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'''रविन्द्र संगीत''' का सम्बन्ध [[रविन्द्रनाथ टैगोर]] से है। गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर ने अपने द्वारा रची कविताओं को गीतों का रूप दिया था, इस प्रकार एक नई संगीत विधा की रचना हुई, जिसे 'रविन्द्र संगीत' कहा गया। शास्त्रीय संगीत की इस शैली ने [[बंगाल (आज़ादी से पूर्व)|बंगाल]] की [[संगीत]] अवधारणा में एक नया आयाम जोड़ा। गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर ने लगभग 2300 गीतों की रचना की, जिनका संगीत '[[भारतीय शास्त्रीय संगीत]]' की [[ठुमरी]] शैली से प्रभावित है। ये गीत प्रकृति के प्रति उनके गहरे लगाव और मानवीय भावनाओं को दर्शाते हैं।
 
'''रविन्द्र संगीत''' का सम्बन्ध [[रविन्द्रनाथ टैगोर]] से है। गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर ने अपने द्वारा रची कविताओं को गीतों का रूप दिया था, इस प्रकार एक नई संगीत विधा की रचना हुई, जिसे 'रविन्द्र संगीत' कहा गया। शास्त्रीय संगीत की इस शैली ने [[बंगाल (आज़ादी से पूर्व)|बंगाल]] की [[संगीत]] अवधारणा में एक नया आयाम जोड़ा। गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर ने लगभग 2300 गीतों की रचना की, जिनका संगीत '[[भारतीय शास्त्रीय संगीत]]' की [[ठुमरी]] शैली से प्रभावित है। ये गीत प्रकृति के प्रति उनके गहरे लगाव और मानवीय भावनाओं को दर्शाते हैं।
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रविन्द्र संगीत ने बंगाली संस्कृति पर एक गहरा प्रभाव डाला तथा इसे बांग्ला देश तथा [[पश्चिम बंगाल]] दोनों की सांस्कृतिक निधि माना गया है। सामाजिक जनचेतना तथा भारतीय स्वाधीनता में गुरुदेव के गीतों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 'रविन्द्र संगीत' एक विशिष्ट संगीत पद्धति के रूप में विकसित हुआ है। इस शैली के कलाकार पारंपरिक पद्धति में ही इन गीतों को प्रस्तुत करते हैं। बीथोवेन की संगीत रचनाओं (सिम्फनीज़) या [[विलायत ख़ाँ|विलायत ख़ाँ]] के [[सितार]] की तरह रविन्द्र संगीत अपनी रचनाओं के गीतात्मक सौन्दर्य की सराहना के लिए एक शिक्षित, बुद्धिमान और सुसंस्कृत दर्शक वर्ग की मांग करता है। [[1941]] में गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर की मृत्यु हो गई, परन्तु उनका गौरव और उनके गीतों का प्रभाव अनन्त है। उन्होंने अपने गीतों में शुद्ध कविता को सृष्टिकर्त्ता, प्रकृति और प्रेम से एकीकृत किया है। मानवीय प्रेम प्रकृति के दृश्यों में मिलकर सृष्टिकर्त्ता के लिए समर्पण में बदल जाता है। उनके 2000 अतुल्य गीतों का संग्रह 'गीतबितान' अर्थात 'गीतों का बागीचा' के रूप में जाना जाता है। इस पुस्तक के चार प्रमुख हिस्से हैं-
 
