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'''न''' [[देवनागरी वर्णमाला]] के तवर्ग का पाँचवा [[व्यंजन (व्याकरण)|व्यंजन]] है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से यह दंत्य (वर्त्स्य), नासिक्य, स्पर्श, घोष और अल्पप्राण और घोष है।
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* वर्ण शब्दों के आदि, मध्य और अंत सभी जगह आ सकता है। जैसे- नमी, शांत, विद्वान परंतु अंत में और तत्सम शब्दों में ही।
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* 'न्‌' के स्थान पर सुविधा के लिए अनुस्वार की बिन्दी का प्रयोग मुद्रण आदि में सुविधार्थ प्रचलित है परंतु यह भ्रामक है क्योंकि कोशों आदि के अकारादि क्रम में दोष उत्पन्न करता है।
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* 'न्‌' (न के साथ हलंत) के स्थान पर 'न्' (आधा न) का प्रयोग ही संयुक्त व्यंजन बनाने के लिए किया जाना चाहिए; उदाहरणार्थ 'सन्‌त' और सन्त दोनों शुद्ध हैं परन्तु 'सन्त' लिखना वैज्ञानिक, प्रचलित और सुविधापूर्ण है तथा 'संत' केवल सुविधाजनक प्रयोग है, यह जानना उपयोगी और आवश्यक है।
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* किसी व्यंजन से पहले आकर उसके साथ संयुक्त होने वाले 'न्‌' के रूपों में ये प्रमुख हैं- न्त (कन्त), न्थ (पन्थ), न्द (वन्दना), न्ध (कन्धा), न्म (जन्म), न्य (जन्य), न्व (अन्वय), न्ह (कन्हैया) तथा 'न' का द्वित्व जिसके लिए 'न्न' लिखा जाता है (अन्न)।
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* 'वंश', 'कंस' इत्यादि शब्दों में आए अनुस्वार के स्थान पर 'न्‌' का प्रयोग त्रुटिपूर्ण है और 'वन्श', 'कन्स' आदि अशुद्ध लेखन के उदाहरण हैं अन्यत्र विशेषत: विदेशी (अंग्रेज़ी आदि) शब्दों में 'न्‌' के पहले आने से जो संयुक्त रूप बनते हैं उन्हें अनुस्वार के बिंदू के प्रयोग से सुविधा के लिए लिखना प्रचलित है परंतु न्‌ (आधा न) के प्रयोग से ही लिखना वैज्ञानिक है। ('इंडिया' नहीं, इन्‌डिया 'इन्डिया', 'टेंट' नहीं टेन्‌ट या टेन्ट')।
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* [[हिन्दी]] शब्दों में किसी व्यंजन के 'न्‌' से पहले आकर उसके साथ बनने वाले संयुक्त रूपों में प्रमुखत: ये महत्त्वपूर्ण हैं- ग्न (लग्न), घ्न (विघ्न), त्न (रत्न), प्न (स्वप्न), म्न (निम्न), श्न (प्रश्न), स्न (स्नान, स्नेह), ह्न या ह्‌न (चिह्न या चिह्‌न)
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* र मिलने पर 'र्न' रूप लेता है। जैसे- टर्न। निस्सन्देह 'ह्न' की अपेक्षा 'ह्‌न' में अधिक स्पष्टता है।
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* संयुक्त व्यंजन रूप बनाने में हल्‌ से युक्त व्यंजन का आवश्यकता के अनुसार प्रयोग किया जा सकता है परंतु सामान्यत: नहीं। जैसे- 'जन्म' को 'जन्‌म' और 'लग्न' को 'लग्‌न' भी लिखा जा सकता है।
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* [[तत्सम]] शब्दों के अंत के 'न्‌' को प्राय: 'न' ही लिखना, अशुद्ध होने पर भी, आजकल हिन्दी में अधिक प्रचलित है। जैसे- विद्वान, महान, हनुमान।
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* [ [[संस्कृत]] (धातु) नश्‌ / (धातु) नह्‌ + ड ] [[विशेषण]]- रिक्त, ख़ाली, अतिरिक्त, फ़ालतू। [[पुल्लिंग]]-  गणेश (देवता), सुवर्ण, सोना, मोती, धन-सम्पत्ति, युद्ध। जैसे- उसने 'न' कह दी; अब उसे ले जाना कठिन है।
