"इंदिरा गाँधी" के अवतरणों में अंतर

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प्रथम विश्व युद्ध छिड़ चुका था। जर्मनी ने इंग्लैंड के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया था। मित्र देशों की सेनाएँ इंग्लैंड के साथ थीं लेकिन हिटलर का पलड़ा भारी था। ऐसे में इंदिरा का इंग्लैंड में रहना उचित नहीं था। समुद्री मार्ग पर भी खतरा था मगर समय पर भारत लौटना ज़रूरी था। अतः 1941 में इंदिरा भारत लौट आईं जबकि समुद्री मार्ग पर काफ़ी खतरा बना हुआ था।  
 
प्रथम विश्व युद्ध छिड़ चुका था। जर्मनी ने इंग्लैंड के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया था। मित्र देशों की सेनाएँ इंग्लैंड के साथ थीं लेकिन हिटलर का पलड़ा भारी था। ऐसे में इंदिरा का इंग्लैंड में रहना उचित नहीं था। समुद्री मार्ग पर भी खतरा था मगर समय पर भारत लौटना ज़रूरी था। अतः 1941 में इंदिरा भारत लौट आईं जबकि समुद्री मार्ग पर काफ़ी खतरा बना हुआ था।  
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==दाम्पत्य जीवन==
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मानव सभ्यता के विकास के साथ ही व्यक्ति ने प्रेम करना और उसे महसूस करना आरंभ कर दिया था। प्रेमी की भावना का उदय इंदिरा के ह्रदय में भी हुआ था। पारसी युवक फ़िरोज गाँधी से इंदिरा का परिचय उस समय से था जब वह आनंद भवन में एक स्वतंत्रता सेनानी की तरह आते था। फ़िरोज गाँधी ने कमला नेहरू को पुत्र का स्नेह और मान दिया था। जर्मनी में जब कमला नेहरू को चिकित्सा के लिए ले जाया गया तब फ़िरोज मित्रता का फर्ज पूरा करने के लिए जर्मनी पहुँच गए था। [[लंदन]] से भारत वापसी का प्रबंध भी फ़िरोज ने एक सैनिक जहाज के माध्यम से किया था दोनों की मित्रता इस हद तक परवान चढ़ी कि विवाह करने का निश्चय कर लिया।
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कमला नेहरू जीवित होतीं तो इस शादी को आसानी के साथ स्वीकृति मिल सकती थी। कमला जी अपने पति को शादी के लिए विवश कर सकती थीं। लेकिन कमला नेहरू उनकी मदद करने के लिए दुनिया में नहीं थीं। इंदिरा जी चाहती थीं कि उस शादी को पिता का आशीर्वाद अवश्य प्राप्त हो लेकिन पंडित नेहरू को उस शादी के लिए मना पाना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य था। वैसे फ़िरोज गाँधी को ही इंदिरा से शादी करने का प्रस्ताव पंडित नेहरू के सामने रखना चाहिए था लेकिन फ़िरोज यह हिम्मत नहीं कर पाए। उसने यह दायित्व इंदिरा को ही सौंप दिया।
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इंदिरा ने फ़िरोज गाँधी को शादी का वचन दे दिया था। इस कारण इंदिरा ने ही पिता के सामने यह बात रखी कि फ़िरोज से शादी करना चाहती हैं। यह सुनकर पंडित नेहरू अवाक् रह गए। वह सोच भी नहीं सकते थे कि उनकी बेटी इंदिरा फ़िरोज गाँधी से शादी करना चाहती है जो उनके समाज-बिरादरी का नहीं है। यद्यपि पंडित नेहरू काफ़ी उदार ह्रदय के थे लेकिन उनका नजरिया यह था कि शादी सजातीय परिवार में ही होनी चाहिए। स्वयं उन्होंने भी अपने पिता पंडित मोतीलाल नेहरू का आदेश माना था।
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उन दिनों स्वयं पंडित नेहरू पुत्री के लिए योग्य सजातीय वर की तलाश कर रहे थे ताकि कन्यादान का उत्तरदायित्व पूर्ण कर सकें। पंडित नेहरू ने पुत्री से स्पष्ट कह दिया कि शादी को मंज़ूरी नहीं दी जा सकती। उन्होंने कई प्रकार से इंदिरा को समझाने का प्रयास किया लेकिन इंदिरा की जिद कायम रही। तब निरुपाय नेहरू जी ने कहा कि यदि महात्मा गाँधी उस शादी के लिए सहमत हो जाएँ तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी। लेकिन [[गाँधीजी]] से सहमति प्राप्त करना इंदिरा का ही उत्तरदायित्व था।
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====<u>महात्मा गाँधी से स्वीकृति</u>====
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इंदिरा को लगा कि महात्मा गाँधी को मनाना उनके लिए कठिन नहीं होगा। लेकिन इंदिरा की सोच के विपरीत महात्मा गाँधी ने उस शादी के लिए इंकार कर दिया। उन्होंने शादी का विरोध किया। वह भारतीय वर्ण व्यवस्था के पक्षधर थे और चाहते थे कि विवाह संबंध समाज-बिरादरी में ही होना चाहिए। यह अलग बात थी कि वह सभी समाजों के साथ समानता की बात करते थे और उन्होंने अछूतों के उद्धार के लिए बहुत कुछ किया था। महात्मा गाँधी का मानना था कि यह विवाह आगे जाकर सफल नहीं होगा क्योंकि वह कई मायनों में असमानता रखता था। उन्होंने इंदिरा जी को समझाया कि जो विवाह संबंध धर्म, जाति, आयु और पारिवारिक स्तर में असमान हों, वे सफल नहीं होते। यदि एक-दो अंतर हों तो भी बात मानी जा सकती थी।
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गाँधी की अंतर्दृष्टि कह रही थी कि इंदिरा और फ़िरोज का विवाह असफल साबित होगा लेकिन इंदिरा कुछ भी समझने को तैयार नहीं थीं। तब महात्मा गाँधी ने नेहरू को विवाह के लिए स्वीकृति प्रदान कर दी। वह हर प्रकार से इंदिरा को समझाकर अपना दायित्व पूर्ण कर चुके थे। महात्मा गाँधी की ही सलाह पर इंदिरा का विवाह बिना किसी आडंबर के अत्यंत सादगी के साथ संपन्न हुआ। इसमें केवल इलाहाबाद के ही शुभचिंतक और करीबी व्यक्ति सम्मिलित हुए थे। यह विवाह [[26 मार्च]], [[1942]] को हुआ। उस समय इंदिरा जी की उम्र 24 वर्ष, 4 माह और 7 दिन थी।
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उस समय किसी हिंदू कश्मीरी युवती का 24 वर्ष की आयु के बाद भी अविवाहित रहना परंपरा के अनुसार सही नहीं माना जाता था। यहाँ पंडित नेहरू को असफल पिता माना जाएगा। उन्हें इंदिरा का विवाह 20 वर्ष की आयु तक कर देना चाहिए था। लेकिन पंडित नेहरू देशसेवा के कार्य में जुटे हुए थे। फिर पत्नी कमला की बीमारी के कारण भी वह समय पर पुत्री के विवाह का निर्णय नहीं कर पाए थे। लेकिन पंडित नेहरू का यह भी दायित्व था कि वह बीमार पत्नी के सामने ही एकमात्र पुत्री की शादी कर देते। लेकिन होनी को टाला नहीं जा सकता। इंदिरा की शादी हो गई। शादी के बाद दोनों कश्मीर के लिए रवाना हो गए। कश्मीर में कुछ समय गुजारने के बाद वे वापस इलाहाबाद लौटे। इंदिरा पुनः स्वाधीनता संग्राम के अपने कार्य में जुट गईं। फ़िरोज गाँधी ने भी उनका पूरी तरह साथ दिया। [[10 दिसंबर]], [[1942]] को उन्हें एक सभा को संबोधित करना था। निषेधाज्ञा लगी होने के कारण दोनों को गिरफ़्तार करके जेल में डाल दिया गया। 
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====<u>राजीव गाँधी का जन्म</u>====
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नैनी जेल में इंदिरा को 9 माह तक रखा गया। इस दौरान उनका स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित रहा। चिकित्सकों ने पौष्टिक भोजन और दवा के संबंध में उन्हें निर्देश भी दिए। लेकिन वह अंग्रेज़ों के सामने गिड़गिड़ाना नहीं चाहती थीं। उन्होंने किसी भी प्रकार का कोई विरोध प्रदर्शन भी नहीं किया। जेल के अधिकारियों का व्यवहार भी उनके साथ सदाशयतापूर्ण नहीं था। लेकिन उन्होंने बेहद धैर्य के साथ उस कठिन समय को पार किया। [[13 मई]], [[1943]] को इंदिरा जी को जेल से रिहा किया गया और वह आनंद भवन पहुँचीं। वहाँ गहन इलाज के बाद उनका स्वास्थ्य सुधर पाया। उधर फ़िरोज गाँधी को भी जेल से मुक्त कर दिया गया था। फ़िरोज ने कुछ समय आनंद भवन में गुजारा। फिर इंदिरा अपनी बुआ के पास [[मुंबई]] चली गईं जहाँ [[20 अगस्त]], [[1944]] को उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया। यह पुत्र राजीव थे। इसके बाद इंदिरा जी अपने पुत्र राजीव के साथ इलाहाबाद लौट आईं।
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====<u>स्वाभिमानी व्यक्ति</u>====
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यहाँ यह बताना भी प्रासंगिक होगा कि फ़िरोज गाँधी बेहद स्वाभिमानी व्यक्ति थे। घर दामाद के रूप में आनंद भवन में रहना उन्हें स्वीकार नहीं था। वह चाहते थे कि उनकी अपनी व्यक्तिगत जिंदगी हो और वह नेहरू परिवार का दामाद होने के कारण न जाने जाएँ। यही कारण है कि फ़िरोज गाँधी ने [[लखनऊ]] से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र 'नेशनल हेराल्ड' में मैनेजिंग डायरेक्टर जैसा महत्वपूर्ण पद संभाल लिया। इंदिरा गाँधी ने पत्नी धर्म निभाते हुए फ़िरोज का साथ दिया और पुत्र राजीव के साथ लखनऊ पहुँच गईं। इधर भारत में आज़ादी की सुगबुगाहट होने लगी थी। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद अंतरिम सरकार के गठन की प्रस्तावना तैयार होने लगी थी। अंतरिम सरकार के गठन की ज़िम्मेदारी पंडित नेहरु पर ही थी। वाइसराय लॉर्ड माउंटबेटन से विभिन्न मुद्दों पर चर्चा जारी थी ताकि सत्ता हस्तांतरण का कार्य सुगमता से संभव हो सके। इसीलिए नेहरूजी को इलाहाबाद छोड़कर नियमित रूप से [[दिल्ली]] में रहने की आवश्यकता थी। ऐसी स्थिति में इंदिरा गाँधी काफ़ी उलझन में थीं। उन्हें एक तरफ अपने एकाकी विधुर पिता का ध्यान रखना था तो दूसरी तरह पति के लिए भी उनकी कुछ ज़िम्मेदारी थी। इस कारण उन्हें दिल्ली और लखनऊ के मध्य कई-कई फेरे लगाने पड़ते थे। पंडित नेहरू ने इंदिरा गाँधी के लिए दिल्ली में अलग फ्लैट की व्यवस्था कर दी। उन्हें दूसरी संतान के रूप में भी पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। [[15 सितंबर]], [[1946]] को संजय गाँधी का जन्म हुआ।
