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{{चयनित लेख}}
 
{{सूचना बक्सा साहित्यकार
 
|चित्र=Mirza-Ghalib.jpg
 
|पूरा नाम=मिर्ज़ा असदउल्ला बेग ख़ान 'ग़ालिब'
 
|अन्य नाम=
 
|जन्म=[[27 दिसम्बर]] 1797
 
|जन्म भूमि=[[आगरा]], [[उत्तर प्रदेश]]
 
|अभिभावक=अब्दुल्ला बेग ग़ालिब
 
|पति/पत्नी=उमराव बेगम
 
|संतान=
 
|कर्म भूमि=[[दिल्ली]]
 
|कर्म-क्षेत्र=[[शायर]]
 
|मृत्यु=[[15 फ़रवरी]], [[1869]]
 
|मृत्यु स्थान=[[दिल्ली]]
 
|मुख्य रचनाएँ='दीवान-ए-ग़ालिब', 'उर्दू-ए-हिन्दी', 'उर्दू-ए-मुअल्ला', 'नाम-ए-ग़ालिब', 'लतायफे गैबी', 'दुवपशे कावेयानी' आदि।
 
|विषय=[[शायरी|उर्दू शायरी]]
 
|भाषा=[[उर्दू]] और [[फ़ारसी भाषा]]
 
|विद्यालय=
 
|शिक्षा=
 
|पुरस्कार-उपाधि=
 
|प्रसिद्धि=
 
|विशेष योगदान=
 
|नागरिकता=
 
|संबंधित लेख=[[ग़ालिब का दौर]]
 
|शीर्षक 1=
 
|पाठ 1=
 
|शीर्षक 2=
 
|पाठ 2=
 
|अन्य जानकारी=
 
|बाहरी कड़ियाँ=
 
|अद्यतन=
 
}}
 
'''ग़ालिब''' अथवा '''मिर्ज़ा असदउल्ला बेग ख़ान''' ([[अंग्रेज़ी]]:''Ghalib'' अथवा ''Mirza Asadullah Baig Khan'', [[उर्दू]]: غالب अथवा مرزا اسدللا بےغ خان) (जन्म- [[27 दिसम्बर]], 1797 ई. [[आगरा]]; निधन- [[15 फ़रवरी]], [[1869]] ई. [[दिल्ली]]) जिन्हें सारी दुनिया 'मिर्ज़ा ग़ालिब' के नाम से जानती है, [[उर्दू]]-[[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] के प्रख्यात [[कवि]] थे। इनके दादा 'मिर्ज़ा क़ौक़न बेग ख़ाँ' [[समरकन्द]] से [[भारत]] आए थे। बाद में वे [[लाहौर]] में 'मुइनउल मुल्क' के यहाँ नौकर के रूप में कार्य करने लगे। मिर्ज़ा क़ौक़न बेग ख़ाँ के बड़े बेटे 'अब्दुल्ला बेग ख़ाँ से मिर्ज़ा ग़ालिब हुए। अब्दुल्ला बेग ख़ाँ, नवाब [[आसफ़उद्दौला]] की फ़ौज में शामिल हुए और फिर [[हैदराबाद]] से होते हुए [[अलवर]] के राजा 'बख़्तावर सिंह' के यहाँ लग गए। लेकिन जब मिर्ज़ा ग़ालिब महज 5 [[वर्ष]] के थे, तब एक लड़ाई में उनके पिता शहीद हो गए। मिर्ज़ा ग़ालिब को तब उनके चचा जान 'नसरुउल्ला बेग ख़ान' ने संभाला। पर ग़ालिब के बचपन में अभी और दुःख व तकलीफें शामिल होनी बाकी थीं। जब वे 9 वर्ष के थे, तब चचा जान भी चल बसे। मिर्ज़ा ग़ालिब का सम्पूर्ण जीवन ही दु:खों से भरा हुआ था। आर्थिक तंगी ने कभी भी इनका पीछा नहीं छोड़ा। '''क़र्ज़ में हमेशा घिरे रहे, लेकिन अपनी शानो-शौक़त में कभी कमी नहीं आने देते थे।''' इनके सात बच्चों में से एक भी जीवित नहीं रहा। जिस पेंशन के सहारे इन्हें व इनके घर को एक सहारा प्राप्त था, वह भी बन्द कर दी गई थी।
 
  
====आग़ामीर से मुलाक़ात की शर्त====
 
जब मिर्ज़ा ‘ग़ालिब’ लखनऊ पहुँचे तो उन दिनों ग़ाज़ीउद्दीन हैदर [[अवध]] के बादशाह थे। वह ऐशो-इशरत में डूबे हुए इन्सान थे। यद्यपि उन्हें भी शेरो-शायरी से कुछ-न-कुछ दिलचस्पी थी। शासन का काम मुख्यत: नायब सल्तनत मोतमुद्दौला सय्यद मुहम्मद ख़ाँ देखते थे, जो लखनऊ के इतिहास में ‘आग़ा मीर’ के नाम से मशहूर हैं। अब तक आग़ा मीर की ड्योढ़ी मुहल्ला लखनऊ में ज्यों का त्यों क़ायम है। उस समय आग़ा मीर में ही शासन की सब शक्ति केन्द्रित थी। वह सफ़ेद स्याहा, जो चाहते थे करते थे। यह आदमी शुरू में एक 'ख़ानसामाँ' (रसोइया) के रूप में नौकर हुआ था, किन्तु शीघ्र ही नवाब और रेज़ीडेंट को ऐसा ख़ुश कर लिया कि वे इसके लिए सब कुछ करने को तैयार रहते थे। उन्हीं की मदद से वह इस पद पर पहुँच पाया था। बिना उसकी सहायता के बादशाह तक पहुँच न हो सकती थी।
 
