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'''बिनकारी''' एक हस्त शिल्पकला है। बिनकारी कला को जानने वालों को बिनकर कहते हैं। बिनकर सामान्यतया बड़े एवं संयुक्त परिवार में रहते हैं। इस कला में लोग बचपन से ही लग जाते हैं। कला की जटिलता इतनी है कि अगर बचपन से ही इसपर ध्यान न दिया जाय तो फिर इसे सीखना मुश्किल हो जाता है। इसमें परिवार के सभी लोग बच्चे-बूढ़े, जवान, औरत और मर्द लगे रहते हैं। सभी लड़के-चाहे वे स्कूल जाते हो या न जाते हों - बिनकारी दस से बारह वर्ष की अवस्था में प्रारंभ कर देते है। पांच से छह वर्ष का प्रशिक्षण (जो घर में ही मिल जाता है) के बाद एक बच्चा एक कुशल बिनकर के आधे के आसपास कमाई कर लेता है और अगले दो से चार वर्ष में वह पूर्ण कारीगर बन जाता है एवं पूरी कमाई करने लगता है। महिलाएं सामान्यतया बिनने का कार्य नहीं करती परन्तु अन्य मदद जैसे धागे को सुलझाना, बोबिंग में डालना, चर्खा पर तैयार करना इत्यादि कर देती है। इसीलिए बिना औरत के बिनाई लगभग असम्भव सा लगता है। जब एक बच्चा इस कला को सीखना प्रारंभ करता है तो सामान्यतया वह बुटी काढ़ने का या ढ़रकी को फेकने का कार्य करता है। इसीलिए उसे ''बुटी कढ़वा'' या ''ढ़रकी फेकवा'' भी कहा जाता है। जब एक बिनकर अपनी कला में समग्रता के साथ पारंगत हो जाता है तब उसे गीरहस्ता (प्रमुख बिनकर) कहकर पुकारा जाता है।<ref name="igcna">{{cite web |url=http://www.ignca.nic.in/coilnet/kv_0010.htm#Gauravshaali  |title=बिनकारी: एक गौरवशाली परम्परा|accessmonthday=24 नवंबर |accessyear=2012 |last=मिश्र  |first=डॉ. कैलाश कुमार |authorlink= |format= एच.टी.एम.एल|publisher= ignca.nic.|language= हिंदी}} </ref>
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'''बिनकारी''' एक हस्त शिल्पकला है। बिनकारी कला को जानने वालों को बिनकर कहते हैं। बिनकर सामान्यतया बड़े एवं [[संयुक्त परिवार]] में रहते हैं। इस कला में लोग बचपन से ही लग जाते हैं। कला की जटिलता इतनी है कि अगर बचपन से ही इसपर ध्यान न दिया जाय तो फिर इसे सीखना मुश्किल हो जाता है। इसमें परिवार के सभी लोग बच्चे-बूढ़े, जवान, औरत और मर्द लगे रहते हैं। सभी लड़के-चाहे वे स्कूल जाते हो या न जाते हों - बिनकारी दस से बारह वर्ष की अवस्था में प्रारंभ कर देते है। पांच से छह वर्ष का प्रशिक्षण (जो घर में ही मिल जाता है) के बाद एक बच्चा एक कुशल बिनकर के आधे के आसपास कमाई कर लेता है और अगले दो से चार वर्ष में वह पूर्ण कारीगर बन जाता है एवं पूरी कमाई करने लगता है। महिलाएं सामान्यतया बिनने का कार्य नहीं करती परन्तु अन्य मदद जैसे धागे को सुलझाना, बोबिंग में डालना, चर्खा पर तैयार करना इत्यादि कर देती है। इसीलिए बिना औरत के बिनाई लगभग असम्भव सा लगता है। जब एक बच्चा इस कला को सीखना प्रारंभ करता है तो सामान्यतया वह बुटी काढ़ने का या ढ़रकी को फेकने का कार्य करता है। इसीलिए उसे ''बुटी कढ़वा'' या ''ढ़रकी फेकवा'' भी कहा जाता है। जब एक बिनकर अपनी कला में समग्रता के साथ पारंगत हो जाता है तब उसे गीरहस्ता (प्रमुख बिनकर) कहकर पुकारा जाता है।<ref name="igcna">{{cite web |url=http://www.ignca.nic.in/coilnet/kv_0010.htm#Gauravshaali  |title=बिनकारी: एक गौरवशाली परम्परा|accessmonthday=24 नवंबर |accessyear=2012 |last=मिश्र  |first=डॉ. कैलाश कुमार |authorlink= |format= एच.टी.एम.एल|publisher= ignca.nic.|language= हिंदी}} </ref>
 