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इंदिरा गांधी की जिम्मेदारियाँ अब काफ़ी बढ़ गई थीं। उन्हें मां के रूप में जहाँ दो बच्चों की परवरिश करनी थी और पति के प्रति उत्तरदायित्वों का निर्वाहन करना था, वहीं पुत्री के रूप में पिता की मुश्किलों में भी साथ देना था। इसके अलावा देशसेवा की जो भावना उनमें विद्यमान थी, उसे भी वह नहीं त्याग सकती थीं। इंदिरा जी के लिए यह समय अग्नि परीक्षा का था।
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====<u>देश का विभाजन</u>====
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उस समय देश विभाजन के मुहाने पर था। जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की माँग की थी और अंग्रेज़ भी जिन्ना की माँग को स्पष्ट हवा दे रहे थे लेकिन गाँधीजी विभाजन के पक्ष में नहीं थे। लॉर्ड माउंटबेटन कूटनीति का गंदा खेल खेलने में लगे हुए थे। वह एक ओर महात्मा गाँधी को आश्वस्त कर रहे थे कि देश का विभाजन नहीं होगा तो दूसरी ओर पंडित नेहरू से कह रहे थे कि दो राष्ट्रों के विभाजन के फॉर्मूले पर ही आज़ादी प्रदान की जाएगी। पंडित नेहरू स्थिति की गंभीरता को समझ रहे थे जबकि महात्मा गाँधी इस मुगालते में थे कि अंग्रेज़ वायसराय विभाजन नहीं चाहता है।
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जिन्ना की अनुचित माँग के कारण हिंदू और मुसलमानों में वैमनस्य पसर गया था। महत्वाकांक्षी जिन्ना पाकिस्तान का प्रधानमंत्री बनने के लिए बहुत लालायित थे। महात्मा गांधी ने जिन्ना को संपूर्ण और अखंड भारत का प्रधानमंत्री बनाने का आश्वासन दिया। लेकिन चालाक जिन्ना यह जानते थे कि पंडित नेहरू के कारण यह संभव नहीं है। हिंदू किसी भी मुस्लिम को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे। ऐसे में देश सांप्रदायिक दंगों की आग में झुलसने लगा था। महात्मा गांधी किसी तरह दंगों की आग शांत करना चाहते थे। दिल्ली में भी कई स्थानों पर इंसानियत शर्मसार हो रही थी। तब महात्मा गांधी ने इंदिरा जी को यह मुहिम सौंपी कि वह दंगाग्रस्त क्षेत्रों में जाकर लोगों को समझाएँ और अमन लौटाने में मदद करें।
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इंदिरा गांधी ने फिर महात्मा गांधी के आदेश को शिरोधार्य किया और दंगाग्रस्त क्षेत्रों में दोनों समुदायों के लोगों को समझाने का प्रयास करने लगीं। वस्तुतः यह अत्यंत जोखिम कार्य था। पंडित नेहरू की बेटी होने के कारण अतिवादी उन्हें नुकसान पहुँचा सकते थे परंतु निर्भिक इंदिरा ने दंगों की आग शांत करने के लिए पुरजोर प्रयास किए। लेकिन 15 अगस्त के बाद सांप्रदायिकता अपने चरम पर पहुँच गई। दंगों में दोनों समुदायों के अनगिनत लोग मौत के घाट उतार दिए गए। [[पाकिस्तान]] से लाखों हिंदू शरणार्थी दिल्ली आ गए थे। शरणार्थियों के पुनर्वास का सवाल भी उत्पन्न हो गया था। उन भूखे-प्यासे घर से भागे लोगों के लिए प्राथमिक आवश्यकताएँ भी जरूरी थीं।
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ऐसी स्थिति में दिल्ली के कई स्थानों पर शरणार्थी एवं दंगा पीड़ित शिविर लगाए गए थे। पंडित नेहरू ने 17, पार्क रोड के अपने बंगले पर भी शरणार्थी लगाए। शरणार्थियों के जीवन की बुनियादी सुविधाओं का ध्यान रखा जा रहा था। उस समय महात्मा गांधी पश्चिम बंगाल के नोआखली ज़िले में जहाँ मुस्लिमों की कई बस्तियों को जला दिया गया था। पाकिस्तान से आने वाली ट्रेनों में हज़ारों हिंदूओं की लाशें भी आ रही थीं। इस कारण हिंदू आक्रोशित होकर मुसलमनों पर हमला कर रहे थे।
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पंडित जवाहरलाल नेहरू के बंगले में जो शरणार्थी शिविर लगाए गए थे, उनकी देखरेख इंदिरा गांधी ही कर रही थीं। सभी कमरे खाली करके शरणार्थियों को उनमें ठहरा दिया गया था और लॉन में भी टेंट इत्यादि लगा दिए थे ताकि अधिकाधिक शरणार्थियों को वहाँ रखा जा सके। यहाँ की सभी व्यवस्था इंदिरा गांधी द्वारा देखी जा रही थी। अंतरिम सरकार के गठन के साथ पंडित नेहरू कार्यवाहक प्रधानमंत्री बना दिए थे। [[26 जनवरी]], [[1950]] को भारत का संविधान भी लागू हो गया। भारत एक गणतांत्रिक देश बना और प्रधानमंत्री नेहरू की सक्रियता काफ़ी अधिक बढ़ गई। इस समय नेहरूजी का निवास त्रिमूर्ति भवन ही था। समय-समय पर विभिन्न देशों के आगंतुक त्रिमूर्ति भवन में ही नेहरूजी के पास आते थे। उनके स्वागत के सभी इंतजाम इंदिरा गांधी द्वारा किए जाते थे। साथ ही साथ उम्रदराज हो रहे पिता की आवश्यकताओं को भी इंदिराजी देखती थीं।
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====<u>नेहरूजी की आलोचना</u>====
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यह स्वाभाविक था कि लखनऊ से ज्यादा इंदिरा जी की आवश्यकता उस समय दिल्ली में पिता के पास रहने की थी। दोनों पुत्र राजीव और संजय भी त्रिमूर्ति भवन में अपने नाना के पास ही आ गए थे। फ़िरोज गाँधी कुछ अंतराल पर बच्चों से भेंट करने के लिए आते रहे। लेकिन फ़िरोज के ह्रदय में इस बात की चुभन अवश्य थी कि इंदिरा को पत्नी के रूप में जिन कर्तव्यों की पूर्ति करनी चाहिए थी, वे बेटी के कर्तव्यों के सम्मुख दब गए हैं। इधर इंदिरा गांधी ने व्यस्तता बढ़ जाने के बाद बच्चों की देखरेख के लिए ''अन्ना'' नामक एक अनुभवी महिला को बतौर गवर्नेस रख लिया।
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फ़िरोज गाँधी के साथ इंदिराजी के संबंध पुनः सामान्य बने। 1952 के आम चुनाव में फ़िरोज को कांग्रेस का टिकट दिया गया और वह लोकसभा के लिए निर्वाचित भी हो गए। सांसद बनने के बाद कुछ समय तक वह त्रिमूर्ति भवन में ही रहे। लेकिन सांसद आवास मिलने के बाद फ़िरोज ने त्रिमूर्ति भवन छोड़ दिया। परंतु इंदिरा गांधी चाहती थीं, फ़िरोज त्रिमूर्ति भवन में ही रहें। दोनों के दाम्पत्य जीवन में यहां से अलगाव आरंभ हो गया। फ़िरोज गाँधी ने इस वास्तविकता को नहीं समझा कि नारी सिर्फ पत्नी ही नहीं होती है, स्वयं उसका भी निज अस्तित्व होता है। बेशक भारतीय नारी के नाम के साथ पति का उपनाम लगा रहता हो लेकिन इसका यह मतलब कदापि नहीं है कि वह पति की गुलामी को ही जीवन मान ले। इंदिरा गांधी भी काफी महत्वाकांक्षी थीं। उनके पास भी भविष्य के कुछ सपने थे।
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फ़िरोज गाँधी का अलग रहना उचित था अथवा नहीं- यह बहस का विषय है लेकिन वह पत्नी और बच्चों से दूर अवश्य होते चले गए। फ़िरोज गाँधी के ह्रदय में पत्नी इंदिरा गांधी से ज़्यादा अपने ससुर पंडित नेहरू के प्रति नाराजगी और कड़वाहट थी। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण उस समय देखने को प्राप्त हुआ जब फ़िरोज गाँधी ने संसद में ही नेहरूजी की आलोचना आरंभ कर दी। फ़िरोज गाँधी का यह गैरजिम्मेदाराना व्यवहार रिश्तों की डोर को कमजोर करने वाला साबित हो रहा था। राजनीतिक विचारधारा में मतभेद हो सकता है लेकिन यदि उसे व्यक्त करते समय व्यक्तिगत कड़वाहट भी शामिल हो तो उससे संबंधों में तल्खी ही आएगी। महात्मा गांधी ने जिस कारण विवाह की खिलाफत की थी, वह सच होता नजर आ रहा था।
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====<u>बाल सहयोग की स्थापना</u>====
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लेकिन इंदिरा गांधी ने सब कुछ भूलते हुए भी अपनी पारिवारिक जिंदगी को बचाए रखने का प्रयास किया। जब उन्होंने ''बाल सहयोग'' नामक संस्था की स्थापना की तो फ़िरोज गाँधी से भी इसमें सहयोग प्राप्त किया। इस संस्था के माध्यम से बच्चों के उत्पादन को सहकारिता के आधार पर विक्रय किया जाता था। और अर्जित लाभ सब बच्चों में बांट दिया जाता था। बच्चों को प्रशिक्षण देने के लिए विशेषज्ञों की सहायता भी ली गई थी। इंदिरा गांधीं ने ''इंडियन काउंसिल ऑफ चाइल्ड वेलफेयर'' ' इंटरनेशनल काउंसिल ऑफ चाइल्ड वेलफेयर' तथा 'कमला नेहरू स्मृति अस्पताल' जैसी संस्थाओं में विभिन्न दायित्व स्वीकार करते हुए परोपकारी कार्यों को अंजाम दिया।
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इन सबके साथ इंदिरा गांधी अपने पिता पंडित जवाहरलाल नेहरू के राजनीतिक कार्यों में भी उनकी सहयोगिनी बनी रहीं। 1952 में इंदिरा गांधी को 'मदर्स अवार्ड' से सम्मानित किया गया। उनकी सामाजिक सेवाओं को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया। यह वह समय था जब इंदिरा गांधी के दोनों पुत्र- राजीव और संजय देहरादून के प्रसिद्ध स्कूल 'दून' में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। मात्र छुट्टियों में ही उन्हें माता और नाना का प्रेम प्राप्त होता था।
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====<u>फ़िरोज गाँधी का निधन</u>====
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उधर फ़िरोज गाँधी भी अस्वस्थ रहने लगे थे। उन्हें ह्रदय रोग ने घेर लिया था। फिर 1960 में तीसरे ह्रदयाघात के कारण उनकी मृत्यु हो गई। उस समय इंदिरा गांधी की उम्र 43 वर्ष थी। अंतिम समय में वह अपने पति के निकट मौजूद थीं। इस प्रकार उनके वैवाहिक जीवन का असामयिक अंत हो गया। यह इंदिरा जी के लिए शोक का कठिन समय था। पंडित नेहरू ने इस समय अपनी पुत्री को धैर्य बंधाया और पूरा ख्याल रखा।
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==वानर सेना का गठन==
 
