"आचार्य धर्मेन्द्र" के अवतरणों में अंतर

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'''आचार्य धर्मेन्द्र विश्व हिन्दू परिषद के केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल में शामिल है. भारत के सांस्कृतिक कायाकल्प में संलग्न आचार्य धर्मेन्द्र जी महाराज. हिन्दुपद पादशाही के स्वप्नद्रष्टा श्री समर्थ रामदास महाराज के अनन्य अनुयायी पूज्य आचार्यश्री के व्यक्तित्व, वक्त्रत्व कर्म और स्वभाव में श्री रामानंद, श्री समर्थ और स्वामी विवेकानंद की करुणा, तेजस्विता और ओज जैसे ईश्वर प्रदत्त सद्गुण साकार व्यक्त हुए प्रतीत होते हैं. आचार्य महाराज का पूरा जीवन हिंदी, हिंदुत्व और हिन्दुस्थान के उत्कर्ष के लिए समर्पित है. उन्होंने अपने पिता श्रीमंमाहत्मा रामचन्द्र वीर महाराज के समान उन्होंने भी अपना सम्पूर्ण जीवन भारतमाता और उसकी संतानों की सेवा में, अनशनो सत्याग्रहो, जेल्यात्राओं, आंदोलनों एवं प्रवासों में संघर्षरत रहकर समर्पित किया है. आठ वर्ष की आयु से आज तक आचार्य श्री के जीवन का प्रत्येक क्षण राष्ट्र और मानवता के अभ्युत्थान के लिए सतत तपस्या में व्यतीत हुआ है . उनकी वाणी अमोघ, लेखनी अत्यंत प्रखर और कर्म अदबुध हैं. उनके सम्मोहक तेजपूर्ण व्यक्तित्व के साथ उनकी सर्वभूत वत्सल करुणा उनके सानिध्य में आने वाले प्रत्येक जन को अभीभूत कर देती है. आचार्य धर्मेन्द्र जी अपनी पैनी भाषण कला और हाजिर जवाबी के लिए जाने जाते है. वे एक ओजस्वी एवं पटु वक्ता (ओरेटर) एवं हिन्दी कवि भी हैं। इन्हें महात्मा रामचन्द्र वीर जी ने अपने जीवन काल में ही पावन धाम विराट नगर का सं १९७८ में पञ्चखंड पिठादिश्वर नियुक्त कर दिया था. 1958 में, 16 वर्ष की उम्र में आचार्य जी ने काशी विश्वनाथ मंदिर मुक्त कराने के लिए एक सत्याग्रह किया था. ये अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के टिकट पर १९६२ और १९६७ का चुनाव लड़ चुके है. ये अपनी गध और पद दोनों शैली के लिए जाने जाते है.'''
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'''आचार्य धर्मेन्द्र विश्व हिन्दू परिषद के केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल में शामिल है. आचार्य महाराज का पूरा जीवन हिंदी, हिंदुत्व और हिन्दुस्थान के उत्कर्ष के लिए समर्पित है. उन्होंने अपने पिता श्रीमंमाहत्मा रामचन्द्र वीर महाराज के समान उन्होंने भी अपना सम्पूर्ण जीवन भारतमाता और उसकी संतानों की सेवा में, अनशनो सत्याग्रहो, जेल्यात्राओं, आंदोलनों एवं प्रवासों में संघर्षरत रहकर समर्पित किया है. आठ वर्ष की आयु से आज तक आचार्य श्री के जीवन का प्रत्येक क्षण राष्ट्र और मानवता के अभ्युत्थान के लिए सतत तपस्या में व्यतीत हुआ है . उनकी वाणी अमोघ, लेखनी अत्यंत प्रखर और कर्म अदबुध हैं. उनके सम्मोहक तेजपूर्ण व्यक्तित्व के साथ उनकी सर्वभूत वत्सल करुणा उनके सानिध्य में आने वाले प्रत्येक जन को अभीभूत कर देती है. आचार्य धर्मेन्द्र जी अपनी पैनी भाषण कला और हाजिर जवाबी के लिए जाने जाते है. वे एक ओजस्वी एवं पटु वक्ता (ओरेटर) एवं हिन्दी कवि भी हैं। इन्हें महात्मा रामचन्द्र वीर जी ने अपने जीवन काल में ही पावन धाम विराट नगर का सं १९७८ में पञ्चखंड पिठादिश्वर नियुक्त कर दिया था. 1958 में, 16 वर्ष की उम्र में आचार्य जी ने काशी विश्वनाथ मंदिर मुक्त कराने के लिए एक सत्याग्रह किया था. ये अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के टिकट पर १९६२ और १९६७ का चुनाव लड़ चुके है. ये अपनी गध और पद दोनों शैली के लिए जाने जाते है.'''
  
 
==जन्म== आचार्य श्री का जन्म माघकृषण सप्तमी को विक्रम संवत १९९८ (इस्वी सन ९ जनवरी १९४२) को गुजरात के मालवाडा में हुआ. जबकि मध्य रात्रि के बाद पाश्चात्य मान्यता के अनुसार १० वी तारीख प्रारंभ हो गयी थी. पर हिन्दू कुल श्रेष्ठ आचार्य श्री माघकृषण सप्तमी को ही अपना प्रमाणिक जन्मदिवस मानते है. इनके पिता महात्मा रामचन्द्र वीर महान गोभक्त, सवतंत्रता सेनानी अखिल भारतीय हिन्दू महासभा और हिन्दुओ के महान नेता थे. इन्होने इनको रामकथा और जप द्वारा श्रोताओ को मंत्रमुग्ध करना सिखाया. पिता द्वारा जेलों, अनशनो, सत्याग्रह और आन्दोलन की आंधियो को झेलते बालक धर्मेन्द्र को न स्कुल मिला, न कोलेज, किन्तु उसे मिली महान पूर्वजो की दिव्या परम्परा और महानतम पिता की अमृतमय छाया. इस परम्परा और छाया में शिशु धर्मेन्द्र के अंत करण में सारस्वत प्रज्ञा का स्तोत्र खुल पड़ा. ८ वर्ष की आयु में पिता के प्रवचन मंच की छाया में बैठ कर शिशु धर्मेन्द्र ने कागज के टुकड़े पर प्रथम कविता लिखी : राणा प्रताप की वह करवाल, चमकी थी बन कर विकराल. कांटे उसने अगणित मुंड, रजनीचर यवनों के झुण्ड. मेवाड्नाथ का जय - जयकार, बोल उठा सारा संसार. ८ वर्ष की अल्पायु में शिशु धर्मेन्द्र के हृदय से फूटी काव्य - धरा ने आगे चलकर एक रससिद्ध कवि, लेखक और वक्ता आचार्य श्री धर्मेन्द्र के वांग्मय का रूप ग्रहण किया. इसी प्रकार बिहार के रांची में गोहत्या के विरुद्ध ६२ दिन के भीषण अनशन के समापन वेला में महात्मा वीर जब प्राय: मरणासन्न और अचेत अवस्था में मंच पर लाये गए तो सस्त्रो गोभक्त नर - नारियो की भीड़ के समक्ष रिक्त माइक्रोफोन पर बिना किसी पूर्व निश्चित कार्यकर्म के ७ वर्ष का शिशु धर्मेन्द्र जा खड़ा हुआ और अपने मरणासन्न पिता की पीड़ा और विनाशोंमुख गोवंश की प्रतिनिधि कतिपय गायो के पुष्प माला सह्हित झुण्ड की करूँ छवि से प्रेरित होकर उसके कंठ से सरस्वती फुट पड़ी. उसने बिना किसी को संबोधित किये, बिना इधर उधर देखे, धाराप्रवाह बोलना प्रारंभ कर दिया. उसे न भाषण कह सकते है न प्रवचन. किन्तु भावना से परिपूर्ण उस वाणी में सारे श्रोता प्रवाहित हो गए. महात्मा वीर ने ऑंखें खोल दी, अनशन निर्विघन समाप्त हो गया. तब से शिशु धर्मेन्द्र की ओजस्वी भाषण कला आज आचार्य धर्मेन्द्र के रूप में अनवरत रूप से जारी है. पिता के आदर्शो और व्यकतित्व का इनपर ऐसा प्रभाव पड़ा के इन्होने १३ साल की उम्र में वज्रांग नाम से एक समाचारपत्र निकाला. गांधीवाद का विरोध करते हुए इन्होने १६ वर्ष की उम्र में "भारत के दो महात्मा" नामक लेख निकाला. इन्होने सन १९५९ में डॉक्टर हरिवंश राय बच्चन की "मधुशाला" के जवाब में "गोशाला (काव्य)" नामक पुस्तक लिखी
 
