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− | ! style="width:60%;"| पोस्ट
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− | ! style="width:25%;"| संबंधित चित्र
| + | ; दिनांक- 24 अप्रॅल, 2014 |
− | ! style="width:15%;"| दिनांक
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| <poem> | | <poem> |
− | क्या आप किसी का सुख-दु:ख, भीतर का संताप-अवसाद और अच्छा-बुरा...
| + | विभिन्न क्षेत्रों में बंगाल के वासियों की अद्भुत क्षमता और प्रतिभा तो जगज़ाहिर है ही लेकिन मतदाता के रूप में भी हमारे बांग्ला बंधु, मतदान प्रतिशत में कीर्तिमान स्थापित करते रहते हैं। |
− | जानना चाहते हैं? विशेषकर किसी 'अपने' का?
| + | क्या मछली खाने से अक़्ल ज़्यादा आती है। |
− | तो जानिए वे बातें जो उसने 'नहीं कहीं', जबकि कह सकता था और जानिए वो काम
| + | ये सवाल तो कोलकाता में जा बसे श्री जगदीश्वर चतुर्वेदी से भी पूछा जाना चाहिए... आख़िर मामला क्या है। |
− | जो उसने 'नहीं किए', जबकि कर सकता था।
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− | क्या आप ऐसा कर सकते हैं या ऐसा करने की कोशिश करते हैं ? यदि नहीं तो फिर
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− | दो ही बात हो सकती हैं कि या तो वह आपका अपना नहीं हैं या आप उसके अपने नहीं हैं।
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− | | [[चित्र:Aditya-chaudhary-facebook-post-11.jpg|250px|center]]
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− | | 31 मार्च, 2014
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− | <poem>
| + | ; दिनांक- 21 अप्रॅल, 2014 |
− | इस दुनिया में बहुत कुछ बदलता है
| + | [[चित्र:Aditya-chaudhary-facebook-post-23.jpg|250px|right]] |
− | बस एक ज़माना ही है
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− | जो कभी नहीं बदलता है
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− | और बदले भी कैसे ?
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− | जब इंसान का
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− | नज़रिया ही नहीं बदलता है
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− | चलो कोई बात नहीं
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− | सब चलता है
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− | बंदर से आदमी बनने की बात तो
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− | झूठी लगती है
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− | वो तो गिरगिट है
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− | जो माहौल के साथ रंग बदलता है
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− | वैसे तो आग का काम ही जलाना है
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− | वो बात अलग है कि
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− | कोई मरने से पहले
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− | तो कोई मरने के बाद जलता है
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− | और दम निकलने से मरने की बात भी झूठी है
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− | कुछ लोग,
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− | मर तो कब के जाते हैं
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− | दम है कि बहुत बाद में निकलता है
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− | वस्त्रों की तरह
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− | आत्मा का शरीर बदलना भी
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− | ग़लत लगता है मुझको
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− | हाँ कपड़ों की तरह इंसान
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− | चेहरे ज़रूर बदलता है
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− | चलो कोई बात नहीं
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− | सब चलता है
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− | सब चलता है
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− | </poem>
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− | | [[चित्र:Aditya-chaudhary-facebook-post-12.jpg|250px|center]]
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− | | 31 मार्च, 2014
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− | <poem>
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− | कभी तू है बादल
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− | कभी तू है सागर
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− | कहीं बनके तालाब पसरा पड़ा है
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− | कभी तू है बरखा
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− | कभी तू है नदिया
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− | कहीं पर तू झीलों में अलसा रहा है
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− | मगर तेरी ज़्यादा
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− | ज़रूरत जहाँ है
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− | उसे सबने अाँखों का पानी कहा है
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− | </poem>
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− | | [[चित्र:Aditya-chaudhary-facebook-post-13.jpg|250px|center]]
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− | | 31 मार्च, 2014
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− | <poem>
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− | चाहे बैठे हों खेत खलिहान में
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− | या हो उड़ान
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− | कहीं ऊँचे विमान में
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− | होता हो
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− | किसी आलीशान मकान में सवेरा
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− | या कहीं किसी
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− | कच्ची मढ़ैया में बसेरा