==वानर सेना का गठन==
 
राजनेता और जनसाधारण, दोनों ही आज़ादी के आन्दोलनों में बराबर के भागीदार थे। नन्ही इन्दिरा के दिल पर इन सभी घटनाओं का अमिट प्रभाव पड़ा और 13 वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने 'वानर सेना' का गठन कर अपने इरादों को स्पष्ट कर दिया।
 
राजनेता और जनसाधारण, दोनों ही आज़ादी के आन्दोलनों में बराबर के भागीदार थे। नन्ही इन्दिरा के दिल पर इन सभी घटनाओं का अमिट प्रभाव पड़ा और 13 वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने 'वानर सेना' का गठन कर अपने इरादों को स्पष्ट कर दिया।
 
[[चित्र:Indira-Gandhi-2.jpg|thumb|250px|left|इंदिरा गाँधी स्टाम्प]]
 
[[चित्र:Indira-Gandhi-2.jpg|thumb|250px|left|इंदिरा गाँधी स्टाम्प]]
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==कार्यकारी समिति की सदस्य==
 
==कार्यकारी समिति की सदस्य==
 
1955 से वह सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी की कार्यकारी समिति की सदस्य रहीं और 1959 में पार्टी की अध्यक्ष चुनी गईं। नेहरू के बाद 1964 में प्रधानमंत्री बने लाल बहादुर शास्त्री ने उन्हें अपनी सरकार में सूचना और प्रसारण मंत्री बनाया।
 
1955 से वह सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी की कार्यकारी समिति की सदस्य रहीं और 1959 में पार्टी की अध्यक्ष चुनी गईं। नेहरू के बाद 1964 में प्रधानमंत्री बने लाल बहादुर शास्त्री ने उन्हें अपनी सरकार में सूचना और प्रसारण मंत्री बनाया।

10:52, 4 दिसम्बर 2010 का अवतरण

इंदिरा गाँधी
Indira-Gandhi.jpg
पूरा नाम इंदिरा प्रियदर्शनी गांधी
अन्य नाम इन्दु
जन्म 19 नवम्बर, 1917
जन्म भूमि इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 31 अक्टूबर, 1984
मृत्यु स्थान दिल्ली
मृत्यु कारण हत्या
पति/पत्नी फ़िरोज़ गाँधी
संतान राजीव गाँधी और संजय गाँधी
स्मारक शक्ति स्थल, दिल्ली
प्रसिद्धि 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में भारत की विजय
पार्टी काँग्रेस
पद भारत की तृतीय प्रधानमंत्री
कार्य काल 19 जनवरी 1966-24 मार्च 1977, 14 जनवरी 1980-31 अक्टूबर 1984
विद्यालय विश्वभारती विश्वविद्यालय बंगाल, इंग्लैंड की ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी, शांति निकेतन
भाषा हिन्दी, अग्रेज़ी
जेल यात्रा अक्टूबर 1977 और दिसम्बर 1978
पुरस्कार-उपाधि भारत रत्न सम्मान
विशेष योगदान बैंको का राष्ट्रीयकरण

भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री

इन्दिरा प्रियदर्शनी गाँधी (जन्म- 19 नवम्बर, 1917 इलाहाबाद - मृत्यु- 31 अक्टूबर, 1984 दिल्ली) ने न केवल भारतीय राजनीति को नये आयाम दिये बल्कि विश्व राजनीति के क्षितिज पर भी वे एक युग बनकर छाई रहीं। राष्ट्रप्रेम, राष्ट्र की अखण्डता, राजनीति और लोक कल्याण, आदि उन्हें अपने दादा पं. मोतीलाल नेहरू और पिता पं. जवाहर लाल नेहरू से विरासत में मिले थे। उन दिनों भारत ब्रिटिश दासता के चंगुल से मुक्त होने के लिए छटपटा रहा था।

श्रीमती इंदिरा गाँधी का जन्म नेहरु खानदान में हुआ था। इंदिरा गाँधी राष्ट्रनायक तथा देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु की इकलौती पुत्री थीं। लेकिन आज इंदिरा गाँधी को सिर्फ इस कारण नहीं जाना जाता कि वह पंडित जवाहरलाल नेहरु की बेटी थीं। इंदिरा जी अपनी प्रतिभा और राजनीतिक दृढ़ता के लिए 'विश्वराजनीति' के इतिहास में जानी जाती हैं और इन्हें 'लौह-महिला' के नाम से संबोधित किया जाता है। लालबहादुर शास्त्री की असामयिक मृत्यु के बाद श्रीमती इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री बनाया गया था।

जीवन परिचय

एशिया की इस लौह-महिला का जन्म 19 नवम्बर, 1917 को इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश के आनंद भवन में एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। इनका पूरा नाम है- 'इन्दिरा प्रियदर्शनी गांधी'। इनके पिता का नाम जवाहरलाल नेहरु और दादा का नाम मोतीलाल नेहरु था। पिता एवं दादा दोनों वकालत के पेशे से संबंधित थे और देश की स्वाधीनता में इनका प्रबल योगदान था। इनकी माता का नाम कमला नेहरु था जो दिल्ली के प्रतिष्ठित कौल परिवार की पुत्री थीं। इंदिराजी का जन्म ऐसे परिवार में हुआ था जो आर्थिक एवं बौद्धिक दोनों दृष्टि से काफ़ी संपन्न था। अत: इन्हें आनंद भवन के रुप में महलनुमा आवास प्राप्त हुआ।

इंदिरा जी का नाम इनके दादा पंडित मोतीलाल नेहरु ने रखा था। यह संस्कृतनिष्ठ शब्द है जिसका आशय है कांति, लक्ष्मी, एवं शोभा। इनके दादाजी को लगता था कि पौत्री के रुप में उन्हें मां लक्ष्मी और दुर्गा की प्राप्ति हुई है। पंडित नेहरु ने अत्यंत प्रिय देखने के कारण अपनी पुत्री को प्रियदर्शिनी के नाम से संबोधित किया जाता था। चूंकि जवाहरलाल नेहरु और कमला नेहरु स्वयं बेहद सुंदर तथा आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक थे, इस कारण सुंदरता के मामले में यह गुणसूत्र उन्हें अपने माता-पिता से प्राप्त हुए थे। इन्हें एक घरेलू नाम भी मिला जो इंदिरा का संक्षिप्त रुप 'इंदु' था। इंदिरा गाँधी ने पश्चिम बंगाल में विश्वभारती विश्वविद्यालय और इंग्लैंड की ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में शिक्षा प्राप्त की। 1942 में उनका विवाह फिरोज़ गाँधी से हुआ। उनके दो पुत्र हुए- राजीव गाँधी और संजय गाँधी। राजीव गाँधी भी भारत के प्रधानमंत्री रहे हैं।

विद्यार्थी जीवन

इंदिरा जी को जन्म के कुछ वर्षों बाद भी शिक्षा का अनुकूल माहौल नहीं उपलब्ध हो पाया था। पाँच वर्ष की अवस्था हो जाने तक बालिका इंदिरा ने विद्यालय का मुख नहीं देखा था। पिता जवाहरलाल नेहरु देश की आज़ादी के आंदोलन में व्यस्त थे और माता कमला नेहरु उस समय बीमार रहती थीं। घर का वातावरण भी पढ़ाई के अनुकूल नहीं था। कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का रात-दिन आनंद भवन में आना जाना लगा रहता था। तथापि पंडित नेहरु ने पुत्री की शिक्षा के लिए घर पर ही शिक्षकों का इंतजाम कर दिया था। बालिका इंदु को आनंद भवन में ही शिक्षकों द्वारा पढ़ाया जाता था।