==जन्म== आचार्य श्री का जन्म माघकृषण सप्तमी को विक्रम संवत १९९८ (इस्वी सन ९ जनवरी १९४२) को गुजरात के मालवाडा में हुआ. जबकि मध्य रात्रि के बाद पाश्चात्य मान्यता के अनुसार १० वी तारीख प्रारंभ हो गयी थी. पर हिन्दू कुल श्रेष्ठ आचार्य श्री माघकृषण सप्तमी को ही अपना प्रमाणिक जन्मदिवस मानते है. इनके पिता महात्मा रामचन्द्र वीर महान गोभक्त, सवतंत्रता सेनानी अखिल भारतीय हिन्दू महासभा और हिन्दुओ के महान नेता थे. इन्होने इनको रामकथा और जप द्वारा श्रोताओ को मंत्रमुग्ध करना सिखाया. पिता द्वारा जेलों, अनशनो, सत्याग्रह और आन्दोलन की आंधियो को झेलते बालक धर्मेन्द्र को न स्कुल मिला, न कोलेज, किन्तु उसे मिली महान पूर्वजो की दिव्या परम्परा और महानतम पिता की अमृतमय छाया. इस परम्परा और छाया में शिशु धर्मेन्द्र के अंत करण में सारस्वत प्रज्ञा का स्तोत्र खुल पड़ा. ८ वर्ष की आयु में पिता के प्रवचन मंच की छाया में बैठ कर शिशु धर्मेन्द्र ने कागज के टुकड़े पर प्रथम कविता लिखी : राणा प्रताप की वह करवाल, चमकी थी बन कर विकराल. कांटे उसने अगणित मुंड, रजनीचर यवनों के झुण्ड. मेवाड्नाथ का जय - जयकार, बोल उठा सारा संसार. ८ वर्ष की अल्पायु में शिशु धर्मेन्द्र के हृदय से फूटी काव्य - धरा ने आगे चलकर एक रससिद्ध कवि, लेखक और वक्ता आचार्य श्री धर्मेन्द्र के वांग्मय का रूप ग्रहण किया. इसी प्रकार बिहार के रांची में गोहत्या के विरुद्ध ६२ दिन के भीषण अनशन के समापन वेला में महात्मा वीर जब प्राय: मरणासन्न और अचेत अवस्था में मंच पर लाये गए तो सस्त्रो गोभक्त नर - नारियो की भीड़ के समक्ष रिक्त माइक्रोफोन पर बिना किसी पूर्व निश्चित कार्यकर्म के ७ वर्ष का शिशु धर्मेन्द्र जा खड़ा हुआ और अपने मरणासन्न पिता की पीड़ा और विनाशोंमुख गोवंश की प्रतिनिधि कतिपय गायो के पुष्प माला सह्हित झुण्ड की करूँ छवि से प्रेरित होकर उसके कंठ से सरस्वती फुट पड़ी. उसने बिना किसी को संबोधित किये, बिना इधर उधर देखे, धाराप्रवाह बोलना प्रारंभ कर दिया. उसे न भाषण कह सकते है न प्रवचन. किन्तु भावना से परिपूर्ण उस वाणी में सारे श्रोता प्रवाहित हो गए. महात्मा वीर ने ऑंखें खोल दी, अनशन निर्विघन समाप्त हो गया. तब से शिशु धर्मेन्द्र की ओजस्वी भाषण कला आज आचार्य धर्मेन्द्र के रूप में अनवरत रूप से जारी है. पिता के आदर्शो और व्यकतित्व का इनपर ऐसा प्रभाव पड़ा के इन्होने १३ साल की उम्र में वज्रांग नाम से एक समाचारपत्र निकाला. गांधीवाद का विरोध करते हुए इन्होने १६ वर्ष की उम्र में "भारत के दो महात्मा" नामक लेख निकाला. इन्होने सन १९५९ में डॉक्टर हरिवंश राय बच्चन की "मधुशाला" के जवाब में "गोशाला (काव्य)" नामक पुस्तक लिखी
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===वंश परिचय और स्वामी कुल परम्परा=== जयपुर राज्य के पूर्वोत्तर में एतिहासिक तीर्थ विराट नगर के पाश्र्व में पवित्र वाणगंगा के तट पर मैड नमक छोटे से ग्राम में एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण संत, लश्करी संप्रदाय के अनुयायी थे. गृहस्थ होते हुए भी अपने सम्प्रदाय के साधू और जनता द्वारा उन्हें साधू संतो के सामान आदर और सम्मान प्राप्त था. राजा और सामंत उनको शीश नवाते थे और ब्राह्मण समुदाय उन्हें अपना शिरोमणि मानता था. भगवान नरसिंह देव के उपासक इन महात्मा का नाम स्वामी गोपालदास था. गोतम गौड़ ब्राह्मणों के इस परिवार को 'स्वामी' का सम्मानीय संबोधन जो भारत में संतो और साधुओ को ही प्राप्त है, लश्करी संप्रदाय के द्वारा ही प्राप्त हुआ था, क्योंकि कठोर सांप्रदायिक अनुशासन के उस युग में चाहे जो उपाधि धारण कर लेना सरल नहीं था. मुग़ल बादशाह औरंगजेब द्वारा हिन्दुओ पर लगाये गए शमशान कर के विरोध में अपना बलिदान देने वाले महात्मा गोपाल दास जी इनके पूर्वज थे. जजिया कर की अपमान जनक वसूली और विधर्मी सैनिको के अत्याचारों से क्षुब्ध स्वामी गोपालदास धरम के लिए प्राणोत्सर्ग के संकल्प से प्रेरित होकर दिल्ली जा पहुंचे. उन तेजस्वी संत ने मुग़ल बादशाह के दरबार में किसी प्रकार से प्रवेश पा लिया और आततायी औरंगजेब को हिन्दुओ पर अत्याचार न करने की चेतावनी देते हुए, म्लेछो द्वारा शारीर का स्पर्श करके बंदी बनाये जाने से पूर्व ही, कृपाण से अपना पेट चीर कर देखते - देखते दरबार में ही पाने प्राण विसर्जित कर दिए. इनके पिता ने १९६६ में सर्वदलीय गोरक्षा अभियान समिति के द्वारा चलाये गोरक्षा आन्दोलन में १६६ दिन का अनशन किया था व् स्वयम आचार्य धर्मेन्द्र जी ने भी गोरक्षा आन्दोलन ने ५२ दिन का अनशन किया था
 
===वंश परिचय और स्वामी कुल परम्परा=== जयपुर राज्य के पूर्वोत्तर में एतिहासिक तीर्थ विराट नगर के पाश्र्व में पवित्र वाणगंगा के तट पर मैड नमक छोटे से ग्राम में एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण संत, लश्करी संप्रदाय के अनुयायी थे. गृहस्थ होते हुए भी अपने सम्प्रदाय के साधू और जनता द्वारा उन्हें साधू संतो के सामान आदर और सम्मान प्राप्त था. राजा और सामंत उनको शीश नवाते थे और ब्राह्मण समुदाय उन्हें अपना शिरोमणि मानता था. भगवान नरसिंह देव के उपासक इन महात्मा का नाम स्वामी गोपालदास था. गोतम गौड़ ब्राह्मणों के इस परिवार को 'स्वामी' का सम्मानीय संबोधन जो भारत में संतो और साधुओ को ही प्राप्त है, लश्करी संप्रदाय के द्वारा ही प्राप्त हुआ था, क्योंकि कठोर सांप्रदायिक अनुशासन के उस युग में चाहे जो उपाधि धारण कर लेना सरल नहीं था. मुग़ल बादशाह औरंगजेब द्वारा हिन्दुओ पर लगाये गए शमशान कर के विरोध में अपना बलिदान देने वाले महात्मा गोपाल दास जी इनके पूर्वज थे. जजिया कर की अपमान जनक वसूली और विधर्मी सैनिको के अत्याचारों से क्षुब्ध स्वामी गोपालदास धरम के लिए प्राणोत्सर्ग के संकल्प से प्रेरित होकर दिल्ली जा पहुंचे. उन तेजस्वी संत ने मुग़ल बादशाह के दरबार में किसी प्रकार से प्रवेश पा लिया और आततायी औरंगजेब को हिन्दुओ पर अत्याचार न करने की चेतावनी देते हुए, म्लेछो द्वारा शारीर का स्पर्श करके बंदी बनाये जाने से पूर्व ही, कृपाण से अपना पेट चीर कर देखते - देखते दरबार में ही पाने प्राण विसर्जित कर दिए. इनके पिता ने १९६६ में सर्वदलीय गोरक्षा अभियान समिति के द्वारा चलाये गोरक्षा आन्दोलन में १६६ दिन का अनशन किया था व् स्वयम आचार्य धर्मेन्द्र जी ने भी गोरक्षा आन्दोलन ने ५२ दिन का अनशन किया था
  