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− | हों व्यापारी अधिकारी
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− | या कोई
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− | बड़े नेता
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− | खिलाड़ी हों आप
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− | या कोई अभिनेता
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− | घूमते हों सुबह शाम पैदल
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− | या बस में
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− | या गुज़रता हो दिन
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− | ज़िन्दगी के सरकस में
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− | अलबत्ता सबके जीवन में
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− | एक बात तो कॉमन है
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− | वो है
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− | बस दो की तलाश
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− | इक तो ईश्वर
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− | जो कभी दिखता नहीं है
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− | दूजा प्यार
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− | जो कभी मिलता नहीं है
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− | </poem>
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− | | [[चित्र:Aditya-chaudhary-facebook-post-14.jpg|250px|center]]
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− | | 31 मार्च, 2014
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− | <poem>
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− | इविंग स्टोन ने विश्व के महान चित्रकार (पेन्टर) 'वॅन गॉफ़' की जीवनी लिखी है। यह विश्व की महानतम जीवनियों में एक मानी जाती है। इस पुस्तक में अनेकों प्रसंग ऐसे हैं जिन्हें पढ़कर 'वॅन गॉफ़' के अद्भुत व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना रह पाना संभव नहीं है। यह पुस्तक मैंने संभवत: 25 वर्ष पहले पढ़ी होगी।
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− | इसी पुस्तक से कुछ पंक्तियाँ:-
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− | | |
− | "दुनिया में काम करने के लिए आदमी को अपने ही भीतर मरना पड़ता है। आदमी इस दुनिया में सिर्फ़ ख़ुश होने नहीं आया है, वह ऐसे ही ईमानदार बनने को भी नहीं आया है, वह तो पूरी मानवता के लिए महान चीज़ें बनाने के लिए आया है। वह उदारता प्राप्त करने को आया है। वह उस बेहूदगी को पार करने आया है जिस में ज़्यादातर लोगों का अस्तित्व घिसटता रहता है।
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− | </poem>
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− | | [[चित्र:Aditya-chaudhary-facebook-post-15.jpg|250px|center]]
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− | | 23 मार्च, 2014
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| <poem> | | <poem> |
− | कहते हैं प्लॅटो जैसा गुरु और अरस्तु जैसा शिष्य एथेंस, यूनान (ग्रीस) में कभी दूसरा नहीं हुआ। प्लॅटो की यूटोपियन धारणा की अरस्तु ने आलोचना की है। आज विश्व के अधिकतर देशों (विशेषकर पश्चिम) में अरस्तु की दार्शनिक पद्धति का अनुसरण होता है।
| + | इसी मैदान में उस शख़्स को फाँसी लगी होगी |
| + | तमाशा देखने को भीड़ भी काफ़ी लगी होगी |
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− | 'अरस्तु' को भौतिकवादी, साम्राज्यवादी या पूँजीवादी आदि कई विशेषण प्राप्त हैं। कुछ बातें अरस्तु ने बहुत अच्छी कही हैं।
| + | जिन्हें आज़ाद करने की ग़रज़ से जान पर खेला |
| + | उन्हीं को चंद रोज़ों में ख़बर बासी लगी होगी |
| | | |
− | अरस्तु ने कहा है-
| + | बड़े सरकार आए हैं, यहाँ पौधा लगाएँगे |
| + | हटाने धूल को मुद्दत में अब झाडू लगी होगी |
| | | |
− | "उचित व्यक्ति को
| + | शहर में लोग ज़्यादा हैं जगह रहने की भी कम है |
− | उचित समय पर
| + | इसी को सोचकर मैदान की बोली लगी होगी |
− | उचित मात्रा में
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− | उचित ढंग से
| |
− | सहायता देना बहुत कठिन है।"
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− | भारतीय दर्शन में भी इसी से मिलती-जुलती स्थिति है-
| + | यहाँ तो ज़ात और मज़हब का अब बाज़ार लगता है |
− | "कुपात्र को दिया गया दान भी व्यर्थ जाता है।"
| + | उसे अपनी शहादत ही बहुत फीकी लगी होगी |
| </poem> | | </poem> |
− | | [[चित्र:Aditya-chaudhary-facebook-post-16.jpg|250px|center]]
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− | | 16 मार्च, 2014
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| |- | | |- |
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| + | ; दिनांक- 21 अप्रॅल, 2014 |
| + | [[चित्र:Aditya-chaudhary-facebook-post-24.jpg|250px|right]] |
| <poem> | | <poem> |
− | एक लयबद्ध जीवन जीने की आस
| + | लहू बहता है तो कहना कि पसीना होगा |
− | एक बहुत ही
| + | न जाने कब तलक इस दौर में जीना होगा |
− | व्यक्तिगत जीवन का अहसास
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− | न जाने कब होगा | |
− | होगा न जाने कब
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− | एक घर हो दूर कहीं छोटा सा
| + | 'छलक ना' जाय सरे शाम कहीं महफ़िल में |
− | जहाँ एकान्त की जहाँ माँग हो
| + | ये जाम-ए-सब्र तो हर हाल में पीना होगा |
− | सबसे ज़्यादा
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− | बस मिल ना पाये
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− | कभी एकान्त
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− | न खाने को दौड़े अकेलापन
| + | यूँ तो अहसास भी कम है चुभन का ज़ख़्मों की |
− | कुछ ऐसे ही भविष्य का आभास
| + | तूने जो चाक़ किया तो हमें सीना होगा |
− | लेकिन झूठ है सबकुछ
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− | ये नहीं होगा कभी भी नहीं होगा
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− | कैसे होगा ये...