माता-पिता का साथ

इंदिरा जी को बचपन में माता-पिता का ज्यादा साथ नसीब नहीं हो पाया। पंडित नेहरु देश की स्वाधीनता को लेकर राजनीतिक क्रियाओं में व्यस्त रहते थे और माता कमला नेहरु का स्वास्थ्य उस समय काफ़ी खराब था। दादा मोतीलाल नेहरु से इंदिरा जी को काफ़ी स्नेह और प्यार-दुलार प्राप्त हुआ था। इंदिरा जी की परवरिश नौकर-चाकरों द्वारा ही संपन्न हुई थी। घर में इंदिरा जी इकलौती पुत्री थीं। इस कारण इन्हें बहन और भाई का भी कोई साथ प्राप्त नहीं हुआ। एकांत समय में वह अपने गुड्डे-गुड़ियों के साथ खेला करती थीं। घर पर शिक्षा का जो प्रबंध था, उसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता था। लेकिन अंग्रेज़ी भाषा पर उन्होंने अच्छा अधिकार प्राप्त कर लिया था।

यही कारण है कि इंदिरा जी ने बचपन में अंग्रेज़ी साहित्य की उत्कृष्ट पुस्तकों का भी अध्ययन किया उन पुस्तकों से उन्हें जीवन की गहराई और यथार्थ का बोध हुआ। स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के कारण पंडित नेहरु को अकसर अंग्रेज़ों द्वारा जेल की सजाएँ प्रदान की जाती थीं। तब वह अपनी पुत्री इंदिरा को काफ़ी लंबे-लंबे पत्र लिखते थे। उन पत्रों का महत्त्व इस बात से भी समझा जा सकता है कि बाद में इन्हें पुस्तक के रुप में हिंदी तथा अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में प्रकाशित किया गया।

प्राथमिक बचपन

पंडित नेहरु अंग्रेज़ी भाषा के इतने अच्छे ज्ञाता थे कि लॉर्ड माउंटबेलन की अंग्रेज़ी भी उनके सामने फीकी लगती थी। इस प्रकार पिता द्वारा अंग्रेज़ी में लिखे गए पत्रों के कारण पुत्री इंदिरा की अंग्रेज़ी भाषा काफ़ी समृद्ध हो गई थी। इंदिरा का प्राथमिक बचपन एकाकी था। अंत: यह स्वीकार करना होगा कि बेहद संपन और शिक्षित परिवार में जन्म लेने के बावज़ूद इंदिरा जी को माता-पिता का स्वभाविक प्रेम और संरक्षण नहीं प्राप्त हो सका जो साधारण परिवार के बच्चों को सामान्य प्राप्त होता है।

विशेष प्रवीणता

पंडित जवाहरलाल नेहरु शिक्षा का महत्त्व काफ़ी अच्छी तरह समझते थे। यही कारण है कि उन्होंने पुत्री इंदिरा की प्राथमिक शिक्षा का प्रबंध घर पर ही कर दिया था। लेकिन अंग्रेज़ी के अतिरिक्त अन्य विषयों में बालिका इंदिरा कोई विशेष दक्षता नहीं प्राप्त कर सकी। तब इंदिरा को शांति निकेतन स्कूल में पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ उसके बाद उन्होंने बैडमिंटन स्कूल तथा ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में अध्ययन किया। लेकिन इंदिरा ने पढ़ाई में कोई विशेष प्रवीणता नहीं दिखाई। वह औसत दर्जे की छात्रा रहीं।

बहिष्कार का आंदोलन

इंदिरा पर परिवार के वातावरण का काफ़ी प्रभाव पड़ा था। उन दिनों आनंद भवन स्वतंत्रता सेनानियों का अखाड़ा बना हुआ था। वहाँ देश की आज़ादी को लेकर विभिन्न प्रकार की मंत्रणाएँ की जाती थीं। और आज़ादी के लिए योजनाएँ बनाई जाती थीं ताकि अंग्रेज़ों के विरोध के साथ ही भारतीय जनता को भी संघर्ष के लिए जाग्रत किया जा सके। यह सब बालिका इंदिरा भी देख समझ रही थी। जब देश में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन चल रहा था और विदेशी वस्तुओं की होलियाँ जलाई जा रहीं थीं तब बालिका इंदिरा भी किसी से पीछे नहीं रही।

संघर्ष की गवाह

इंदिरा ने भी अपने तमाम विदेशी कपड़ों को अग्नि दिखा दी और खादी के वस्त्र धारण करने लगी। जब इंदु को टोका गया कि तुम्हारी गुड़ियाँ भी तो विदेशी हैं, तुम उनका क्या करोगी। तब इंदु ने बड़े प्यार से सहेजे गए उन खिलौनों को भी अग्नि दिखा दी। बेशक ऐसा करना कठिन था क्योंकि प्रत्येक खिलौने और गुड्डे गुड़िया से इंदिरा जी का एक भावनात्मक रिश्ता बन गया था जो एकाकी जीवन में उनका एकमात्र सहारा था। इंदु अपने परिवार के संघर्ष की भी गवाह बनीं। 1931 में जब इनकी माता कमला नेहरु को गिरफ़्तार कर लिया गया तब यह मात्र 14 वर्ष की बालिका थीं। पिता पहले से ही कारागार में थे। इससे समझा जा सकता है कि इंदु नामक बालिका अपने आपको किस हद तक अकेला महसूस करती रही होगी। बेशक आनंद भवन में नौकरों की कमी नहीं थी लेकिन माता-पिता की मौज़ूदगी से बच्चों को सुरक्षा की जो ढाल अनायास प्राप्त होती है, उसकी अपेक्षा नौकरों से कदापि नहीं की जा सकती। बच्चे अपनी जिन जिज्ञासाओं को माता-पिता के ज्ञान से अभिज्ञात करते हैं, उसकी पूर्ति नौकर नहीं कर सकते थे। माता-पिता का स्नेह बच्चों के खानपान में भी झलकता है और परवरिश के प्रत्येक तौर-तरीकों में भी जबकि नौकरों द्वारा तो केवल अपने कर्तव्यों की इतिश्री ही की जा सकती है। यही कारण है कि इंदिराजी को खानपान की अनियमितता का भी सामना करना पड़ा और उनकी पढ़ाई भी बाधित हुई यह अवश्य है कि दादा पंडित मोतीलाल नेहरु और पोती इंदिरा का काफ़ी वक्त एक साथ गुजरता था। लेकिन दादा भी अपनी पोती को पर्याप्त समय नहीं दे पाते थे। उन्हें कार्यकर्ताओं के साथ व्यस्त रहना पड़ता था। लेकिन एक समय ऐसा भी आया जब अंग्रेज़ों ने पंडित मोतीलाल नेहरु को भी गिरफ़्तार करके जेल भेज दिया ऐसे में इंदु की मनोदशा की कल्पना सहज ही की जा सकती है।

अब अकेली इंदु अपना समय किस प्रकार व्यतीत करती? समय बिताने के लिए वह अपने पिता की नकल करने लगी। उसने अपने पिता को कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए सुना था। इस कारण उसने भी हमउम्र बच्चों को एकत्र करके भाषण देने का कार्य आरंभ कर दिया। भाषण देते समय वह मेज पर खड़ी हो जाती थी और मेज द्वारा मंच का कार्य लिया जाता था। इस समय वह खादी के वस्त्र और गांधी टोपी प्रयोग करती थी। इस प्रकार बचपन में ही संघर्षों की धूप ने इंदिरा गांधी को यह समझा दिया था कि कोई भी चीज आसानी से उपलब्ध नहीं होती। उसकी प्राप्ति के लिए इंसान को दृढ़ प्रतिज्ञ होना चाहिए।

वानर सेना

इस प्रकार इंदिरा का बचपन विषय परिस्थितियों से चारित्रिक गुणों को प्राप्त कर रहा था। भविष्य़ में इंदु ने जो फौलादी व्यक्तित्व प्राप्त किया था, वह प्रतिकूल परिस्थितियों से ही निर्मित हुआ था। इंदु ने अपने किशोरवय में स्वाधीनता संग्राम में विभिन्न प्रकार से सक्रिय सहयोग भी प्रदान किया था। उन्होंने बच्चों के सहयोग से वानर सेना का निर्माण भी किया था जिसका नेतृत्व वह स्वयं करती थीं। वानर सेना के सदस्यों ने देश सेवा की शपथ भी ली थी स्वतंत्रता आंदोलन में इस वानर सेना ने आंदोलनकारियों की कई प्रकार से मदद की थी। क्रांतिकारियों तक महत्वपूर्ण सूचनाएँ भी इनके माध्यम से पहुँचाई जाती थीं। साथ ही सामान्य जनता के मध्य जरुरी संदेशों के पर्चे भी इनके द्वारा वितरित किए जाते थे। इंदिराजी की इस वानर सेना का महत्व इस बात से समझा जा सकता है कि मात्र इलाहाबाद में इसके सदस्यों की संख्या पाँच हजार थी। एक बार इंदु ने अपने पिता से जेल में भेंट करने के दौरान आवश्यक लिखित दस्तावेजों का संप्रेषण भी किया था। इस प्रकार बालिका इंदिरा ने बचपन में ही स्वाधीनता के लिए संधर्ष करते हुए यह समझ लिया था। कि किसी भी राष्ट्र के लिए उसकी आज़ादी का कितना अधिक महत्व होता है।

बोर्डिंग स्कूल

नेहरु परिवार स्वाधीनता संग्राम में जुटा हुआ था, इस प्रकार इंदु की पढ़ाई उस प्रकार आरंभ नहीं हो सकी जिस प्रकार एक साधारण परिवार में होती है शिक्षा का प्रबंध घर पर ही किया गया था। 1931 में इनके दादा पंडित मोतीलाल नेहरु की मृत्यु हो जाने के बाद यह आवश्यक समझा गया कि इंदिरा को किसी विद्यालय में दाखिल कराना चाहिए। इस समय इंदु की उम्र 14 वर्ष हो चुकी थी। अब तक इंदु को घर पर ही अध्ययन का अवसर प्राप्त हुआ था और पंडित नेहरु उससे संतुष्ट नहीं थे। वह यह भी समझ रहे थे कि इलाहाबाद में रहते हुए उनकी पुत्री की पढ़ाई हो पाना संभव नहीं है। अत: उन्होंने इंदु को बोर्डिंग स्कूल में डालने का फैसला कर लिया।