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* निषेधवाचक 'न' का विलोम 'हाँ' है। [[अव्यय]]- नकार का सूचक शब्द, नहीं। जैसे- वह न पढ़ेगा। निषेध का सूचक शब्द। मत। जैसे- उसे न बुलाओ।
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* 'न' के अनेक प्रयोग उक्ति में विशेष अर्थ उत्पन्न कर देते हैं। ऐसे कुछ प्रयोग द्रष्टव्य हैं-
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# पुनरुक्ति वाले कुछ प्रयोगों में 'न' आने से 'तो' का भाव जुड़ जाता है। जैसे- कहीं-न-कहीं वह अवश्य मिलेगा (कहीं-न-कहीं = कहीं तो); किसी-न-किसी दिन (किसी दिन तो)।
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# कुछ प्रश्नात्मक वाक्यों के अंत में 'न' का प्रयोग पुष्टि के लिए हो सकता है। जैसे- तुम आज तो बाज़ार जाओगे न?
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# वि-धि (प्रार्थना, आज्ञा आदि) के शब्द के साथ 'न' का प्रयोग विधि की प्रबलता के लिए होता है। जैसे- जाओ न ('जाओ' कहने में प्रबलता नहीं है); मान जाइए न।
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* 'न' का अर्थहीन प्रयोग तकियाकलाम के रूप में कुछ व्यक्ति स्वभाववश करते हैं। जैसे वह जब आया था न... तब उसने न.. यह बताया कि उसकी जो बहन है न... उसने एक मकान ख़रीद लिया है।
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* 'न' का प्रयोग प्राय: वाक्यों के अंत में नहीं होता, निषेध को बाद में रखना हो तो 'नहीं' का प्रयोग होता है। जैसे- 'न जाना, जाना नहीं'।
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* 'न' का योजक रूप में भी अनेक प्रकार से प्रयोग होता है। जैसे- (क) 'न...न'। जैसे- न पढ़ना, न लिखना। (ख) 'न केवल......अपितु/बल्कि। जैसे- यह रहस्य न केवल मैं जानता हूँ अपितु तुम्हारी माता जी भी जानती है। (ग) चाहे... न। जैसे- चाहे पढ़ो या न पढ़ो।
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* 'न कि' का भी एक योजक के रूप में प्रयोग होता है। जैसे- तुम्हारी सहायता मैंने की थी न कि किसी और ने।
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* 'न कुछ....न कुछ' एक नकारात्मक पदबन्ध है। जैसे- वह न कुछ हँसती है, न कुछ बोलती है।
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* 'न...और न' भी योजक पद समूह है। जैसे- तब न [[राम]] वन जाते और न [[रावण]] मारा जाता।
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* 'न ही...न ही' पद- समूह का प्रयोग अधिक बल देने के लिए होता है। जैसे- न ही तुम पढ़ोगे और न ही वह पढ़ाएगा।<ref>पुस्तक- हिन्दी शब्द कोश खण्ड-1 | पृष्ठ संख्या- 1338</ref> 
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==न की बारहखड़ी==
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| न
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| नी
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| नौ
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| नं
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| नः
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|}
 
