"गांधारी से संवाद (2) -कुलदीप शर्मा" के अवतरणों में अंतर

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एक अकेला आदमी
+
'''(2)'''
धूप से डरी हुई भीड़ में से उठा
+
तुामने तो की थी प्रतिज्ञा
और धूप को ललकारते हुए
+
कि लड़ोगे तुम
रोप दिया उसने एक पेड़
+
अन्तिम कारण तक
धरती के बीचोंबीच
+
उन सबके लिए
जहां हवा गा रही थी
+
जो लड़ना और जीना भूल चुके हैं
एक उदास धुन
+
जो न परास्त हुए न मरे हैं
इससे बाकी पेड़
+
अद्र्घ विक्षिप्त से रणभूमि के किनारे
जो सहमे सहमे से थे
+
कनकौए की तरह खड़े हैं
सुानहरे भविष्य के स्वप्न बुनने लगे
+
जिनके अधिकार और हथियार
कटे हुए जंगलों पर छा गई
+
पहले ही छिन चुके हैं
हरियाली की संभावनाएं
+
लोकतन्त्र के इस जंगल में
धरती ने एक सांस भरकर
+
जिन एकलव्यों के अंगूठे कट चुके हैं
दक्षिणी ध्रुव की मोहलत बढ़ा दी
+
जिनका जीवित सर
भयभीत पहाड़
+
बीरबल की तरह युद्घभूमि के किनारे
आंखें मलता बैठ गया
+
बांस के खम्भे पर टांग दिया गया है
इत्मीनान से
+
जिन्हें भाषा और धर्म
चुपचाप बैठे पक्षियों में
+
रंग और जात के नाम पर
शुरू हो गई चुहलबाज़ी
+
अलग अलग बांट दिया गया है
फूलों ने आसमान में उड़ती गौरैय्या को
+
 
बधाई दी
+
तुमने तो कहा था   
बादलों ने झुक-झुक कर किया
+
तुमने तो कहा था-
उसका अभिवादन
+
हम लड़ेंगे अन्तिम सॉंस तक
तितलियों ने चुपचाप मना लिया
+
न्याय के लिए़
रंगों का महोत्सव
+
तुमने तिरंगे तले की थी घोषणा
केवल एक पेड़ रोप देने से
+
कि तमाम खतरों के बावजूद
हुआ यह सब
+
जिन्दा रहेगा सच
केवल एक पेड़ रोप देने से
+
तुमने लिया था संकल्प
होता है यह कि आसमान
+
कि अपनी आत्मा की अस्मिता
धीरे धीरे गुनगुनाने लगता है
+
रखोगे अक्षुण्ण
कोई पहाड़ी धुन
+
रक्त की अन्तिम बूंद तक़
जो सोलहसिंगी से स्वां तक
+
 
मेहराब सी फैलती चली जाती है
+
पर तुम्हीं ने बांध ली
जिसे उतारता है बाद में शौंकू गद्दी
+
आंखों पर पटृी
एक ऊॅंची रिड़ी से
+
और चुन लिया अपने लिए अंधेरा
हमारे दिलों तक
+
ताकि देखना न पड़े
इस तरह आसमान उतरता है
+
न्याय के लिए जूझते
एक नवजात शिशु सा
+
दम तोड़ते आदमी का चेहरा
धरती की गोद में
+
 
हज़ारो हज़ार इंद्रधनुष
+
तुम्हें पता था
उतर आते हैं पत्तों में
+
न्याय और जीवन के लिए
हवा गाने लगती है ऋचाएं
+
लड़ते आदमी का चेहरा देखना
हरियाली की खोज में निकला
+
सचमुच मुष्किल होता है
वह कोलम्बस
+
तब और भी ज्यादा
इस तरह पहुंचा आखिर पेड़ तक
+
जब तुम अन्धेरे में हो
तुम सोचो
+
और चेहरा मशाल की तरह जल रहा हो़
उस आदमी के पास होती
+
तब और भी ज्यादा
और एक टुकड़ा ज़मीन
+
जब तुम खड़े हो
तो ज़मीन और आदमी
+
मूक दर्शकों की पंक्ति में
दोनो बच जाते
+
 
टुकड़ा -2 होने से
+
तुम देखते हो और ओढ़ लेते हो मौन
(पर यह उस आदमी का सच नहीं है
+
मक्कारी में डूबे पूछते हो
जो खोज रहा है
+
आराम में खलल डालता यह आदमी
एक टुकड़ा ज़मीन
+
आखिर है कौन
एक और टुकड़ा पाने के लिए)
+
उधर अदालत की चौखट पर
तुम सोचो कि धरती का एक तिनका सुख
+
सर पटकती है
सदियो तक सुरक्षित कर देता है
+
न्याय की उम्मीद
हमारे घोंसले
+
भीतर बेसाख्ता झूठ बोलता है चश्मदीद़
सदियों तक पेड़ गाते हैं
+
वहां हथौड़े की ठक ठक के नीचे
जीवन का समूह गान
+
कराहता है आहत सच
चिड़िया चहचहाकर कह जाती है
+
और सहम कर वहीं दुबक जाता है  
हर सुबह हमारे कान में
+
असहाय सा कोने में
कि धरती के बारे में की गई
+
 