बौद्धिक क्षमता का परिचय

इनके बाद इंदिरा को पूना के 'पीपुल्स ऑन स्कूल' में दाखिला दिलवा दिया गया। उन्हें कक्षा सात में प्रवेश मिला था। इनकी सहपाठियों की उम्र इनसे काफ़ी कम थी। अत: कक्षा की छात्राओं को लगता था कि एक बड़ी उम्र की छात्रा उनके बीच है। लेकिन उन छात्राओं को यह ज्ञात नहीं था कि उस बालिका ने जीवन की जिस पाठशाला में अब तक अधययन किया है, उसी के कारण उसकी विद्यालयी शिक्षा प्रभावित हुई है। इंदु ने शीघ्र ही अपनी बौद्धिक क्षमता का परिचय दिया और स्कूल में पढ़ाए जा रहे सभी विषयों को आत्मसात करने का प्रयास भी किया। इंदिरा को घर में रहते हुए भी पत्र पत्रिकाएं तथा पुस्तकें पढ़ने का शौक था जो यहाँ भी जारी रहा इसका एक फायदा इंदु को यह मिला कि उसका सामान्य ज्ञान पाठ्य पुस्तकों तक सीमित नहीं रहा। उसे देश दुनिया का काफ़ी ज्ञान था और वह अभिव्यक्ति की कला में भी उस्ताद हो गई थी। विद्यालय द्वारा आयोजित होने वाली डिबेट्स में उसका कोई सानी नहीं था।

शांति निकेतन

1934 में इंदिरा ने 10वीं कक्षा की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली अब आगे की पढ़ाई करने के लिए उसे ऐसे विद्यालय में जाना पड़ सकता था जहाँ भारतीय संस्कृति से संबंधित पढ़ाई नहीं होती थी और सभी कॉलेज अंग्रेज़ों द्वारा संचालित होते थे। काफ़ी सोच-विचार के बाद पंडित नेहरु ने निश्चय किया कि वह अपनी बेटी इंदिरा को शांति निकेतन में पढ़ने के लिए भेजेंगे।

गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगौर उन दिनों कोलकाता से कुछ दूरी पर प्राकृतिक वातावरण में 'शांति निकेतन' नामक एक शिक्षण संस्थान चला रहे थे। शांति निकेतन का संचालन गुरुदेव एवं प्राचीन आश्रम व्यवस्था के अनुकूल था। वहाँ का रहन-सहन एवं सामान्य जीवन सादगी से परिपूर्ण था। इंदिरा का स्वास्थ्य भी इन दिनों बहुत अच्छा नहीं था। अत: पंडित जवाहरलाल नेहरु ने अपनी बेटी का दाखिला शांति निकेतन में करवा दिया। यहाँ इंदु ने स्वयं को पूर्णतया आश्रम की व्यवस्था के अनुसार ढाल लिया।

इंदिरा प्रतिभाशाली थीं। और उनका सहज ज्ञान भी अन्य बच्चों से काफ़ी बेहतर था। इस कारण वह शीघ्र ही शांति निकेतन में सभी की प्रिय बन गई। शिक्षार्थी भी उनका सम्मान करने लगे। शांति निकेतन में रहते हुए इंदिरा को खादी की साड़ी पहननी पड़ती थी और वर्जित स्थलों पर नंगे पैर ही जाना होता था। शांति निकेतन का अनुशासन काफ़ी कड़ा था। सामान्य: अमीरी में पले बच्चों के लिए वहाँ टिक पाना कठिन था। लेकिन इंदिरा जी ने सख्त अनुशासन तथा अन्य नियमों का पूर्णतया पालन किया यहाँ आने के बाद उनके स्वास्थ्य में भी अपेक्षित सुधार के संकेत दिखने लगे। पंडित जवाहरलाल नेहरु की बेटी इंदिरा जी को गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगौर भली-भाँति जानते थे। इसी कारण इंदिरा पर उनको विशेष कृपा दृष्टि रहती थी। गुरुदेव ने शीघ्र ही जान लिया कि इंदिरा नामक यह किशोरी बेहद प्रतिभावान है। यही कारण है कि वह गुरुदेव के प्रिय विद्यार्थियों में से एक बन गई। इंदिरा में अध्ययन से इतर लोक कला और भारतीय संस्कृति में भी रुचि जाग्रत की गई। इंदु ने शीघ्र ही मणिपुरी शास्त्रीय नृत्य में दक्षता हासिल कर ली। उसका नृत्य काफ़ी मनमोहक होता था।

शांति निकेतन की एक अतिरिक्त विशेषता यह थी कि वहाँ के सभी अध्यापक अपने विषयों के धुरंधर ज्ञाता थे। यह उनकी विद्वत्ता का ही परिमाण था कि इंदिरा ने ज्ञानार्जन करने में अच्छी गति दिखाई। लेकिन शांति निकेतन में रहते हुए इंदिरा अपनी पढ़ाई पूरी न कर सकीं जबकि वह वहाँ के वातावरण से काफ़ी प्रसन्न थीं। लेकिन इंसान का भाग्य भी काफ़ी प्रबल होता है और उसके आदेशों को स्वीकार करना ही पड़ता है।

कमला नेहरु का निधन

दरसल कुछ समय बाद ही इलाहाबाद में इंदिरा की माता कमला नेहरु का स्वास्थ्य काफ़ी खराब हो गया। वह बीमारी में अपनी पुत्री को याद करती थीं। पंडित नेहरु नहीं चाहते थे कि बीमार माता को उसकी पुत्री की शिक्षा के कारण ज़्यादा समय तक दूर रखा जाए। उधर अंग्रेज़ों को भी कमला नेहरु के अस्वस्थ होने की जानकारी थी। अंग्रेज़ चाहते थे कि यदि ऐसे समय में पंडित नेहरु को जेल भेजने का भय दिखाया जाए तो वह आज़ाद रहकर पत्नी का इलाज कराने के लिए उनकी हर शर्त मानने को मजबूर हो जाएंगे। इस प्रकार वे पंडित नेहरु का मनोबल तोड़ने का प्रयास कर रहे थे।

पंडित नेहरु जब अंग्रेज़ों की शर्तों के अनुसार चलने को तैयार न हुए तो उन्हें गिरफ़्तार करके जेल में डाल दिया गया। जब पंडित नेहरु ने गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगौर के नाम शांति निकेतन में तार भेजा गुरुदेव ने वह तार इंदिरा को दिया जिसमें लिखा था। इंदिरा की माता काफ़ी अस्वस्थ हैं और मैं जेल में हूँ। इस कारण इंदिरा को माता की देखरेख के लिए अविलंब इलाहाबाद भेज दिया जाए। माता की अस्वस्थता का समाचार मिलने के बाद इंदिरा ने गुरुदेव से जाने की इच्छा प्रकट की।

इलाहाबाद पहुँचने पर इंदिरा ने अपनी माता की रुग्ण स्थिति देखी जो काफ़ी चिंतनीय थी। भारत में उस समय यक्ष्मा का माकूल इलाज नहीं था। उनका स्वास्थ्य तेजी से बिगड़ता जा रहा था। यह 1935 का समय था। तब डॉक्टर मदन अटल के साथ इंदिरा जी अपनी माता को चिकित्सा हेतु जर्मनी के लिए प्रस्थान कर गईं। पंडित नेहरू उस समय जेल में थे। चार माह बाद जब पंडित नेहरू जेल से रिहा हुए तो वह भी जर्मनी पहुँच गए।

जर्मनी में कुछ समय तक कमला नेहरू का स्वास्थ्य ठीक रहा लेकिन यक्ष्मा ने फिर जोर पकड़ लिया। इस समय तक विश्व में कहीं भी यक्ष्मा का इलाज नहीं था। हां, यह अवश्य था कि पहाड़ी स्थानों पर बने सेनिटोरियम में रखकर मरीजों की जिंदगी को कुछ समय के लिए बढ़ा दिया जाता था। लेकिन यह कमला नेहरू के रोग की प्रारंभिक स्थिति नहीं थी। यक्ष्मा अपनी प्रचंड स्थिति में पहुँच चुका था लेकिन पिता- पुत्री ने हार नहीं मानी।

पंडित नेहरू और इंदिरा कमलाजी को स्विट्जरलैंड ले गए। वहाँ उन्हें लगा कि कमला जी के स्वास्थ्य में सुधार हो रहा है। लेकिन जिस प्रकार बुझने वाले दीपक की लौ में अंतिम समय प्रकाश तीव्र हो जाता है, उसी प्रकार स्वास्थ्य सुधार का यह संकेत भी भ्रमपूर्ण था। राजरोग को अपनी बलि लेनी थी और फरवरी 1936 में कमला नेहरू का निधन हो गया। 19 वर्षीया पुत्री इंदिरा के लिए यह भारी शोक के क्षण थे। माता की जुदाई का आघात सहन कर पाना इतना आसान नहीं था। उन पर माता की रुग्ण समय की स्मृतियाँ हावी थीं। पंडित नेहरू को भय था कि माता के निधन का दुख और एकांत में माता की यादों की पीड़ा कहीं इंदिरा को अवसाद का शिकार न बना दे। इंदिरा में अवसाद के आरंभिक लक्षण नजर भी आने लगे थे। तब पंडित नेहरू ने यूरोप के कुछ दर्शनीय स्थलों पर अपनी पुत्री इंदिरा के साथ कुछ समय गुजारा ताकि बदले हुए परिवेश में वह अतीत की यादों से मुक्त रह सके। इसका माकूल असर भी हुआ। इंदिरा ने विधि के कर विधान को समझते हुए हालात से समझौता कर लिया।

ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी

पंडित नेहरू अपनी प्रिय बेटी की शिक्षा को लेकर बहुत चिंतित थे। काफ़ी सोचने के पश्चात उन्होंने इंदिरा का दाखिला ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी (इंग्लैंड) में करवा दिया। इंदिरा ने अपना ध्यान पढ़ाई की ओर लगा दिया। लेकिन इंग्लैंड में रहते हुए भी वह वहाँ रह रहे भारतीयों के संपर्क में थीं। उन दिनों इंग्लैंड में 'इंडिया लीग' नामक एक संस्था थी जो भारत की आज़ादी के लिए निरंतर प्रयासरत थी। इंदिरा जी में देशसेवा का प्रस्फुटन बरसों पूर्व ही हो चुका था, इस कारण वह भी इंडिया लीग की सदस्या बन गईं और उनके कार्यकलापों में अपना योगदान देने लगीं।

