"मुडिबद्री तीर्थ" के अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
छो (Text replace - " सदी " to " सदी ")
 
(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
मुडिबद्री तीर्थ का इतिहास श्री भद्रबाहु स्वामी तथा [[चंद्रगुप्त मौर्य]] के साथ जुड़ा हुआ है। [[विजयनगर साम्राज्य]] के माण्डलिक सामंतों के अधिकार-क्षेत्रों में अनेकानेक [[जैन]] स्थापत्य-कृतियों का निर्माण हुआ। इनमें मुडिबद्री का नाम अग्रगण्य है, जिसमें किये गये दान का उल्लेख 1390 ई. के एक अभिलेख में हुआ है। चौदहवीं शताब्दी में विजयनगर सम्राट [[देवराय द्वितीय]] के शासनकाल में मुडिबद्री में त्रिभुवन-चूड़ामणि-महाचैत्य का निर्माण हुआ। इसमें एक मनोहारी और उल्लेखनीय स्तंभ-मण्डप है। इसे पश्चिम-तट की शैली में निर्मित स्थापत्य का सुंदर उदाहरण माना जाता है।  
 
मुडिबद्री तीर्थ का इतिहास श्री भद्रबाहु स्वामी तथा [[चंद्रगुप्त मौर्य]] के साथ जुड़ा हुआ है। [[विजयनगर साम्राज्य]] के माण्डलिक सामंतों के अधिकार-क्षेत्रों में अनेकानेक [[जैन]] स्थापत्य-कृतियों का निर्माण हुआ। इनमें मुडिबद्री का नाम अग्रगण्य है, जिसमें किये गये दान का उल्लेख 1390 ई. के एक अभिलेख में हुआ है। चौदहवीं शताब्दी में विजयनगर सम्राट [[देवराय द्वितीय]] के शासनकाल में मुडिबद्री में त्रिभुवन-चूड़ामणि-महाचैत्य का निर्माण हुआ। इसमें एक मनोहारी और उल्लेखनीय स्तंभ-मण्डप है। इसे पश्चिम-तट की शैली में निर्मित स्थापत्य का सुंदर उदाहरण माना जाता है।  
  
मुडिबद्री में पन्द्रहवीं-सोलहवीं सदी का शिखर सहित वर्गाकार सुंदर मंदिर है, जो पूर्व गुप्तकालीन मंदिरों की परम्परा में है। यह मंदिर इस बात का प्रमाण है कि गुप्तकालीन मंदिरों की परम्परा उत्तरी भारत में तो विदेशी प्रभावों के कारण शीघ्र ही नष्ट हो गई किंतु दक्षिण में पन्द्रहवीं-सोलहवीं सदी तक प्रचलित रही। यह स्थान प्राचीनकाल में जैन विद्यार्थियों का केन्द्र था। आज भी यहाँ जैन ग्रंथों की प्राचीनतम प्रतियाँ सुरक्षित हैं। यहाँ 22 जैन मंदिर हैं, जिनमें चन्द्रप्रभु का विशाल एवं प्राचीन मंदिर मुख्य है। चन्द्रप्रभु की मूर्ति पंच धातु की बनी है, जो अति भव्य है। इस मंदिर का निर्माण 1429 ई. में 10 करोड़ रुपये की लागात से करवाया गया था। इसी मंदिर के सहस्त्रकूट जिनालय में धातु की 1008 प्रतिमाएँ हैं।   
+
मुडिबद्री में पन्द्रहवीं-सोलहवीं [[सदी]] का शिखर सहित वर्गाकार सुंदर मंदिर है, जो पूर्व गुप्तकालीन मंदिरों की परम्परा में है। यह मंदिर इस बात का प्रमाण है कि गुप्तकालीन मंदिरों की परम्परा उत्तरी भारत में तो विदेशी प्रभावों के कारण शीघ्र ही नष्ट हो गई किंतु दक्षिण में पन्द्रहवीं-सोलहवीं [[सदी]] तक प्रचलित रही। यह स्थान प्राचीनकाल में जैन विद्यार्थियों का केन्द्र था। आज भी यहाँ जैन ग्रंथों की प्राचीनतम प्रतियाँ सुरक्षित हैं। यहाँ 22 जैन मंदिर हैं, जिनमें चन्द्रप्रभु का विशाल एवं प्राचीन मंदिर मुख्य है। चन्द्रप्रभु की मूर्ति पंच धातु की बनी है, जो अति भव्य है। इस मंदिर का निर्माण 1429 ई. में 10 करोड़ रुपये की लागात से करवाया गया था। इसी मंदिर के सहस्त्रकूट जिनालय में धातु की 1008 प्रतिमाएँ हैं।   
  