====हिन्दू हितो के लिए "आदर्श हिन्दू संघ"==== पशुबली और गोहत्या की बंदी के लिए महात्मा रामचन्द्र वीर जी ने "पशुबलि निरोध समिति" नामक संगठन का निर्माण किया किन्तु शीघ्र ही उन्होंने अनुभव किया कि हिन्दू समाज का अन्धविश्वास केवल पशुबली तक ही सीमिति नहीं है. हिन्दू समाज के सम्पूर्ण कायाकल्प की आवश्यकता है और उन्होंने "पशुबलि निरोध समिति" को "अ.भा. आदर्श हिन्दू संघ" में संगठित किया. इस संगठन को विश्व कवि रविन्द्रनाथ ठाकुर, विज्ञानाचार्य सर प्रफुल्ल चन्द्र राय, प. रामानंद चटोपाध्याय और महामना पंडित मदन मोहन मालवीय और डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार प्रभुति महापुरुषों का आशीर्वाद प्राप्त था. पुरे देश में आदर्श हिन्दू संघ को संगठित किया गया. जिलेवार शाखाएं खोली गयी. आदर्श हिन्दू संघ निश्चय ही हिन्दू जाति के लिए संजीवनी शक्ति का काम कर सकता था किन्तु देश की परिसिथ्तिया गुरुदेव के प्रयत्नों को दूसरी दिशा में ले गयी. स्वराज्य के पूर्व भी वे पशुबलि और सामाजिक कुरूतियों के उन्मूलन के साथ - साथ हिन्दू हितो की रक्षा और गोहत्या निषेध के लिए अपनी शक्ति लगाते रहे थे. उनके अनशन और सत्यग्रहों से गोवंश और हिन्दू हितो की दिशा में उल्लेखनीय सफलता भी प्राप्त हुई, किन्तु स्वराज्य और देश विभाजन के पश्चात् उनकी सारी शक्ति गोहत्या निषेद और हिन्दू हितो के संघर्ष की और उन्मुख हो गयी.
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===="आदर्श हिन्दू संघ"==== पशुबली और गोहत्या की बंदी के लिए महात्मा रामचन्द्र वीर जी ने "पशुबलि निरोध समिति" नामक संगठन का निर्माण किया किन्तु शीघ्र ही उन्होंने अनुभव किया कि हिन्दू समाज का अन्धविश्वास केवल पशुबली तक ही सीमिति नहीं है. हिन्दू समाज के सम्पूर्ण कायाकल्प की आवश्यकता है और उन्होंने "पशुबलि निरोध समिति" को "अ.भा. आदर्श हिन्दू संघ" में संगठित किया. इस संगठन को विश्व कवि रविन्द्रनाथ ठाकुर, विज्ञानाचार्य सर प्रफुल्ल चन्द्र राय, प. रामानंद चटोपाध्याय और महामना पंडित मदन मोहन मालवीय और डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार प्रभुति महापुरुषों का आशीर्वाद प्राप्त था. पुरे देश में आदर्श हिन्दू संघ को संगठित किया गया. जिलेवार शाखाएं खोली गयी. आदर्श हिन्दू संघ निश्चय ही हिन्दू जाति के लिए संजीवनी शक्ति का काम कर सकता था किन्तु देश की परिसिथ्तिया गुरुदेव के प्रयत्नों को दूसरी दिशा में ले गयी. स्वराज्य के पूर्व भी वे पशुबलि और सामाजिक कुरूतियों के उन्मूलन के साथ - साथ हिन्दू हितो की रक्षा और गोहत्या निषेध के लिए अपनी शक्ति लगाते रहे थे. उनके अनशन और सत्यग्रहों से गोवंश और हिन्दू हितो की दिशा में उल्लेखनीय सफलता भी प्राप्त हुई, किन्तु स्वराज्य और देश विभाजन के पश्चात् उनकी सारी शक्ति गोहत्या निषेद और हिन्दू हितो के संघर्ष की और उन्मुख हो गयी.
  
  
 
परिणामस्वरूप आदर्श हिन्दू संघ के संगठन को जो ध्यान और समय मिलना चाहिए था वो नहीं मिला. उनके एकमात्र उत्तराधिकारी के रूप में आचार्य धर्मेन्द्र भी उनके हर आन्दोलन में साथ रहे और आदर्श हिन्दू संघ का रचनात्मक कायाकल्प भी दोनों संतो के मन - मश्तिषक में समाया रहा. इसलिए जब १९७८ ई० में आचार्य श्री ने गुरुदेव का आसन ग्रहण कियो तो अपने पीठाभिशेक के साथ ही उन्होंने गुरुदेव के हिन्दू समाज के पुनरुतुथान और परिष्कार के पवित्र संकल्प की पूर्ति के लिए आदर्श हिन्दू संघ को "धर्म समाज" के नाम में प्रवर्तित कर दिया. पीठाभिशेक के समारोह में विराट नगर में देश के कोने - कोने से एत्रत साधू संतो और सद्गृहस्थ अनुयायियों के बीच "धर्म समाज" की प्रथम बार ध्वज पताका फहरायी और आचार्य श्री ने धर्म समाज का घोषणा पत्र प्रसारित किया. विराटनगर के प्रथम सम्मलेन के पश्चात् मध्य प्रदेश के नागदा और उज्जयिनी में धर्म समाज के द्वित्य और त्रितय सम्मेलन हुए. तत्पश्चात विराटनगर में चतुर्थ सम्मेलन भी आयोजित किया गया. सभी सम्मेलनों में पुरे देश से प्रतिनिधि उत्साहपूर्वक सम्मिलित हुए. परन्तु कुछ लोगो ने धर्म समाज नाम पर अपना अधिकार जताया और इस नाम से पहले से एक संगठन के अस्तित्व का दावा प्रस्तुत किया. उस समय आचार्य श्री ने अपना पूरा समय विश्व हिन्दू परिषद् के "श्री राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन" को समर्पित कर रखा था. परिणामसवरूप धर्म समाज की प्रगति पूरी तरह अवरुद्ध हो गयी. अपनी आयु के ६५ वर्ष पूर्ण होने पर पुणे में १० जनवरी को सस्त्रादी पर्वत की उपत्यका में श्रीस्मर्थ रामदास महाराज की पवित्र पादुकाओ का पूजन करके आचार्य धर्मेन्द्र महाराज ने "पावन - परिवार" के शुभारम्भ का संकल्प किया और विधिवत इस संगठन की स्थापना की. पवन के पुत्र परम पवन श्री वज्रांगदेव हनुमान भगवान की करुना, सेवा, संकल्प और शील का अनुसरण करने वाले सद्भाक्तो का संगठन ही "पावन - परिवार" है.
 
परिणामस्वरूप आदर्श हिन्दू संघ के संगठन को जो ध्यान और समय मिलना चाहिए था वो नहीं मिला. उनके एकमात्र उत्तराधिकारी के रूप में आचार्य धर्मेन्द्र भी उनके हर आन्दोलन में साथ रहे और आदर्श हिन्दू संघ का रचनात्मक कायाकल्प भी दोनों संतो के मन - मश्तिषक में समाया रहा. इसलिए जब १९७८ ई० में आचार्य श्री ने गुरुदेव का आसन ग्रहण कियो तो अपने पीठाभिशेक के साथ ही उन्होंने गुरुदेव के हिन्दू समाज के पुनरुतुथान और परिष्कार के पवित्र संकल्प की पूर्ति के लिए आदर्श हिन्दू संघ को "धर्म समाज" के नाम में प्रवर्तित कर दिया. पीठाभिशेक के समारोह में विराट नगर में देश के कोने - कोने से एत्रत साधू संतो और सद्गृहस्थ अनुयायियों के बीच "धर्म समाज" की प्रथम बार ध्वज पताका फहरायी और आचार्य श्री ने धर्म समाज का घोषणा पत्र प्रसारित किया. विराटनगर के प्रथम सम्मलेन के पश्चात् मध्य प्रदेश के नागदा और उज्जयिनी में धर्म समाज के द्वित्य और त्रितय सम्मेलन हुए. तत्पश्चात विराटनगर में चतुर्थ सम्मेलन भी आयोजित किया गया. सभी सम्मेलनों में पुरे देश से प्रतिनिधि उत्साहपूर्वक सम्मिलित हुए. परन्तु कुछ लोगो ने धर्म समाज नाम पर अपना अधिकार जताया और इस नाम से पहले से एक संगठन के अस्तित्व का दावा प्रस्तुत किया. उस समय आचार्य श्री ने अपना पूरा समय विश्व हिन्दू परिषद् के "श्री राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन" को समर्पित कर रखा था. परिणामसवरूप धर्म समाज की प्रगति पूरी तरह अवरुद्ध हो गयी. अपनी आयु के ६५ वर्ष पूर्ण होने पर पुणे में १० जनवरी को सस्त्रादी पर्वत की उपत्यका में श्रीस्मर्थ रामदास महाराज की पवित्र पादुकाओ का पूजन करके आचार्य धर्मेन्द्र महाराज ने "पावन - परिवार" के शुभारम्भ का संकल्प किया और विधिवत इस संगठन की स्थापना की. पवन के पुत्र परम पवन श्री वज्रांगदेव हनुमान भगवान की करुना, सेवा, संकल्प और शील का अनुसरण करने वाले सद्भाक्तो का संगठन ही "पावन - परिवार" है.
  
