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हमारी पुरातात्विक धरोहरों में से कोस मीनारों एक है। कोस मीनार अर्थात वे प्रतीक चिन्ह जो सड़क के किनारे स्तंभनुमा खड़े होते हैं। यह मीनारें दो सभ्यताओं और शासनों के प्रतीक स्वरूप हैं -  
 
हमारी पुरातात्विक धरोहरों में से कोस मीनारों एक है। कोस मीनार अर्थात वे प्रतीक चिन्ह जो सड़क के किनारे स्तंभनुमा खड़े होते हैं। यह मीनारें दो सभ्यताओं और शासनों के प्रतीक स्वरूप हैं -  
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08:40, 11 जुलाई 2011 का अवतरण

कोस मीनार

हमारी पुरातात्विक धरोहरों में से कोस मीनारों एक है। कोस मीनार अर्थात वे प्रतीक चिन्ह जो सड़क के किनारे स्तंभनुमा खड़े होते हैं। यह मीनारें दो सभ्यताओं और शासनों के प्रतीक स्वरूप हैं -

  1. अफ़ग़ान शासक शेरशाह सूरी के शासन प्रबंध से सम्बंधित
  2. मुग़ल शासकों के शासन प्रबंध से सम्बंधित।
Seealso.gifकोस मीनार का उल्लेख इन लेखों में भी है: सिकंदरा आगरा, ग्रैण्ड ट्रंक रोड एवं शेरशाह सूरी

'कोस' शब्द का अर्थ

'कोस' शब्द दूरी नापने का एक पैमाना है। 'कोस' का शाब्दिक अर्थ है - 'दूरी की एक माप जो लगभग दो मील अर्थात सवा तीन कि.मी. के बराबर होती है।' [1]। प्राचीन समय में किलोमीटर से नहीं, कोस से मार्ग की दूरी मापी जाती थी। एक कोस में लगभग तीन किलोमीटर होते हैं।

साहित्य में कोस शब्द

  • हिन्दी साहित्य में भी कोस शब्द का उल्लेख मिलता है। जैसे -

कोस कोस पर पानी बदले,
पाँच कोस पर बानी।

  • लोकोक्ति में भी इसका प्रयोग मिलता है -

कोसों दूर रहना अर्थात बहुत दूर रहना, समीप ना रहना।

निर्माण कार्य

शेरशाह सूरी और मुग़ल शासकों ने अपने शासनकाल में तीन प्रकार के निर्माण कराये, जिनका उल्लेख मिलता है-

  1. सराय - वह स्थान जहां पर यात्री अस्थायी रूप से आवास करें,
  2. बावडिय़ां - पानी के तालाब या कुएं
  3. मीनारें - कोस मीनार।

इस प्रकार के तीनों ही निर्माण राष्ट्रीय राजमार्ग नं. एक अर्थात जी टी रोड या शेरशाह सूरी मार्ग पर देखने को मिलते हैं। बावडिय़ां और सराय, इन दो प्रकार के निर्माण या तो समाप्त हो गये हैं या जीर्णावस्था में हैं, आज कल केवल 'कोस मीनार ही देखने में आती हैं। कोस मीनारों का निर्माण शेरशाह सूरी ने प्रारंभ करवाया था और इसका विस्तार मुग़ल शासकों ने किया था।

स्थापत्य

कोस मीनार जी टी रोड नं. एक पर बने वे स्तंभ हैं जो नीचे ज़मीन से 9 फुट ऊंचे अष्टकोणीय कोर्नीश (Cornish) और 17 फुट गोलाई लिए हुए है। कोस मीनार की कुल ऊंचाई 26 फुट और ऊपर की ओर गोलई कम होते हुए 10 फुट की गोलाई में कोर्नीश (Cornish) के साथ गोलाकार लिए बंद हो जाती है। नीचे से चौड़ी, चौकोर और मज़बूत आधार वाली कोस मीनार चूने और सुरखी में बनायी गयी छोटी ईंटों से बनी हुई हैं। कोस मीनारों की ऊंचाई लगभग 5 मीटर होती है। कोस मीनारों का गोलाकार 27 फुट के लगभग होता है। इन मीनारों पर चारों ओर थोड़ी थोड़ी दूरी पर चौकोर आले (खाने) बने हुए हैं। इन आलों की संख्या 24 है जो तीन पायदानों पर हैं। हर पायदान पर आठ चौकोर आले हैं। यह चौकोर आले कोस मीनारों की मरम्मत करने के लिए छोड़े जाते थे जिससे मीनारों में बार-बार छेद करने से बचाया जा सके। मरम्मत और रख्रखाव के समय मीनारों पर नीचे से ऊपर तक चौकोर आलों में लकड़ी की पेटी लगाकर बल्लियों को खड़ा कर, आपस में रस्सी से बांधकर, मचान बनाकर मीनारों की मरम्मत या पोताई का कार्य पूर्ण किया जाता है।

