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13:44, 13 अक्टूबर 2011 का अवतरण

  • इस अनुवाक में पुरातन पुरुष 'परब्रह्म' की उपासना का योग बताया गया है।
  • वह अमृत-रूप और प्रकाश-स्वरूप परम पुरुष हृदय स्थित आकाश में विराजमान है।
  • हमारे कपाल में 'ब्रह्मरन्ध्र' इन्द्र योनि के रूप में स्थित है।
  • निर्वाण के समय साधक 'भू:' स्वरूप अग्नि में प्रवेश करता है, भुव: स्वरूप वायु में प्रतिष्ठित होता है और फिर 'स्व:' स्वरूप आदित्त्य में होकर 'मह:', अर्थात 'ब्रह्म' में अधिष्ठित हो जाता है।
  • वह सम्पूर्ण इन्द्रियों और विज्ञान का स्वामी हो जाता है।


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