ग़ालिब के कुछ हितेषियों ने आग़ामीर तक ख़बर पहुँचाई कि ग़ालिब लखनऊ में मौजूद हैं। '''आग़ामीर ने कहलाया कि उन्हें मिर्ज़ा की मुलाक़ात से ख़ुशी होगी। मिलने की बात तय हुई, परन्तु मिर्ज़ा ने यह इच्छा प्रकट की कि मेरे पहुँचने पर आग़ामीर खड़े होकर मेरा स्वागत करें और मुझे नक़द-नज़र पेश करने से बरी रखा जाए। आग़ामीर ने इन शर्तों को स्वीकार नहीं किया और मुलाक़ात नहीं हो सकी।''' ग़ालिब लखनऊ में लगभग पाँच महीने रहे और वहाँ से [[27 जून]], 1827 शुक्रवार को कलकत्ता के लिए रवाना हुए। अभी सफ़र में ही थे कि ग़ाज़ीउद्दीन हैदर का देहान्त हो गया और उनकी जगह नसीरउद्दीन हैदर गद्दी पर बैठे। बहरहाल आग़ामीर से भेंट न होने के कारण जो [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] '[[क़सीदा]]' (पद्यात्मक प्रशंसा) ग़ालिब ने दिल्ली से लखनऊ आने तथा अपनी मुसीबतों का ज़िक्र करते हुए लिखा था, वह अवध के बादशाह के सामने पेश न हो सका और नसीरउद्दीन हैदर के गद्दी पर बैठने के सात-आठ वर्ष बाद यह क़सीदा नायब सल्तनत रोशनउद्दौला एवं मुंशी मुहम्मद हसन के माध्यम से दरबार तक पहुँचा और वहाँ पर पढ़ा गया। वहाँ से शायर को पाँच हज़ार रुपये इनाम देने का हुक्म हुआ, पर इसमें से एक फूटी कोड़ी भी ग़ालिब को न मिली। ‘नासिख़’ के कथनानुसार तीन हज़ार रोशनउद्दौला ने और दो हज़ार मुहम्मद हसन ने उड़ा लिए।
 
====अन्य स्थानों की यात्रा====
 
लखनऊ से कलकत्ता (कोलकाता) जाते हुए यह [[कानपुर]], बाँदा, [[बनारस]], [[पटना]] और [[मुर्शिदाबाद]] में भी ठहरे। लखनऊ से 3 दिन चलकर कानपुर पहुँचे। वहाँ से बाँदा गए। बाँदा में मौलवी मुहम्मदअली सदर अमीन ने इनके साथ बहुत अच्छा व्यवहार किया। इन्हें हर तरह का आराम दिया और कलकत्ता के प्रतिष्ठित एवं प्रभावशाली आदमियों के नाम पत्र भी दिए। बाँदा में ही इन्होंने वह ग़ज़ल लिखी थी, जिसका निम्नलिखित शेर मशहूर है-<br />[[चित्र:Ghalib-Haveli-Courtyard .jpg|thumb|left|ग़ालिब हवेली का आंगन|250px]]
 
<blockquote><poem>सताइशगर<ref>प्रशंसक</ref> है ज़ाहिद<ref>संयम व्रत करने वाला</ref> इस क़दर जिस बाग़े-रिज़वाँ<ref>स्वर्गोंपन</ref> का।
 
व एक गुलदस्ता है हम बेख़ुदों के ताक़े-नसियाँ<ref>विस्मृति का ताक़</ref> का।</poem></blockquote>
 
 
यात्रा में कठिनाई भी आई होगी, निराशा भी हुई होगी। यात्राकाल की ग़ज़लों में इसकी भी ध्वनि है-<br />
 
<blockquote><poem>थी वतन में शान क्या ‘ग़ालिब’ कि हो गुरबत<ref>परदेश निवास</ref> में क़द्र।
 
बेतकल्लुफ़ हूँ वह मुश्ते-ख़स कि गुलख़न<ref>भट्ठी</ref> में नहीं।</poem></blockquote>
 
 
बाँदा से मोड़ा गए, मोड़ा से चिल्लातारा। फिर वहाँ से नाव द्वारा [[इलाहाबाद]] पहुँचे। जान पड़ता है कि इलाहाबाद में कोई अप्रीतिकर साहित्यिक संघर्ष हुआ। पर उसका कहीं कोई विवरण नहीं मिलता। उनके एक फ़ारसी क़सीदे से सिर्फ़ इतना मालूम होता है कि वहाँ कुछ न कुछ हुआ ज़रूर था-<br />
 
<blockquote><poem>नफ़स बलर्ज़: ज़िवादे नहीबे कलकत्ता,
 
निगाहे ख़ैर: ज़हंगामए इलाहाबाद।</poem></blockquote>
 
 
इलाहाबाद में कुछ ज़्यादा ठहरना चाहते थे पर अवसर न मिला और यह [[बनारस]] के लिए रवाना हुए। बनारस पहुँचते-पहुँचते अस्वस्थ हो गए। पर बनारस के जादू ने जैसे ‘हज़ी’ को मुग्ध कर लिया था, वैसे ही उसके चित्ताकर्षक दृश्यों ने इन्हें भी अनुगत बना लिया। बनारस इन्हें इतना भाया कि [[शाहजहाँनाबाद]] ([[दिल्ली]]) पर भी उसे तर्जीह दी-<br />
 
