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और उसमें प्राण का संचार होते।  
 
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सो गया रख तूलिका दीपक-चितेरा।’  
 
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इन पंक्तियों में जीवन-प्रभात की जो अनुभूति है, वही प्रस्तुत [[कविता|कविताओं]] में ज्वाला बनकर फट निकली है। अकारण नहीं कि वे गा उठी हैं–
 
इन पंक्तियों में जीवन-प्रभात की जो अनुभूति है, वही प्रस्तुत [[कविता|कविताओं]] में ज्वाला बनकर फट निकली है। अकारण नहीं कि वे गा उठी हैं–
 
‘इन साँसों को आज जला मैं,
 
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लपटों की माला करती हूँ।’</poem>  
 
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05:09, 2 अप्रैल 2013 का अवतरण

अग्निरेखा -महादेवी वर्मा
अग्निरेखा का आवरण पृष्ठ
कवि महादेवी वर्मा
प्रकाशक राजकमल प्रकाशन
प्रकाशन तिथि 1990 (पहला संस्करण)
ISBN 978-81-7178-933
देश भारत
भाषा हिंदी
प्रकार काव्य संग्रह
मुखपृष्ठ रचना सजिल्द

अग्निरेखा में महादेवी वर्मा की अंतिम दिनों में रची गई कविताएँ संगृहीत हैं, जो मरणोपरांत 1990 में प्रकाशित हुआ। जिसकी रचनाएँ पाठकों को अभिभूत करती हैं और आश्चर्यचकित भी। आश्चर्यचकित इस अर्थ में कि महादेवी-काव्य में ओतप्रोत वेदना और करुणा का वह स्वर, जो कब से उनकी पहचान बन चुका है, यहाँ एकदम अनुपस्थित है। अपने आपको ‘नीरभरी दुख की बदली’ कहने वाली महादेवी अब जहाँ 'ज्वाला के पर्व’ की बात करती हैं वही ‘आँधी की राह’ चलने का आहवान भी। ‘वशी’ का स्वर अब ‘पांचजन्य’ के स्वर में बदल गया है और ‘हर ध्वंस-लहर में जीवन लहराता’ दिखाई देता है।

सारांश

अपनी काव्य-यात्रा के पहले महत्त्वपूर्ण दौर का समापन करते हुए महादेवीजी ने कहा था–

‘देखकर निज कल्पना साकार होते;
और उसमें प्राण का संचार होते।
सो गया रख तूलिका दीपक-चितेरा।’

इन पंक्तियों में जीवन-प्रभात की जो अनुभूति है, वही प्रस्तुत कविताओं में ज्वाला बनकर फट निकली है। अकारण नहीं कि वे गा उठी हैं–
‘इन साँसों को आज जला मैं,
लपटों की माला करती हूँ।’

कहना न होगा कि महादेवीजी के इस काव्यताप को अनुभव करते हुए हिन्दी का पाठक-जगत उसके पीछे छुपी उनकी युगीन संवेदना से निश्चय ही अभिभूत हुआ होगा।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अग्निरेखा (हिंदी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 31 मार्च, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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