वहाँ इंदिरा जी का परिचय पंडित नेहरू के मित्र कृष्ण मेनन (जो बाद में भारत के रक्षा मंत्री भी बने) के साथ हुआ। कृष्ण मेनन एक विद्वान व्यक्ति थे। उनका संबंध विश्व के अनेक ख्यातनाम व्यक्तियों से था। श्री मेनन के सान्निध्य से इंदिरा जी को यह लाभ हुआ कि वह विश्व के महान राजनीतिज्ञों और उनकी विचारधाराओं को समझने में सक्षम हो गईं। लेकिन ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी से इंदिरा जी को कोई भी उपाधि नहीं प्राप्त हो सकी।

प्रथम विश्व युद्ध छिड़ चुका था। जर्मनी ने इंग्लैंड के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया था। मित्र देशों की सेनाएँ इंग्लैंड के साथ थीं लेकिन हिटलर का पलड़ा भारी था। ऐसे में इंदिरा का इंग्लैंड में रहना उचित नहीं था। समुद्री मार्ग पर भी खतरा था मगर समय पर भारत लौटना ज़रूरी था। अतः 1941 में इंदिरा भारत लौट आईं जबकि समुद्री मार्ग पर काफ़ी खतरा बना हुआ था।

दाम्पत्य जीवन

मानव सभ्यता के विकास के साथ ही व्यक्ति ने प्रेम करना और उसे महसूस करना आरंभ कर दिया था। प्रेमी की भावना का उदय इंदिरा के ह्रदय में भी हुआ था। पारसी युवक फ़िरोज गाँधी से इंदिरा का परिचय उस समय से था जब वह आनंद भवन में एक स्वतंत्रता सेनानी की तरह आते था। फ़िरोज गाँधी ने कमला नेहरू को पुत्र का स्नेह और मान दिया था। जर्मनी में जब कमला नेहरू को चिकित्सा के लिए ले जाया गया तब फ़िरोज मित्रता का फर्ज पूरा करने के लिए जर्मनी पहुँच गए था। लंदन से भारत वापसी का प्रबंध भी फ़िरोज ने एक सैनिक जहाज के माध्यम से किया था दोनों की मित्रता इस हद तक परवान चढ़ी कि विवाह करने का निश्चय कर लिया।

कमला नेहरू जीवित होतीं तो इस शादी को आसानी के साथ स्वीकृति मिल सकती थी। कमला जी अपने पति को शादी के लिए विवश कर सकती थीं। लेकिन कमला नेहरू उनकी मदद करने के लिए दुनिया में नहीं थीं। इंदिरा जी चाहती थीं कि उस शादी को पिता का आशीर्वाद अवश्य प्राप्त हो लेकिन पंडित नेहरू को उस शादी के लिए मना पाना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य था। वैसे फ़िरोज गाँधी को ही इंदिरा से शादी करने का प्रस्ताव पंडित नेहरू के सामने रखना चाहिए था लेकिन फ़िरोज यह हिम्मत नहीं कर पाए। उसने यह दायित्व इंदिरा को ही सौंप दिया।

इंदिरा ने फ़िरोज गाँधी को शादी का वचन दे दिया था। इस कारण इंदिरा ने ही पिता के सामने यह बात रखी कि फ़िरोज से शादी करना चाहती हैं। यह सुनकर पंडित नेहरू अवाक् रह गए। वह सोच भी नहीं सकते थे कि उनकी बेटी इंदिरा फ़िरोज गाँधी से शादी करना चाहती है जो उनके समाज-बिरादरी का नहीं है। यद्यपि पंडित नेहरू काफ़ी उदार ह्रदय के थे लेकिन उनका नजरिया यह था कि शादी सजातीय परिवार में ही होनी चाहिए। स्वयं उन्होंने भी अपने पिता पंडित मोतीलाल नेहरू का आदेश माना था।

उन दिनों स्वयं पंडित नेहरू पुत्री के लिए योग्य सजातीय वर की तलाश कर रहे थे ताकि कन्यादान का उत्तरदायित्व पूर्ण कर सकें। पंडित नेहरू ने पुत्री से स्पष्ट कह दिया कि शादी को मंज़ूरी नहीं दी जा सकती। उन्होंने कई प्रकार से इंदिरा को समझाने का प्रयास किया लेकिन इंदिरा की जिद कायम रही। तब निरुपाय नेहरू जी ने कहा कि यदि महात्मा गाँधी उस शादी के लिए सहमत हो जाएँ तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी। लेकिन गाँधीजी से सहमति प्राप्त करना इंदिरा का ही उत्तरदायित्व था।

महात्मा गाँधी से स्वीकृति

इंदिरा को लगा कि महात्मा गाँधी को मनाना उनके लिए कठिन नहीं होगा। लेकिन इंदिरा की सोच के विपरीत महात्मा गाँधी ने उस शादी के लिए इंकार कर दिया। उन्होंने शादी का विरोध किया। वह भारतीय वर्ण व्यवस्था के पक्षधर थे और चाहते थे कि विवाह संबंध समाज-बिरादरी में ही होना चाहिए। यह अलग बात थी कि वह सभी समाजों के साथ समानता की बात करते थे और उन्होंने अछूतों के उद्धार के लिए बहुत कुछ किया था। महात्मा गाँधी का मानना था कि यह विवाह आगे जाकर सफल नहीं होगा क्योंकि वह कई मायनों में असमानता रखता था। उन्होंने इंदिरा जी को समझाया कि जो विवाह संबंध धर्म, जाति, आयु और पारिवारिक स्तर में असमान हों, वे सफल नहीं होते। यदि एक-दो अंतर हों तो भी बात मानी जा सकती थी।

गाँधी की अंतर्दृष्टि कह रही थी कि इंदिरा और फ़िरोज का विवाह असफल साबित होगा लेकिन इंदिरा कुछ भी समझने को तैयार नहीं थीं। तब महात्मा गाँधी ने नेहरू को विवाह के लिए स्वीकृति प्रदान कर दी। वह हर प्रकार से इंदिरा को समझाकर अपना दायित्व पूर्ण कर चुके थे। महात्मा गाँधी की ही सलाह पर इंदिरा का विवाह बिना किसी आडंबर के अत्यंत सादगी के साथ संपन्न हुआ। इसमें केवल इलाहाबाद के ही शुभचिंतक और करीबी व्यक्ति सम्मिलित हुए थे। यह विवाह 26 मार्च, 1942 को हुआ। उस समय इंदिरा जी की उम्र 24 वर्ष, 4 माह और 7 दिन थी।

उस समय किसी हिंदू कश्मीरी युवती का 24 वर्ष की आयु के बाद भी अविवाहित रहना परंपरा के अनुसार सही नहीं माना जाता था। यहाँ पंडित नेहरू को असफल पिता माना जाएगा। उन्हें इंदिरा का विवाह 20 वर्ष की आयु तक कर देना चाहिए था। लेकिन पंडित नेहरू देशसेवा के कार्य में जुटे हुए थे। फिर पत्नी कमला की बीमारी के कारण भी वह समय पर पुत्री के विवाह का निर्णय नहीं कर पाए थे। लेकिन पंडित नेहरू का यह भी दायित्व था कि वह बीमार पत्नी के सामने ही एकमात्र पुत्री की शादी कर देते। लेकिन होनी को टाला नहीं जा सकता। इंदिरा की शादी हो गई। शादी के बाद दोनों कश्मीर के लिए रवाना हो गए। कश्मीर में कुछ समय गुजारने के बाद वे वापस इलाहाबाद लौटे। इंदिरा पुनः स्वाधीनता संग्राम के अपने कार्य में जुट गईं। फ़िरोज गाँधी ने भी उनका पूरी तरह साथ दिया। 10 दिसंबर, 1942 को उन्हें एक सभा को संबोधित करना था। निषेधाज्ञा लगी होने के कारण दोनों को गिरफ़्तार करके जेल में डाल दिया गया।

राजीव गाँधी का जन्म

नैनी जेल में इंदिरा को 9 माह तक रखा गया। इस दौरान उनका स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित रहा। चिकित्सकों ने पौष्टिक भोजन और दवा के संबंध में उन्हें निर्देश भी दिए। लेकिन वह अंग्रेज़ों के सामने गिड़गिड़ाना नहीं चाहती थीं। उन्होंने किसी भी प्रकार का कोई विरोध प्रदर्शन भी नहीं किया। जेल के अधिकारियों का व्यवहार भी उनके साथ सदाशयतापूर्ण नहीं था। लेकिन उन्होंने बेहद धैर्य के साथ उस कठिन समय को पार किया। 13 मई, 1943 को इंदिरा जी को जेल से रिहा किया गया और वह आनंद भवन पहुँचीं। वहाँ गहन इलाज के बाद उनका स्वास्थ्य सुधर पाया। उधर फ़िरोज गाँधी को भी जेल से मुक्त कर दिया गया था। फ़िरोज ने कुछ समय आनंद भवन में गुजारा। फिर इंदिरा अपनी बुआ के पास मुंबई चली गईं जहाँ 20 अगस्त, 1944 को उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया। यह पुत्र राजीव थे। इसके बाद इंदिरा जी अपने पुत्र राजीव के साथ इलाहाबाद लौट आईं।

स्वाभिमानी व्यक्ति

यहाँ यह बताना भी प्रासंगिक होगा कि फ़िरोज गाँधी बेहद स्वाभिमानी व्यक्ति थे। घर दामाद के रूप में आनंद भवन में रहना उन्हें स्वीकार नहीं था। वह चाहते थे कि उनकी अपनी व्यक्तिगत जिंदगी हो और वह नेहरू परिवार का दामाद होने के कारण न जाने जाएँ। यही कारण है कि फ़िरोज गाँधी ने लखनऊ से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र 'नेशनल हेराल्ड' में मैनेजिंग डायरेक्टर जैसा महत्वपूर्ण पद संभाल लिया। इंदिरा गाँधी ने पत्नी धर्म निभाते हुए फ़िरोज का साथ दिया और पुत्र राजीव के साथ लखनऊ पहुँच गईं। इधर भारत में आज़ादी की सुगबुगाहट होने लगी थी। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद अंतरिम सरकार के गठन की प्रस्तावना तैयार होने लगी थी। अंतरिम सरकार के गठन की ज़िम्मेदारी पंडित नेहरु पर ही थी। वाइसराय लॉर्ड माउंटबेटन से विभिन्न मुद्दों पर चर्चा जारी थी ताकि सत्ता हस्तांतरण का कार्य सुगमता से संभव हो सके। इसीलिए नेहरूजी को इलाहाबाद छोड़कर नियमित रूप से दिल्ली में रहने की आवश्यकता थी। ऐसी स्थिति में इंदिरा गाँधी काफ़ी उलझन में थीं। उन्हें एक तरफ अपने एकाकी विधुर पिता का ध्यान रखना था तो दूसरी तरह पति के लिए भी उनकी कुछ ज़िम्मेदारी थी। इस कारण उन्हें दिल्ली और लखनऊ के मध्य कई-कई फेरे लगाने पड़ते थे। पंडित नेहरू ने इंदिरा गाँधी के लिए दिल्ली में अलग फ्लैट की व्यवस्था कर दी। उन्हें दूसरी संतान के रूप में भी पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। 15 सितंबर, 1946 को संजय गाँधी का जन्म हुआ।

