"आदित्य चौधरी -फ़ेसबुक पोस्ट नवम्बर 2013" के अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
छो (Text replace - "सन्यास" to "सन्न्यास")
पंक्ति 12: पंक्ति 12:
 
|  
 
|  
 
<poem>
 
<poem>
मैंने कहा "सन्यास ही एकमात्र ऐसा 'पलायन' है जिसे समाज ने प्रतिष्ठा दी हुई है।"
+
मैंने कहा "सन्न्यास ही एकमात्र ऐसा 'पलायन' है जिसे समाज ने प्रतिष्ठा दी हुई है।"
 
कुछ पाठकों ने शंका की और कुछ ने मुझे शिक्षित-दीक्षित करने की कृपा भी की...
 
कुछ पाठकों ने शंका की और कुछ ने मुझे शिक्षित-दीक्षित करने की कृपा भी की...
सन्यास पर मेरा विचार-
+
सन्न्यास पर मेरा विचार-
जो व्यक्ति, सन्यासी के रूप में, समाज में अपनी पहचान या प्रतिष्ठा चाहता है, तो उसका सन्यास उसी क्षण अर्थहीन हाे जाता है। सन्यास एक मन:स्थिति है न कि जीवनशैली, एक दृष्टिकोण है न कि विचारधारा, एक अंतरचेतना है न कि बाह्य इंद्रियों द्वारा अर्जित ज्ञान।
+
जो व्यक्ति, सन्न्यासी के रूप में, समाज में अपनी पहचान या प्रतिष्ठा चाहता है, तो उसका सन्न्यास उसी क्षण अर्थहीन हाे जाता है। सन्न्यास एक मन:स्थिति है न कि जीवनशैली, एक दृष्टिकोण है न कि विचारधारा, एक अंतरचेतना है न कि बाह्य इंद्रियों द्वारा अर्जित ज्ञान।
यह मन:स्थिति मूल रूप से 'सहजता' है। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि मनुष्य यदि सहजता को प्राप्त हो जाता है तो वह सन्यासी होता है। ध्यान रहे कि स्वयं सिद्ध सहजता, सन्यास नहीं वरना तो सब जानवर सन्यासी होते... यह वह सहजता है जो कोई व्यक्ति अपने विचार, विवेक और ज्ञान के अनुभवों के बाद धारण करता है लेकिन ऐसा होने की संभावना बहुत कम ही होती है।
+
यह मन:स्थिति मूल रूप से 'सहजता' है। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि मनुष्य यदि सहजता को प्राप्त हो जाता है तो वह सन्न्यासी होता है। ध्यान रहे कि स्वयं सिद्ध सहजता, सन्न्यास नहीं वरना तो सब जानवर सन्न्यासी होते... यह वह सहजता है जो कोई व्यक्ति अपने विचार, विवेक और ज्ञान के अनुभवों के बाद धारण करता है लेकिन ऐसा होने की संभावना बहुत कम ही होती है।
  
 
पलायन पर मेरा विचार-
 
पलायन पर मेरा विचार-
 
अपनी-अपनी समझ से, हम मनुष्य के निर्माण के लिए उत्तरदायी प्रकृति को माने या ईश्वर को लेकिन निश्चित रूप से मनुष्य का निर्माण अपनी ज़िम्मेदारियों से भागने के लिए नहीं हुआ। न ही ईश्वर किसी पलायनवादी से प्रसन्न हो सकता है।
 
अपनी-अपनी समझ से, हम मनुष्य के निर्माण के लिए उत्तरदायी प्रकृति को माने या ईश्वर को लेकिन निश्चित रूप से मनुष्य का निर्माण अपनी ज़िम्मेदारियों से भागने के लिए नहीं हुआ। न ही ईश्वर किसी पलायनवादी से प्रसन्न हो सकता है।
भारत को आवश्यकता है स्वामी विवेकानंद जी द्वारा प्रचारित प्रसिद्ध मंत्र 'उत्तिष्ठ जाग्रत' या 'उत्तिष्ठ भारत' की न कि किसी छद्म त्याग की। ऐसे सन्यासी का क्या अर्थ जो अपने पड़ोस में रोते बच्चे की आवाज़ को अनसुना करके अपने अपने ज्ञान-ध्यान में व्यस्त हो...
+
भारत को आवश्यकता है स्वामी विवेकानंद जी द्वारा प्रचारित प्रसिद्ध मंत्र 'उत्तिष्ठ जाग्रत' या 'उत्तिष्ठ भारत' की न कि किसी छद्म त्याग की। ऐसे सन्न्यासी का क्या अर्थ जो अपने पड़ोस में रोते बच्चे की आवाज़ को अनसुना करके अपने अपने ज्ञान-ध्यान में व्यस्त हो...
 