==बनारस है मुख्य गढ़==
 
==बनारस है मुख्य गढ़==
बिनकारी कला का मुख्य गढ़ [[बनारस]] है। बिनकर खासकर [[मुसलमान]] बिनकरों को इस बात का अत्याधिक गर्व है कि उनके द्वारा बनाए गए बनारसी वस्रों को पूरे विश्व में प्रसिद्धि मिली हुई है। लोग गर्व से कहते हैं कि बहुत ही जगहों में खासकर [[गुजरात]] के [[सूरत]] जैसे शहरों में रईसों एवं सेठों ने बनारसी करघे को चलाना चाहा। लाख कोशिशें कीं फिर भी कामयाबी हासिल नहीं हुई। एक बुजुर्ग बिनकर कहता है ''यह इल्म और यहां की [[मिट्टी]] दोनों का चोली दामन का सम्बन्ध है''। न तो बनारस की मिट्टी इस इल्म के बिना रह सकती है और न हीं बिनकारी की प्रक्रिया इस मिट्टी के बगैर फल फूल सकती है।
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बिनकारी कला का मुख्य गढ़ [[बनारस]] है। बिनकर ख़ासकर [[मुसलमान]] बिनकरों को इस बात का अत्याधिक गर्व है कि उनके द्वारा बनाए गए बनारसी वस्रों को पूरे विश्व में प्रसिद्धि मिली हुई है। लोग गर्व से कहते हैं कि बहुत ही जगहों में ख़ासकर [[गुजरात]] के [[सूरत]] जैसे शहरों में रईसों एवं सेठों ने बनारसी करघे को चलाना चाहा। लाख कोशिशें कीं फिर भी कामयाबी हासिल नहीं हुई। एक बुजुर्ग बिनकर कहता है ''यह इल्म और यहां की [[मिट्टी]] दोनों का चोली दामन का सम्बन्ध है''। न तो बनारस की मिट्टी इस इल्म के बिना रह सकती है और न हीं बिनकारी की प्रक्रिया इस मिट्टी के बगैर फल फूल सकती है।
बनारस के बिनकर इस बात से भी अच्छी तरह अवगत है कि उनके बनाए वस्रों की मांग बाजार में काफी है, और बहुत से बिचौलिए, कोठीदार यहां तक कि गीरस्ता भी माला-माल हो रहे हैं, जबकि उनके मेहनत तथा कलात्मक ज्ञान के बावजूद उन्हें जितना पारिश्रमिक मिलना चाहिए उतना नहीं मिल रहा है। अलइपुरा के ही बिनकर ने बताया कि [[काशी]] के बिनकर तो पारस पत्थर हैं। जिसने भी इनको छुआ मालो माल हो गए परन्तु ये अपनी अवस्था पर यथावत खड़े हैं।<ref name="igcna"/>
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बनारस के बिनकर इस बात से भी अच्छी तरह अवगत है कि उनके बनाए वस्रों की मांग बाज़ार में काफ़ी है, और बहुत से बिचौलिए, कोठीदार यहां तक कि गीरस्ता भी माला-माल हो रहे हैं, जबकि उनके मेहनत तथा कलात्मक ज्ञान के बावजूद उन्हें जितना पारिश्रमिक मिलना चाहिए उतना नहीं मिल रहा है। अलइपुरा के ही बिनकर ने बताया कि [[काशी]] के बिनकर तो पारस पत्थर हैं। जिसने भी इनको छुआ मालो माल हो गए परन्तु ये अपनी अवस्था पर यथावत खड़े हैं।<ref name="igcna"/>