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| | | |
− | कि रहे कहीं ऐसी जगह
| + | अब तो उम्मीद भी ठोकर की तरह दिखती है |
− | जहाँ सभी अपने हों
| + | करना बदनाम यूँ किस्मत को सही ना होगा |
− | और छोटे-छोटे
| |
− | हक़ीक़त भरे सपने हों...
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− | </poem>
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− | | [[चित्र:Aditya-chaudhary-facebook-post-17.jpg|250px|center]]
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− | | 5 मार्च, 2014
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− | <poem>
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− | न नई है न पुरानी है
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− | सच तो नहीं
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− | ज़ाहिर है, कहानी है
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− | एक जोड़ा हंस हंसिनी का
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− | तैरता आसमान में
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− | तभी हंसिनी को दिखा
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− | एक उल्लू कहीं वीरान में
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− | हंसिनी, हंस से बोली-
| + | यही वो शख़्स जो कुर्सी पे जाके बैठेगा |
− | "कैसा अभागा मनहूस जन्म है उल्लू का
| + | वक़्त आने पे वो तेरा तो कभी ना होगा |
− | जहाँ बैठा
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− | वहीं वीरान कर देता है
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− | क्या उल्लू भी किसी को खुशी देता है?"
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− |
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− | तेज़ कान थे उल्लू के भी
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− | सुन लिया और बोला-
| |
− | "अरे सुनो! उड़ने वालो !
| |
− | शाम घिर आई
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− | ऐसी भी क्या जल्दी !
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− | यहीं रुक लो भाई"
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− | ऐसी आवाज़ सुन उल्लू की
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− | उतर गए हंस हंसिनी
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− | ख़ातिर की उल्लू ने
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− | दोनों सो गए वहीं
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− | सूरज निकला सुबह
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− | चलने लगे दोनों तो...
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− | उल्लू ने हंसिनी को पकड़ लिया
| |
− | "पागल है क्या ?
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− | मेरी हंसिनी को कहाँ लिए जाता है ?
| |
− | रात का मेहमान क्या बना ?
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− | बीवी को ही भगाता है ?"
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− | | |
− | हंस को काटो तो ख़ून नहीं
| |
− | झगड़ा बढ़ा
| |
− | तो फिर पास के गाँव से नेता आए
| |
− | अब उल्लू से झगड़ा करके
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− | कौन अपना घर उजड़वाए !
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− | उल्लू का क्या भरोसा ?
| |
− | किसी नेता की छत पर ही बैठ जाए
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− | | |
− | तो फ़ैसला ये हुआ
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− | कि हंसिनी पत्नी उल्लू की है
| |
− | और हंस तो बस उल्लू ही है
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− | नेता चले गए
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− | बेचारा हंस भी चलने को हुआ
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− | मगर उल्लू ने उसे रोका
| |
− | "हंस ! अपनी हंसिनी को तो ले जा
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− | मगर इतना तो बता
| |
− | कि उजाड़ कौन करवाता है ?
| |
− | उल्लू या नेता ?"