</poem>
 
</poem>
 
| [[चित्र:Sanyans-hi-palayan.jpg|250px|center]]
 
| [[चित्र:Sanyans-hi-palayan.jpg|250px|center]]
पंक्ति 27: पंक्ति 27:
 
|  
 
|  
 
<poem>
 
<poem>
'सन्यास' ही एकमात्र  
+
'सन्न्यास' ही एकमात्र  
 
ऐसा 'पलायन' है  
 
ऐसा 'पलायन' है  
 
जिसे समाज ने प्रतिष्ठा दी हुई है
 
जिसे समाज ने प्रतिष्ठा दी हुई है

12:04, 2 मई 2015 का अवतरण

आदित्य चौधरी फ़ेसबुक पोस्ट
पोस्ट संबंधित चित्र दिनांक

मैंने कहा "सन्न्यास ही एकमात्र ऐसा 'पलायन' है जिसे समाज ने प्रतिष्ठा दी हुई है।"
कुछ पाठकों ने शंका की और कुछ ने मुझे शिक्षित-दीक्षित करने की कृपा भी की...
सन्न्यास पर मेरा विचार-
जो व्यक्ति, सन्न्यासी के रूप में, समाज में अपनी पहचान या प्रतिष्ठा चाहता है, तो उसका सन्न्यास उसी क्षण अर्थहीन हाे जाता है। सन्न्यास एक मन:स्थिति है न कि जीवनशैली, एक दृष्टिकोण है न कि विचारधारा, एक अंतरचेतना है न कि बाह्य इंद्रियों द्वारा अर्जित ज्ञान।
यह मन:स्थिति मूल रूप से 'सहजता' है। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि मनुष्य यदि सहजता को प्राप्त हो जाता है तो वह सन्न्यासी होता है। ध्यान रहे कि स्वयं सिद्ध सहजता, सन्न्यास नहीं वरना तो सब जानवर सन्न्यासी होते... यह वह सहजता है जो कोई व्यक्ति अपने विचार, विवेक और ज्ञान के अनुभवों के बाद धारण करता है लेकिन ऐसा होने की संभावना बहुत कम ही होती है।

पलायन पर मेरा विचार-
अपनी-अपनी समझ से, हम मनुष्य के निर्माण के लिए उत्तरदायी प्रकृति को माने या ईश्वर को लेकिन निश्चित रूप से मनुष्य का निर्माण अपनी ज़िम्मेदारियों से भागने के लिए नहीं हुआ। न ही ईश्वर किसी पलायनवादी से प्रसन्न हो सकता है।
भारत को आवश्यकता है स्वामी विवेकानंद जी द्वारा प्रचारित प्रसिद्ध मंत्र 'उत्तिष्ठ जाग्रत' या 'उत्तिष्ठ भारत' की न कि किसी छद्म त्याग की। ऐसे सन्न्यासी का क्या अर्थ जो अपने पड़ोस में रोते बच्चे की आवाज़ को अनसुना करके अपने अपने ज्ञान-ध्यान में व्यस्त हो...

Sanyans-hi-palayan.jpg
25 नवम्बर, 2013

'सन्न्यास' ही एकमात्र
ऐसा 'पलायन' है
जिसे समाज ने प्रतिष्ठा दी हुई है

Sanyans-facebook-post-2.jpg
24 नवम्बर, 2013

हमें जीवंत और ऊर्जावान बने रहने के लिए जो ऊर्जा के स्रोत अनिवार्यत: चाहिए उसमें
चुनौती (Challenge),
विस्मय (Surprise),
रचनात्मकता (Creativity) और
जिज्ञासा (Curiosity)
मुख्य हैं।
हमें कुछ न कुछ ऐसा करते रहना चाहिए कि जिससे ये ऊर्जा के स्रोत बने रहें।
इनके बिना, जीवन पूर्णत: नीरस और उदासीन होता है।