====पाक साफ कला====
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====पाक साफ़ कला====
कुछ लोगों का कहना है कि बिनकारी की कला बहुत ही पाक साफ कला है। पैगम्बर भी अपना कपड़ा भी खुद बिनते थे। और आज आलम यह है कि हमें जुलाहा कहकर छोटा समझा जाता है। ''अलईपुर के एक बिनकर ने यह कहते हुए समझाया फिर आगे कहने लगे'' सत्य तो यह है कि न तो लोगों को और न बिनकरों को जुलाहा शब्द का अर्थ मालूम है और न ही इसका इतिहास। जुलाहा शब्द जुए इलाहा शब्द का विकृत रुप है, जिसका मतलब खुदा या भगवान की खोज करने वाले बन्दे या भक्त से होता है। और तो और महान मुगल बादशाह [[औरंगजेब]] भी बिनकारी का कार्य करता था। कुछ लोगों ने बताया कि [[ईरान]] से कुछ मुसलमान बनारस की तरफ आए जो सिल्क तथा कालीन बनाने की कला में पारंगत थे। बिनकारी वाले लोग बनारस में रह गए जबकि कालीन बनाने वाले [[मिर्जापुर]] की तरफ चले गए। इन ईरानी बिनकरों ने यहां के लोगों को बिनने की तकनीक में बहुत से नए इल्म का इजाद भी किया। इतना ही नहीं कुछ लोगों ने तो बिनकारी के साथ-साथ समाज सुधारक तथा सच्चे धर्मनिष्ठ मुसलमान की भूमिका भी निभाई।
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कुछ लोगों का कहना है कि बिनकारी की कला बहुत ही पाक साफ़ कला है। पैगम्बर भी अपना कपड़ा भी खुद बिनते थे। और आज आलम यह है कि हमें जुलाहा कहकर छोटा समझा जाता है। ''अलईपुर के एक बिनकर ने यह कहते हुए समझाया फिर आगे कहने लगे'' सत्य तो यह है कि न तो लोगों को और न बिनकरों को जुलाहा शब्द का अर्थ मालूम है और न ही इसका इतिहास। जुलाहा शब्द जुए इलाहा शब्द का विकृत रुप है, जिसका मतलब खुदा या भगवान की खोज करने वाले बन्दे या भक्त से होता है। और तो और महान् मुग़ल बादशाह [[औरंगजेब]] भी बिनकारी का कार्य करता था। कुछ लोगों ने बताया कि [[ईरान]] से कुछ मुसलमान बनारस की तरफ आए जो सिल्क तथा कालीन बनाने की कला में पारंगत थे। बिनकारी वाले लोग बनारस में रह गए जबकि कालीन बनाने वाले [[मिर्जापुर]] की तरफ चले गए। इन ईरानी बिनकरों ने यहां के लोगों को बिनने की तकनीक में बहुत से नए इल्म का इजाद भी किया। इतना ही नहीं कुछ लोगों ने तो बिनकारी के साथ-साथ समाज सुधारक तथा सच्चे धर्मनिष्ठ मुसलमान की भूमिका भी निभाई।
 
