
- प्रभु अवतार कथा पुनि गाई
- प्रभु जानी कैकई लजानी
- प्रभु तव आश्रम आएँ
- प्रभु नारद संबाद कहि
- प्रभु बिलोकि मुनि मन अनुरागा
- प्रभु बिलोकि हरषे पुरबासी
- प्रभु रघुपति तजि सेइअ काही
- प्रभु रुख देखि बिनय बहु भाषी
- प्रभु सर्बग्य कीन्ह
- प्राकृत सिसु इव लीला
- प्रातकाल सरऊ करि मज्जन
- प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई
- प्रीति सदा सज्जन संसर्गा
- प्रेम सहित मुनि नारद
- प्रेमाकुल प्रभु मोहि बिलोकी
- प्रौढ़ भएँ मोहि पिता पढ़ावा
ब
- बंधन काटि गयो उरगादा
- बंस कि रह द्विज अनहित कीन्हें
- बड़ें भाग मानुष तनु पावा
- बन उजारि रावनहि प्रबोधी
- बर तर कह हरि कथा प्रसंगा
- बरन धर्म नहिं आश्रम चारी
- बरनाश्रम निज निज धरम
- बरनि उमापति राम
- बरनि न जाइ रुचिर अँगनाई
- बहु बासना मसक हिम रासिहि
- बहु बिधि मोहि प्रबोधि सुख देई
- बहु रोग बियोगन्हि लोग हए
- बहुतक चढ़ीं अटारिन्ह
- बहुरि राम अभिषेक प्रसंगा
- बाजार रुचिर न बनइ बरनत
- बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन
- बापीं तड़ाग अनूप कूप
- बार बार कर दंड प्रनामा
- बार बार बर मागउँ
- बार-बार अस्तुति करि
- बारंबार सकोप मुनि
- बारि मथें घृत होइ बरु
- बालकरूप राम कर ध्याना
- बालचरित कहि बिबिधि बिधि
- बिगत काम मम नाम परायन
- बिधु महि पूर मयूखन्हि
- बिनु गुर होइ कि ग्यान ग्यान
- बिनु तप तेज कि कर बिस्तारा
- बिनु बिग्यान कि समता आवइ
- बिनु बिस्वास भगति नहिं
- बिनु श्रम तुम्ह जानब सब सोऊ
- बिनु संतोष न काम नसाहीं
- बिनु सतसंग न हरि कथा
- बिपिन गवन केवट अनुरागा
- बिप्र एक बैदिक सिव पूजा
- बिप्रन्ह दान बिबिधि बिधि दीन्हे
- बिबिध कर्म गुन काल सुभाउ
- बिबिधि भाँति मोहि मुनि समुझावा
- बिमल कथा हरि पद दायनी
- बिमल ग्यान जल जब सो नहाई
- बिरति ग्यान बिग्यान
- बिरति चर्म असि ग्यान
- बिरति बिबेक भगति दृढ़ करनी
- बिषय अलंपट सील गुनाकर
- बिसरे गृह सपनेहुँ सुधि नाहीं
- बीथीं सकल सुगंध सिंचाई
- बूझउँ तिन्हहि राम गुन गाहा
- बूझत कृपानिधि कुसल भरतहि
- बूझहिं बैठि राम गुन गाहा
- बैठ रहेसि अजगर इव पापी
- बैठे देखि कुसासन
- बैनतेय संकर पहिं जाहू
- बैनतेय सुनु संभु तब
- बैर न बिग्रह आस न त्रासा
- बोलेउ काकभुसुंड बहोरी
- ब्याकुल गयउ देवरिषि पाहीं
- ब्यापक ब्रह्म बिरज बागीसा
- ब्यापि रहेउ संसार महुँ
- ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर
- ब्रह्म पयोनिधि मंदर
- ब्रह्मलोक लगि गयउँ
- ब्रह्मानंद मगन कपि सब
भ
- भए बरन संकर कलि
- भए लोग सब मोहबस
- भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी
- भगत कल्पतरू प्रनत हित
- भगत बछलता प्रभु कै देखी
- भगत हेतु भगवान प्रभु
- भगति ग्यान बिग्यान बिरागा
- भगति पच्छ हठ करि
- भगति हीन गुन सब सुख ऐसे
- भगति हीन बिरंचि किन होई
- भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा
- भगतिहि सानुकूल रघुराया
- भय कालबस जब पितु माता
- भरत अनुज सौमित्रि समेता
- भरत चरन सिरु नाइ
- भरत नयन भुज दच्छिन
- भरत सनेह सील ब्रत नेमा
- भरतानुज लछिमन पुनि भेंटे
- भरि लोचन बिलोकि अवधेसा
- भव कि परहिं परमात्मा बिंदक
- भव बंधन ते छूटहिं
- भव बारिधि कुंभज रघुनायक
- भव सागर चह पार जो पावा
- भाव बस्य भगवान सुख
- भाव सहित खोजइ जो प्रानी
- भिन्न भिन्न अस्तुति करि
- भिन्न भिन्न मैं दीख सबु
- भुज बल बिपुल भार महि खंडित
- भूमि सप्त सागर मेखला
- भेंटेउ तनय सुमित्राँ
- भोजन करिअ तृपिति हित लागी
- भ्रमत मोहि ब्रह्मांड अनेका
- भ्रातन्ह सहित रामु एक बारा