रविन्द्र संगीत ने बंगाली संस्कृति पर एक गहरा प्रभाव डाला तथा इसे बांग्ला देश तथा [[पश्चिम बंगाल]] दोनों की सांस्कृतिक निधि माना गया है। सामाजिक जनचेतना तथा भारतीय स्वाधीनता में गुरुदेव के गीतों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 'रविन्द्र संगीत' एक विशिष्ट संगीत पद्धति के रूप में विकसित हुआ है। इस शैली के कलाकार पारंपरिक पद्धति में ही इन गीतों को प्रस्तुत करते हैं। बीथोवेन की संगीत रचनाओं (सिम्फनीज़) या [[विलायत ख़ाँ|विलायत ख़ाँ]] के [[सितार]] की तरह रविन्द्र संगीत अपनी रचनाओं के गीतात्मक सौन्दर्य की सराहना के लिए एक शिक्षित, बुद्धिमान और सुसंस्कृत दर्शक वर्ग की मांग करता है। [[1941]] में गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर की मृत्यु हो गई, परन्तु उनका गौरव और उनके गीतों का प्रभाव अनन्त है। उन्होंने अपने गीतों में शुद्ध कविता को सृष्टिकर्त्ता, प्रकृति और प्रेम से एकीकृत किया है। मानवीय प्रेम प्रकृति के दृश्यों में मिलकर सृष्टिकर्त्ता के लिए समर्पण में बदल जाता है। उनके 2000 अतुल्य गीतों का संग्रह 'गीतबितान' अर्थात 'गीतों का बागीचा' के रूप में जाना जाता है। इस पुस्तक के चार प्रमुख हिस्से हैं-
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यह एक स्वीकृत तथ्य है कि '[[भारतीय शास्त्रीय संगीत]]' के तत्वों को 'रविन्द्र संगीत' में एक बहुत ही बुद्धिमान और प्रभावी तरीके से प्रयोग किया गया है। इसे इन गीतों में कथित भावों व मनोदशा को व्यक्त करने हेतु एक इकाई के रूप में ही सीमित रखा गया, जिससे शास्त्रीय संगीत के तत्व गीत के मुख्य भाव के साथ प्रतिद्वन्द्वित न हो पाएँ। इसीलिए कई गीतों में शास्त्रीय संगीत का आंशिक अनुरूप पाया जाता है। लेकिन यह भी देखा गया है कि कुछ गीतों में न केवल रागों व तालों को उनके शुद्ध रूप में अपनाकर, बल्कि कुछ अवसरों में तो [[रविन्द्रनाथ टैगोर]] ने [[राग|रागों]] को बहुत ही रोचक रूप में मिश्रित कर अपनी सबसे सुंदर व बौद्धिक रूप से चुनौतिपूर्ण रचनाएँ प्रस्तुत की हैं।
  
बांग्ला साहित्य के माध्यम से भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नयी जान फूँकने वाले रविन्द्रनाथ टैगोर एक युगद्रष्टा थे। वे [[एशिया]] के प्रथम व्यक्ति थे, जो '[[नोबेल पुरस्कार]]' से सम्मानित किये गए थे। यही नहीं वे एकमात्र ऐसे कवि थे, जिसकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं- [[भारत]] का राष्ट्रगान "[[जन गण मन]]" और [[बांग्ला देश]] का राष्ट्रगान "आमार सोनार बांग्ला" गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं। रविन्द्रनाथ टैगोर ने अपने द्वारा रची कविताओं को गीतों का रूप दे दिया था। इस प्रकार रचना हुई एक नई संगीत विधा की, जिसे 'रविन्द्र संगीत' के नाम से जाना गया। गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर ने लगभग 2300 गीत रचे, जिनका संगीत 'भारतीय शास्त्रीय संगीत' की ठुमरी शैली से प्रभावित है।
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बांग्ला साहित्य के माध्यम से भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नयी जान फूँकने वाले रविन्द्रनाथ टैगोर एक युगद्रष्टा थे। वे [[एशिया]] के प्रथम व्यक्ति थे, जो '[[नोबेल पुरस्कार]]' से सम्मानित किये गए थे। यही नहीं वे एकमात्र ऐसे कवि थे, जिसकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं- [[भारत]] का राष्ट्रगान "[[जन गण मन]]" और [[बांग्ला देश]] का राष्ट्रगान "आमार सोनार बांग्ला" गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं।
 
 
यह एक स्वीकृत तथ्य है कि '[[भारतीय शास्त्रीय संगीत]]' के तत्वों को रविन्द्र संगीत में एक बहुत ही बुद्धिमान और प्रभावी तरीके से इस्तेमाल किया गया है। इसे इन गीतों में कथित भावों व मनोदशा को व्यक्त करने हेतु एक इकाई के रूप में ही सीमित रखा गया है, ताकि शात्रीय संगीत के तत्व गीत के मुख्य भाव के साथ प्रतिद्वन्द्वित न हों। इसीलिए कई गीतों में शास्त्रीय संगीत का आंशिक अनुरूप पाया जाता है। परन्तु यह भी पाया गया है कि कुछ गीतों में न केवल रागों व तालों को उनके शुद्ध रूप में अपनाकर बल्कि कुछ अवसरों में तो रविन्द्रनाथ जी ने रागों को बहुत ही रोचक रूप में मिश्रित कर अपनी सबसे सुंदर व बौद्धिक रूप से चुनौतिपूर्ण रचनाएँ प्रस्तुत की हैं।
 