इसी में से एक नाम मिर्जा अलवी का है। मिर्जा अलवी भी ईरान से बनारस आए थे तथा सच्चे मुसलमान थे। [[साड़ी]] बिनने के साथ साथ लोगों के [[इस्लाम धर्म]] में फैले अन्धविश्वास, अशिक्षा इत्यादि के प्रति जाग्रत भी करते थे। उन्हीं के नाम पर एक बस्ती अलवीपुरा का नामांकरण किया गया, जिसे आजकल अलईपुरा के नाम से जाना जाता है। अलई में आज भी मिर्जा अलवी का मजार है जहां मुसलमान तथा [[हिन्दू]] दोनों ही मन्नत मांगने के लिए जाते हैं।
 
इसी में से एक नाम मिर्जा अलवी का है। मिर्जा अलवी भी ईरान से बनारस आए थे तथा सच्चे मुसलमान थे। [[साड़ी]] बिनने के साथ साथ लोगों के [[इस्लाम धर्म]] में फैले अन्धविश्वास, अशिक्षा इत्यादि के प्रति जाग्रत भी करते थे। उन्हीं के नाम पर एक बस्ती अलवीपुरा का नामांकरण किया गया, जिसे आजकल अलईपुरा के नाम से जाना जाता है। अलई में आज भी मिर्जा अलवी का मजार है जहां मुसलमान तथा [[हिन्दू]] दोनों ही मन्नत मांगने के लिए जाते हैं।
  
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! खड्डी
| खड्डी जमीन में गड़ी होती है, जिसपर हत्था खड़ा होता है। अर्थात हत्था खड्डी के ऊपर खड़ा होता है। खड्डी लकड़ी की बनी होती है जो दो खूंटे पर खड़ी होती है। इसमें खड्डीदार सीकी बनी होती है, जिसके बेस पर लकड़ी का माला लगा होता है।
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| खड्डी जमीन में गड़ी होती है, जिसपर हत्था खड़ा होता है। अर्थात् हत्था खड्डी के ऊपर खड़ा होता है। खड्डी लकड़ी की बनी होती है जो दो खूंटे पर खड़ी होती है। इसमें खड्डीदार सीकी बनी होती है, जिसके बेस पर लकड़ी का माला लगा होता है।
 
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!  गेठुआ (गेठवा, गेतवा)
 
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| पौसार दबाने पर नाका या तानी ऊपर की ओर उठता है जिससे कपड़े की बिनाई तथा कढ़ाई की प्रक्रिया चलती रहती है। नाका या तानी ऊपर की ओर उठने के बाद यह जरुरी है कि वह फिर अपने पूर्व स्थान पर यथावत आ जाए और कहीं फंसे भी नहीं। इसी के लिए कारखाने में एक वजन दोनों तरफ दो-दो कर डाल दिया जाता है, जिसे नौलक्खा या बोझा कहते हैं। पहले नौलक्खा कुम्हार की [[मिट्टी]] को पकाकर सुन्दर आकृति में बनाता था। हालांकि आजकल इसके बदले ईंटा या बालू के बोझ का भी प्रयोग किया जाता है।
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| पौसार दबाने पर नाका या तानी ऊपर की ओर उठता है जिससे कपड़े की बिनाई तथा कढ़ाई की प्रक्रिया चलती रहती है। नाका या तानी ऊपर की ओर उठने के बाद यह ज़रूरी है कि वह फिर अपने पूर्व स्थान पर यथावत आ जाए और कहीं फंसे भी नहीं। इसी के लिए कारखाने में एक वजन दोनों तरफ दो-दो कर डाल दिया जाता है, जिसे नौलक्खा या बोझा कहते हैं। पहले नौलक्खा कुम्हार की [[मिट्टी]] को पकाकर सुन्दर आकृति में बनाता था। हालांकि आजकल इसके बदले ईंटा या बालू के बोझ का भी प्रयोग किया जाता है।
 
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! पटबेल
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==बिनकारी पेशा और उसका स्वास्थ्य पर प्रभाव==
 