मुग़लों द्वारा निर्माण

कोस मीनारों के अष्टाकार भाग के नीचे 2 x 2 फुट के चौकोर और 2 इंच गहरे 8 चौखाने निर्मित हैं, जिनमें रात्रि के समय प्रकाश व्यवस्था के लिए मशाल जला कर रखी जाती थी। मुग़ल शासकों ने लगभग एक हज़ार कोस मीनारों का निर्माण करवाया था। अकबरनामा में भी कोस मीनारों का उल्लेख है। कोस मीनारें मुख्यत: बंगाल के गांव सोनार से प्रारंभ होकर आगरा, मथुरा, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब के क्षेत्रों से होते हुए पाकिस्तान के पेशावर शहर तक बने हुए हैं। इन कोस मीनारों से यात्रियों को रास्ता पहचानने व दूरी नापने में मदद मिलती थी। इन कोस मीनारों पर प्रशासन की ओर से एक अश्वारोही संदेशवाहक और शाही सैनिकों की नियुक्ति होती थी जो शाही संदेश और पत्र को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाने का कार्य करते थे।

भारत में पत्र भेजने की व्यवस्था इसी समय से प्रारंभ हुई थी। कोस मीनारों में एक बड़ा नगाड़ा भी रखा जाता था जो प्रत्येक घंटे की समाप्ति पर बजाया जाता था। कोस मीनारों के पास स्थित सराय पर यात्री विश्राम कर अपनी थकान दूर किया करते थे।

मुगल शासक

मुगल शासकों ने ये कोस मीनार पश्चिम में आगरा से अजमेर वाया जयपुर, उत्तर में आगरा से लाहौर वाया दिल्ली व दक्षिण में आगरा से मांडू वाया शिवपुरी के रास्तों में बनवाई थी। इन मीनारों का प्रयोग मील के पत्थर के रूप किया जाता था। इन्हे देखकर राजसी परिवार के लोग यह तय करते थे कि उनकी मंजिल अभी और कितनी दूर है। बताते हैं कि मीनारों के पास हमेशा से एक कुआं या बावड़ी होती थी, जहां पर कुछ देर बैठकर आराम किया जा सके और पानी पीकर प्यास बुझाई जा सके। हर मीनार के पास हरे भरे पेड़ भी जरूर होते थे, जिससे छाया में बैठकर राहगीर आराम कर सकें। इन मीनारों पर शासन की ओर से आदमी नियुक्त होते थे। ये दिन में लोगों की सेवा करते थे और रात में मीनार के ऊपर रोशनी करते थे, जिससे रात में भटके राहगीर को रास्ता मिल जाए। ईट व चूने गारे से बनी ये कोस मीनार हर तीन किलोमीटर या एक कोस पर बनाई गई थी। आज इनका अस्तित्व खतरे में है।[2]

भारतीय पुरात्व सर्वेक्षण विभाग

भारतीय पुरात्व सर्वेक्षण विभाग के अनुसार हरियाणा में 49 कोस मीनारें हैं जिनमें से फरीदाबाद में 17, सोनीपत में 7, पानीपत में 5, करनाल में 10, कुरुक्षेत्र में 9 हैं। ये कोस मीनार मुख्यत: दिल्ली, सोनीपत, पानीपत, कुरुक्षेत्र, अंबाला, लुधियाना, जालंधर, अमृतसर से पेशावर (पाकिस्तान) तक व दिल्ली - आगरा राजमार्ग पर स्थापित हैं।

राष्ट्रीय स्मारक

कुछ वर्ष पहले ही दिल्ली उच्च न्यायालय के एक आदेश से प्रशासन ने इन कोस मीनारों के पास से अतिक्रमण को हटाया है। यद्यपि भारतीय पुरातत्व विभाग ने इन कोस मीनारों को राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया है तथा अधिनियम 1958 (24) के अनुसार इन्हें हानि पहुंचाना दंडनीय अपराध है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. प्रभात हिन्दी शब्द कोश खण्ड एक,सम्पादक-डॉ.श्यामबहादुर वर्मा, डॉ.धर्मेंद्र वर्मा
  2. खस्ताहाल ऐतिहासिक इमारतें (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 4 जून, 2011।

बाहरी कड़ियाँ

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