तमाम डरावनी भविष्यवाणियां
+
काले कव्वे से नहीं डरता है झूठ
कोरी अफवाहें हैं
+
काले कव्वे की षह पर
कि जीवन रहेगा अभी यहां
+
इतराता है, गुर्राता है
और आने वाली पीढ़ियां
+
कानून की किसी उपधारा को
नहीं दबेंगी उन मकानों में
+
ढाल बनाकर निकल जाता है  
जिन्हें वे बना रही हैं
+
प्रजातन्त्र के जंगल में
एक पेड़ से हो सकता है यह सब
+
नए तरीके के साथ नए शिकार पऱ
वैसे ही जैसे
+
 
एक पेड़ के न होने से
+
क्या तुमने सुना है
हो सकता है
+
सिसक- सिसक कर रोता सच
रूठ जाए यह हवा
+
अदालत के उठ जाने के बाद
गायब हो जाएं आसमान से बादल
+
वहीं किसी अंधेरे कोने में
मानचित्रों मे ही रह जाएं नदियां
+
पत्थर पर सिर टिकाए
हरियाली खोजें हम सपनों में
+
दीवारों में तलाशता हुआ संवेदना ?
पेड़ के बारे मे सोचकर
+
 
डरें हम
+
जहाँ तुम जाते हो न्याय की उम्मीद में
जैसे दु:स्वपन से जागकर
+
वहाँ धृतराष्टृ की बगल में
डरते हैं बच्चे
+
सदियों से खड़ी है गांधारी
पेड़ लगाता आदमी जानता है
+
अंधी मर्यादा में गर्वोन्नत
कैसा होता है
+
देखती नहीं कुछ
पेड़ के बिना आदमी़
+
सुनती है बस
 +
पर फर्क नहीं कर सकती
 +
घायल की कराहट
 +
और अपराधी की गुर्राहट के बीच़
 +
रेवड़ियां बाँटती है खैरात में
 +
पर अपना ही कुनबा
 +
आ जाता है सामने हरबाऱ
 +
 
 +
सदियों से खड़ी है गांधारी
 +
जिसकी आंखों पर पटृी
 +
हाथ में तराजू है
 +
और तोलने को कुछ भी नहीं
 +
संविधान की आड़ी तिरछी रेखाओं ने
 +
जिसे  ऊँची कुर्सी पर टॉंग रखा है
 +
उसके एक हाथ में  
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मरी हुई परिभाषाओं से भरी
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एक भारी किताब है
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दूसरे हाथ में लकड़ी का हथौड़ा है
 +
जिसे दिन दिहाड़े धर दबोचा चौक पर
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कानून उस पर बरसता संवैधानिक कोड़ा है
 +
यहां हर नागरिक लकड़ी का घोड़ा है़
 +
वह गूँगा नहीं है
 +
नक्कारखाने में उसका मौन
 +
एक लाचारी है
 +
जिस अपराधी के पक्ष में
 +
एक डरी हुई चुप्पी है
 +
डसके लिए हथौड़े की ठक- ठक कर
 +
ऑर्डर-ऑर्डर कहता जज
 +
महज़ डुगडुगी बजाता मदारी है़
 +
 
 +
जिन्दा आदमी के जले गोष्त की
 +
गन्ध से घबराई ज़ाहिरा
 +
एक और बुर्का ओढ़ लेती है झूठ का
 +
जब मोदी पूछता है
 +
अलग अलग करके बताओ
 +
कितने हिन्दू हैं मरने वालों में
 +
कितने मुस्व्लमान ?
 +
संसद की दीर्घा में बैठा प्रहरी
 +
कुछ और पसर जाता है आराम से  
 +
जब समवेत स्वर में कहते हैं सभी
 +
जैसिका को किसी ने नहीं मारा
 +
जैसिका कभी मरी ही नहीं
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उसे दफन किया गया है फाईलों में जिन्दा़
 +
 
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गांधारी के शब्दकोष में आदमी
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न जिंदा है न मरा है
 +
अदालत का एक कटघरा है
 +
जहां उसका सच सलीब पर तुलता है
 +
गवाह और अपराधी के बीच
 +
एक अदालती रिश्ता है
 +
जो सच की कब्र पर
 +
फूल की तरह खिलता है़।
 
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18:02, 1 जनवरी 2012 का अवतरण

गांधारी से संवाद (2) -कुलदीप शर्मा
Kuldeep.jpg
कवि कुलदीप शर्मा
जन्म स्थान (ऊना, हिमाचल प्रदेश)
बाहरी कड़ियाँ आधिकारिक वेबसाइट
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
कुलदीप शर्मा की रचनाएँ