==बिनकारी पेशा और उसका स्वास्थ्य पर प्रभाव==
बहुत से लोगों ने अपने लेख, अध्ययन, रिपोर्ट तथा किताबों में इस बात का विस्तार से वर्णन किया है कि बिनकारी पेशे का बिनकरों के स्वास्थ्य पर बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ता है। दमे की बिमारी, यक्षमा, कमर दर्द, बदन दर्द इत्यादि बीमारियों का जिक्र भी इन लोगों ने विस्तारपूर्वक किया है लेकिन वहाँ के लोगों के अनुसार बिनकारी पेशे से किसी प्रकार की बिमारी होने की संभावना नहीं है। उल्टे इससे फायदे ही हैं। बिनकारी एक प्रकार का व्यायाम है, जिसमें शरीर के प्रत्येक अंग पैर से लेकर [[मस्तिष्क]] तक क्रियाशील रहता है। लोगों ने कहा कि यह तो शरीर को चुस्त तथा दुरुस्त बनाए रखता है। हालांकि कुछ लोगों ने यह स्वीकार किया कि बुढ़ापा आने पर बदन दर्द तथा जोड़ों का दर्द जैसी समस्याओं का सामना इन्हें करना पड़ता है। कुछ लोगों ने इस बात का भी प्रतिकार किया और बताया कि जोड़ों का दर्द तथा बदन दर्द एक ऐसी समस्या है जो लगभग सभी लोगों को बुढ़ापे में परेशान करती हैं, चाहे वे बिनकारी के पेशे में हों या अन्य किसी भी पेशे में क्यों न हो। इसका सम्बन्ध किसी भी तरह से बिनकारी के पेशे से जोड़ना सही नहीं है।<ref name="igcna"/>
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बहुत से लोगों ने अपने लेख, अध्ययन, रिपोर्ट तथा किताबों में इस बात का विस्तार से वर्णन किया है कि बिनकारी पेशे का बिनकरों के स्वास्थ्य पर बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ता है। दमे की बिमारी, यक्षमा, कमर दर्द, बदन दर्द इत्यादि बीमारियों का ज़िक्र भी इन लोगों ने विस्तारपूर्वक किया है लेकिन वहाँ के लोगों के अनुसार बिनकारी पेशे से किसी प्रकार की बिमारी होने की संभावना नहीं है। उल्टे इससे फायदे ही हैं। बिनकारी एक प्रकार का व्यायाम है, जिसमें शरीर के प्रत्येक अंग पैर से लेकर [[मस्तिष्क]] तक क्रियाशील रहता है। लोगों ने कहा कि यह तो शरीर को चुस्त तथा दुरुस्त बनाए रखता है। हालांकि कुछ लोगों ने यह स्वीकार किया कि बुढ़ापा आने पर बदन दर्द तथा जोड़ों का दर्द जैसी समस्याओं का सामना इन्हें करना पड़ता है। कुछ लोगों ने इस बात का भी प्रतिकार किया और बताया कि जोड़ों का दर्द तथा बदन दर्द एक ऐसी समस्या है जो लगभग सभी लोगों को बुढ़ापे में परेशान करती हैं, चाहे वे बिनकारी के पेशे में हों या अन्य किसी भी पेशे में क्यों न हो। इसका सम्बन्ध किसी भी तरह से बिनकारी के पेशे से जोड़ना सही नहीं है।<ref name="igcna"/>
  
  

07:53, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण

बिनकारी एक हस्त शिल्पकला है। बिनकारी कला को जानने वालों को बिनकर कहते हैं। बिनकर सामान्यतया बड़े एवं संयुक्त परिवार में रहते हैं। इस कला में लोग बचपन से ही लग जाते हैं। कला की जटिलता इतनी है कि अगर बचपन से ही इसपर ध्यान न दिया जाय तो फिर इसे सीखना मुश्किल हो जाता है। इसमें परिवार के सभी लोग बच्चे-बूढ़े, जवान, औरत और मर्द लगे रहते हैं। सभी लड़के-चाहे वे स्कूल जाते हो या न जाते हों - बिनकारी दस से बारह वर्ष की अवस्था में प्रारंभ कर देते है। पांच से छह वर्ष का प्रशिक्षण (जो घर में ही मिल जाता है) के बाद एक बच्चा एक कुशल बिनकर के आधे के आसपास कमाई कर लेता है और अगले दो से चार वर्ष में वह पूर्ण कारीगर बन जाता है एवं पूरी कमाई करने लगता है। महिलाएं सामान्यतया बिनने का कार्य नहीं करती परन्तु अन्य मदद जैसे धागे को सुलझाना, बोबिंग में डालना, चर्खा पर तैयार करना इत्यादि कर देती है। इसीलिए बिना औरत के बिनाई लगभग असम्भव सा लगता है। जब एक बच्चा इस कला को सीखना प्रारंभ करता है तो सामान्यतया वह बुटी काढ़ने का या ढ़रकी को फेकने का कार्य करता है। इसीलिए उसे बुटी कढ़वा या ढ़रकी फेकवा भी कहा जाता है। जब एक बिनकर अपनी कला में समग्रता के साथ पारंगत हो जाता है तब उसे गीरहस्ता (प्रमुख बिनकर) कहकर पुकारा जाता है।[1]