इंदिरा गांधी की जिम्मेदारियाँ अब काफ़ी बढ़ गई थीं। उन्हें मां के रूप में जहाँ दो बच्चों की परवरिश करनी थी और पति के प्रति उत्तरदायित्वों का निर्वाहन करना था, वहीं पुत्री के रूप में पिता की मुश्किलों में भी साथ देना था। इसके अलावा देशसेवा की जो भावना उनमें विद्यमान थी, उसे भी वह नहीं त्याग सकती थीं। इंदिरा जी के लिए यह समय अग्नि परीक्षा का था।

देश का विभाजन

उस समय देश विभाजन के मुहाने पर था। जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की माँग की थी और अंग्रेज़ भी जिन्ना की माँग को स्पष्ट हवा दे रहे थे लेकिन गाँधीजी विभाजन के पक्ष में नहीं थे। लॉर्ड माउंटबेटन कूटनीति का गंदा खेल खेलने में लगे हुए थे। वह एक ओर महात्मा गाँधी को आश्वस्त कर रहे थे कि देश का विभाजन नहीं होगा तो दूसरी ओर पंडित नेहरू से कह रहे थे कि दो राष्ट्रों के विभाजन के फॉर्मूले पर ही आज़ादी प्रदान की जाएगी। पंडित नेहरू स्थिति की गंभीरता को समझ रहे थे जबकि महात्मा गाँधी इस मुगालते में थे कि अंग्रेज़ वायसराय विभाजन नहीं चाहता है।

जिन्ना की अनुचित माँग के कारण हिंदू और मुसलमानों में वैमनस्य पसर गया था। महत्वाकांक्षी जिन्ना पाकिस्तान का प्रधानमंत्री बनने के लिए बहुत लालायित थे। महात्मा गांधी ने जिन्ना को संपूर्ण और अखंड भारत का प्रधानमंत्री बनाने का आश्वासन दिया। लेकिन चालाक जिन्ना यह जानते थे कि पंडित नेहरू के कारण यह संभव नहीं है। हिंदू किसी भी मुस्लिम को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे। ऐसे में देश सांप्रदायिक दंगों की आग में झुलसने लगा था। महात्मा गांधी किसी तरह दंगों की आग शांत करना चाहते थे। दिल्ली में भी कई स्थानों पर इंसानियत शर्मसार हो रही थी। तब महात्मा गांधी ने इंदिरा जी को यह मुहिम सौंपी कि वह दंगाग्रस्त क्षेत्रों में जाकर लोगों को समझाएँ और अमन लौटाने में मदद करें।

इंदिरा गांधी ने फिर महात्मा गांधी के आदेश को शिरोधार्य किया और दंगाग्रस्त क्षेत्रों में दोनों समुदायों के लोगों को समझाने का प्रयास करने लगीं। वस्तुतः यह अत्यंत जोखिम कार्य था। पंडित नेहरू की बेटी होने के कारण अतिवादी उन्हें नुकसान पहुँचा सकते थे परंतु निर्भिक इंदिरा ने दंगों की आग शांत करने के लिए पुरजोर प्रयास किए। लेकिन 15 अगस्त के बाद सांप्रदायिकता अपने चरम पर पहुँच गई। दंगों में दोनों समुदायों के अनगिनत लोग मौत के घाट उतार दिए गए। पाकिस्तान से लाखों हिंदू शरणार्थी दिल्ली आ गए थे। शरणार्थियों के पुनर्वास का सवाल भी उत्पन्न हो गया था। उन भूखे-प्यासे घर से भागे लोगों के लिए प्राथमिक आवश्यकताएँ भी जरूरी थीं।

ऐसी स्थिति में दिल्ली के कई स्थानों पर शरणार्थी एवं दंगा पीड़ित शिविर लगाए गए थे। पंडित नेहरू ने 17, पार्क रोड के अपने बंगले पर भी शरणार्थी लगाए। शरणार्थियों के जीवन की बुनियादी सुविधाओं का ध्यान रखा जा रहा था। उस समय महात्मा गांधी पश्चिम बंगाल के नोआखली ज़िले में जहाँ मुस्लिमों की कई बस्तियों को जला दिया गया था। पाकिस्तान से आने वाली ट्रेनों में हज़ारों हिंदूओं की लाशें भी आ रही थीं। इस कारण हिंदू आक्रोशित होकर मुसलमनों पर हमला कर रहे थे।

पंडित जवाहरलाल नेहरू के बंगले में जो शरणार्थी शिविर लगाए गए थे, उनकी देखरेख इंदिरा गांधी ही कर रही थीं। सभी कमरे खाली करके शरणार्थियों को उनमें ठहरा दिया गया था और लॉन में भी टेंट इत्यादि लगा दिए थे ताकि अधिकाधिक शरणार्थियों को वहाँ रखा जा सके। यहाँ की सभी व्यवस्था इंदिरा गांधी द्वारा देखी जा रही थी। अंतरिम सरकार के गठन के साथ पंडित नेहरू कार्यवाहक प्रधानमंत्री बना दिए थे। 26 जनवरी, 1950 को भारत का संविधान भी लागू हो गया। भारत एक गणतांत्रिक देश बना और प्रधानमंत्री नेहरू की सक्रियता काफ़ी अधिक बढ़ गई। इस समय नेहरूजी का निवास त्रिमूर्ति भवन ही था। समय-समय पर विभिन्न देशों के आगंतुक त्रिमूर्ति भवन में ही नेहरूजी के पास आते थे। उनके स्वागत के सभी इंतजाम इंदिरा गांधी द्वारा किए जाते थे। साथ ही साथ उम्रदराज हो रहे पिता की आवश्यकताओं को भी इंदिराजी देखती थीं।

नेहरूजी की आलोचना

यह स्वाभाविक था कि लखनऊ से ज्यादा इंदिरा जी की आवश्यकता उस समय दिल्ली में पिता के पास रहने की थी। दोनों पुत्र राजीव और संजय भी त्रिमूर्ति भवन में अपने नाना के पास ही आ गए थे। फ़िरोज गाँधी कुछ अंतराल पर बच्चों से भेंट करने के लिए आते रहे। लेकिन फ़िरोज के ह्रदय में इस बात की चुभन अवश्य थी कि इंदिरा को पत्नी के रूप में जिन कर्तव्यों की पूर्ति करनी चाहिए थी, वे बेटी के कर्तव्यों के सम्मुख दब गए हैं। इधर इंदिरा गांधी ने व्यस्तता बढ़ जाने के बाद बच्चों की देखरेख के लिए अन्ना नामक एक अनुभवी महिला को बतौर गवर्नेस रख लिया।

फ़िरोज गाँधी के साथ इंदिराजी के संबंध पुनः सामान्य बने। 1952 के आम चुनाव में फ़िरोज को कांग्रेस का टिकट दिया गया और वह लोकसभा के लिए निर्वाचित भी हो गए। सांसद बनने के बाद कुछ समय तक वह त्रिमूर्ति भवन में ही रहे। लेकिन सांसद आवास मिलने के बाद फ़िरोज ने त्रिमूर्ति भवन छोड़ दिया। परंतु इंदिरा गांधी चाहती थीं, फ़िरोज त्रिमूर्ति भवन में ही रहें। दोनों के दाम्पत्य जीवन में यहां से अलगाव आरंभ हो गया। फ़िरोज गाँधी ने इस वास्तविकता को नहीं समझा कि नारी सिर्फ पत्नी ही नहीं होती है, स्वयं उसका भी निज अस्तित्व होता है। बेशक भारतीय नारी के नाम के साथ पति का उपनाम लगा रहता हो लेकिन इसका यह मतलब कदापि नहीं है कि वह पति की गुलामी को ही जीवन मान ले। इंदिरा गांधी भी काफी महत्वाकांक्षी थीं। उनके पास भी भविष्य के कुछ सपने थे।

फ़िरोज गाँधी का अलग रहना उचित था अथवा नहीं- यह बहस का विषय है लेकिन वह पत्नी और बच्चों से दूर अवश्य होते चले गए। फ़िरोज गाँधी के ह्रदय में पत्नी इंदिरा गांधी से ज़्यादा अपने ससुर पंडित नेहरू के प्रति नाराजगी और कड़वाहट थी। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण उस समय देखने को प्राप्त हुआ जब फ़िरोज गाँधी ने संसद में ही नेहरूजी की आलोचना आरंभ कर दी। फ़िरोज गाँधी का यह गैरजिम्मेदाराना व्यवहार रिश्तों की डोर को कमजोर करने वाला साबित हो रहा था। राजनीतिक विचारधारा में मतभेद हो सकता है लेकिन यदि उसे व्यक्त करते समय व्यक्तिगत कड़वाहट भी शामिल हो तो उससे संबंधों में तल्खी ही आएगी। महात्मा गांधी ने जिस कारण विवाह की खिलाफत की थी, वह सच होता नजर आ रहा था।

बाल सहयोग की स्थापना

लेकिन इंदिरा गांधी ने सब कुछ भूलते हुए भी अपनी पारिवारिक जिंदगी को बचाए रखने का प्रयास किया। जब उन्होंने बाल सहयोग नामक संस्था की स्थापना की तो फ़िरोज गाँधी से भी इसमें सहयोग प्राप्त किया। इस संस्था के माध्यम से बच्चों के उत्पादन को सहकारिता के आधार पर विक्रय किया जाता था। और अर्जित लाभ सब बच्चों में बांट दिया जाता था। बच्चों को प्रशिक्षण देने के लिए विशेषज्ञों की सहायता भी ली गई थी। इंदिरा गांधीं ने इंडियन काउंसिल ऑफ चाइल्ड वेलफेयर ' इंटरनेशनल काउंसिल ऑफ चाइल्ड वेलफेयर' तथा 'कमला नेहरू स्मृति अस्पताल' जैसी संस्थाओं में विभिन्न दायित्व स्वीकार करते हुए परोपकारी कार्यों को अंजाम दिया।