  
 
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07:05, 28 नवम्बर 2012 का अवतरण

रविन्द्र संगीत का सम्बन्ध रविन्द्रनाथ टैगोर से है। गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर ने अपने द्वारा रची कविताओं को गीतों का रूप दिया था, इस प्रकार एक नई संगीत विधा की रचना हुई, जिसे 'रविन्द्र संगीत' कहा गया। शास्त्रीय संगीत की इस शैली ने बंगाल की संगीत अवधारणा में एक नया आयाम जोड़ा। गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर ने लगभग 2300 गीतों की रचना की, जिनका संगीत 'भारतीय शास्त्रीय संगीत' की ठुमरी शैली से प्रभावित है। ये गीत प्रकृति के प्रति उनके गहरे लगाव और मानवीय भावनाओं को दर्शाते हैं।

सांस्कृतिक निधि

रविन्द्र संगीत ने बंगाली संस्कृति पर एक गहरा प्रभाव डाला तथा इसे बांग्ला देश तथा पश्चिम बंगाल दोनों की सांस्कृतिक निधि माना गया है। सामाजिक जनचेतना तथा भारतीय स्वाधीनता में गुरुदेव के गीतों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 'रविन्द्र संगीत' एक विशिष्ट संगीत पद्धति के रूप में विकसित हुआ है। इस शैली के कलाकार पारंपरिक पद्धति में ही इन गीतों को प्रस्तुत करते हैं। बीथोवेन की संगीत रचनाओं (सिम्फनीज़) या विलायत ख़ाँ के सितार की तरह रविन्द्र संगीत अपनी रचनाओं के गीतात्मक सौन्दर्य की सराहना के लिए एक शिक्षित, बुद्धिमान और सुसंस्कृत दर्शक वर्ग की मांग करता है। 1941 में गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर की मृत्यु हो गई, परन्तु उनका गौरव और उनके गीतों का प्रभाव अनन्त है। उन्होंने अपने गीतों में शुद्ध कविता को सृष्टिकर्त्ता, प्रकृति और प्रेम से एकीकृत किया है। मानवीय प्रेम प्रकृति के दृश्यों में मिलकर सृष्टिकर्त्ता के लिए समर्पण में बदल जाता है। उनके 2000 अतुल्य गीतों का संग्रह 'गीतबितान' अर्थात 'गीतों का बागीचा' के रूप में जाना जाता है। इस पुस्तक के चार प्रमुख हिस्से हैं-

  1. पूजा (भक्ति)
  2. प्रेम (प्यार)
  3. प्रकृति (प्रकृति)
  4. विचित्रा (विविध)

प्रयोग

यह एक स्वीकृत तथ्य है कि 'भारतीय शास्त्रीय संगीत' के तत्वों को 'रविन्द्र संगीत' में एक बहुत ही बुद्धिमान और प्रभावी तरीके से प्रयोग किया गया है। इसे इन गीतों में कथित भावों व मनोदशा को व्यक्त करने हेतु एक इकाई के रूप में ही सीमित रखा गया, जिससे शास्त्रीय संगीत के तत्व गीत के मुख्य भाव के साथ प्रतिद्वन्द्वित न हो पाएँ। इसीलिए कई गीतों में शास्त्रीय संगीत का आंशिक अनुरूप पाया जाता है। लेकिन यह भी देखा गया है कि कुछ गीतों में न केवल रागों व तालों को उनके शुद्ध रूप में अपनाकर, बल्कि कुछ अवसरों में तो रविन्द्रनाथ टैगोर ने रागों को बहुत ही रोचक रूप में मिश्रित कर अपनी सबसे सुंदर व बौद्धिक रूप से चुनौतिपूर्ण रचनाएँ प्रस्तुत की हैं।

बांग्ला साहित्य के माध्यम से भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नयी जान फूँकने वाले रविन्द्रनाथ टैगोर एक युगद्रष्टा थे। वे एशिया के प्रथम व्यक्ति थे, जो 'नोबेल पुरस्कार' से सम्मानित किये गए थे। यही नहीं वे एकमात्र ऐसे कवि थे, जिसकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं- भारत का राष्ट्रगान "जन गण मन" और बांग्ला देश का राष्ट्रगान "आमार सोनार बांग्ला" गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं।


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