बनारस है मुख्य गढ़

बिनकारी कला का मुख्य गढ़ बनारस है। बिनकर ख़ासकर मुसलमान बिनकरों को इस बात का अत्याधिक गर्व है कि उनके द्वारा बनाए गए बनारसी वस्रों को पूरे विश्व में प्रसिद्धि मिली हुई है। लोग गर्व से कहते हैं कि बहुत ही जगहों में ख़ासकर गुजरात के सूरत जैसे शहरों में रईसों एवं सेठों ने बनारसी करघे को चलाना चाहा। लाख कोशिशें कीं फिर भी कामयाबी हासिल नहीं हुई। एक बुजुर्ग बिनकर कहता है यह इल्म और यहां की मिट्टी दोनों का चोली दामन का सम्बन्ध है। न तो बनारस की मिट्टी इस इल्म के बिना रह सकती है और न हीं बिनकारी की प्रक्रिया इस मिट्टी के बगैर फल फूल सकती है। बनारस के बिनकर इस बात से भी अच्छी तरह अवगत है कि उनके बनाए वस्रों की मांग बाज़ार में काफ़ी है, और बहुत से बिचौलिए, कोठीदार यहां तक कि गीरस्ता भी माला-माल हो रहे हैं, जबकि उनके मेहनत तथा कलात्मक ज्ञान के बावजूद उन्हें जितना पारिश्रमिक मिलना चाहिए उतना नहीं मिल रहा है। अलइपुरा के ही बिनकर ने बताया कि काशी के बिनकर तो पारस पत्थर हैं। जिसने भी इनको छुआ मालो माल हो गए परन्तु ये अपनी अवस्था पर यथावत खड़े हैं।[1]

पाक साफ़ कला

कुछ लोगों का कहना है कि बिनकारी की कला बहुत ही पाक साफ़ कला है। पैगम्बर भी अपना कपड़ा भी खुद बिनते थे। और आज आलम यह है कि हमें जुलाहा कहकर छोटा समझा जाता है। अलईपुर के एक बिनकर ने यह कहते हुए समझाया फिर आगे कहने लगे सत्य तो यह है कि न तो लोगों को और न बिनकरों को जुलाहा शब्द का अर्थ मालूम है और न ही इसका इतिहास। जुलाहा शब्द जुए इलाहा शब्द का विकृत रुप है, जिसका मतलब खुदा या भगवान की खोज करने वाले बन्दे या भक्त से होता है। और तो और महान् मुग़ल बादशाह औरंगजेब भी बिनकारी का कार्य करता था। कुछ लोगों ने बताया कि ईरान से कुछ मुसलमान बनारस की तरफ आए जो सिल्क तथा कालीन बनाने की कला में पारंगत थे। बिनकारी वाले लोग बनारस में रह गए जबकि कालीन बनाने वाले मिर्जापुर की तरफ चले गए। इन ईरानी बिनकरों ने यहां के लोगों को बिनने की तकनीक में बहुत से नए इल्म का इजाद भी किया। इतना ही नहीं कुछ लोगों ने तो बिनकारी के साथ-साथ समाज सुधारक तथा सच्चे धर्मनिष्ठ मुसलमान की भूमिका भी निभाई। इसी में से एक नाम मिर्जा अलवी का है। मिर्जा अलवी भी ईरान से बनारस आए थे तथा सच्चे मुसलमान थे। साड़ी बिनने के साथ साथ लोगों के इस्लाम धर्म में फैले अन्धविश्वास, अशिक्षा इत्यादि के प्रति जाग्रत भी करते थे। उन्हीं के नाम पर एक बस्ती अलवीपुरा का नामांकरण किया गया, जिसे आजकल अलईपुरा के नाम से जाना जाता है। अलई में आज भी मिर्जा अलवी का मजार है जहां मुसलमान तथा हिन्दू दोनों ही मन्नत मांगने के लिए जाते हैं।