=====वीर वंश का गोरक्षा आन्दोलन को अनुपम योगदान===== १९६६ में देश के सभी गोभक्त समुदायों, साधू -संतो और संस्थाओ ने मिलकर विराट सत्याग्रह आन्दोलन छेड़ा. महात्मा रामचन्द्र वीर ने १६६ तक अनशन करके स्वयं को नरकंकाल जैसा बनाकर अनशनो के सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए. जगद्गुरु शंकराचार्य श्री निरंजनदेव तीर्थ ने ७२ दिन, संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने ६५ दिन, आचार्य श्री धर्मेन्द्र महाराज ने ५२ दिन और जैन मुनि सुशील कुमार जी ने ४ दिन अनशन किया. आन्दोलन के पहले महिला सत्याग्रह का नेत्रत्व श्रीमती प्रतिभा धर्मेन्द्र ने किया और अपने तीन शिशुओ के साथ जेल गयी. सात नवम्बर को आन्दोलन की विराटता अपने चरम बिंदु पर थी और प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने गोभक्त नागरिको तथा संतो के रक्त से होली खेली. वह आन्दोलन और उसका दमन दोनों ही अभूतपूर्व थे. इस विराट जन आन्दोलन ने विनोबा भावे जी का ध्यान पहली बार 'गोसेवा' से 'गोरक्षा' की ओर खींचा. अनशन समाप्त कराने के लिए उन्होंने अपने प्रतिनिधि गोभक्त श्री राधाकृषण बजाज को दिल्ली भेजा किन्तु विनोबा जी की इच्छा ओर मध्यस्थाता के स्थान पर अनशन दूसरी परीसिथतियों में अप्रिय डंग से समाप्त हुए ओर आन्दोलन तीन तेरह हो गया. इस आन्दोलन की असफलता के साथ ही गोवंश को कसाईखानो में कटने से बचाने की सभी आशाएं धुल में मील गयी. १९६७ में 'गोमाता की जय' बोलकर पुरे हिंदी प्रदेशो में जनसंघ जैसे विपक्षी दल चुनाव जीते किन्तु सत्ता में आते ही वे गोमाता को भूल गए. सत्ता की अदला बदली के खेल के साथ ही 'आपातकाल' आ गया. अब विनोबा भावे जी ने पहली बार गोवंश की रक्षा के लिए आमरण अनशन का निश्चय किया. परन्तु इंदिरा जी ने उन्हें विश्वास दिलाया की वे हृदय से गोहत्या रोकना चाहती है किन्तु यह विषय राज्यों का है सो वे राज्यों से कहेंगी. अनशन टल गया. १९७७ में सत्ता परिवर्तन हुआ. जनता शासनकाल में अनुकूल वातावरण देखकर बाबा ने आमरण अनशन प्रारंभ कर दिया. उनकी सहानुभूति में सत्ताच्युत देवी श्रीमती इंदिरा गाँधी ने भी १ दिन का उपवास रखा ओर अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओ से भी एक दिन का उपवास रखने का निर्देश दिया. जनता सरकार ने लोकसभा में गोरक्षा संकल्प पारित करके, शीघ्र ही कानून बनाने का वचन देकर बाबा के प्राण बचा लिए. किन्तु वचन पूरा होने से पूर्व ही जनता सरकार अपने अंतरविरोधो के चलते गिर गयी और १९८० में पुन: इंदिरा गाँधी का शासन आया. १९७८ में आचार्य श्री को पंचखण्डपीठ के आचार्य पीठ पर अभिषिक्त हुए तब उन्होंने गाय और हिन्दू हितो की रक्षा के लिए सतत गति देने की घोषणा की. १९८० में उन्होंने पंचखण्डपीठ के परिसर में २१ कुन्दात्मक 'श्री वज्रांग रूद्र महायज्ञ' का भव्य अनुष्ठान संपन्न कराया और गोवंश की रक्षा के पूज्य विनोबा भावे से नेत्रत्व करने का अनुरोध करने के लिए पवनार जाने का निश्चय किया. अजमेर, नसीराबाद, विजयनगर, गुलाबबाग, भीलवाडा, चित्तोड़, मंदसौर, इंदौर, बडनगर और विक्रमपुर आदि नगरो में जनसभाए करते हुए आचार्य श्री शिन्घस्थ कुम्भ पर्व के अवसर पर उज्जयनी पधारे. उज्जयनी कुम्भ पर्व पर दत्त अखाडा क्षेत्र में 'समर्थ रामदास नगर' नाम से श्री पंचखण्डपीठ का विशाल शिविर स्थापित हुआ. राजसी शोभायात्रा में सहस्त्रो भक्त नर - नारियों के साथ समर्थ गुरुदेव की पवित्र पादुकाओ को आगे करके सदगुरुदेव श्रीमन महात्मा रामचन्द्र वीर महाराज तथा आचार्य श्री धर्मेन्द्र महाराज ने अपने शिविर में प्रवेश किया. एक मास तक आचार्य श्री के 'अभिनव भारत आन्दोलन' के कार्यकर्ता कुम्भ मेले में घूम - घूम कर गोरक्षा के लिए आचार्य विनोभा भावे जी से प्रभावशाली पग उठाने के लिए अनुरोध पर्त्रो पर तीर्थ यात्रिओ के हस्ताक्षर एकत्र करते रहे और आचार्य धर्मेन्द्र जी अपने क्रन्तिकारी प्रवचनों को लोगो को गोरक्षा के लिए जागरूक करते रहे. इसी बीच कुम्भ मेले के अवसर पर उज्जयिनी नगरी में मदिरा और मांस के मुक्त व्यापर को देख कर आचार्य श्री का मन विचलित हो उठा और दुखी होकर उन्होंने धार्मिक पर्व धार्मिक तीर्थ में मदिरा मांस के विक्रय पर प्रतिबन्ध लगाने को लेकर अनशन प्रारंभ कर दिया. कुछ वैष्णव संतो एवं आर्य समाज के प्रबल सहयोग तथा पत्रकारों के नैतिक समर्थन के फलसवरूप १२ वें दिन शासन ने मेला क्षेत्र तथा उज्जयिनी नगर निगम की सीमा में सिंहस्थ कुम्भ पर्व की शेष अवधि में मदिरा और मांस के विक्रय पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया. इसी बीच पूर्व प्रधानमंत्री श्री गुलजारी लाल नंदा और जैन मुनि सुइशील कुमार भी आचार्य श्री के शिविर में पधारे. सिंहस्थ कुम्भ पर्व के समापन के पश्चात् उज्जयिनी नगर में १५ दिवस रूककर आचार्य श्री ने नागरिको में गोरक्षा के लिए अनुकूल वातावरण का निर्माण किया. इंदौर में अपने मिशन के परचार करके आचार्य श्री सहस्त्रो हस्ताक्षर युक्त अनुरोध पत्रों तथा अनेक गोभाक्तो के शिष्टमंडल के साथ पवनार आश्रम में परम्संत पूज्य विनोबा भावे जी से मिले. विनोबा जी ने शिष्टमंडल का हार्दिक स्वागत किया. बाबा को दिए व्यक्तिगत पत्र में भी आचार्य श्री ने अनुरोध किया की देश की जनता गोमाता की रक्षा के लिए अब केवल आपकी और देख रही है. अनुरोध की बाबा पर अनुकूल प्रतिक्रिया हुई. कुछ दिनों के पश्चात् खड़गपुर (बंगाल) में अखिल भारतीय सर्वोदय सम्मेलन आयोजित हुआ. आचार्य धर्मेन्द्र भी उसमे विशेष रूप से आमंत्रतित किये गए. २५०० सर्वोदय कार्यकर्ताओ के बीच उन्होंने गोरक्षा के लिए जो मार्मिक प्रवचन दिया वो एक एतिहासिक दस्तावेज है. कृषि गोसेवा संघ ने उस भाषण को पुस्तकाकार प्रकाशित भी किया. जुलाई १९८० में पवनार में देशभर के गोभक्त कार्यकर्ताओ का सम्मेलन बुलाया गया. श्री गुलजारी लाल नंदा की उपसिथति उल्लेखनीय थी. पूज्य विनोभा जी की मुक्त अध्यक्षता में केंद्रीय गोरक्षा समन्वय समिति का गठन किया गया जिसके उपाध्यक्ष नंदा जी तथा महामंत्री आचार्य धर्मेन्द्र महाराज चुने गए. विनोबा जी बड़ा कदम उठाने की मानसिकता में आ गए थे. उन्होंने सरकार से मांग की पूर्व सरकार और संसद द्वारा किये गए संकल्प को पूरा करे तथा संपूर्ण गोवंश निषेध के लिए प्रभावकारी कानून बनाये. आचार्य श्री के प्रयत्नों से मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यामंत्री अर्जुन सिंह ने अपनी सीमा से महाराष्ट्र के हत्याग्रहो को ले जाये जाने वाले गोवंश पर प्रतिबन्ध लगा दिया. इसी समय विनोबा जी ने गोहत्या के विरुद्ध एक बार फिर आमरण अनशन करने का निश्चय कर लिया था किन्तु उनके निकटवर्ती भक्तो ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया. १९८१ में श्री कृषण जन्माष्टमी के पर्व पर कृषि गोसेवा संघ के आह्वान पर राजधानी दिल्ली के नगर निगम सभागार में अखिल भारतीय गोरक्षा कार्यकर्ता सम्मेलन हुआ. जिसके प्रथम अध्यक्ष पद से आचार्य धर्मेन्द्र जी ने गोहत्या निषेध कानून बनाने के लिए सरकार को ६ मास का अल्टीमेटम देने का प्रस्ताव रखा जो सर्वसम्मति से स्वीकार हो गया. १९८२ की वसंत पंचमी से महाशिवरात्रि तक 'सौम्य सत्याग्रह' देश भर में क्रमिक उपवासों के रूप में सफलतापूर्वक अनेक नगरो में संपन्न हुआ. १९८३ में गोहत्या के दुःख को मन में लेकर विनोबा जी ने प्राण त्याग दिए. देह विसर्जित करने से पूर्व उन्होंने कोई भी आहार, पथ्य या औषध लेना बंद कर दिया था.  
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=====गोरक्षा आन्दोलन में अनुपम योगदान===== १९६६ में देश के सभी गोभक्त समुदायों, साधू -संतो और संस्थाओ ने मिलकर विराट सत्याग्रह आन्दोलन छेड़ा. महात्मा रामचन्द्र वीर ने १६६ तक अनशन करके स्वयं को नरकंकाल जैसा बनाकर अनशनो के सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए. जगद्गुरु शंकराचार्य श्री निरंजनदेव तीर्थ ने ७२ दिन, संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने ६५ दिन, आचार्य श्री धर्मेन्द्र महाराज ने ५२ दिन और जैन मुनि सुशील कुमार जी ने ४ दिन अनशन किया. आन्दोलन के पहले महिला सत्याग्रह का नेत्रत्व श्रीमती प्रतिभा धर्मेन्द्र ने किया और अपने तीन शिशुओ के साथ जेल गयी. सात नवम्बर को आन्दोलन की विराटता अपने चरम बिंदु पर थी और प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने गोभक्त नागरिको तथा संतो के रक्त से होली खेली. वह आन्दोलन और उसका दमन दोनों ही अभूतपूर्व थे. इस विराट जन आन्दोलन ने विनोबा भावे जी का ध्यान पहली बार 'गोसेवा' से 'गोरक्षा' की ओर खींचा. अनशन समाप्त कराने के लिए उन्होंने अपने प्रतिनिधि गोभक्त श्री राधाकृषण बजाज को दिल्ली भेजा किन्तु विनोबा जी की इच्छा ओर मध्यस्थाता के स्थान पर अनशन दूसरी परीसिथतियों में अप्रिय डंग से समाप्त हुए ओर आन्दोलन तीन तेरह हो गया. इस आन्दोलन की असफलता के साथ ही गोवंश को कसाईखानो में कटने से बचाने की सभी आशाएं धुल में मील गयी. १९६७ में 'गोमाता की जय' बोलकर पुरे हिंदी प्रदेशो में जनसंघ जैसे विपक्षी दल चुनाव जीते किन्तु सत्ता में आते ही वे गोमाता को भूल गए. सत्ता की अदला बदली के खेल के साथ ही 'आपातकाल' आ गया. अब विनोबा भावे जी ने पहली बार गोवंश की रक्षा के लिए आमरण अनशन का निश्चय किया. परन्तु इंदिरा जी ने उन्हें विश्वास दिलाया की वे हृदय से गोहत्या रोकना चाहती है किन्तु यह विषय राज्यों का है सो वे राज्यों से कहेंगी. अनशन टल गया. १९७७ में सत्ता परिवर्तन हुआ. जनता शासनकाल में अनुकूल वातावरण देखकर बाबा ने आमरण अनशन प्रारंभ कर दिया. उनकी सहानुभूति में सत्ताच्युत देवी श्रीमती इंदिरा गाँधी ने भी १ दिन का उपवास रखा ओर अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओ से भी एक दिन का उपवास रखने का निर्देश दिया. जनता सरकार ने लोकसभा में गोरक्षा संकल्प पारित करके, शीघ्र ही कानून बनाने का वचन देकर बाबा के प्राण बचा लिए. किन्तु वचन पूरा होने से पूर्व ही जनता सरकार अपने अंतरविरोधो के चलते गिर गयी और १९८० में पुन: इंदिरा गाँधी का शासन आया. १९७८ में आचार्य श्री को पंचखण्डपीठ के आचार्य पीठ पर अभिषिक्त हुए तब उन्होंने गाय और हिन्दू हितो की रक्षा के लिए सतत गति देने की घोषणा की. १९८० में उन्होंने पंचखण्डपीठ के परिसर में २१ कुन्दात्मक 'श्री वज्रांग रूद्र महायज्ञ' का भव्य अनुष्ठान संपन्न कराया और गोवंश की रक्षा के पूज्य विनोबा भावे से नेत्रत्व करने का अनुरोध करने के लिए पवनार जाने का निश्चय किया. अजमेर, नसीराबाद, विजयनगर, गुलाबबाग, भीलवाडा, चित्तोड़, मंदसौर, इंदौर, बडनगर और विक्रमपुर आदि नगरो में जनसभाए करते हुए आचार्य श्री शिन्घस्थ कुम्भ पर्व के अवसर पर उज्जयनी पधारे. उज्जयनी कुम्भ पर्व पर दत्त अखाडा क्षेत्र में 'समर्थ रामदास नगर' नाम से श्री पंचखण्डपीठ का विशाल शिविर स्थापित हुआ. राजसी शोभायात्रा में सहस्त्रो भक्त नर - नारियों के साथ समर्थ गुरुदेव की पवित्र पादुकाओ को आगे करके सदगुरुदेव श्रीमन महात्मा रामचन्द्र वीर महाराज तथा आचार्य श्री धर्मेन्द्र महाराज ने अपने शिविर में प्रवेश किया. एक मास तक आचार्य श्री के 'अभिनव भारत आन्दोलन' के कार्यकर्ता कुम्भ मेले में घूम - घूम कर गोरक्षा के लिए आचार्य विनोभा भावे जी से प्रभावशाली पग उठाने के लिए अनुरोध पर्त्रो पर तीर्थ यात्रिओ के हस्ताक्षर एकत्र करते रहे और आचार्य धर्मेन्द्र जी अपने क्रन्तिकारी प्रवचनों को लोगो को गोरक्षा के लिए जागरूक करते रहे. इसी बीच कुम्भ मेले के अवसर पर उज्जयिनी नगरी में मदिरा और मांस के मुक्त व्यापर को देख कर आचार्य श्री का मन विचलित हो उठा और दुखी होकर उन्होंने धार्मिक पर्व धार्मिक तीर्थ में मदिरा मांस के विक्रय पर प्रतिबन्ध लगाने को लेकर अनशन प्रारंभ कर दिया. कुछ वैष्णव संतो एवं आर्य समाज के प्रबल सहयोग तथा पत्रकारों के नैतिक समर्थन के फलसवरूप १२ वें दिन शासन ने मेला क्षेत्र तथा उज्जयिनी नगर निगम की सीमा में सिंहस्थ कुम्भ पर्व की शेष अवधि में मदिरा और मांस के विक्रय पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया. इसी बीच पूर्व प्रधानमंत्री श्री गुलजारी लाल नंदा और जैन मुनि सुइशील कुमार भी आचार्य श्री के शिविर में पधारे. सिंहस्थ कुम्भ पर्व के समापन के पश्चात् उज्जयिनी नगर में १५ दिवस रूककर आचार्य श्री ने नागरिको में गोरक्षा के लिए अनुकूल वातावरण का निर्माण किया. इंदौर में अपने मिशन के परचार करके आचार्य श्री सहस्त्रो हस्ताक्षर युक्त अनुरोध पत्रों तथा अनेक गोभाक्तो के शिष्टमंडल के साथ पवनार आश्रम में परम्संत पूज्य विनोबा भावे जी से मिले. विनोबा जी ने शिष्टमंडल का हार्दिक स्वागत किया. बाबा को दिए व्यक्तिगत पत्र में भी आचार्य श्री ने अनुरोध किया की देश की जनता गोमाता की रक्षा के लिए अब केवल आपकी और देख रही है. अनुरोध की बाबा पर अनुकूल प्रतिक्रिया हुई. कुछ दिनों के पश्चात् खड़गपुर (बंगाल) में अखिल भारतीय सर्वोदय सम्मेलन आयोजित हुआ. आचार्य धर्मेन्द्र भी उसमे विशेष रूप से आमंत्रतित किये गए. २५०० सर्वोदय कार्यकर्ताओ के बीच उन्होंने गोरक्षा के लिए जो मार्मिक प्रवचन दिया वो एक एतिहासिक दस्तावेज है. कृषि गोसेवा संघ ने उस भाषण को पुस्तकाकार प्रकाशित भी किया. जुलाई १९८० में पवनार में देशभर के गोभक्त कार्यकर्ताओ का सम्मेलन बुलाया गया. श्री गुलजारी लाल नंदा की उपसिथति उल्लेखनीय थी. पूज्य विनोभा जी की मुक्त अध्यक्षता में केंद्रीय गोरक्षा समन्वय समिति का गठन किया गया जिसके उपाध्यक्ष नंदा जी तथा महामंत्री आचार्य धर्मेन्द्र महाराज चुने गए. विनोबा जी बड़ा कदम उठाने की मानसिकता में आ गए थे. उन्होंने सरकार से मांग की पूर्व सरकार और संसद द्वारा किये गए संकल्प को पूरा करे तथा संपूर्ण गोवंश निषेध के लिए प्रभावकारी कानून बनाये. आचार्य श्री के प्रयत्नों से मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यामंत्री अर्जुन सिंह ने अपनी सीमा से महाराष्ट्र के हत्याग्रहो को ले जाये जाने वाले गोवंश पर प्रतिबन्ध लगा दिया. इसी समय विनोबा जी ने गोहत्या के विरुद्ध एक बार फिर आमरण अनशन करने का निश्चय कर लिया था किन्तु उनके निकटवर्ती भक्तो ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया. १९८१ में श्री कृषण जन्माष्टमी के पर्व पर कृषि गोसेवा संघ के आह्वान पर राजधानी दिल्ली के नगर निगम सभागार में अखिल भारतीय गोरक्षा कार्यकर्ता सम्मेलन हुआ. जिसके प्रथम अध्यक्ष पद से आचार्य धर्मेन्द्र जी ने गोहत्या निषेध कानून बनाने के लिए सरकार को ६ मास का अल्टीमेटम देने का प्रस्ताव रखा जो सर्वसम्मति से स्वीकार हो गया. १९८२ की वसंत पंचमी से महाशिवरात्रि तक 'सौम्य सत्याग्रह' देश भर में क्रमिक उपवासों के रूप में सफलतापूर्वक अनेक नगरो में संपन्न हुआ. १९८३ में गोहत्या के दुःख को मन में लेकर विनोबा जी ने प्राण त्याग दिए. देह विसर्जित करने से पूर्व उन्होंने कोई भी आहार, पथ्य या औषध लेना बंद कर दिया था.  
=====श्री राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन में योगदान===== पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता श्री दाऊ दयाल खन्ना ने मार्च, १९८३ में मुजफ्फरनगर में संपन्न एक हिन्दू सम्मेलन में अयोध्या, मथुरा और काशी के स्थलों को फिर से अपने अधिकार में लेने हेतु हिन्दू समाज का प्रखर आह्वान किया। दो बार देश के अंतरिम प्रधानमंत्री रहे श्री गुलजारी लाल नंदा भी मंच पर उपस्थित थे। पहली धर्म संसद - अप्रैल, १९८४ में विश्व हिन्दू परिषद् द्वारा विज्ञान भवन (नई दिल्ली) में आयोजित पहली धर्म संसद ने जन्मभूमि के द्वार से ताला खुलवाने हेतु जनजागरण यात्राएं करने का प्रस्ताव पारित किया। राम जानकी रथ यात्रा - विश्व हिन्दू परिषद् ने अक्तूबर, १९८४ में जनजागरण हेतु सीतामढ़ी से दिल्ली तक राम-जानकी रथ यात्रा शुरू की। लेकिन श्रीमती इंदिरा गांधी की निर्मम हत्या के चलते एक साल के लिए यात्राएं रोकनी पड़ी थीं। अक्तूबर, १९८५ में रथ यात्राएं पुन: प्रारंभ हुईं। कारसेवकों का बलिदान - २ नवम्बर, १९९० को मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश दिया, जिसमें कोलकाता के राम कोठारी और शरद कोठारी (दोनों भाई) सहित अनेक रामभक्तों ने अपने जीवन की आहुतियां दीं। ये दोनों कोठारी बंधू आचार्य श्री के शिष्य थे. इस आन्दोलन में आचार्य श्री आचार्य धर्मेन्द्र देव के नाम से जाने गए. अपने क्रातिकारी भाषण कुशलता से ये पहले से ही विख्यात थे और इस आन्दोलन में आचार्य श्री, साध्वी ऋतंभरा और उमा भारती जैसे फायर ब्रांड नेता भारतीय लोगो के आत्म स्वाभिमान से प्रेरित विषय को भारत भूमि के घर - घर तक ले जा रहे थे. श्री राम जन्मभूमि आन्दोलन और आचार्य श्री एक दुसरे के पूरक है. भारतीय समाज को सबसे ज्यादा झकझोरने वाला कोई आन्दोलन है वो वो राम जन्मभूमि का है. यह सांस्कृतिक चेतना अधूरी ही रहती अगर इसमें आचार्य धर्मेन्द्र का मार्गदर्शन नहीं होता. राम जन्मभूमि आन्दोलन के दोरान इन्होने सारे हिन्दू समाज को जगाकर रख दिया था. "जो राम का नहीं वो हमारे काम का नहीं" प्रशिद्ध नारा परम पूज्य आचार्य जी की ही देन है.भगवान राम के नाम को हिन्दू समाज की ताकत बनाने का काम आचार्य जी ने ही किया. जय श्री राम के नारे में जो शक्ति की अनुभूति होती है वो आचार्य श्री के व्याख्यानों का ही कमाल है. सन १९९४ में इन्होने राम मंदिर बनाने के लिए 18 दिन का अनशन किया था. आचार्य जी की तर्क वितर्क के सामने मिडिया वाले भी अपने सवाल भूल जाते है. ये विश्व हिन्दू परिषद के केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल में शामिल है. श्रीमद भागवत गीता का इन्होने स्वयं हिंदी में लिखा और अपनी मधुर आवाज में गया भी है. इन्होने सन्वत् २०३४ (सन १९७७ ई०) मे वज्रांग विनय स्तोत्र की रचना की। वज्रांग विनय स्तोत्र मशहूर गायक सुदेश भोंसले ने गाया है.
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=====श्री राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन ===== पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता श्री दाऊ दयाल खन्ना ने मार्च, १९८३ में मुजफ्फरनगर में संपन्न एक हिन्दू सम्मेलन में अयोध्या, मथुरा और काशी के स्थलों को फिर से अपने अधिकार में लेने हेतु हिन्दू समाज का प्रखर आह्वान किया। दो बार देश के अंतरिम प्रधानमंत्री रहे श्री गुलजारी लाल नंदा भी मंच पर उपस्थित थे। पहली धर्म संसद - अप्रैल, १९८४ में विश्व हिन्दू परिषद् द्वारा विज्ञान भवन (नई दिल्ली) में आयोजित पहली धर्म संसद ने जन्मभूमि के द्वार से ताला खुलवाने हेतु जनजागरण यात्राएं करने का प्रस्ताव पारित किया। राम जानकी रथ यात्रा - विश्व हिन्दू परिषद् ने अक्तूबर, १९८४ में जनजागरण हेतु सीतामढ़ी से दिल्ली तक राम-जानकी रथ यात्रा शुरू की। लेकिन श्रीमती इंदिरा गांधी की निर्मम हत्या के चलते एक साल के लिए यात्राएं रोकनी पड़ी थीं। अक्तूबर, १९८५ में रथ यात्राएं पुन: प्रारंभ हुईं। कारसेवकों का बलिदान - २ नवम्बर, १९९० को मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश दिया, जिसमें कोलकाता के राम कोठारी और शरद कोठारी (दोनों भाई) सहित अनेक रामभक्तों ने अपने जीवन की आहुतियां दीं। ये दोनों कोठारी बंधू आचार्य श्री के शिष्य थे. इस आन्दोलन में आचार्य श्री आचार्य धर्मेन्द्र देव के नाम से जाने गए. अपने क्रातिकारी भाषण कुशलता से ये पहले से ही विख्यात थे और इस आन्दोलन में आचार्य श्री, साध्वी ऋतंभरा और उमा भारती जैसे फायर ब्रांड नेता भारतीय लोगो के आत्म स्वाभिमान से प्रेरित विषय को भारत भूमि के घर - घर तक ले जा रहे थे. श्री राम जन्मभूमि आन्दोलन और आचार्य श्री एक दुसरे के पूरक है. भारतीय समाज को सबसे ज्यादा झकझोरने वाला कोई आन्दोलन है वो वो राम जन्मभूमि का है. यह सांस्कृतिक चेतना अधूरी ही रहती अगर इसमें आचार्य धर्मेन्द्र का मार्गदर्शन नहीं होता. राम जन्मभूमि आन्दोलन के दोरान इन्होने सारे हिन्दू समाज को जगाकर रख दिया था. "जो राम का नहीं वो हमारे काम का नहीं" प्रशिद्ध नारा परम पूज्य आचार्य जी की ही देन है.भगवान राम के नाम को हिन्दू समाज की ताकत बनाने का काम आचार्य जी ने ही किया. जय श्री राम के नारे में जो शक्ति की अनुभूति होती है वो आचार्य श्री के व्याख्यानों का ही कमाल है. सन १९९४ में इन्होने राम मंदिर बनाने के लिए 18 दिन का अनशन किया था. आचार्य जी की तर्क वितर्क के सामने मिडिया वाले भी अपने सवाल भूल जाते है. ये विश्व हिन्दू परिषद के केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल में शामिल है. श्रीमद भागवत गीता का इन्होने स्वयं हिंदी में लिखा और अपनी मधुर आवाज में गया भी है. इन्होने सन्वत् २०३४ (सन १९७७ ई०) मे वज्रांग विनय स्तोत्र की रचना की। वज्रांग विनय स्तोत्र मशहूर गायक सुदेश भोंसले ने गाया है.
  
 
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10:04, 2 जुलाई 2012 का अवतरण

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आचार्य धर्मेन्द्र विश्व हिन्दू परिषद के केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल में शामिल है. आचार्य महाराज का पूरा जीवन हिंदी, हिंदुत्व और हिन्दुस्थान के उत्कर्ष के लिए समर्पित है. उन्होंने अपने पिता श्रीमंमाहत्मा रामचन्द्र वीर महाराज के समान उन्होंने भी अपना सम्पूर्ण जीवन भारतमाता और उसकी संतानों की सेवा में, अनशनो सत्याग्रहो, जेल्यात्राओं, आंदोलनों एवं प्रवासों में संघर्षरत रहकर समर्पित किया है. आठ वर्ष की आयु से आज तक आचार्य श्री के जीवन का प्रत्येक क्षण राष्ट्र और मानवता के अभ्युत्थान के लिए सतत तपस्या में व्यतीत हुआ है . उनकी वाणी अमोघ, लेखनी अत्यंत प्रखर और कर्म अदबुध हैं. उनके सम्मोहक तेजपूर्ण व्यक्तित्व के साथ उनकी सर्वभूत वत्सल करुणा उनके सानिध्य में आने वाले प्रत्येक जन को अभीभूत कर देती है. आचार्य धर्मेन्द्र जी अपनी पैनी भाषण कला और हाजिर जवाबी के लिए जाने जाते है. वे एक ओजस्वी एवं पटु वक्ता (ओरेटर) एवं हिन्दी कवि भी हैं। इन्हें महात्मा रामचन्द्र वीर जी ने अपने जीवन काल में ही पावन धाम विराट नगर का सं १९७८ में पञ्चखंड पिठादिश्वर नियुक्त कर दिया था. 1958 में, 16 वर्ष की उम्र में आचार्य जी ने काशी विश्वनाथ मंदिर मुक्त कराने के लिए एक सत्याग्रह किया था. ये अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के टिकट पर १९६२ और १९६७ का चुनाव लड़ चुके है. ये अपनी गध और पद दोनों शैली के लिए जाने जाते है.

==जन्म== आचार्य श्री का जन्म माघकृषण सप्तमी को विक्रम संवत १९९८ (इस्वी सन ९ जनवरी १९४२) को गुजरात के मालवाडा में हुआ. जबकि मध्य रात्रि के बाद पाश्चात्य मान्यता के अनुसार १० वी तारीख प्रारंभ हो गयी थी. पर हिन्दू कुल श्रेष्ठ आचार्य श्री माघकृषण सप्तमी को ही अपना प्रमाणिक जन्मदिवस मानते है. इनके पिता महात्मा रामचन्द्र वीर महान गोभक्त, सवतंत्रता सेनानी अखिल भारतीय हिन्दू महासभा और हिन्दुओ के महान नेता थे. इन्होने इनको रामकथा और जप द्वारा श्रोताओ को मंत्रमुग्ध करना सिखाया. पिता द्वारा जेलों, अनशनो, सत्याग्रह और आन्दोलन की आंधियो को झेलते बालक धर्मेन्द्र को न स्कुल मिला, न कोलेज, किन्तु उसे मिली महान पूर्वजो की दिव्या परम्परा और महानतम पिता की अमृतमय छाया. इस परम्परा और छाया में शिशु धर्मेन्द्र के अंत करण में सारस्वत प्रज्ञा का स्तोत्र खुल पड़ा. ८ वर्ष की आयु में पिता के प्रवचन मंच की छाया में बैठ कर शिशु धर्मेन्द्र ने कागज के टुकड़े पर प्रथम कविता लिखी : राणा प्रताप की वह करवाल, चमकी थी बन कर विकराल. कांटे उसने अगणित मुंड, रजनीचर यवनों के झुण्ड. मेवाड्नाथ का जय - जयकार, बोल उठा सारा संसार. ८ वर्ष की अल्पायु में शिशु धर्मेन्द्र के हृदय से फूटी काव्य - धरा ने आगे चलकर एक रससिद्ध कवि, लेखक और वक्ता आचार्य श्री धर्मेन्द्र के वांग्मय का रूप ग्रहण किया. इसी प्रकार बिहार के रांची में गोहत्या के विरुद्ध ६२ दिन के भीषण अनशन के समापन वेला में महात्मा वीर जब प्राय: मरणासन्न और अचेत अवस्था में मंच पर लाये गए तो सस्त्रो गोभक्त नर - नारियो की भीड़ के समक्ष रिक्त माइक्रोफोन पर बिना किसी पूर्व निश्चित कार्यकर्म के ७ वर्ष का शिशु धर्मेन्द्र जा खड़ा हुआ और अपने मरणासन्न पिता की पीड़ा और विनाशोंमुख गोवंश की प्रतिनिधि कतिपय गायो के पुष्प माला सह्हित झुण्ड की करूँ छवि से प्रेरित होकर उसके कंठ से सरस्वती फुट पड़ी. उसने बिना किसी को संबोधित किये, बिना इधर उधर देखे, धाराप्रवाह बोलना प्रारंभ कर दिया. उसे न भाषण कह सकते है न प्रवचन. किन्तु भावना से परिपूर्ण उस वाणी में सारे श्रोता प्रवाहित हो गए. महात्मा वीर ने ऑंखें खोल दी, अनशन निर्विघन समाप्त हो गया. तब से शिशु धर्मेन्द्र की ओजस्वी भाषण कला आज आचार्य धर्मेन्द्र के रूप में अनवरत रूप से जारी है. पिता के आदर्शो और व्यकतित्व का इनपर ऐसा प्रभाव पड़ा के इन्होने १३ साल की उम्र में वज्रांग नाम से एक समाचारपत्र निकाला. गांधीवाद का विरोध करते हुए इन्होने १६ वर्ष की उम्र में "भारत के दो महात्मा" नामक लेख निकाला. इन्होने सन १९५९ में डॉक्टर हरिवंश राय बच्चन की "मधुशाला" के जवाब में "गोशाला (काव्य)" नामक पुस्तक लिखी

===वंश परिचय और स्वामी कुल परम्परा=== जयपुर राज्य के पूर्वोत्तर में एतिहासिक तीर्थ विराट नगर के पाश्र्व में पवित्र वाणगंगा के तट पर मैड नमक छोटे से ग्राम में एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण संत, लश्करी संप्रदाय के अनुयायी थे. गृहस्थ होते हुए भी अपने सम्प्रदाय के साधू और जनता द्वारा उन्हें साधू संतो के सामान आदर और सम्मान प्राप्त था. राजा और सामंत उनको शीश नवाते थे और ब्राह्मण समुदाय उन्हें अपना शिरोमणि मानता था. भगवान नरसिंह देव के उपासक इन महात्मा का नाम स्वामी गोपालदास था. गोतम गौड़ ब्राह्मणों के इस परिवार को 'स्वामी' का सम्मानीय संबोधन जो भारत में संतो और साधुओ को ही प्राप्त है, लश्करी संप्रदाय के द्वारा ही प्राप्त हुआ था, क्योंकि कठोर सांप्रदायिक अनुशासन के उस युग में चाहे जो उपाधि धारण कर लेना सरल नहीं था. मुग़ल बादशाह औरंगजेब द्वारा हिन्दुओ पर लगाये गए शमशान कर के विरोध में अपना बलिदान देने वाले महात्मा गोपाल दास जी इनके पूर्वज थे. जजिया कर की अपमान जनक वसूली और विधर्मी सैनिको के अत्याचारों से क्षुब्ध स्वामी गोपालदास धरम के लिए प्राणोत्सर्ग के संकल्प से प्रेरित होकर दिल्ली जा पहुंचे. उन तेजस्वी संत ने मुग़ल बादशाह के दरबार में किसी प्रकार से प्रवेश पा लिया और आततायी औरंगजेब को हिन्दुओ पर अत्याचार न करने की चेतावनी देते हुए, म्लेछो द्वारा शारीर का स्पर्श करके बंदी बनाये जाने से पूर्व ही, कृपाण से अपना पेट चीर कर देखते - देखते दरबार में ही पाने प्राण विसर्जित कर दिए. इनके पिता ने १९६६ में सर्वदलीय गोरक्षा अभियान समिति के द्वारा चलाये गोरक्षा आन्दोलन में १६६ दिन का अनशन किया था व् स्वयम आचार्य धर्मेन्द्र जी ने भी गोरक्षा आन्दोलन ने ५२ दिन का अनशन किया था

