"गांधारी से संवाद (2) -कुलदीप शर्मा" के अवतरणों में अंतर
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− | + | '''(2)''' | |
− | + | तुामने तो की थी प्रतिज्ञा | |
− | और | + | कि लड़ोगे तुम |
− | + | अन्तिम कारण तक | |
− | + | उन सबके लिए | |
− | + | जो लड़ना और जीना भूल चुके हैं | |
− | + | जो न परास्त हुए न मरे हैं | |
− | + | अद्र्घ विक्षिप्त से रणभूमि के किनारे | |
− | + | कनकौए की तरह खड़े हैं | |
− | + | जिनके अधिकार और हथियार | |
− | + | पहले ही छिन चुके हैं | |
− | + | लोकतन्त्र के इस जंगल में | |
− | + | जिन एकलव्यों के अंगूठे कट चुके हैं | |
− | + | जिनका जीवित सर | |
− | + | बीरबल की तरह युद्घभूमि के किनारे | |
− | + | बांस के खम्भे पर टांग दिया गया है | |
− | + | जिन्हें भाषा और धर्म | |
− | + | रंग और जात के नाम पर | |
− | + | अलग अलग बांट दिया गया है | |
− | + | ||
− | + | तुमने तो कहा था | |
− | + | तुमने तो कहा था- | |
− | + | हम लड़ेंगे अन्तिम सॉंस तक | |
− | + | न्याय के लिए़ | |
− | + | तुमने तिरंगे तले की थी घोषणा | |
− | + | कि तमाम खतरों के बावजूद | |
− | + | जिन्दा रहेगा सच | |
− | + | तुमने लिया था संकल्प | |
− | होता है यह | + | कि अपनी आत्मा की अस्मिता |
− | + | रखोगे अक्षुण्ण | |
− | + | रक्त की अन्तिम बूंद तक़ | |
− | + | ||
− | + | पर तुम्हीं ने बांध ली | |
− | + | आंखों पर पटृी | |
− | + | और चुन लिया अपने लिए अंधेरा | |
− | + | ताकि देखना न पड़े | |
− | + | न्याय के लिए जूझते | |
− | + | दम तोड़ते आदमी का चेहरा | |
− | + | ||
− | + | तुम्हें पता था | |
− | + | न्याय और जीवन के लिए | |
− | + | लड़ते आदमी का चेहरा देखना | |
− | + | सचमुच मुष्किल होता है | |
− | + | तब और भी ज्यादा | |
− | + | जब तुम अन्धेरे में हो | |
− | + | और चेहरा मशाल की तरह जल रहा हो़ | |
− | + | तब और भी ज्यादा | |
− | + | जब तुम खड़े हो | |
− | + | मूक दर्शकों की पंक्ति में | |
− | + | ||
− | + | तुम देखते हो और ओढ़ लेते हो मौन | |
− | + | मक्कारी में डूबे पूछते हो | |
− | + | आराम में खलल डालता यह आदमी | |
− | + | आखिर है कौन | |
− | + | उधर अदालत की चौखट पर | |
− | + | सर पटकती है | |
− | + | न्याय की उम्मीद | |
− | + | भीतर बेसाख्ता झूठ बोलता है चश्मदीद़ | |
− | सदियों | + | वहां हथौड़े की ठक ठक के नीचे |
− | + | कराहता है आहत सच | |
− | + | और सहम कर वहीं दुबक जाता है | |
− | + | असहाय सा कोने में | |
− | + | ||
− | + | काले कव्वे से नहीं डरता है झूठ | |
− | + | काले कव्वे की षह पर | |
− | + | इतराता है, गुर्राता है | |
− | + | कानून की किसी उपधारा को | |
− | + | ढाल बनाकर निकल जाता है | |
− | + | प्रजातन्त्र के जंगल में | |
− | एक | + | नए तरीके के साथ नए शिकार पऱ |
− | + | ||
− | + | क्या तुमने सुना है | |
− | + | सिसक- सिसक कर रोता सच | |
− | + | अदालत के उठ जाने के बाद | |
− | + | वहीं किसी अंधेरे कोने में | |
− | + | पत्थर पर सिर टिकाए | |
− | + | दीवारों में तलाशता हुआ संवेदना ? | |
− | + | ||
− | + | जहाँ तुम जाते हो न्याय की उम्मीद में | |
− | + | वहाँ धृतराष्टृ की बगल में | |
− | + | सदियों से खड़ी है गांधारी | |
− | + | अंधी मर्यादा में गर्वोन्नत | |
− | + | देखती नहीं कुछ | |
− | + | सुनती है बस | |
+ | पर फर्क नहीं कर सकती | ||
+ | घायल की कराहट | ||
+ | और अपराधी की गुर्राहट के बीच़ | ||
+ | रेवड़ियां बाँटती है खैरात में | ||
+ | पर अपना ही कुनबा | ||
+ | आ जाता है सामने हरबाऱ | ||
+ | |||
+ | सदियों से खड़ी है गांधारी | ||
+ | जिसकी आंखों पर पटृी | ||
+ | हाथ में तराजू है | ||
+ | और तोलने को कुछ भी नहीं | ||
+ | संविधान की आड़ी तिरछी रेखाओं ने | ||
+ | जिसे ऊँची कुर्सी पर टॉंग रखा है | ||
+ | उसके एक हाथ में | ||
+ | मरी हुई परिभाषाओं से भरी | ||
+ | एक भारी किताब है | ||
+ | दूसरे हाथ में लकड़ी का हथौड़ा है | ||
+ | जिसे दिन दिहाड़े धर दबोचा चौक पर | ||
+ | कानून उस पर बरसता संवैधानिक कोड़ा है | ||
+ | यहां हर नागरिक लकड़ी का घोड़ा है़ | ||
+ | वह गूँगा नहीं है | ||
+ | नक्कारखाने में उसका मौन | ||
+ | एक लाचारी है | ||
+ | जिस अपराधी के पक्ष में | ||
+ | एक डरी हुई चुप्पी है | ||
+ | डसके लिए हथौड़े की ठक- ठक कर | ||
+ | ऑर्डर-ऑर्डर कहता जज | ||
+ | महज़ डुगडुगी बजाता मदारी है़ | ||
+ | |||
+ | जिन्दा आदमी के जले गोष्त की | ||
+ | गन्ध से घबराई ज़ाहिरा | ||
+ | एक और बुर्का ओढ़ लेती है झूठ का | ||
+ | जब मोदी पूछता है | ||
+ | अलग अलग करके बताओ | ||
+ | कितने हिन्दू हैं मरने वालों में | ||
+ | कितने मुस्व्लमान ? | ||
+ | संसद की दीर्घा में बैठा प्रहरी | ||
+ | कुछ और पसर जाता है आराम से | ||
+ | जब समवेत स्वर में कहते हैं सभी | ||
+ | जैसिका को किसी ने नहीं मारा | ||
+ | जैसिका कभी मरी ही नहीं | ||
+ | उसे दफन किया गया है फाईलों में जिन्दा़ | ||
+ | |||
+ | गांधारी के शब्दकोष में आदमी | ||
+ | न जिंदा है न मरा है | ||
+ | अदालत का एक कटघरा है | ||
+ | जहां उसका सच सलीब पर तुलता है | ||
+ | गवाह और अपराधी के बीच | ||
+ | एक अदालती रिश्ता है | ||
+ | जो सच की कब्र पर | ||
+ | फूल की तरह खिलता है़। | ||
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18:02, 1 जनवरी 2012 का अवतरण
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