बिनकारी तकनीक[1]

बनारसी (बिनकर गज)
  • 16 गीरह का एक गज होता है।
  • 4 अंगुली का एक गीरह होती है।
  • 1 गीरह में सवा दो ईंच होता है।
फन्नी की लम्बाई

फन्नी की लम्बाई साढ़े सत्रह गीरह के लगभग होती है

पनहा फन्नी के साईज पर निर्भर करता है। साड़ी की चौड़ाई अथवा अर्ज को पनहा कहा जाता है।
भरुई की फन्नी भरुई की फन्नी ही परम्परागत फन्नी है जो लुप्त प्राय हो रही है। भरुई की फन्नी के दोनों बेस एक प्रकार की लकड़ी से बना होता है जिसे साठा कहा जाता है।
सीक सीक नरकट से बना होता है। नरकट को सीक की तरह बनाकर चौड़ाई में डाला जाता है। भरुई के फन्ने के सीक की चौड़ाई लगभग 3 ईंच होती है।
वेवर भरुई के फन्नी के दोनों छोर पर लोहे के समान आकार के (सीक की आकृति एवं आकार के समान) सींके लगी होती हैं, जिसे वेवर कहा जाता है।
गेवा सींक को पारम्परिक तथा प्रचलित भाषा में गेवा कहा जाता है। गेवा दो प्रकार का होता है:
  1. सींक का गेवा
  2. लोहे का गेवा।

साड़ी के पनहे के दोनों हिस्सों को ठोस तथा मजबूती देने के लिए लोहे का गेवा दिया जाता है।

हत्था फन्नी के फ्रेम को हत्था कहा जाता है। अर्थात् फन्नी हत्थे में लगी होती है। हत्था लकड़ी का बना होता है।
तरौधी हत्थे के नीचे के भाग को तरौधी कहा जाता है। हत्थे और तरौधी के अन्दर वाले भाग में एक नाली खुदी होती है जिसमें फन्नी बैठी होती है।
खड्डी खड्डी जमीन में गड़ी होती है, जिसपर हत्था खड़ा होता है। अर्थात् हत्था खड्डी के ऊपर खड़ा होता है। खड्डी लकड़ी की बनी होती है जो दो खूंटे पर खड़ी होती है। इसमें खड्डीदार सीकी बनी होती है, जिसके बेस पर लकड़ी का माला लगा होता है।
गेठुआ (गेठवा, गेतवा) गेठुआ या गेतवा में लकड़ी के कांटी नायलोन के धागे से बना जाला होता है। इसी को गेठुआ कहा जाता है। कई वर्ष पूर्व जब नायलोन का प्रचार प्रसार नहीं हुआ था उस समय वाराणसी के बिनकर सूती धागों का ही गेठुआ बनाया करते थे। हालांकि आजकल सूती गेठुआ कही भी व्यवहार में नहीं लाया जाता है।
पौंसार पौंसार कारखाने में पैर के पास लगा होता है। सामान्यतः बेलबूटे पर चार पौंसार होते हैं जिसमें दो दम्मा का पौसार तथा दो मशीन का पौसार होता है। मशीन के पौसार को जब दबाया जाता है तब यह नाका उठाता है, जबकि दम के पौंसार दबाने से यह तानी उठाता है।
सिरकी सिरकी बांस का बना होता है, तथा इसका उपयोग ज़री तथा कढ़ाई बनाने के लिए किया जाता है।
नौलक्खा (बोझा) पौसार दबाने पर नाका या तानी ऊपर की ओर उठता है जिससे कपड़े की बिनाई तथा कढ़ाई की प्रक्रिया चलती रहती है। नाका या तानी ऊपर की ओर उठने के बाद यह ज़रूरी है कि वह फिर अपने पूर्व स्थान पर यथावत आ जाए और कहीं फंसे भी नहीं। इसी के लिए कारखाने में एक वजन दोनों तरफ दो-दो कर डाल दिया जाता है, जिसे नौलक्खा या बोझा कहते हैं। पहले नौलक्खा कुम्हार की मिट्टी को पकाकर सुन्दर आकृति में बनाता था। हालांकि आजकल इसके बदले ईंटा या बालू के बोझ का भी प्रयोग किया जाता है।
पटबेल आंचल के दोनों पट्टी को पटबेल कहा जाता है।
लप्पा लप्पा करघे के सबसे ऊपरी भाग को कहते हैं। लप्पा बांस या लकड़ी के चार टुकड़े से बनाया जाता है। बांस या लकड़ी के टुकड़े को आरी-तिरछी रखकर उस पर रखा जाता है। यहां के लोग जैक्वार्ड को अपनी भाषा में मशीन कहते हैं। लप्पा लकड़ी या बांस के टुकड़े को ही कहते हैं।
मशीन का डन्डा यह जैक्वर्ड मशीन का डंडा होता है। मशीन का डंडा लकड़ी से बना होता है। हरेक डंडे में दो छेद किया जाता है जिन्हें दो लकड़ियों के बीच नट तथा बोल्ट से कस दिया जाता है।
मांकड़ी मांकड़ी लप्पे के ऊपर होता है। यह डंडानुमा आकृति का होता है। मांकड़ी से वय की गठुआ उठता है।
चिड़ैया (चिड़ई का डंडा) जिस डंडे से जकार्ड मशीन के स्लाइड को उठाया जाता है उसे चिड़ैया या फिर चिड़ई का डण्डा कहा जाता है। चिड़ैया नीचे की ओर मशीन पर हमेशा झुका हो इस ख्याल से लोहे के प्लेट से इसे बांध दिया जाता है। मशीन के डण्डे का पिछला हिस्सा एक डोरी द्वारा नीचे कारखाने में एक लीवर द्वारा कसा होता है जिसको पैर से दबाने से मशीन अपना कार्य शुरु कर देता है।