Hame-jivant-aur-urjavan -Aditya Chaudhary Facebook Post.jpg
24 नवम्बर, 2013

उपदेश मरते नहीं
उपदेश अमर हैं
उपदेश हमेशा रहेंगे
उपदेशों की सँख्या में कोई कमी भी नहीं होती
यदि कोई उपदेशों को मान लेता तो
रोज़ाना ये उपदेश दिए ही क्यों जाते ?
सँख्या में भी एक-आध तो कम होता...
पर एक भी कम नहीं हुआ...
ध्यान देने की बात यह है कि
जो उपदेश देता है उसे भी मालूम होता है कि
सुनने वाला, उपदेश को मानेगा नहीं और
सुनने वाला भी यही सोचता है कि
वाह ! उपदेश तो बहुत अच्छा है पर क्या करें...
अगर मान लिया तो फिर उपदेश ही काहे का ?
मानने पर तो उपदेश का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा
इसलिए उपदेशक और श्रोता दोनों ही उपदेश की रक्षा करते हैं
उपदेश देने वाले और सुनने वाले दोनों ही धन्य हैं...

Updesh-marate-nahi -Aditya Chaudhary Facebook Post.jpg
24 नवम्बर, 2013

                 हमारे देश में जो क़ानून,
व्यावहारिक तर्कों को आधार लेकर बनाए जाते हैं
                वही क़ानून, पुलिस द्वारा
अव्यावहारिक तर्कों का सहारा लेकर लागू किए जाते हैं।

Hamare-desh-me -Aditya Chaudhary Facebook Post.jpg
24 नवम्बर, 2013

भारत का सर्वोच्च पद्म सम्मान, भारतरत्न से सम्मानित व्यक्ति, सम्मान देने वालों को यदि मूर्ख बता रहा है तो और कुछ हो न हो यह तो निर्विवाद ही है कि जिस व्यक्ति को यह सम्मान दिया गया है वह इस सम्मान से बड़ा है। निश्चित ही वैज्ञानिक श्री राव की गंभीर प्रतिष्ठा को किसी पद्म पुरस्कार की अपेक्षा नहीं है।
कोई भी सम्मान या पुरस्कार यदि किसी कुपात्र को दिया जाता है तो उन व्यक्तियों की प्रतिष्ठा को बहुत धक्का पहुँचता है जिनको कि वास्तविक योग्यता के आधार पर पुरस्कृत या सम्मानित किया जाता है। यहाँ उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है पर सभी जानते हैं कि भारतरत्न मिलने वालों की सूची में कुछ नाम ऐसे भी हैं जो इस सम्मान के योग्य नहीं हैं।
सचिन तेन्दुलकर नि:संदेह हमारे देश की शान हैं। उनका क्रिकेट के मैदान में आना ही हमें स्फूर्ति से भर देता था। सचिन को सम्मानित या पुरस्कृत करना हम सभी के लिए अपार हर्ष का विषय है लेकिन हॉकी के महान खिलाड़ी ध्यानचंद जी से सचिन की तुलना करना व्यर्थ है। मेजर ध्यानचंद को भारतरत्न सम्मान से सम्मानित किया जाना तो एक बहुत ही सामान्य सी बात है। सही मायने में तो मेजर ध्यानचंद की प्रतिमा, संसद, राजपथ, इंडियागेट आदि पर लगनी चाहिए।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सारी दुनिया हिटलर से दहशत खाती थी। जर्मनी में किसी की हिम्मत नहीं थी कि हिटलर का प्रस्ताव ठुकरा दे। जर्मनी में, हिटलर के सामने, हिटलर के प्रस्ताव को ठुकराने वाले मेजर ध्यानचंद ही थे?
ध्यानचंद जी भारत के एकमात्र खिलाड़ी हैं जो भारत में ही नहीं पूरे विश्व में, अपने जीवनकाल में ही किंवदन्ती ('मिथ') बन गए थे। यह सौभाग्य अभी तक किसी खिलाड़ी को प्राप्त नहीं है।

Bharat-ratna-facebook-post.jpg
24 नवम्बर, 2013

जो किसी का एहसान लेने से बचते हैं
वो किसी पर एहसान करने से भी बचते हैं
ऐसे लोग शायद किसी के निकट भी नहीं होते...
कुछ यूँ कहें कि-
समंदर नदियों से जल लेकर ही
बादल बनकर दोबारा बरसता है।