<blockquote><poem>जहाँ आबाद गर नबूद अलम नेस्त।
 
जहानाबाद बादाजाए कमनेस्त।</poem></blockquote>
 
 
आख़िर में कहते हैं कि हे प्रभु! बनारस को बुरी नज़र से बचाना। यह नन्दित स्वर्ग है, यह भरा-पूरा स्वर्ग है-<br />
 
<blockquote><poem>तआलिल्ला बनारस चश्मे बद्दूर।
 
बहिश्ते ख़ुर्रमो फ़िरदौस मामूर।</poem></blockquote>
 
 
बनारस इनको इतना अच्छा लगा कि ज़िन्दगी भर उसे नहीं भूल पाये। 40 साल बाद भी एक पत्र में लिखते हैं कि, ‘अगर मैं जवानी में वहाँ जाता तो, वहीं पर बस जाता।’ बनारस की [[गंगा नदी]] एवं प्रभात ने इन्हें मोह लिया था। इनका बड़ा ही ह्रदयग्राही वर्णन उन्होंने किया है। वहाँ की उपासना, [[पूजा]], घंटाध्वनि, मूर्तियों (मानवी और दैवी दोनों) सबके प्रति उनमें आकर्षण उत्पन्न हो गया था। [[काशी]] के बारे में कहते हैं कि-<br />
 
<blockquote><poem>इबादतख़ानए नाक़ूसियाँ अस्त।
 
हमाना काबए हिन्दोस्ताँ अस्त।</poem></blockquote>
 
(यह शंखवादकों का उपासना स्थल है। निश्चय ही यह हिन्दुस्तान का काबा है।)
 
 
====प्रोफ़ेसरी से इन्कार====
 
इन निराशा की घड़ियों में भी मिर्ज़ा 'ग़ालिब' के सपने पूरे तौर पर टूटे न थे। रस्सी जल गई पर उसमें ऐंठन बाक़ी थी। 1842 ई. में सरकार ने दिल्ली कॉलेज का नूतन संगठन प्रबन्धन किया। उस समय मिस्टर टामसन [[भारत]] सरकार के सेक्रेटरी थे। यही बाद में पश्चिमोत्तर प्रदेश के लेफ़्टिनेण्ट गवर्नर हो गए थे और मिर्ज़ा ग़ालिब के हितैषियों में थे। वह कॉलेज के प्रोफ़ेसरों के चुनाव के लिए दिल्ली आए। उस समय तक वहाँ [[अरबी भाषा]] की शिक्षा का अच्छा प्रबन्ध था और मिस्टर ममलूकअली अरबी के प्रधान शिक्षक थे, जो अपने विषय के अद्वितीय विद्वान माने जाते थे। पर [[फ़ारसी भाषा]] की शिक्षा का कोई संतोषजनक प्रबन्ध न था। टामसन ने इच्छा प्रकट की कि जैसे अरबी की शिक्षा के लिए योग्य अध्यापक हैं, वैसे ही फ़ारसी की शिक्षा देने के लिए भी एक विद्वान अध्यापक रखा जाए। इस मुआइने के समय सदरुस्सदूर मुफ़्ती सदरुद्दीन ख़ाँ ‘आज़ुर्दा’ भी मौजूद थे। उन्होंने कहा, ‘दिल्ली में तीन साहब फ़ारसी के उस्ताद माने जाते हैं। मिर्ज़ा असदउल्ला ख़ाँ ‘ग़ालिब’, ‘हकीम मोमिन ख़ाँ ‘मोमिन’, और ‘शेख़ इमामबख़्श ‘सहबाई’। टामसन साहब ने प्रोफ़ेसरी के लिए सबसे पहले मिर्ज़ा ग़ालिब को बुलवाया। अगले दिन यह पालकी पर सवार होकर उनके डेरे पर पहुँचे और पालकी से उतरकर दरवाज़े के पास इस प्रतीक्षा में रुक गए कि अभी कोई साहब स्वागत एवं अभ्यर्थना के लिए आते हैं। जब देर हो गई, साहब ने जमादार से देर से आने का कारण पूछा। जमादार ने आकर मिर्ज़ा से दरियाफ़्त किया। '''मिर्ज़ा ने कह दिया कि चूँकि साहब परम्परानुसार मेरा स्वागत करने बाहर नहीं आए इसीलिए मैं अन्दर नहीं आया।''' इस पर टामसन साहब स्वयं बाहर निकल आये और बोले, ‘जब आप दरबार में बहैसियत एक रईस या कवि के तशरीफ़ लायेंगे तब आपका स्वागत सत्कार किया जायेगा, लेकिन इस समय आप नौकरी के लिए आये हैं, इसीलिए आपका स्वागत करने कोई नहीं आया।’ मिर्ज़ा ने कहा, ‘मैं तो सरकारी नौकरी इसीलिए करना चाहता था कि ख़ानदानी प्रतिष्ठा में वृद्धि हो, न कि पहले से जो है, उसमें भी कमी आ जाए और बुज़ुर्गों की प्रतिष्ठा भी खो बैठूँ।’ टामसन साहब ने नियमों के कारण विवशता प्रकट की। '''तब ग़ालिब ने कहा, ‘ऐसी मुलाज़िमत को मेरा दूर से ही सलाम है, और उन्होंने कहारों से कहा कि वापस चलो।’'''
 