 
(2)
तुामने तो की थी प्रतिज्ञा
कि लड़ोगे तुम
अन्तिम कारण तक
उन सबके लिए
जो लड़ना और जीना भूल चुके हैं
जो न परास्त हुए न मरे हैं
अद्र्घ विक्षिप्त से रणभूमि के किनारे
कनकौए की तरह खड़े हैं
जिनके अधिकार और हथियार
पहले ही छिन चुके हैं
लोकतन्त्र के इस जंगल में
जिन एकलव्यों के अंगूठे कट चुके हैं
जिनका जीवित सर
बीरबल की तरह युद्घभूमि के किनारे
बांस के खम्भे पर टांग दिया गया है
जिन्हें भाषा और धर्म
रंग और जात के नाम पर
अलग अलग बांट दिया गया है

तुमने तो कहा था
तुमने तो कहा था-
हम लड़ेंगे अन्तिम सॉंस तक
न्याय के लिए़
तुमने तिरंगे तले की थी घोषणा
कि तमाम खतरों के बावजूद
जिन्दा रहेगा सच
तुमने लिया था संकल्प
कि अपनी आत्मा की अस्मिता
रखोगे अक्षुण्ण
रक्त की अन्तिम बूंद तक़

पर तुम्हीं ने बांध ली
आंखों पर पटृी
और चुन लिया अपने लिए अंधेरा
ताकि देखना न पड़े
न्याय के लिए जूझते
दम तोड़ते आदमी का चेहरा

तुम्हें पता था
न्याय और जीवन के लिए
लड़ते आदमी का चेहरा देखना
सचमुच मुष्किल होता है
तब और भी ज्यादा
जब तुम अन्धेरे में हो
और चेहरा मशाल की तरह जल रहा हो़
तब और भी ज्यादा
जब तुम खड़े हो
मूक दर्शकों की पंक्ति में

तुम देखते हो और ओढ़ लेते हो मौन
मक्कारी में डूबे पूछते हो
आराम में खलल डालता यह आदमी
आखिर है कौन
उधर अदालत की चौखट पर
सर पटकती है
न्याय की उम्मीद
भीतर बेसाख्ता झूठ बोलता है चश्मदीद़
वहां हथौड़े की ठक ठक के नीचे
कराहता है आहत सच
और सहम कर वहीं दुबक जाता है
असहाय सा कोने में

काले कव्वे से नहीं डरता है झूठ
काले कव्वे की षह पर
इतराता है, गुर्राता है
कानून की किसी उपधारा को
ढाल बनाकर निकल जाता है
प्रजातन्त्र के जंगल में
नए तरीके के साथ नए शिकार पऱ

क्या तुमने सुना है
सिसक- सिसक कर रोता सच
अदालत के उठ जाने के बाद
वहीं किसी अंधेरे कोने में
पत्थर पर सिर टिकाए
दीवारों में तलाशता हुआ संवेदना ?

जहाँ तुम जाते हो न्याय की उम्मीद में
वहाँ धृतराष्टृ की बगल में
सदियों से खड़ी है गांधारी
अंधी मर्यादा में गर्वोन्नत
देखती नहीं कुछ
सुनती है बस
पर फर्क नहीं कर सकती
घायल की कराहट
और अपराधी की गुर्राहट के बीच़
रेवड़ियां बाँटती है खैरात में
पर अपना ही कुनबा
आ जाता है सामने हरबाऱ

सदियों से खड़ी है गांधारी
जिसकी आंखों पर पटृी
हाथ में तराजू है
और तोलने को कुछ भी नहीं
संविधान की आड़ी तिरछी रेखाओं ने
जिसे ऊँची कुर्सी पर टॉंग रखा है
उसके एक हाथ में
मरी हुई परिभाषाओं से भरी
एक भारी किताब है
दूसरे हाथ में लकड़ी का हथौड़ा है
जिसे दिन दिहाड़े धर दबोचा चौक पर
कानून उस पर बरसता संवैधानिक कोड़ा है
यहां हर नागरिक लकड़ी का घोड़ा है़
वह गूँगा नहीं है
नक्कारखाने में उसका मौन
एक लाचारी है
जिस अपराधी के पक्ष में
एक डरी हुई चुप्पी है
डसके लिए हथौड़े की ठक- ठक कर
ऑर्डर-ऑर्डर कहता जज
महज़ डुगडुगी बजाता मदारी है़

जिन्दा आदमी के जले गोष्त की
गन्ध से घबराई ज़ाहिरा
एक और बुर्का ओढ़ लेती है झूठ का
जब मोदी पूछता है
अलग अलग करके बताओ
कितने हिन्दू हैं मरने वालों में
कितने मुस्व्लमान ?
संसद की दीर्घा में बैठा प्रहरी
कुछ और पसर जाता है आराम से
जब समवेत स्वर में कहते हैं सभी
जैसिका को किसी ने नहीं मारा
जैसिका कभी मरी ही नहीं
उसे दफन किया गया है फाईलों में जिन्दा़

गांधारी के शब्दकोष में आदमी
न जिंदा है न मरा है
अदालत का एक कटघरा है
जहां उसका सच सलीब पर तुलता है
गवाह और अपराधी के बीच
एक अदालती रिश्ता है
जो सच की कब्र पर
फूल की तरह खिलता है़।


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