बिनकारी पेशा और उसका स्वास्थ्य पर प्रभाव

बहुत से लोगों ने अपने लेख, अध्ययन, रिपोर्ट तथा किताबों में इस बात का विस्तार से वर्णन किया है कि बिनकारी पेशे का बिनकरों के स्वास्थ्य पर बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ता है। दमे की बिमारी, यक्षमा, कमर दर्द, बदन दर्द इत्यादि बीमारियों का ज़िक्र भी इन लोगों ने विस्तारपूर्वक किया है लेकिन वहाँ के लोगों के अनुसार बिनकारी पेशे से किसी प्रकार की बिमारी होने की संभावना नहीं है। उल्टे इससे फायदे ही हैं। बिनकारी एक प्रकार का व्यायाम है, जिसमें शरीर के प्रत्येक अंग पैर से लेकर मस्तिष्क तक क्रियाशील रहता है। लोगों ने कहा कि यह तो शरीर को चुस्त तथा दुरुस्त बनाए रखता है। हालांकि कुछ लोगों ने यह स्वीकार किया कि बुढ़ापा आने पर बदन दर्द तथा जोड़ों का दर्द जैसी समस्याओं का सामना इन्हें करना पड़ता है। कुछ लोगों ने इस बात का भी प्रतिकार किया और बताया कि जोड़ों का दर्द तथा बदन दर्द एक ऐसी समस्या है जो लगभग सभी लोगों को बुढ़ापे में परेशान करती हैं, चाहे वे बिनकारी के पेशे में हों या अन्य किसी भी पेशे में क्यों न हो। इसका सम्बन्ध किसी भी तरह से बिनकारी के पेशे से जोड़ना सही नहीं है।[1]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 मिश्र, डॉ. कैलाश कुमार। बिनकारी: एक गौरवशाली परम्परा (हिंदी) (एच.टी.एम.एल) ignca.nic.। अभिगमन तिथि: 24 नवंबर, 2012।

बाहरी कड़ियाँ

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