{{दाँयाबक्सा|पाठ=मिर्ज़ा ग़ालिब ने [[फ़ारसी भाषा]] में कविता करना प्रारंभ किया था और इसी फ़ारसी कविता पर ही इन्हें सदा अभिमान रहा। परंतु यह देव की कृपा है कि, इनकी प्रसिद्धि, सम्मान तथा सर्वप्रियता का आधार इनका छोटा-सा [[उर्दू]] का ‘दीवान-ए-ग़ालिब’ ही है।|विचारक=}}
 
मिर्ज़ा के इस रवैये से उनके स्वभाव के एक पहलू पर प्रकाश पड़ता है। इस समय वे बड़े अर्थकष्ट में थे, फिर भी उन्होंने निरर्थक बात पर नौकरी छोड़ दी। आश्चर्य तो यह है कि जन्मभर सरकारी ओहदेदारों एवं [[अंग्रेज़]] अफ़सरों की चापलूसी एवं अत्युक्तिभरी स्तुति में ही बीता (जैसा कि उनके लिखे क़सीदों से स्पष्ट है) पर ज़रा-सी और सारहीन बात पर अड़ गए। इससे यह भी ज्ञात होता है कि इस समय उनमें हीनता का भाव बहुत बड़ा हुआ था और वह तुनकमिज़ाज और क्षणिक भावनाओं की आँधी में उड़ जाने वाले हो गए थे।
 
====जुए की लत====
 
इधर चिन्ताएँ बढ़ती गईं, जीवन की दश्वारियाँ बढ़ती गईं, उधर बेकारी, शेरोसख़ुन के सिवा कोई दूसरा काम नहीं। स्वभावत: निठल्लेपन की घड़ियाँ दूभर होने लगीं। चिन्ताओं से पलायन में इनकी सहायक एक तो थी शराब, अब जुए की लत भी लग गई। उन्हें शुरू से शतरंज और चौसर खेलने की आदत थी। अक्सर मित्र-मण्डली जमा होती और खेल-तमाशों में वक़्त कटता था। कभी-कभी बाज़ी बदकर खेलते थे। ग़दर के पहले उन्हें बड़ा अर्थकष्ट था। सिर्फ़ सरकारी वृत्ति और क़िले के पचास रुपये थे। पर आदतें रईसों जैसी थीं। यही कारण था कि ये सदा ऋणभार से दबे रहते थे। इस ज़माने की [[दिल्ली]] के रईसज़ादों और चाँदनी चौक के जौहरियों के बच्चों ने मनोरंजन के जो साधन ग्रहण कर रखे थे, उनमें से जुआ भी एक था। गंजीफ़ा आमतौर पर खेला जाता था। उनके साथ उठते-बैठते हुए मिर्ज़ा को भी यह लत लग गई। धीरे-धीरे नियमित जुआबाज़ी शुरू हो गई। जुए के अड्डेवाले को सदा कुछ न कुछ मिलता है फिर चाहे कोई जीते या हारे। इससे दिल बहलता था, वक़्त कटता था और कुछ न कुछ आमदनी भी हो जाती थी। आज़ाद लिखते हैं, ‘यह ख़ुद भी खेलते थे और चूँकि अच्छे खिलाड़ी थे, इसीलिए इसमें भी कुछ न कुछ मार ही लेते थे।’ अंग्रेज़ी क़ानून के अनुसार जुआ ज़ुर्म था, पर रईसों के दीवानख़ानों पर पुलिस उतना ध्यान नहीं देती थी, जैसे क्लबों में होने वाले ब्रिज पर आज भी ध्यान नहीं दिया जाता है। कोतवाल एवं बड़े अफ़सर रईसों से मिलते-जुलते रहते थे और परिचय के कारण भी सख़्ती नहीं करते थे। ग़ालिब की जान पहचान भी कोतवाल तथा दूसरे अधिकारियों से थी। इसीलिए इनके ख़िलाफ़ न तो किसी तरह का शुबहा किया जाता था और न क़ानूनी कार्रवाहियों का अंदेशा था।
 
====गिरफ़्तारी====
 
सन 1845 के लगभग [[आगरा]] से बदलकर एक नया कोतवाल फ़ैजुलहसन आया। इसको काव्य से कोई अनुराग नहीं था। इसीलिए ग़ालिब पर मेहरबानी करने की कोई बात उसके लिए नहीं हो सकती थी। फिर वह एक सख़्त आदमी भी था। आते ही उसने सख़्ती से जाँच करनी शुरू की। कई दोस्तों ने मिर्ज़ा को चेतावनी भी दी कि जुआ बन्द कर दो, पर वह लोभ एवं अंहकार से अन्धे हो रहे थे। उन्होंने इसकी कोई परवाह नहीं की। वह समझते थे कि मेरे विरुद्ध कोई कार्रवाही नहीं हो सकती। '''एक दिन कोतवाल ने छापा मारा, और लोग तो पिछवाड़े से निकल भागे पर मिर्ज़ा पकड़ लिए गए।''' मिर्ज़ा की गिरफ़्तारी से पूर्व जौहरी पकड़े गए थे। पर वह रुपया ख़र्च करके बच गए थे। मुक़दमें तक नौबत नहीं आई थी। मिर्ज़ा के पास में रुपया कहाँ था। हाँ, मित्र थे। उन्होंने बादशाह तक से सिफ़ारिश कराई, किन्तु कुछ नतीजा नहीं निकला। जब लोगों को मिर्ज़ा की रिहाई की तरफ़ से निराशा हो गई, तब न केवल दोस्तों ने और साथ उठने-बैठन वालों ने बल्कि अंग्रेज़ों ने भी एक दम आँखें फेर लीं। वे इस बात पर लज्जा का अनुभव करने लगे कि मिर्ज़ा के मित्र या सम्बन्धी कहे जायें।
 