Jo-kisi-ka-ehsan -Aditya Chaudhary Facebook Post.jpg
21 नवम्बर, 2013

कोई मर जाए
सहर होने पर
दूर कहीं

ऐसा तो
ज़माने का
दस्तूर नहीं

एक मौक़ा
उन्हें भी
दो यारो

जिनको
जीने का
ज़रा भी
शऊर नहीं

Koi-mar-jaye -Aditya Chaudhary Facebook Post.jpg
21 नवम्बर, 2013

मेरे एक पूर्व कथन पर पाठकों ने प्रश्न किए हैं कि कैसे पता चले किसी की नीयत का ?
मैंने लिखा था- "दोस्त का मूल्याँकन करना हो या जीवन साथी चुनना हो, तो... केवल और केवल उसकी 'नीयत' देखनी चाहिए। नीयत का स्थान सर्वोपरि है। बाक़ी सारी बातें तो महत्वहीन हैं। जैसे... रूप, रंग, गुण, शरीर, धन, प्रतिभा, शिक्षा, बुद्धि, ज्ञान आदि..."
मेरा उत्तर प्रस्तुत है:-
/) मेरा अभिप्राय केवल इतना था कि हम, रूप, रंग, गुण, शरीर, धन, प्रतिभा, शिक्षा, बुद्धि, ज्ञान आदि... के आधार पर ही चुनाव करते हैं। किसी को यदि चुन रहे हैं तो हमें उसकी नीयत को अनदेखा नहीं करना चाहिए। हम यह जानते हुए भी कि नीयत बुरी है, अनदेखा करते हैं जिसका कारण बहुत सीधा-सादा होता है। जब हम अपनी नीयत के बारे में सोचते हैं कि क्या हमारी नीयत अच्छी है? जो हम किसी की नीयत को बुरा समझें!
/) हम मित्र या जीवन साथी को चुनते या मूल्याँकन करते समय नीयत के अलावा कुछ और ही देखते हैं। नीयत देखने से तो हम बचते हैं क्योंकि हम स्वयं ही नीयत के कौन से अच्छे होते हैं जो उसकी नीयत देखें... वैसे भी दूसरे कारण अधिक रुचिकर और आकर्षक होते हैं। अक्सर सुनने में आता है "मुझे कोई भाई साब टाइप का पति नहीं चाहिए" या "मुझे कोई बहन जी टाइप की पत्नी नहीं चाहिए।"
/) सीधी सी बात है भई! अच्छी नीयत वाला लड़का तो 'भाई साब टाइप' ही होगा और अच्छी नीयत वाली लड़की भी 'बहन जी टाइप' ही होगी। (मुझे मालूम है कि मैं इन पंक्तियों को लिखकर, बहुतों को नाराज़ कर रहा हूँ...)। इन 'भाई साब' और 'बहन जी' को बड़ी मुश्किल से दोस्त और जीवन साथी मिलते हैं। लेकिन ये बहुत सुखी और आनंदित जीवन जीते हैं।
/) क्या ये सच नहीं है कि यदि हमें बिल्कुल अपनी नीयत जैसा ही कोई व्यक्ति मिल जाय तो हम ही सबसे पहले उससे दूर भागेंगे क्योंकि हम अपनी नीयत की अस्लियत जानते हैं। यही सोचकर हम समझौता कर लेते हैं कि चलो हमसे तो अच्छी नीयत का ही होगा। दूसरे की नज़र में हम कितने भी अच्छी नीयत वाले बनें लेकिन हमें काफ़ी हद तक अपना तो पता होता है।
/) जिस क्षण हमारे मन में यह प्रश्न आता है कि फ़लाँ व्यक्ति सत्यनिष्ठ है या नहीं ? समझ लीजिए कि उसके सत्यनिष्ठ होने की संभावना डावांडोल है। किसी ईमानदार व्यक्ति की ईमानदारी पर कभी प्रश्नचिन्ह नहीं होता। जिस पर प्रश्न चिन्ह हो वह नीयत का साफ़ नहीं।
... लेकिन ज़रूरत क्या पड़ी दूसरे की नीयत जाँचने की ? यदि हमारी नीयत साफ़ है तो सामने वाले की नीयत कैसी भी हो, क्या फ़र्क़ पड़ता है ? अक्सर दूसरे की नीयत पर शक़ करने का अर्थ ही यह है कि हमारी नीयत में खोट है। जब बात लेन-देन की हो तो वह व्यापार की भाषा है, दोस्ती या प्यार की नहीं।
/) और अंत में एक बात और... कि यह सरासर झूठ होता है कि हमें फ़लां की ख़राब नीयत का पता नहीं था। असल में हम जानते हुए भी अनदेखा करते हैं।

Mere-kathan-facebook-post.jpg
17 नवम्बर, 2013

         बुद्धिमान व्यक्ति, अपनी सफलता, बुद्धि के बल पर प्राप्त करना पसंद करता है, चालाकी के बल पर नहीं।
यदि आप चालाकी से सफल होना चाह रहे हैं तो बहुत अच्छी तरह जान लीजिए कि आप कुछ भी हो सकते हैं लेकिन बुद्धिमान नहीं।
         चालाकी, अनुभव का नतीजा है और समाज में यह बुद्धि के लिए सबसे बड़ी चुनौती भी है। बुद्धिमान व्यक्ति अक्सर चालाक व्यक्ति से परास्त हो जाता है।
चालाकी, बुद्धिमत्ता का भ्रम मात्र पैदा कर सकती है स्वयं बुद्धि कभी नहीं बन सकती।

Buddhiman-vyakti -Aditya Chaudhary Facebook Post.jpg
16 नवम्बर, 2013

     जब कोई व्यक्ति, किसी दूसरे की बुद्धि या प्रतिभा से प्रभावित या चमत्कृत हो जाने के बावजूद भी अपने किसी कुंठा या पूर्वाग्रह के कारण इसे छुपाता है या अनदेखा करता है तो उसकी इस ओछी हरक़त पर उसका आइना ही नहीं समूचा अस्तित्व उस पर हँसता है।
     जो व्यक्ति दूसरों की प्रतिभा, बुद्धि का लाभ उठाकर स्वयं तथाकथित सफलता प्राप्त कर लेता है और पात्र को श्रेय नहीं देता या नहीं मिलने देता वह न तो कभी आनंद से जी पाता है और न ही शांति से मृत्यु को प्राप्त होता है।
     मैंने बहुत पहले लिखा था कि जो दूसरों के कांधे पर रखकर बंदूक़ चलाते हैं उनके ख़ुद के काँधे कभी मज़बूत नहीं होते।

Jab-koi-vaykti -Aditya Chaudhary Facebook Post.jpg
16 नवम्बर, 2013

पैसे से ज़िंदगी गुज़ारी जा सकती है
लेकिन ज़िंदगी जीने के लिए तो
प्रेम ही चाहिये
जो कि निश्चित ही
पैसे से नहीं ख़रीदा जा सकता

Paise-se-zindagi -Aditya Chaudhary Facebook Post.jpg
14 नवम्बर, 2013

दोस्त का मूल्याँकन करना हो या जीवन साथी चुनना हो,
                        तो...
केवल और केवल उसकी 'नीयत' देखनी चाहिए।
नीयत का स्थान सर्वोपरि है।
बाक़ी सारी बातें तो महत्वहीन हैं।
                        जैसे...
रूप, रंग, गुण, शरीर, धन, प्रतिभा, शिक्षा, बुद्धि, ज्ञान आदि...

Dost-ka-mulyankan -Aditya Chaudhary Facebook Post.jpg
14 नवम्बर, 2013

राजनीति का क्षेत्र, विचित्र है। यहाँ पूत के पाँव पालने में नहीं दिखते बल्कि तब दिखते हैं जब वह कुर्सी पर विराजमान होकर वहाँ से न हटने के लिए हाथ-पैर पटकता है। सत्ता की अपनी एक भाषा और संस्कृति होती है। जो सत्ता में आता है इसे अपनाता है। यदि नहीं अपनाता है तो सत्ता में नहीं रह पाता।
संघर्ष के चलते ही जो दिवंगत हो जाते हैं या जो सत्ता में नहीं पहुँच पाते या सत्ता प्राप्ति के बाद अल्प समय में ही दिवंगत हो जाते हैं, वे सदैव जनता के प्रिय नायक बने रहते हैं। सत्ता में रहकर जन प्रिय रहना बड़ा कठिन होता है, शायद असंभव।
विपक्ष में रहकर, उदारता और समझौता विहीन स्वतंत्र निर्णयों की पूरी सुविधा होती है। जबकि सत्ता पक्ष का संकोची और समझौतावादी होना सत्ता को चलाने और सत्ता में बने रहने की मजबूरी है।
जो सत्ता में नहीं रहे या यँू कहें कि भारत के प्रधानमंत्री नहीं बने वे सत्ता में रहने के बाद भी जनप्रिय रह पाते यह कहना कठिन है।
क्यूबा (कुबा) में, चे ग्वेरा, फ़िदेल कास्त्रो से अधिक जनप्रिय नायक हैं। रूस में, स्टालिन, लेनिन से अधिक जनप्रिय माने गए थे। भारत में, पटेल, नेहरू से अधिक जनप्रिय नायक माने जाते हैं और भारत में ही सुभाष, गाँधी से अधिक जनप्रिय नायक माने जाते हैं।
इसी तरह कुछ और बहुत महत्वपूर्ण नाम भी हैं जैसे- डॉ. आम्बेडकर, राम मनोहर लोहिया, लोकनायक जयप्रकाश... और भी कई नाम हैं जो लिए जा सकते हैं, जो प्रधानमंत्री बन सकते थे।
हमें अपने नेताओं का मूल्याँकन करते समय प्रजातंत्र की सीमाओं में विचरण करने वाली राजनैतिक परिस्थितियों का मूल्याँकन भी करना चाहिए अन्यथा हमारा मूल्याँकन निष्पक्ष नहीं होगा।

Raajniti-ka-kshetra -Aditya Chaudhary Facebook Post.jpg
14 नवम्बर, 2013

यूँ तो बहुत से कारण हैं, जिनसे मनुष्य, जानवरों से भिन्न है- जैसे कि हँसना, अँगूठे का प्रयोग, सोचने की क्षमता आदि... लेकिन वह कुछ और ही है जिसने मनुष्य को हज़ारों वर्ष तक चले, दो-दो हिम युगों को सफलता पूर्वक सहन करने की क्षमता प्रदान की।
प्रकृति की यह देन है 'पसीना'।
मनुष्य, जानवरों को भोजन बनाने की चाह में जानवरों से ज़्यादा दूरी तक भाग पाता था। पसीना बहते रहने के कारण मनुष्य का शारीरिक तापमान नियंत्रित रहता था। जानवर पसीना न बहने के कारण बहुत अधिक दूरी तक भाग नहीं पाते थे। पसीना न बहने से उनके शरीर का बढ़ता तापमान उनको रुकने पर मजबूर कर देता था और उन्हें हर हाल में लम्बे समय के लिए रुक जाना होता था।
जानवरों में मुख्य रूप से घोड़ा एक ऐसा जानवर है जो पसीना बहाने में लगभग मनुष्य की तरह ही है।
इसलिए शिकार करने में, घोड़ा मनुष्य का साथी भी बना और वाहन भी।

Manushya-aur-jaanvar-facebook-post.jpg
13 नवम्बर, 2013

जब बुद्धि थी तब अनुभव नहीं था अब अनुभव है तो बुद्धि नहीं है।
जब विचार थे तब शब्द नहीं थे, अब शब्द हैं तो विचार नहीं हैं।
जब भूख थी तब भोजन नहीं था अब भोजन है तो भूख नहीं है।
जब नींद थी तब बिस्तर नहीं था अब बिस्तर है तो नींद नहीं है।
जब दोस्त थे तो समझ नहीं थी अब समझ है तो दोस्त नहीं हैं।
जब सपने थे तब रास्ते नहीं थे अब रास्ते हैं तो सपने नहीं हैं।
जब मन था तो धन नहीं था अब धन है तो मन नहीं है।
जब उम्र थी तो प्रेम नहीं था अब प्रेम है तो उम्र नहीं है।
एक पुरानी कहावत भी है न कि-
जब दांत थे तो चने नहीं थे अब चने हैं तो दांत नहीं हैं।
और अंत में-
जब फ़ुर्सत थी तो फ़ेसबुक नहीं था अब फ़ेसबुक है तो...