| |
| </poem> | | </poem> |
− | | [[चित्र:Aditya-chaudhary-facebook-post-18.jpg|250px|center]]
| |
− | | 4 मार्च, 2014
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| |- | | |- |
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| + | ; दिनांक- 1 अप्रॅल, 2014 |
| + | [[चित्र:Aditya-chaudhary-facebook-post-22.jpg|250px|right]] |
| <poem> | | <poem> |
− | वक़्त बहुत कम है और काम बहुत ज़्यादा है
| + | बीते लम्हों की यादों से |
− | हर एक लम्हे का दाम बहुत ज़्यादा है
| + | अब उठें, भव्य उजियारा है |
− | | + | इस नए साल को, यूँ जीएँ |
− | फ़ुर्सत अब किसको है रिश्तों को जीने की
| + | जैसे संसार हमारा है |
− | वीकेन्ड वाली इक शाम बहुत ज़्यादा है
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− | | |
− | चौपालें सूनी हैं, मेलों में मातम है
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− | कहीं पे रहीम कहीं राम बहुत ज़्यादा है
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− | खुल के हँसने की जब याद कभी आए तो
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− | पल भर को झलकी मुस्कान बहुत ज़्यादा है
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− | कोयल की तानें तो अब भी हैं बाग़ों में
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− | लेकिन अब बोतल में आम बहुत ज़्यादा है
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| | | |
− | जिस्मों के धन्धे को लानत अब क्या भेजें
| + | हम जीने दें और जी भी लें |
− | इसमें भी शोहरत है, नाम बहुत ज़्यादा है
| + | विश्वास जुटा कर उन सब में |
| + | जो बात-बात पर कहते हैं |
| + | हमको किस्मत ने मारा है |
| | | |
− | साझे चूल्हे में अब आग कहाँ जलती है
| + | अब रहे दामिनी निर्भय हो |
− | शामिल रहने में ताम-झाम बहुत ज़्यादा है
| + | निर्भय इरोम का जीवन हो |
| + | अब गर्भ में मुसकाये बिटिया |
| + | यह अंश, वंश से प्यारा है |
| | | |
− | बस इक मुहब्बत का आलम ही राहत है
| + | फ़ेयर ही लवली नहीं रहे |
− | लेकिन ये कोशिश नाक़ाम बहुत ज़्यादा है
| + | अनफ़ेयर यही अफ़ेयर हो |
− | </poem>
| + | काली मैया जब काली है |
− | | [[चित्र:Aditya-chaudhary-facebook-post-19.jpg|250px|center]]
| + | तो रंग से क्यों बंटवारा है |
− | | 4 मार्च, 2014
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− | |-
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− | <poem>
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− | फ़ासले मिटाके, आया क़रीब होता
| |
− | चाहे नसीब वाला या कम नसीब होता
| |
| | | |
− | उसे ज़िन्दगी में अपनी, मेरी तलाश होती
| + | ये ज़ात-पात क्या होती है |
− | मैं उसकी सुबह होता, वो मेरी शाम होता
| + | माता की कोई ज़ात नहीं |
| + | यदि पिता ज़ात को रोता है |
| + | तो कैसा पिता हमारा है |
| | | |
− | मेरी आरज़ू में उसके, ख़ाबों के फूल होते
| + | जाने कब हम ये समझेंगे |
− | यूँ साथ उसके रहना, कितना हसीन होता
| + | ना जाने कब ये जानेंगे |
| + | मस्जिद में राम, मंदिर में ख़ुदा |
| + | हर मज़हब एक सहारा है |
| | | |
− | जब शाम कोई तन्हा, खोई हुई सी होती
| + | सुबह आज़ान जगाए हमें |
− | तब जिस्म से ज़ियादा, वो पास दिल के होता
| + | मंदिर की आरती झपकी दे |
| + | सपनों में ख़ुदा या राम बसें |
| + | मक़सद अब प्रेम हमारा है |
| | | |
− | दिल के हज़ार सदमे, ग़म के हज़ार लम्हे
| + | सहमी मस्जिद को बोल मिलेें |
− | इक साथ उसका होना, राहत तमाम होता
| + | मंदिर भी अब जी खोल मिलें |
| + | गिरजे गुरुद्वारे सब बोलें |
| + | जय हो ! यह देश हमारा है |
| </poem> | | </poem> |
− | | [[चित्र:Aditya-chaudhary-facebook-post-20.jpg|250px|center]]
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− | | 4 मार्च, 2014
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| |} | | |} |
| |} | | |} |