==न अक्षर वाले शब्द==
 
==न अक्षर वाले शब्द==
 
* [[नल]]
 
* [[नल]]

07:28, 8 जनवरी 2017 का अवतरण

न.jpg
विवरण देवनागरी वर्णमाला के तवर्ग का पाँचवा व्यंजन है।
भाषाविज्ञान की दृष्टि से यह दंत्य (वर्त्स्य), नासिक्य, स्पर्श, घोष और अल्पप्राण और घोष है।
व्याकरण [ संस्कृत (धातु) नश्‌ / (धातु) नह्‌ + ड ] विशेषण- रिक्त, ख़ाली, अतिरिक्त, फ़ालतू। पुल्लिंग- गणेश (देवता), सुवर्ण, सोना, मोती, धन-सम्पत्ति, युद्ध।
विशेष किसी व्यंजन से पहले आकर उसके साथ संयुक्त होने वाले 'न्‌' के रूपों में ये प्रमुख हैं- न्त (कन्त), न्थ (पन्थ), न्द (वन्दना), न्ध (कन्धा), न्म (जन्म), न्य (जन्य), न्व (अन्वय), न्ह (कन्हैया) तथा 'न' का द्वित्व जिसके लिए 'न्न' लिखा जाता है (अन्न)।
संबंधित लेख , , ,
अन्य जानकारी 'न' का अर्थहीन प्रयोग तकियाकलाम के रूप में कुछ व्यक्ति स्वभाववश करते हैं। जैसे वह जब आया था न... तब उसने न.. यह बताया कि उसकी जो बहन है न... उसने एक मकान ख़रीद लिया है।

देवनागरी वर्णमाला के तवर्ग का पाँचवा व्यंजन है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से यह दंत्य (वर्त्स्य), नासिक्य, स्पर्श, घोष और अल्पप्राण और घोष है।

विशेष-
  • वर्ण शब्दों के आदि, मध्य और अंत सभी जगह आ सकता है। जैसे- नमी, शांत, विद्वान परंतु अंत में और तत्सम शब्दों में ही।
  • 'न्‌' के स्थान पर सुविधा के लिए अनुस्वार की बिन्दी का प्रयोग मुद्रण आदि में सुविधार्थ प्रचलित है परंतु यह भ्रामक है क्योंकि कोशों आदि के अकारादि क्रम में दोष उत्पन्न करता है।
  • 'न्‌' (न के साथ हलंत) के स्थान पर 'न्' (आधा न) का प्रयोग ही संयुक्त व्यंजन बनाने के लिए किया जाना चाहिए; उदाहरणार्थ 'सन्‌त' और सन्त दोनों शुद्ध हैं परन्तु 'सन्त' लिखना वैज्ञानिक, प्रचलित और सुविधापूर्ण है तथा 'संत' केवल सुविधाजनक प्रयोग है, यह जानना उपयोगी और आवश्यक है।
  • किसी व्यंजन से पहले आकर उसके साथ संयुक्त होने वाले 'न्‌' के रूपों में ये प्रमुख हैं- न्त (कन्त), न्थ (पन्थ), न्द (वन्दना), न्ध (कन्धा), न्म (जन्म), न्य (जन्य), न्व (अन्वय), न्ह (कन्हैया) तथा 'न' का द्वित्व जिसके लिए 'न्न' लिखा जाता है (अन्न)।
  • 'वंश', 'कंस' इत्यादि शब्दों में आए अनुस्वार के स्थान पर 'न्‌' का प्रयोग त्रुटिपूर्ण है और 'वन्श', 'कन्स' आदि अशुद्ध लेखन के उदाहरण हैं अन्यत्र विशेषत: विदेशी (अंग्रेज़ी आदि) शब्दों में 'न्‌' के पहले आने से जो संयुक्त रूप बनते हैं उन्हें अनुस्वार के बिंदू के प्रयोग से सुविधा के लिए लिखना प्रचलित है परंतु न्‌ (आधा न) के प्रयोग से ही लिखना वैज्ञानिक है। ('इंडिया' नहीं, इन्‌डिया 'इन्डिया', 'टेंट' नहीं टेन्‌ट या टेन्ट')।
  • हिन्दी शब्दों में किसी व्यंजन के 'न्‌' से पहले आकर उसके साथ बनने वाले संयुक्त रूपों में प्रमुखत: ये महत्त्वपूर्ण हैं- ग्न (लग्न), घ्न (विघ्न), त्न (रत्न), प्न (स्वप्न), म्न (निम्न), श्न (प्रश्न), स्न (स्नान, स्नेह), ह्न या ह्‌न (चिह्न या चिह्‌न)।
  • र मिलने पर 'र्न' रूप लेता है। जैसे- टर्न। निस्सन्देह 'ह्न' की अपेक्षा 'ह्‌न' में अधिक स्पष्टता है।
  • संयुक्त व्यंजन रूप बनाने में हल्‌ से युक्त व्यंजन का आवश्यकता के अनुसार प्रयोग किया जा सकता है परंतु सामान्यत: नहीं। जैसे- 'जन्म' को 'जन्‌म' और 'लग्न' को 'लग्‌न' भी लिखा जा सकता है।
  • तत्सम शब्दों के अंत के 'न्‌' को प्राय: 'न' ही लिखना, अशुद्ध होने पर भी, आजकल हिन्दी में अधिक प्रचलित है। जैसे- विद्वान, महान, हनुमान।
  • [ संस्कृत (धातु) नश्‌ / (धातु) नह्‌ + ड ] विशेषण- रिक्त, ख़ाली, अतिरिक्त, फ़ालतू। पुल्लिंग- गणेश (देवता), सुवर्ण, सोना, मोती, धन-सम्पत्ति, युद्ध। जैसे- उसने 'न' कह दी; अब उसे ले जाना कठिन है।
  • निषेधवाचक 'न' का विलोम 'हाँ' है। अव्यय- नकार का सूचक शब्द, नहीं। जैसे- वह न पढ़ेगा। निषेध का सूचक शब्द। मत। जैसे- उसे न बुलाओ।
  • 'न' के अनेक प्रयोग उक्ति में विशेष अर्थ उत्पन्न कर देते हैं। ऐसे कुछ प्रयोग द्रष्टव्य हैं-
  1. पुनरुक्ति वाले कुछ प्रयोगों में 'न' आने से 'तो' का भाव जुड़ जाता है। जैसे- कहीं-न-कहीं वह अवश्य मिलेगा (कहीं-न-कहीं = कहीं तो); किसी-न-किसी दिन (किसी दिन तो)।
  2. कुछ प्रश्नात्मक वाक्यों के अंत में 'न' का प्रयोग पुष्टि के लिए हो सकता है। जैसे- तुम आज तो बाज़ार जाओगे न?
  3. वि-धि (प्रार्थना, आज्ञा आदि) के शब्द के साथ 'न' का प्रयोग विधि की प्रबलता के लिए होता है। जैसे- जाओ न ('जाओ' कहने में प्रबलता नहीं है); मान जाइए न।
  • 'न' का अर्थहीन प्रयोग तकियाकलाम के रूप में कुछ व्यक्ति स्वभाववश करते हैं। जैसे वह जब आया था न... तब उसने न.. यह बताया कि उसकी जो बहन है न... उसने एक मकान ख़रीद लिया है।
  • 'न' का प्रयोग प्राय: वाक्यों के अंत में नहीं होता, निषेध को बाद में रखना हो तो 'नहीं' का प्रयोग होता है। जैसे- 'न जाना, जाना नहीं'।
  • 'न' का योजक रूप में भी अनेक प्रकार से प्रयोग होता है। जैसे- (क) 'न...न'। जैसे- न पढ़ना, न लिखना। (ख) 'न केवल......अपितु/बल्कि। जैसे- यह रहस्य न केवल मैं जानता हूँ अपितु तुम्हारी माता जी भी जानती है। (ग) चाहे... न। जैसे- चाहे पढ़ो या न पढ़ो।
  • 'न कि' का भी एक योजक के रूप में प्रयोग होता है। जैसे- तुम्हारी सहायता मैंने की थी न कि किसी और ने।
  • 'न कुछ....न कुछ' एक नकारात्मक पदबन्ध है। जैसे- वह न कुछ हँसती है, न कुछ बोलती है।
  • 'न...और न' भी योजक पद समूह है। जैसे- तब न राम वन जाते और न रावण मारा जाता।
  • 'न ही...न ही' पद- समूह का प्रयोग अधिक बल देने के लिए होता है। जैसे- न ही तुम पढ़ोगे और न ही वह पढ़ाएगा।[1]

न की बारहखड़ी

ना नि नी नु नू ने नै नो नौ नं नः

न अक्षर वाले शब्द



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पुस्तक- हिन्दी शब्द कोश खण्ड-1 | पृष्ठ संख्या- 1338

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