====सज़ा एवं रिहाई====
 
मिर्ज़ा 'ग़ालिब' के मित्रों में केवल नवाब मुस्तफ़ा ख़ाँ ‘शोफ़्ता’ ने हर क़दम पर इनका साथ दिया। ख़बर मिलते ही वह एक-एक हाकिम से जाकर मिले और मिर्ज़ा की रिहाई की कोशिश की। फिर जब मुक़दमा चला और बाद में उसकी अपील की गई तब भी उसका तमाम ख़र्च ख़ुद ही उठाया। जब तक मिर्ज़ा क़ैद रहे हर दूसरे दिन जाकर उनसे मिलते रहे। इस मामले में मिर्ज़ा का दोष कुछ भी नहीं था। मित्रों की चेतावनी के बावजूद वह नहीं सम्भले। इसके पूर्व भी एक बार इस जुर्म में मिर्ज़ा को 100 रुपये जुर्माना और जुर्माना न देने पर चार मास की क़ैद हुई थी और यह चन्द दिनों के बाद जुर्माना अदा करने पर छूट गए थे। पर इस पर भी वह सावधान नहीं हुए। दोबारा 1847 में जुए के जुर्म में गिरफ़्तार हुए। गिरफ़्तारी की घटना भी दिलचस्प है। कोतवाल ने बड़ी होशियारी से छापा मारा। मकान घेर लेने के बाद इत्तिला करवाई कि जनानी सवारियाँ आई हैं। इस कारण किसी ने आपत्ति नहीं की। अन्दर जाने पर भेद खुला। लोगों ने विरोध किया। इस पर पुलिस ने भी सख़्ती की। मिर्ज़ा जुआख़ाना चलाने के जुर्म में गिरफ़्तार हुए। मुक़दमा कुँवर वज़ीर अलीख़ाँ मजिस्ट्रेट की अदालत में पेश हुआ। वहाँ सज़ा हुई और अपील में भी बनी रही। 6 माह कठोर कारावास और दो सौ जुर्माने का दण्ड मिला। जुर्माना न देने पर 6 मास और। जुर्माने के अलावा 50 अधिक देने पर श्रम से मुक्ति।<ref>‘दिल्ली का आख़िरी साँस’ पृष्ठ 174 तथा अहरुनुल अख़बार बम्बई 2 जुलाई, 1847।</ref> जेल में खाना-कपड़ा घर से आता था। जो चाहे जब मिल सकता था। फिर भी इस सज़ा और क़ैद से मिर्ज़ा के अहम को गहरी चोट पहुँची। ‘यादगारे ग़ालिब’ में मौलाना हाली ने इनका एक ख़त उदधृत किया है, जिससे इनकी मनोदशा का पता लगता है। इसमें वह लिखते हैं-<br />
 
<blockquote>"मैं हर काम को ख़ुदा की तरफ़ से समझता हूँ और ख़ुदा से लड़ा नहीं जा सकता। जो कुछ गुज़रा उसके नंग<ref>बदनामी, लज्जा</ref> से आज़ाद और जो कुछ गुज़रने वाला है, उस पर राज़ी हूँ। मगर आरज़ू<ref>इच्छा, आशा, उम्मीद</ref> करना आईने अबूदियत<ref>उपासना, सिद्धान्त</ref> के ख़िलाफ़ नहीं है। मेरी यह आरज़ू है कि अब दुनिया में न रहूँ और रहूँ तो हिन्दुस्तान में न रहूँ। रूम है, मिस्र है, ईरान है, बग़दाद है। यह भी जाने दो; ख़ुद काबा आज़ादों की जाएपनाह<ref>आश्रयस्थान</ref> आस्तनए रहमतुल आलमीन<ref>संसार पर दया करने वाले (ईश्वर) का स्थान</ref> दिलदारों की तकियागाह<ref>रसिकों का आश्रय</ref> देखिए यह वक़्त कब आयेगा कि दरमाँदगी<ref>हीनता, बेकारी, विवशता</ref> की क़ैद से, जो इस गुज़री हुई क़ैद से ज़्यादा जानफर्सा<ref>प्राणलेवा</ref> है, नजात<ref>मुक्ति</ref> पाऊँ और बग़ैर उसके कोई मंज़िले मक़सद क़रार दूँ, सरब सेहरा निकल जाऊँ। यह है जो मुझ पर गुज़रा और यह है जिसका मैं आरज़ूमन्द हूँ।"</blockquote>
 
 
तीन मास बाद ही दिल्ली के सिविल सर्जन डॉक्टर रास की सिफ़ारिश पर मिर्ज़ा छोड़ दिए गए।
 
====क़िले की नौकरी====
 
[[चित्र:Bahadur-Shah-II.jpg|thumb|[[बहादुर शाह ज़फ़र]]|250px]]
 