  
पंक्ति 14: पंक्ति 14:
  
 
==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{कर्नाटक ऐतिहासिक स्थान कोश}}
+
{{कर्नाटक के ऐतिहासिक स्थान}}
 
[[Category:कर्नाटक]]
 
[[Category:कर्नाटक]]
 
[[Category:ऐतिहासिक स्थान कोश]]
 
[[Category:ऐतिहासिक स्थान कोश]]
 +
[[Category:कर्नाटक के ऐतिहासिक स्थान]]
 
[[Category:नया पन्ना]]
 
[[Category:नया पन्ना]]
 
__INDEX__
 
__INDEX__
 
__NOTOC__
 
__NOTOC__

10:58, 3 अक्टूबर 2011 के समय का अवतरण

Icon-edit.gif इस लेख का पुनरीक्षण एवं सम्पादन होना आवश्यक है। आप इसमें सहायता कर सकते हैं। "सुझाव"

मुडिबद्री एक प्राचीन तीर्थस्थल जो कर्नाटक राज्य के कनारा ज़िले में अवस्थित है।

इतिहास

मुडिबद्री तीर्थ का इतिहास श्री भद्रबाहु स्वामी तथा चंद्रगुप्त मौर्य के साथ जुड़ा हुआ है। विजयनगर साम्राज्य के माण्डलिक सामंतों के अधिकार-क्षेत्रों में अनेकानेक जैन स्थापत्य-कृतियों का निर्माण हुआ। इनमें मुडिबद्री का नाम अग्रगण्य है, जिसमें किये गये दान का उल्लेख 1390 ई. के एक अभिलेख में हुआ है। चौदहवीं शताब्दी में विजयनगर सम्राट देवराय द्वितीय के शासनकाल में मुडिबद्री में त्रिभुवन-चूड़ामणि-महाचैत्य का निर्माण हुआ। इसमें एक मनोहारी और उल्लेखनीय स्तंभ-मण्डप है। इसे पश्चिम-तट की शैली में निर्मित स्थापत्य का सुंदर उदाहरण माना जाता है।

मुडिबद्री में पन्द्रहवीं-सोलहवीं सदी का शिखर सहित वर्गाकार सुंदर मंदिर है, जो पूर्व गुप्तकालीन मंदिरों की परम्परा में है। यह मंदिर इस बात का प्रमाण है कि गुप्तकालीन मंदिरों की परम्परा उत्तरी भारत में तो विदेशी प्रभावों के कारण शीघ्र ही नष्ट हो गई किंतु दक्षिण में पन्द्रहवीं-सोलहवीं सदी तक प्रचलित रही। यह स्थान प्राचीनकाल में जैन विद्यार्थियों का केन्द्र था। आज भी यहाँ जैन ग्रंथों की प्राचीनतम प्रतियाँ सुरक्षित हैं। यहाँ 22 जैन मंदिर हैं, जिनमें चन्द्रप्रभु का विशाल एवं प्राचीन मंदिर मुख्य है। चन्द्रप्रभु की मूर्ति पंच धातु की बनी है, जो अति भव्य है। इस मंदिर का निर्माण 1429 ई. में 10 करोड़ रुपये की लागात से करवाया गया था। इसी मंदिर के सहस्त्रकूट जिनालय में धातु की 1008 प्रतिमाएँ हैं।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख