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*[http://dikhsa.blogspot.com/2010_01_01_archive.html पूर्वजों का शौर्य देख रोमांचित हो गए पिण्डारी]
 
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*[http://josh18.in.com/showstory.php?id=576632 सलमान की ‘वीर’ से पिंडारी समाज खुश हुआ]
 
*[http://josh18.in.com/showstory.php?id=576632 सलमान की ‘वीर’ से पिंडारी समाज खुश हुआ]
*[http://www.lib.virginia.edu/area-studies/SouthAsia/Ideas/pindaris.html Pindari Society and the Establishment  
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*[http://www.lib.virginia.edu/area-studies/SouthAsia/Ideas/pindaris.html Pindari Society and the Establishment of British Paramountcy in India]
of British Paramountcy in India]
 
 
*[http://www.britannica.com/EBchecked/topic/460882/Pindaris Pindari]
 
*[http://www.britannica.com/EBchecked/topic/460882/Pindaris Pindari]
 
*[http://www.indohistory.com/the_pindari_war.html History, India, The Pindari War]
 
*[http://www.indohistory.com/the_pindari_war.html History, India, The Pindari War]
 
*[http://www.indianetzone.com/42/pindaris.htm Pindaris, Maratha Empire]
 
*[http://www.indianetzone.com/42/pindaris.htm Pindaris, Maratha Empire]
*[http://www.indhistory.com/anglo-maratha-war-3.html Third Anglo-Maratha Battle: Pindari]
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*[http://www.infibeam.com/Books/info/R-G-Burto-Lieutenant-Col-R-G/Mahratta-and-Pindari-War-India-1817/1845741315.html Mahratta And Pindari War (India 1817)]
  
 
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05:24, 16 दिसम्बर 2010 का अवतरण

पिण्डारी लङाका

परिचय

पिण्डारी (पिंडारी / पंडारी / पेंढारी) दक्षिण भारत में जा बसे युद्धप्रिय पठान सवार थे। उनकी उत्पत्ति तथा नामकरण विवादास्पद है। वे बड़े कर्मठ, साहसी तथा वफ़ादार थे। टट्टू उनकी सवारी थी। तलवार और भाले उनके अस्त्र थे। वे दलों में विभक्त थे और प्रत्येक दल में साधारणत: दो से तीन हज़ार तक सवार होते थे। योग्यतम व्यक्ति दल का सरदार चुना जाता था। उसकी आज्ञा सर्वमान्य होती थी। पिण्डारियों में धार्मिक संकीर्णता न थी। 19वीं शताब्दी में हिंदू (विशेषकर जाट) और सिख भी उनके सैनिक दलों में शामिल थे। उनकी स्त्रियों का रहन-सहन हिंदू स्त्रियों जैसा था। उनमें देवी देवताओं की पूजा प्रचलित थी। ये कुछ क़बाइली संस्कृति का नेतृत्व करते थे

अनियमित सवार, जो मराठा सेनाओं के साथ-साथ चलते थे। उन्हें कोई वेतन नहीं दिया जाता था और शत्रु के देश को लूटने की इजाज़त रहती थी। यद्यपि कुछ प्रमुख पिण्डारी नेता पठान थे, तथापि सभी जातियों के खूंखार और ख़तरनाक व्यक्ति उनके दल में सम्मिलित थे। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में उनको शिन्दे का संरक्षण प्राप्त था। उसने उनको नर्मदा घाटी के मालवा क्षेत्र में ज़मीन दे रखी थीं। वहाँ से वे मध्य भारत में दूर-दूर तक धावे मारते थे और अमीरों तथा ग़रीबों को समान रूप से लूटा करते थे। 1812 ई॰ में उन्होंने बुंदेलखंड, 1815 ई॰ निज़ाम के राज्य में तथा 1816 ई॰ में उत्तरी सरकार में लूटपाट की। इस तरह उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य की शांति और समृद्धि के लिए ख़तरा उत्पन्न कर दिया। अतएव 1817 ई॰ गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने उनके विरूद्ध अभियान के लिए एक बड़ी सेना संगठित की। यद्यपि पिण्डारी विरोधी अभियान के फलस्वरूप तीसरा मराठा युद्ध छिड़ गया तथापि पिण्डारियों का दमन कर दिया गया। उनके पठान नेता अमीर खांको टोंक के नवाब के रुप में मान्यता प्रदान कर दी गयी। उसने अंग्रेज़ों की अधीनता स्वीकार कर ली। पिण्डारियों का दूसरा महत्वपूर्ण नेता चीतू था। उसका पीछा किया जाने पर वह जंगलों में भाग गया, जहाँ एक चीते ने उसे खा डाला।[1]

मराठों की सेना में महत्वपूर्ण स्थान

मराठों की अस्थायी सेना में उनका महत्वपूर्ण स्थान था। पिंडारी सरदार नसरू ने मुग़लों के विरुद्ध शिवाजी की सहायता की। पुनापा ने उनके उत्तराधिकारियों का साथ दिया। गाज़ीउद्दीन ने बाजीराव प्रथम को उसके उत्तरी अभियानों में सहयोग दिया। चिंगोदी तथा हूल के नेतृत्व में 15 हजार पिंडारियों ने पानीपत के युद्ध में भाग लिया। अंत में वे मालवा में बस गए और सिंधिया शाही तथा होल्कर शाही पिंडारी कहलाए। बाद में चीतू, करीम ख़ाँ, दोस्तमुहम्मद और वसीलमुहम्मद सिंधिया की पिंडारी सेना के प्रसिद्ध सरदार हुए तथा कादिर खाँ, तुक्कू खाँ, साहिब खाँ और शेख दुल्ला होल्कर की सेना में रहे।
पिंडारी सवारों की कुल संख्या लगभग 50,000 थी। युद्ध में लूटमार और विध्वंस के कार्य उन्हीं को सौंपे जाते थे। लूट का कुछ भाग उन्हें भी मिलता था। शांतिकाल में वे खेतीबाड़ी तथा व्यापार करते थे। गुज़ारे के लिए उन्हें करमुक्त भूमि तथा टट्टू के लिए भत्ता मिलता था।

पतन

अवशेष

मराठा शासकों के साथ वेलेजली की सहायक संधियों के फलस्वरूप पिण्डारियों के लिए उनकी सेना में स्थान न रहा। इसलिए वे धन लेकर अन्य राज्यों का सैनिक सहायता देने लगे तथा अव्यवस्था से लाभ उठाकर लूटमार से धन कमाने लगे। संभव है उन्हीं के भय से कुछ देशी राज्यों ने सहायक संधियाँ स्वीकार की हों।
सन् 1807 तक पिंडारियों के धावे यमुना और नर्मदा के बीच तक सीमित रहे। तत्पश्चात् उन्होंने मिर्ज़ापुर से मद्रास तक और उड़ीसा से राजस्थान तथा गुजरात तक अपना कार्यक्षेत्र विस्तृत कर दिया। 1812 में उन्होंने बुंदेलखंड पर, 1815 में निज़ाम के राज्य से मद्रास तक तथा 1816 में उत्तरी सरकारों के इलाकों पर भंयकर धावे किए। इससे शांति एवं सुरक्षा जाती रही तथा पिंडारियों की गणना लुटेरों में होने लगी।
इस गंभीर स्थिति से मुक्ति पाने के उद्देश्य से लार्ड हेस्टिंग्ज ने 1817 में मराठा संघ को नष्ट करने के पूर्व कूटनीति द्वारा पिण्डारी सरदारों में फूट डाल दी तथा संधियों द्वारा देशी राज्यों से उनके विरुद्ध सहायता ली। फिर अपने और हिसलप के नेतृत्व में 120,000 सैनिकों तथा 300 तोपों सहित उनके इलाक़ो को घेरकर उन्हें नष्ट कर दिया। हजारों पिण्डारी मारे गए, बंदी बने या जंगलों में चले गए। चीतू को असोरगढ़ के जंगल में चीते ने ही खा डाला। वसील मुहम्मद ने कारागार में आत्महत्या कर ली। चीतू जाट परिवार में दिल्ली के निकटवर्ती गाँव में पैदा हुआ था| इसको दोब्बल ख़ाँ ने ग़ुलाम बनाया और बाद में अपना पुत्र बना लिया।[2] इसके बेटे बरुन दुर्राह [3] के सरदार थे। करीम खाँ को गोरखपुर जिले में गणेशपुर की जागीर दी गई। इस प्रकार पिंडारियों के संगठन टूट गए और वे तितर बितर हो गए।

पिण्डारी तब और अब

गोरखपुर महानगर के मियां बाज़ार में साठ साल पुरानी पिंडारी बिल्डिंग है। इसके मालिक पिंडारियों के सरदार करीम खां की पांचवी पीढ़ी के अब्दुल रहमत करीम खां हैं। वे अपनी बिरादरी के अगुवा भी हैं। रहमत करीम खां बताते हैं कि एक समझौते के तहत अंग्रेजों ने पिंडारियों के सरदार करीम खां को 1820 में सिकरीगंज में जागीर देकर बसाया। सिकरीगंज कस्बे में से सटे इमली डीह खुर्द के हाता नयाब से सरदार करीम खां ने अपनी जिंदगी शुरू की। मुत्यु होने के बाद उन्हें यहीं दफ़नाया गया।

शब-ए-बरात को सभी पिंडारी उनकी मजार पर फ़ातहा पढ़ने आते हैं। पांचवीं पीढ़ी के ही उनके एक वंशज अब्दुल माबूद करीम खां पिंडारी मेडिकल स्टोर चलाते हैं। उन्हें यह बात गवारा नहीं कि उनके पूर्वज लुटेरे थे। वे इसे ऐतिहासिक चूक बताते हैं। उनका कहना है कि पिंडारियों ने अन्याय और अत्याचार का मुकाबला किया। सरदार करीम के वंशज सिकरीगंज से आगे बढ़कर बस्ती और बाराबंकी तक फैल गए।[4]

मूल्याँकन

पिंडारियों के बारे में इतिहास में तरह-तरह की भ्रान्तियां रहीं।

इतिहासकार राजबली पाण्डेय पिंडारियों को लुटेरो का गिरोह बताते हैं, जबकि दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय के मध्यकालीन इतिहास विभाग के प्रो. सैयद नजमुल रज़ा रिजवी का कहना है कि मध्य प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र में लुटेरे पिंडारियों का एक गिरोह था, जिन्हे मराठों ने भाड़े का सैनिक बना लिया। मराठों के पतन के बाद वे टोंक के नवाब अमीर खां के लिए काम करने लगे। नवाब के कमज़ोर होने पर पिंडारियों ने अपनी जीविका के लिए फिर लूट-मार शुरू कर दी। इससे महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में शांति व्यवस्था मुश्किल हो गई।[4]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भारतीय इतिहास कोश- लेखक सच्चिदानन्द भट्टाचार्य पृष्ठ संख्या 241
  2. McEldowney, Philip F.। Pindari Society and the Establishment of British Paramountcy in India (English) (एच.टी.एम.एल) virginia.edu। अभिगमन तिथि: 12 अक्टूबर, 2010।
  3. "दुर्राह" पिण्डारी नेता के आधीन एक समूह को कहते थे जिसका रूप क़बीले जैसा होता था।
  4. 4.0 4.1 सलमान की ‘वीर’ से पिंडारी समाज खुश हुआ (हिन्दी) (php) josh18.in.com। अभिगमन तिथि: 12 अक्टूबर, 2010।

बाहरी कड़ियाँ