संयोगवश क़ैद से छूटने के थोड़े ही दिनों बाद कुछ मित्रों की मध्यस्थता से मिर्ज़ा 'ग़ालिब' का दिल्ली दरबार से सम्बन्ध हो गया। इन दिनों मौलाना नसीरउद्दीन उर्फ़ काले साहब बहादुर ज़फ़र के पीर<ref>ध्रर्मगुरु</ref> थे। वह ग़ालिब के मित्रों और शुभ-चिन्तकों में से थे। शाही हकीम एहसानउल्ला ख़ाँ भी मिर्ज़ा के प्रशंसकों में से थे। इन लोगों ने सिफ़ारिश की। बहादुरशाह ने मंज़ूर कर लिया कि मिर्ज़ा तैमूरी वंश का इतिहास फ़ारसी भाषा में लिखें। [[4 जुलाई]], 1850 को यह बादशाह के सामने पेश किए गए। [[बहादुर शाह ज़फ़र|बादशाह ज़फ़र]] ने नजमुद्दौला दबीरुल्मुल्क निज़ाम जंग की उपाधि प्रदान की और 6 पारचे तथा तीन रत्न का ख़िलअत दिया। पचाय रुपये मासिक वृत्ति नियत हुई और मिर्ज़ा क़िले के मुलाज़िम हो गए।<ref>उस समय क़िले की परम्परा थी, कि साल में दो बार वेतन मिलता था। एक तो पचास रुपये मासिक, फिर 6-6 महीने में मिलता था। उसका परिणाम यह होता था कि महाजन के सूद में ही काफ़ी रक़म कट जाती थी। ग़ालिब ने पहली छमाही किसी तरह से काटी, पर जनवरी 1851 में दर्ख़ास्त पेश की कि रोज़ाना की ज़रूरतों का क्या करूँ उन्हें इतने दिनों के लिए स्थगित तो नहीं किया जा सकता। फलत: महाजनों से क़र्ज़ लेता हूँ और सूद में तनख़्वाह का काफ़ी हिस्सा निकल जाता है। पहली छमाही के वेतन का एक तिहाई इसी में चला जाता है-<br />
 
<poem>आपका बन्दा और फिर नंगा।
 
आपका नौकर और खाऊँ उधार।
 
मेरी तनख़्वाह कीजिए माह बमाह।
 
ता न हो मुझको ज़िन्दगी दुश्वार।
 
तुम सलामत रहो हज़ार बरस।
 
हर बरस के हों दिन पचास हज़ार।</poem>
 
इस प्रार्थना पत्र के बाद इन्हें वेतन हर मास में मिलने लगा।</ref>
 
 
====ज़ौक़ से छेड़छाड़====
 
‘ग़ालिब’ दरबार में कभी-कभी जाया करते थे और उनकी आव-भगत भी होती थी, पर उन्हें वह दर्जा प्राप्त नहीं था, जो कि ज़ौंक़ को प्राप्त था। ज़ौंक़ ज़फ़र के उस्ताद थे। स्वभावत: उनकी इज़्ज़त ज़्यादा थी। उनके साथ ग़ालिब की नोंक-झोंक चलती ही रहती थी।
 
बहरहाल ज़ौंक़ जब तक रहे, दरबार में ग़ालिब उभर नहीं पाये। 16 अक्टूबर, 1854 को ज़ौक़ की मृत्यु हो गई। ज़ौक़ के बाद बादशाह ज़फ़र ने मिर्ज़ा ग़ालिब से इस्लाह लेनी शुरू कर दी। ज़फ़र के सबसे छोटे बेटे शहज़ादे मीरज़ा ख़िज्र सुल्तान ने भी इनकी शागिर्दी इख़्तियार की। सम्भवत: इसी साल नवाब वाजिद अलीशाह अवध नरेश की ओर से भी पाँच सौ सालाना मिलने लगा। इससे इनकी स्थिति काफ़ी हद तक सुध गई। पर यह अल्पकालिक ही रही, क्योंकि दो ही साल बाद 10 जुलाई, 1856 को मिर्ज़ा फख़्रू की मृत्यु हो गई। उधर 11 फ़रवरी, 1856 को अंग्रेज़ों ने वाजिद अलीशाह को गद्दी से उतारकर कलकत्ता भेज दिया, जहाँ वह मटियाबूर्ज़ में नज़रबन्द कर दिए गए। मई 1857 में ग़दर हो गया और मीरज़ा ख़िज्र सुल्तान हुमायूँ के मक़बरे में गिरफ़्तार कर लिए गए और दिल्ली के बाहर मेजर हडसन की गोली के शिकार हुए। ज़फ़र पर बाग़ियों की मदद करने के जुर्म में मुक़दमा चला और वह अक्टूबर 1858 में रंगून (अब [[यांगून]]) भेज दिए गए, जहाँ 7 नवम्बर, 1862 को उनकी मृत्यु हो गई।
 
