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'''सन्‌ 1973 में [[राही मासूम रज़ा]] का पांचवाँ उपन्यास''' 'दिल एक सादा काग़ज़' प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास के रचना-काल तक सांप्रदायिक दंगे कम हो चुके थे। [[पाकिस्तान]] के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया गया था और [[भारत]] के [[हिन्दू]] तथा [[मुसलमान]] शान्तिपूर्वक जीवन बिताने लगे थे। इसलिए राही ने अपने उपन्यास का आधार बदल दिया। अब वे राजनीतिक समस्या प्रधान उपन्यासों को छोड़कर मूलतः सामाजिक विषयों की ओर उन्मुख हुए। इस उपन्यास में राही ने फ़िल्मी कहानीकारों के जीवन की गतिविधियों आशा-निराशाओं एवं सफलता-असफलता का वास्तविक एवं मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है।
 
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'दिल एक सादा काग़ज़' एक तरह [[आधा गाँव]] से बिल्कुल अलग है। यह आधा गाँव, [[टोपी शुक्ला]], [[हिम्मत जौनपुरी]] और [[ओस की बूँद]] के सिलसिले  की कड़ी है भी और नहीं भी है। दिल एक सादा काग़ज़ ‘ज़ैदी विला’ के उस भूत की कहानी है जिसके कई नाम थे-रफ़्फ़न, सय्यद अली, रअफ़त ज़ैदी, बाग़ी आज़मी। और यह ज़ैदी विला, ढाका और बम्बई के त्रिकोण की कहानी है।
 
'दिल एक सादा काग़ज़' एक तरह [[आधा गाँव]] से बिल्कुल अलग है। यह आधा गाँव, [[टोपी शुक्ला]], [[हिम्मत जौनपुरी]] और [[ओस की बूँद]] के सिलसिले  की कड़ी है भी और नहीं भी है। दिल एक सादा काग़ज़ ‘ज़ैदी विला’ के उस भूत की कहानी है जिसके कई नाम थे-रफ़्फ़न, सय्यद अली, रअफ़त ज़ैदी, बाग़ी आज़मी। और यह ज़ैदी विला, ढाका और बम्बई के त्रिकोण की कहानी है।
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यह कहानी शुरू हुई तो ढाका हिन्दुस्तान में था। फिर वह पूरबी पाकिस्तान में होने लगा। और कहानी के खत्म होते-होते बांग्ला देश में हो गया। एक तरह से यह ढाका की इस यात्रा की कहानी भी है, हालाँकि ढाका इस कहानी में कहीं नहीं है। पहले वहाँ से खत आना शुरू होते हैं और फिर रिफ्यूजी, बस!
 
यह कहानी शुरू हुई तो ढाका हिन्दुस्तान में था। फिर वह पूरबी पाकिस्तान में होने लगा। और कहानी के खत्म होते-होते बांग्ला देश में हो गया। एक तरह से यह ढाका की इस यात्रा की कहानी भी है, हालाँकि ढाका इस कहानी में कहीं नहीं है। पहले वहाँ से खत आना शुरू होते हैं और फिर रिफ्यूजी, बस!
 
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दिल एक सादा काग़ज़ [[बंबई]] के उस फिल्मी माहौल की कहानी भी है जिसकी भूलभुलैया आदमी को भटका देती है। और वह कहीं का नहीं रह जाता। नये अंदाज और नए तेवर के साथ लिखा गया एक बिल्कुल अलग उपन्यास है।
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दिल एक सादा काग़ज़ [[बंबई]] के उस फ़िल्मी माहौल की कहानी भी है जिसकी भूलभुलैया आदमी को भटका देती है। और वह कहीं का नहीं रह जाता। नये अंदाज और नए तेवर के साथ लिखा गया एक बिल्कुल अलग उपन्यास है।
  
  

12:38, 9 अप्रैल 2012 का अवतरण

दिल एक सादा काग़ज़ -राही मासूम रज़ा
दिल एक सादा काग़ज़ उपन्यास का आवरण पृष्ठ
लेखक राही मासूम रज़ा
मूल शीर्षक दिल एक सादा काग़ज़
प्रकाशक राजकमल प्रकाशन
प्रकाशन तिथि 1973
ISBN 81-267-0732-1
देश भारत
पृष्ठ: 211
भाषा हिंदी
विषय सामाजिक
प्रकार उपन्यास

सन्‌ 1973 में राही मासूम रज़ा का पांचवाँ उपन्यास 'दिल एक सादा काग़ज़' प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास के रचना-काल तक सांप्रदायिक दंगे कम हो चुके थे। पाकिस्तान के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया गया था और भारत के हिन्दू तथा मुसलमान शान्तिपूर्वक जीवन बिताने लगे थे। इसलिए राही ने अपने उपन्यास का आधार बदल दिया। अब वे राजनीतिक समस्या प्रधान उपन्यासों को छोड़कर मूलतः सामाजिक विषयों की ओर उन्मुख हुए। इस उपन्यास में राही ने फ़िल्मी कहानीकारों के जीवन की गतिविधियों आशा-निराशाओं एवं सफलता-असफलता का वास्तविक एवं मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है।

कथानक

'दिल एक सादा काग़ज़' एक तरह आधा गाँव से बिल्कुल अलग है। यह आधा गाँव, टोपी शुक्ला, हिम्मत जौनपुरी और ओस की बूँद के सिलसिले  की कड़ी है भी और नहीं भी है। दिल एक सादा काग़ज़ ‘ज़ैदी विला’ के उस भूत की कहानी है जिसके कई नाम थे-रफ़्फ़न, सय्यद अली, रअफ़त ज़ैदी, बाग़ी आज़मी। और यह ज़ैदी विला, ढाका और बम्बई के त्रिकोण की कहानी है।

यह कहानी शुरू हुई तो ढाका हिन्दुस्तान में था। फिर वह पूरबी पाकिस्तान में होने लगा। और कहानी के खत्म होते-होते बांग्ला देश में हो गया। एक तरह से यह ढाका की इस यात्रा की कहानी भी है, हालाँकि ढाका इस कहानी में कहीं नहीं है। पहले वहाँ से खत आना शुरू होते हैं और फिर रिफ्यूजी, बस!

विशेष

दिल एक सादा काग़ज़ बंबई के उस फ़िल्मी माहौल की कहानी भी है जिसकी भूलभुलैया आदमी को भटका देती है। और वह कहीं का नहीं रह जाता। नये अंदाज और नए तेवर के साथ लिखा गया एक बिल्कुल अलग उपन्यास है।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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