Fursat-facebook-post.jpg
11 नवम्बर, 2013

दिल को समझाया, बहाने भर को
आज ज़िंदा हैं, फ़साने भर को

वो जो इक शाम जिससे यारी थी,
आज हासिल है, ज़माने भर को

बाद मुद्दत के हसरतों ने कहा
तुमसे मिलते हैं, सताने भर को

तेरी ख़ुशी से हम हैं आज ख़ुश कितने
तुझसे मिलना है, बताने भर को

कौन कहता है बेवफ़ा तुझको
तूने चाहा था दिखाने भर को

Fasane-bhar-ko -Aditya Chaudhary Facebook Post.jpg
9 नवम्बर, 2013

'प्रेम' व्यक्ति से होता है और उसकी यथास्थिति में ही होता है
जबकि 'श्रद्धा' किसी की प्रतिष्ठा के प्रति होती है
जो कि प्रतिष्ठा का क्षय होने से समाप्त हो जाती है
इसीलिए प्रेम शाश्वत और सर्वश्रेष्ठ है
श्रद्धा क्षणभंगुर है
और निश्चित ही, प्रेम की भांति
परम पद प्राप्त नहीं कर सकती
इसलिए किसी व्यक्ति से या ईश्वर से 'प्रेम' करने वाले
सदैव तृप्त और मस्त रहते हैं
जबकि 'श्रद्धा' रखने वाले
सदैव सशंकित और असमंजस से घिरे हुए...

Shraddha-facebook-post.jpg
6 नवम्बर, 2013

दोस्ती 'हो' जाती
और
दुश्मनी 'की' जाती है

Dosti-dushmani-facebook-post.jpg
6 नवम्बर, 2013

अक्सर सुनने में आता है-
असफलता और विपरीत परिस्थिति उसी व्यक्ति को अधिक मिलती है, जिसमें इनका का सामना करने की क्षमता होती है।
इसका अर्थ क्या है? क्या ऐसा होने में भाग्य या नियति की कोई भूमिका है?
नहीं ऐसा नहीं है।
इसका कारण सीधा-सादा है-
बुद्धिमान, योग्य, प्रतिभावान, समर्थ और सक्षम व्यक्ति अधिकतर अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए प्रयासरत रहते हैं। जिससे, असफलता और संघर्ष का सामना होना सामान्य सी प्रक्रिया है।
शेष तो "संतोषी सदा सुखी" मंत्र को अपनाकर सामान्य जीवन व्यतीत करते हैं।

Asafalta-facebook-post.jpg
6 नवम्बर, 2013

मनुष्य को सभ्यता की शिक्षा दी जाती है क्योंकि समाज को मात्र 'सभ्य' लोग चाहिए।
वे 'भद्र' हैं या नहीं, इससे समाज को कोई लेना-देना नहीं है। जबकि भद्र होना ही सही मायने में इंसान होना है। 'सभ्य' होना आसान है लेकिन 'भद्र' होना मुश्किल है। हम अभ्यास से सभ्य हो सकते हैं भद्र तो विरले ही होते हैं।
सभ्य जन वे हैं जो समाज के सामने सभ्यता से पेश आते हैं, सधा और सीखा हुआ एक ऐसा व्यवहार करते हैं, जिससे यह मान लिया जाता है कि 'हाँ यह व्यक्ति सभ्य है'।
'भद्र' वह है, जो एकान्त में भी सभ्य है, जो शक्तिशाली होने पर भी सभ्य है, जो आपातकाल में भी सभ्य है, जो अभाव में भी सभ्य है, जो भूख में भी सभ्य है, जो कृपा करते हुए भी सभ्य है, जो अपमानित होने पर भी सभ्य है, जो विद्वान होने पर भी सभ्य है, जो निरक्षर होने पर भी सभ्य है...
जिस तरह धर्म और जाति किसी दूसरे की उपस्थिति में ही अस्तित्व में आते हैं उसी तरह सभ्यता भी किसी दूसरे के आने पर ही जन्म लेती है। भद्रता के लिए किसी की उपस्थिति की आवश्यकता नहीं है।
अभद्रता वह स्थिति है जहाँ हम सोचते हैं- 'यहाँ कौन देख रहा है मुझे... ऐसा करने में क्या बुराई है?' जैसे ही हम ऐसा सोचते हैं, वैसे ही हम अभद्र हो जाते हैं।