 
{{seealso|ग़ालिब का दौर}}
 
 
==हिन्दू मित्रों की सहायता==
 
1857 के ग़दर के अनेक चित्र मिर्ज़ा 'ग़ालिब' के पत्रों में तथा इनकी पुस्तक ‘दस्तंबू’ में मिलते हैं। इस समय इनकी मनोवृत्ति अस्थिर थी। यह निर्णय नहीं कर पाते थे कि किस पक्ष में रहें। सोचते थे कि पता नहीं ऊँट किस करवट बैठे? इसीलिए क़िले से भी थोड़ा सम्बन्ध बनाये रखते थे। ‘दस्तंबू’ में उन घटनाओं का ज़िक्र है जो ग़दर के समय इनके आगे गुज़री थीं। उधर फ़साद शुरू होते ही मिर्ज़ा की बीवी ने उनसे बिना पूछे अपने सारे ज़ेवर और क़ीमती कपड़े मियाँ काले साहब के मकान पर भेज दिए ताकि वहाँ सुरक्षित रहेंगे। पर बात उलटी हुई। काले साहब का मकान भी लुटा और उसके साथ ही ग़ालिब का सामान भी लुट गया। चूँकि इस समय राज [[मुसलमान|मुसलमानों]] का था, इसीलिए [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] ने दिल्ली विजय के बाद उन पर विशेष ध्यान दिया और उनको ख़ूब सताया। बहुत से लोग प्राण-भय से भाग गए। इनमें मिर्ज़ा के भी अनेक मित्र थे। इसीलिए ग़दर के दिनों में उनकी हालत बहुत ख़राब हो गई। घर से बाहर बहुत कम निकलते थे। खाने-पीने की भी मुश्किल थी। '''ऐसे वक़्त उनके कई [[हिन्दू]] मित्रों ने उनकी मदद की। मुंशी हरगोपाल ‘तुफ़्ता’ [[मेरठ]] से बराबर रुपये भेजते रहे, लाला महेशदास इनकी मदिरा का प्रबन्ध करते रहे। मुंशी हीरा सिंह दर्द, पं. शिवराम एवं उनके पुत्र बालमुकुन्द ने भी इनकी मदद की। मिर्ज़ा ने अपने पत्रों में इनके प्रति कृतज्ञता प्रकट की है।'''
 
====मुसलमान हूँ पर आधा====
 
यद्यपि पटियाला के सिपाही आस-पास के मकानों की रक्षा में तैनात थे, और एक दीवार बना दी गई थी। लेकिन [[5 अक्टूबर]] को (18 सितम्बर को दिल्ली पर अंग्रेज़ों का दुबारा से अधिकार हो गया था) कुछ गोरे, सिपाहियों के मना करने पर भी, दीवार फाँदकर मिर्ज़ा के मुहल्ले में आ गए और मिर्ज़ा के घर में घुसे। उन्होंने माल-असबाब को हाथ नहीं लगाया, पर मिर्ज़ा, आरिफ़ के दो बच्चों और चन्द लोगों को पकड़कर ले गए और कुतुबउद्दीन सौदागर की हवेली में कर्नल ब्राउन के सामने पेश किया। उनकी हास्यप्रियता और एक मित्र की सिफ़ारिश ने रक्षा की। बात यह हुई जब गोरे मिर्ज़ा को गिरफ़्तार करके ले गए, तो अंग्रेज़ सार्जेण्ट ने इनकी अनोखी सज-धज देखकर पूछा-‘क्या तुम मुसलमान हो?’ मिर्ज़ा ने हँसकर जवाब दिया कि, ‘मुसलमान तो हूँ पर आधा।’ वह इनके जवाब से चकित हुआ। पूछा-‘आधा मुसलमान हो, कैसे?’ मिर्ज़ा बोले, ‘साहब, शरीब पीता हूँ; हेम (सूअर) नहीं खाता।’
 
 
जब कर्नल के सामने पेश किए गए, तो इन्होंने [[महारानी विक्टोरिया]] से अपने पत्र-व्यवहार की बात बताई और अपनी वफ़ादारी का विश्वास दिलाया। कर्नल ने पूछा, ‘तुम दिल्ली की लड़ाई के समय पहाड़ी पर क्यों नहीं आये, जहाँ अंग्रेज़ी फ़ौज़ें और उनके मददगार जमा हो रहे थे?’ मिर्ज़ा ने कहा, ‘तिलंगे दरवाज़े से बाहर आदमी को निकलने नहीं देते थे। मैं क्यों कर आता? अगर कोई फ़रेब करके, कोई बात करके निकल जाता, जब पहाड़ी के क़रीब गोली की रेंज में पहुँचता तो पहरे वाला गोली मार देता। यह भी माना की तिलंगे बाहर जाने देते, गोरा पहरेदार भी गोली न मारता पर मेरी सूरत देखिए और मेरा हाल मालूम कीजिए। बूढ़ा हूँ, पाँव से अपाहिज, कानों से बहरा, न लड़ाई के लायक़, न मश्विरत के क़ाबिल। हाँ, दुआ करता हूँ सो वहाँ भी दुआ करता रहा।’ कर्नल साहब हँसे और मिर्ज़ा को उनके नौकरों और घरवालों के साथ घर जाने की इजाज़त दे दी।
 
==ग़ालिब और पेंशन==
 
====मिर्ज़ा यूसुफ़ का अन्त====
 
[[चित्र:Mirza-Ghalib-Sketch.jpg|thumb|मिर्ज़ा ग़ालिब रेखाचित्र (स्कैच)|250px]]
 