इन सबके साथ इंदिरा गांधी अपने पिता पंडित जवाहरलाल नेहरू के राजनीतिक कार्यों में भी उनकी सहयोगिनी बनी रहीं। 1952 में इंदिरा गांधी को 'मदर्स अवार्ड' से सम्मानित किया गया। उनकी सामाजिक सेवाओं को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया। यह वह समय था जब इंदिरा गांधी के दोनों पुत्र- राजीव और संजय देहरादून के प्रसिद्ध स्कूल 'दून' में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। मात्र छुट्टियों में ही उन्हें माता और नाना का प्रेम प्राप्त होता था।

फ़िरोज गाँधी का निधन

उधर फ़िरोज गाँधी भी अस्वस्थ रहने लगे थे। उन्हें ह्रदय रोग ने घेर लिया था। फिर 1960 में तीसरे ह्रदयाघात के कारण उनकी मृत्यु हो गई। उस समय इंदिरा गांधी की उम्र 43 वर्ष थी। अंतिम समय में वह अपने पति के निकट मौजूद थीं। इस प्रकार उनके वैवाहिक जीवन का असामयिक अंत हो गया। यह इंदिरा जी के लिए शोक का कठिन समय था। पंडित नेहरू ने इस समय अपनी पुत्री को धैर्य बंधाया और पूरा ख्याल रखा।



वानर सेना का गठन

राजनेता और जनसाधारण, दोनों ही आज़ादी के आन्दोलनों में बराबर के भागीदार थे। नन्ही इन्दिरा के दिल पर इन सभी घटनाओं का अमिट प्रभाव पड़ा और 13 वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने 'वानर सेना' का गठन कर अपने इरादों को स्पष्ट कर दिया।

इंदिरा गाँधी स्टाम्प

कार्यकारी समिति की सदस्य

1955 से वह सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी की कार्यकारी समिति की सदस्य रहीं और 1959 में पार्टी की अध्यक्ष चुनी गईं। नेहरू के बाद 1964 में प्रधानमंत्री बने लाल बहादुर शास्त्री ने उन्हें अपनी सरकार में सूचना और प्रसारण मंत्री बनाया।

प्रथम महिला प्रधानमंत्री

इन्दिरा गांधी लगातार तीन बार (1966-77) और फिर चौथी बार (1980-84) भारत की प्रधानमंत्री बनी।

  • भारत के द्वितीय प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद श्रीमती इन्दिरा गांधी भारत की तृतीय और प्रथम महिला प्रधानमंत्री निर्वाचित हुई।
  • 1967 के चुनाव में वह बहुत ही कम बहुमत से जीत सकीं।
  • 1971 में पुनः भारी बहुमत से वे प्रधामंत्री बनी और 1977 तक निरन्तर इस गौरवशाली पद पर रहते हुए उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत को एक नयी शक्ति के रूप में स्थापित किया।
  • 1977 के बाद ये 1980 में एक बार फिर प्रधानमंत्री बनी और 1984 तक प्रधानमंत्री के पद पर रही।

जनवरी 1966 में शास्त्रीजी की अचानक मृत्यु के बाद श्रीमती गांधी पार्टी की दक्षिण और वाम शाखाओं के बीच सुलह के तौर पर कांग्रेस पार्टी की नेता (और इस तरह प्रधानमंत्री भी) बन गईं, लेकिन उनके नेतृत्व को भूतपूर्व वित्त मंत्री मोरारजी देसाई के नेतृत्व में पार्टी की दक्षिण शाखा से लगातार चुनौती मिलती रही। 1967 के चुनाव में वह बहुत ही कम बहुमत से जीत सकीं और उन्हें देसाई को उप-प्रधानमंत्री स्वीकार करना पड़ा। लेकिन 1971 में उन्होंने रूढ़िवादी पार्टियों के गठबंधन को भारी बहुमत से पराजित किया।

जवाहरलाल नेहरू अपनी पत्नी कमला नेहरू और बेटी इंदिरा गाँधी के साथ

बांग्लादेश का निर्माण

श्रीमती गांधी ने 1971 के उत्तरार्द्ध में पूर्वी बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश) द्वारा पाकिस्तान से अलग होने के संघर्ष का ज़ोरदार समर्थन किया और भारत की सशस्त्र सेनाओं ने पाकिस्तान पर त्वरित और निर्णायक जीत हासिल की। जिसके फलस्वरूप बांग्लादेश का निर्माण हुआ।

आपातकाल

मार्च 1972 में पाकिस्तान पर भारत की जीत के बाद श्रीमती गाँधी ने राष्ट्रीय चुनावों मे अपनी नई कांग्रेस पार्टी की ज़ोरदार जीत का नेतृत्व किया। कुछ ही समय बाद उनके पराजित समाजवादी प्रतिद्वन्दी ने उन पर चुनाव नियमों के उल्लघंन का आरोप लगाया। जून 1975 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उनके ख़िलाफ़ फ़ैसला सुनाया। जिससे उनकी संसद की सदस्यता समाप्त हो जाती और उन्हें छः वर्ष के लिए राजनीति से अलग रहना पड़ता। प्रतिक्रियास्वरूप उन्होंने समूचे भारत में आपातकाल की घोषणा कर दी। अपने राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वियों को गिरफ़्तार करवा लिया और आपातकालीन शक्तियाँ हासिल करके व्यक्तिगत स्वतंत्रता सीमित करने सम्बन्धी कई क़ानून बनाए। इस काल में उन्होंने कई अलोकप्रिय नीतियाँ लागू कीं, जिनमें बड़े पैमाने पर नसबंदी (जन्म नियंत्रण का एक उपाय) कार्यक्रम भी शामिल था। जब लम्बे समय तक स्थगित राष्ट्रीय चुनाव 1977 में हुए तो, श्रीमती गांधी और उनकी पार्टी की करारी हार हुई, जिसके बाद उन्हें पद छोड़ना पड़ा। जनता पार्टी ने सरकार की बागडोर सम्भाली।

इंदिरा गाँधी
Indira Gandhi

कांग्रेस—इ पार्टी की स्थापना

1978 के आरम्भ में श्रीमती गांधी के समर्थक कांग्रेस पार्टी से अलग हो गए और कांग्रेस—इ (इ से इंदिरा) पार्टी की स्थापना की। सरकारी भ्रष्टाचार के आरोप में श्रीमती गांधी कुछ तक जेल (अक्टूबर 1977 और दिसम्बर 1978) में रहीं। इन झटकों के बावजूद नवम्बर 1978 में वह नई संसदीय सीट से चुनाव जीतने में क़ामयाब रहीं और उनकी कांग्रेस—इ पार्टी धीरे-धीरे फिर से मज़बूत होने लगी। सत्तारूढ़ जनता पार्टी में अंतर्कलह के कारण अगस्त 1979 में सरकार गिर गई। जब जनवरी 1980 में लोकसभा (संसद का निचला सदन) के लिए चुनाव हुए तो श्रीमती गांधी और उनकी पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में लौट आई। उनके प्रमुख राजनीतिक सलाहकार, उनके पुत्र संजय गांधी भी लोकसभा की सीट पर विजयी रहे। इंदिरा और उनके पुत्र के ख़िलाफ़ चल रहे सभी क़ानूनी मुक़दमे वापस ले लिए गए।

ऑपरेशन ब्लू स्टार और हत्या

जून 1980 में एक वायुयान दुर्घटना में संजय गांधी की मृत्यु ने भारत के राजनीतिक नेतृत्व के लिए इंदिरा गांधी के चुने हुए उत्तराधिकारी को समाप्त कर दिया। संजय की मृत्यु के बाद इंदिरा ने अपने दूसरे पुत्र राजीव गांधी को पार्टी के नेतृत्व के लिए तैयार किया। 1980 के दशक के आरम्भ में इंदिरा गांधी को भारत की राजनीतिक अखंडता के ख़तरों से झूझना पड़ा। कई राज्य केन्द्र सरकार से अधिक स्वतंत्रता की माँग करने लगे तथा पंजाब में सिक्ख आतंकवादियों ने स्वायत्त राज्य की माँग पर ज़ोर देने के लिए हिंसा का रास्ता अपना लिया। जवाब में श्रीमती गांधी ने जून 1984 में सिक्खों के पवित्रतम धर्मस्थल अमृतसर के स्वर्ण मन्दिर पर सेना के हमले के आदेश दिए, जिसके फलस्वरूप 450 से अधिक सिक्खों की मृत्यु हो गई। स्वर्ण मन्दिर पर हमले के प्रतिकार में पाँच महीने के बाद ही श्रीमती गांधी के आवास पर तैनात उनके दो सिक्ख अंगरक्षकों ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। श्रीमती गांधी के द्वारा शुरू की गई औद्योगिक विकास की अर्द्ध समाजवादी नीतियों पर क़ायम रहीं। उन्होंने सोवियत संघ के साथ नज़दीकी सम्बन्ध क़ायम किए और पाकिस्तान—भारत विवाद के दौरान समर्थन के लिए उसी पर आश्रित रहीं।

उपलब्धियाँ

करोड़ों लोगों की प्रिय प्रधानमंत्री का जीवन-इतिहास उपलब्धियों से भरा पड़ा है। जिनमें प्रमुख हैं—

  1. बैंकों का राष्ट्रीयकरण,
  2. निर्धन लोगों के उत्थान के लिए आयोजित 20 सूत्रीय कार्यक्रम,
  3. गुट निरपेक्ष आन्दोलन की अध्यक्षा, इत्यादि।
  • 1980 में वे विपक्षी दलों को करारी पराजय देकन पुनः प्रधानमंत्री चुनी गईं।

निधन

31 अक्टूबर, 1984 की मनहूस सुबह को उन्हीं के अंगरक्षकों ने गोलियों से उन्हें शहादत की बलिवेदी पर चढ़ा दिया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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