Sabhya-facebook-post.jpg
5 नवम्बर, 2013

प्रत्येक धर्म के अनुयायी, ईश्वर से प्रार्थना करते हैं।
यह भी चाहते हैं कि ईश्वर उनकी प्रार्थना सुने तो फिर
ईश्वर से प्रार्थना भी ऐसी ही करनी चाहिए जिसे कि ईश्वर सुने...
राज़ की बात ये है कि केवल एक ही प्रार्थना ऐसी है जिसे वह सुनता है-
"हे ईश्वर ! सभी का कल्याण कर।"
इसके अलावा बहुत सी प्रार्थनाएँ ऐसी हैं जो ईश्वर ने कभी नहीं सुनी और न ही कभी सुनेगा, जैसे कि-
"हे ईश्वर मेरा भला कर।" या फिर "उसका बुरा कर" आदि-आदि।
कारण सीधा सा है-
ईश्वर पक्षपाती नहीं हो सकता और जो पक्षपाती है वह ईश्वर कैसे हो सकता है?

Dharm-ke-anuyayi-facebook-post.jpg
5 नवम्बर, 2013

        मनुष्य की इच्छाओं में 'परम' इच्छा है, महत्त्वपूर्ण बनने की इच्छा, इस इच्छा की पूर्ति के उपक्रम को ही सुख कहते हैं। यह सुख, सुखों में सर्वोच्च सुख है। यही है, परम सुख, जिसे न्यूनाधिक रूप से कभी-कभी, आनंद के समकक्ष होने की सुविधा भी प्राप्त है। इस सुख को प्राप्त करने के लिए मनुष्य त्याग की प्रत्येक सीमा का उल्लंघन करने को तत्पर रहता है एवं अन्य सुखों को त्यागना अपना सौभाग्य समझता है। महत्त्वपूर्ण बनने की इच्छा की पूर्ति का प्रयास करना, एक ऐसा सुख है जिस सुख के लिए मनुष्य भोग-विलास, मनोरंजन, सुविधा, परिवार आदि सब कुछ त्याग देता है।
        इससे भी, सुख की परिभाषा अस्तित्व में नहीं आती। जब तक यह न कहा जाए कि सुख प्रकृति प्रदत्त एक ऐसी अनुभूति है जिसका अनुभव प्रत्येक व्यक्ति के लिए स्वभाव और परिस्थितियों के वैविध्य के कारण भिन्न है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुख की परिभाषा उसके अपने अनुभव पर निर्भर करती है। सुख में भिन्न भिन्न लोगों के साथ- हँसने, रोने, मुग्ध होने, उत्साहित होने आदि जैसे अनेक क्रिया-कलाप होते हैं।
        कुछ अलग तरह से सुख को परिभाषित करने का प्रयास करें तो यूँ भी कह सकते हैं कि सुख प्राप्ति के लिए प्रयास और संघर्ष में जो अनुभूति होती है उसे 'सुख' कहते हैं। समाज द्वारा परिभाषित सुखों में से किसी एक अथवा एक से अधिक सुखों की प्राप्ति के लिए जो प्रयास और संघर्ष होता है उस समय होने वाली अनुभूति ही सुख है क्योंकि जिस सुख की प्राप्ति के प्रयास में हम लगे रहते हैं, वह प्राप्त होते ही, उसी क्षण समाप्त हो जाता है। लक्ष्य प्राप्ति हेतु किये जाने वाले संघर्ष में होने वाली अनुभूति ही 'सुख' है। लक्ष्य प्राप्ति का उपक्रम ही 'सुख' है लेकिन इसे 'आनंद' मानकर भ्रमित न हों, आनंद बिल्कुल अलग अनुभूति है।
        सुख के लिए अनेक लोकप्रचलित बातें भी कही जाती हैं जिनमें से दो मुझे पसंद आती है। एक तो यह कि 'स्वाधीनता से बड़ा सुख और पराधीनता से बड़ा दु:ख कोई नहीं' और दूसरा यह कि 'युवावस्था से बड़ा सुख और वृद्धावस्था से बड़ा दु:ख कोई नहीं'
सुखी जीवन के कुछ सुख इस तरह भी गिनाए जाते रहे हैं- पहला सुख, निर्मल हो काया / दूजा सुख, घर में हो माया / तीजा सुख, सुलक्षण नारी / चौथा सुख, सुत आज्ञाकारी / पंचम सुख स्वदेश का वासा / छठा सुख, राज हो पासा / सातवाँ सुख, संतोषी हो मन / इन्ही सुखों से बनता जीवन

Manushya-ki-ichchhao-me-param-ichchha -Aditya Chaudhary Facebook Post.jpg
1 नवम्बर, 2013

संबंधित लेख