मिर्ज़ा तो बच गए पर इनके भाई मिर्ज़ा यूसुफ़ इतने भाग्यशाली न थे। पहले ही ज़िक्र किया जा चुका है कि वह 30 साल की आयु में ही विक्षिप्त (पागल) हो गए थे और ग़ालिब के मकान से दूर, फर्राशख़ाने<ref>वह मकान जिसमें फ़र्श वग़ैरह रखे जाते हैं</ref> के क़रीब, एक दूसरे मकान में अलग रहते थे। जितनी पेंशन ग़ालिब को सरकारी ख़ज़ाने से मिलती थी, उतनी ही मिर्ज़ा यूसुफ़ के लिए भी नियत थी। उनकी बीवी, बच्चे भी साथ-साथ रहते थे, पर दिल्ली पर अंग्रेज़ों का फिर से अधिकार हुआ तो गोरों ने चुन-चुनकर बदला लेना शुरू किया। इस बेइज़्ज़ती और अत्याचार से बचने के लिए यूसुफ़ की बीवी बच्चों सहित इन्हें अकेले छोड़कर [[जयपुर]] चली गई थीं। घर पर इनके पास एक बूढ़ी नौकरानी और एक बूढ़ा दरवान रह गए। मिर्ज़ा को भी सूचना मिली, किन्तु बेबसी के कारण वह कुछ न कर सके। [[30 सितम्बर]] को जब ग़ालिब को अपना दरवाज़ा बन्द किए हुए पन्द्रह-सोलह दिन हो रहे थे, उन्हें सूचना मिली की सैनिक मिर्ज़ा यूसुफ़ के घर आये और सब कुछ ले गए, लेकिन उन्हें और बूढ़े नौकरों को ज़िन्दा छोड़ गए।<ref>ग़ालिब के एक निकट सम्बन्धी मिर्ज़ा मुईनउद्दीन ने लिखा है कि यूसुफ़ गोली की आवाज़ सुनकर, यह देखने के लिए कि क्या हो रहा है, घर से बाहर आये और मारे गए।–ग़दर की सुबह-शाम, पृष्ठ 88</ref>
 
इस समय शहर की हालत भयानक थी। 2-4 आदमियों को मिलकर, किसी लाश को दफ़न करने के लिए क़ब्रिस्तान तक ले जाना सम्भव न था। कफ़न के लिए कपड़े भी न मिलते थे। ख़ैर साथियों ने मदद की। मिर्ज़ा का एक नौकर और पटियाला का एक सिपाही उनके साथ गए। कफ़न के लिए दो-तीन [[सफ़ेद रंग|सफ़ेद]] चादरें मिर्ज़ा ने अपने पास से दीं। इन लोगों ने गली के सिरे पर तहव्वरख़ाँ की मस्जिद की<ref>मालिक राम साहब लिखते हैं-फर्राशख़ाने से बावली की तरफ़ जायें तो यह मस्जिद ‘नया बाँस’ के पास उल्टे हाथ को पड़ती है। इसके निर्माणकर्ता तहव्वरख़ाँ ताश्कन्दी मुहम्मदशाह के राज्य काल में शाहजहाँपुर के ज़मींदार थे। वर्तमान मस्जिद नई बनी है। अब इसकी कुर्सी ऊँची है और सेहन के नीचे बाज़ार में दुकानें हैं।</ref> सेहन में गड्डा खोदा और शव को उसमें उतारकर मिट्टी डाल दी।
 
 
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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*[http://www.milansagar.com/kobi-mirzaghalib.html मिर्ज़ा ग़ालिब]
 
*[http://hindi.webdunia.com/miscellaneous/urdu/galibletters/ ग़ालिब के ख़त]
 
*[http://www.bbc.co.uk/hindi/specials/125_ghalib_pix/index.shtml महान शायर मिर्ज़ा ग़ालिब]
 
*[http://gunaahgar.blogspot.com/2007/12/blog-post_27.html मिर्ज़ा ग़ालिब हाज़िर हो]
 
*[http://mirzagalibatribute.blogspot.com/ मिर्ज़ा ग़ालिब]
 
*[http://podcast.hindyugm.com/2008/10/mirza-ghalib-tribute-shishir-parthkie.html उस्तादों के उस्ताद शायर मिर्जा ग़ालिब]
 
*[http://www.columbia.edu/itc/mealac/pritchett/00ghalib/ghazal_index.html?nagari दीवान ए ग़ालिब]
 
*[http://divan-e-ghalib.blogspot.com/ मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी]
 
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*[http://www.mirza-ghalib.org/ Mirza Ghalib Official Website]
 
*[http://www.ghalibinstitute.com/ Ghalib Institute]
 
*[http://shayari.co.in/mirza-ghalib Mirza Ghalib]
 
*[http://mirzagalib.blogspot.com/ Mirza Galib Shayari]
 
*[http://ghazal.tripod.com/mirza_ghalib.html Mirza Ghalib]
 
*[http://gdhar.com/2005/06/26/an-ode-to-mirza-ghalibs-haveli/ Mirza Ghalib’s Haveli]
 
*[http://www.urdustan.com/adeeb/ghalib.htm Mirza Ghalib (1796-1869)]
 
*[http://www.thedelhiwalla.com/2011/02/20/the-biographical-dictionary-of-delhi-%E2%80%93-mirza-ghalib-b-agra-1797-1869/ Mirza Ghalib, b. Agra, 1797-1869]
 
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*[http://www.muskurahat.com/music/ghazals/mirza-ghalib-collections.asp मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़लें डाउनलोड करें]
 
*[http://www.youtube.com/watch?v=ieMOrUAEUmc बाज़ीचा ए अफ़्ताल है दुनिया मेरे आगे]
 
*[http://www.youtube.com/watch?v=Zf6nLP1Zdm4 कोई उम्मीद भर नहीं आती]
 
*[http://www.youtube.com/watch?v=B-AfgaHi848 उनके देखे से जो]
 
*[http://www.youtube.com/watch?v=Cjx3Hk8qYXY हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी...]
 
*[http://www.youtube.com/watch?v=onq69_3ISBI आह को चाहिए]
 
*[http://www.youtube.com/watch?v=PUPc87mIsfc नुक़्ताची है ग़में दिल]
 
*[http://www.youtube.com/watch?v=M6pZMQKBS6U दिल-ए-नादान तुझे]
 
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==संबंधित लेख==
 
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12:46, 21 अक्टूबर 2016 के समय का अवतरण