===="आदर्श हिन्दू संघ"==== पशुबली और गोहत्या की बंदी के लिए महात्मा रामचन्द्र वीर जी ने "पशुबलि निरोध समिति" नामक संगठन का निर्माण किया किन्तु शीघ्र ही उन्होंने अनुभव किया कि हिन्दू समाज का अन्धविश्वास केवल पशुबली तक ही सीमिति नहीं है. हिन्दू समाज के सम्पूर्ण कायाकल्प की आवश्यकता है और उन्होंने "पशुबलि निरोध समिति" को "अ.भा. आदर्श हिन्दू संघ" में संगठित किया. इस संगठन को विश्व कवि रविन्द्रनाथ ठाकुर, विज्ञानाचार्य सर प्रफुल्ल चन्द्र राय, प. रामानंद चटोपाध्याय और महामना पंडित मदन मोहन मालवीय और डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार प्रभुति महापुरुषों का आशीर्वाद प्राप्त था. पुरे देश में आदर्श हिन्दू संघ को संगठित किया गया. जिलेवार शाखाएं खोली गयी. आदर्श हिन्दू संघ निश्चय ही हिन्दू जाति के लिए संजीवनी शक्ति का काम कर सकता था किन्तु देश की परिसिथ्तिया गुरुदेव के प्रयत्नों को दूसरी दिशा में ले गयी. स्वराज्य के पूर्व भी वे पशुबलि और सामाजिक कुरूतियों के उन्मूलन के साथ - साथ हिन्दू हितो की रक्षा और गोहत्या निषेध के लिए अपनी शक्ति लगाते रहे थे. उनके अनशन और सत्यग्रहों से गोवंश और हिन्दू हितो की दिशा में उल्लेखनीय सफलता भी प्राप्त हुई, किन्तु स्वराज्य और देश विभाजन के पश्चात् उनकी सारी शक्ति गोहत्या निषेद और हिन्दू हितो के संघर्ष की और उन्मुख हो गयी.


परिणामस्वरूप आदर्श हिन्दू संघ के संगठन को जो ध्यान और समय मिलना चाहिए था वो नहीं मिला. उनके एकमात्र उत्तराधिकारी के रूप में आचार्य धर्मेन्द्र भी उनके हर आन्दोलन में साथ रहे और आदर्श हिन्दू संघ का रचनात्मक कायाकल्प भी दोनों संतो के मन - मश्तिषक में समाया रहा. इसलिए जब १९७८ ई० में आचार्य श्री ने गुरुदेव का आसन ग्रहण कियो तो अपने पीठाभिशेक के साथ ही उन्होंने गुरुदेव के हिन्दू समाज के पुनरुतुथान और परिष्कार के पवित्र संकल्प की पूर्ति के लिए आदर्श हिन्दू संघ को "धर्म समाज" के नाम में प्रवर्तित कर दिया. पीठाभिशेक के समारोह में विराट नगर में देश के कोने - कोने से एत्रत साधू संतो और सद्गृहस्थ अनुयायियों के बीच "धर्म समाज" की प्रथम बार ध्वज पताका फहरायी और आचार्य श्री ने धर्म समाज का घोषणा पत्र प्रसारित किया. विराटनगर के प्रथम सम्मलेन के पश्चात् मध्य प्रदेश के नागदा और उज्जयिनी में धर्म समाज के द्वित्य और त्रितय सम्मेलन हुए. तत्पश्चात विराटनगर में चतुर्थ सम्मेलन भी आयोजित किया गया. सभी सम्मेलनों में पुरे देश से प्रतिनिधि उत्साहपूर्वक सम्मिलित हुए. परन्तु कुछ लोगो ने धर्म समाज नाम पर अपना अधिकार जताया और इस नाम से पहले से एक संगठन के अस्तित्व का दावा प्रस्तुत किया. उस समय आचार्य श्री ने अपना पूरा समय विश्व हिन्दू परिषद् के "श्री राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन" को समर्पित कर रखा था. परिणामसवरूप धर्म समाज की प्रगति पूरी तरह अवरुद्ध हो गयी. अपनी आयु के ६५ वर्ष पूर्ण होने पर पुणे में १० जनवरी को सस्त्रादी पर्वत की उपत्यका में श्रीस्मर्थ रामदास महाराज की पवित्र पादुकाओ का पूजन करके आचार्य धर्मेन्द्र महाराज ने "पावन - परिवार" के शुभारम्भ का संकल्प किया और विधिवत इस संगठन की स्थापना की. पवन के पुत्र परम पवन श्री वज्रांगदेव हनुमान भगवान की करुना, सेवा, संकल्प और शील का अनुसरण करने वाले सद्भाक्तो का संगठन ही "पावन - परिवार" है.

=====गोरक्षा आन्दोलन में अनुपम योगदान===== १९६६ में देश के सभी गोभक्त समुदायों, साधू -संतो और संस्थाओ ने मिलकर विराट सत्याग्रह आन्दोलन छेड़ा. महात्मा रामचन्द्र वीर ने १६६ तक अनशन करके स्वयं को नरकंकाल जैसा बनाकर अनशनो के सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए. जगद्गुरु शंकराचार्य श्री निरंजनदेव तीर्थ ने ७२ दिन, संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने ६५ दिन, आचार्य श्री धर्मेन्द्र महाराज ने ५२ दिन और जैन मुनि सुशील कुमार जी ने ४ दिन अनशन किया. आन्दोलन के पहले महिला सत्याग्रह का नेत्रत्व श्रीमती प्रतिभा धर्मेन्द्र ने किया और अपने तीन शिशुओ के साथ जेल गयी. सात नवम्बर को आन्दोलन की विराटता अपने चरम बिंदु पर थी और प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने गोभक्त नागरिको तथा संतो के रक्त से होली खेली. वह आन्दोलन और उसका दमन दोनों ही अभूतपूर्व थे. इस विराट जन आन्दोलन ने विनोबा भावे जी का ध्यान पहली बार 'गोसेवा' से 'गोरक्षा' की ओर खींचा. अनशन समाप्त कराने के लिए उन्होंने अपने प्रतिनिधि गोभक्त श्री राधाकृषण बजाज को दिल्ली भेजा किन्तु विनोबा जी की इच्छा ओर मध्यस्थाता के स्थान पर अनशन दूसरी परीसिथतियों में अप्रिय डंग से समाप्त हुए ओर आन्दोलन तीन तेरह हो गया. इस आन्दोलन की असफलता के साथ ही गोवंश को कसाईखानो में कटने से बचाने की सभी आशाएं धुल में मील गयी. १९६७ में 'गोमाता की जय' बोलकर पुरे हिंदी प्रदेशो में जनसंघ जैसे विपक्षी दल चुनाव जीते किन्तु सत्ता में आते ही वे गोमाता को भूल गए. सत्ता की अदला बदली के खेल के साथ ही 'आपातकाल' आ गया. अब विनोबा भावे जी ने पहली बार गोवंश की रक्षा के लिए आमरण अनशन का निश्चय किया. परन्तु इंदिरा जी ने उन्हें विश्वास दिलाया की वे हृदय से गोहत्या रोकना चाहती है किन्तु यह विषय राज्यों का है सो वे राज्यों से कहेंगी. अनशन टल गया. १९७७ में सत्ता परिवर्तन हुआ. जनता शासनकाल में अनुकूल वातावरण देखकर बाबा ने आमरण अनशन प्रारंभ कर दिया. उनकी सहानुभूति में सत्ताच्युत देवी श्रीमती इंदिरा गाँधी ने भी १ दिन का उपवास रखा ओर अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओ से भी एक दिन का उपवास रखने का निर्देश दिया. जनता सरकार ने लोकसभा में गोरक्षा संकल्प पारित करके, शीघ्र ही कानून बनाने का वचन देकर बाबा के प्राण बचा लिए. किन्तु वचन पूरा होने से पूर्व ही जनता सरकार अपने अंतरविरोधो के चलते गिर गयी और १९८० में पुन: इंदिरा गाँधी का शासन आया. १९७८ में आचार्य श्री को पंचखण्डपीठ के आचार्य पीठ पर अभिषिक्त हुए तब उन्होंने गाय और हिन्दू हितो की रक्षा के लिए सतत गति देने की घोषणा की. १९८० में उन्होंने पंचखण्डपीठ के परिसर में २१ कुन्दात्मक 'श्री वज्रांग रूद्र महायज्ञ' का भव्य अनुष्ठान संपन्न कराया और गोवंश की रक्षा के पूज्य विनोबा भावे से नेत्रत्व करने का अनुरोध करने के लिए पवनार जाने का निश्चय किया. अजमेर, नसीराबाद, विजयनगर, गुलाबबाग, भीलवाडा, चित्तोड़, मंदसौर, इंदौर, बडनगर और विक्रमपुर आदि नगरो में जनसभाए करते हुए आचार्य श्री शिन्घस्थ कुम्भ पर्व के अवसर पर उज्जयनी पधारे. उज्जयनी कुम्भ पर्व पर दत्त अखाडा क्षेत्र में 'समर्थ रामदास नगर' नाम से श्री पंचखण्डपीठ का विशाल शिविर स्थापित हुआ. राजसी शोभायात्रा में सहस्त्रो भक्त नर - नारियों के साथ समर्थ गुरुदेव की पवित्र पादुकाओ को आगे करके सदगुरुदेव श्रीमन महात्मा रामचन्द्र वीर महाराज तथा आचार्य श्री धर्मेन्द्र महाराज ने अपने शिविर में प्रवेश किया. एक मास तक आचार्य श्री के 'अभिनव भारत आन्दोलन' के कार्यकर्ता कुम्भ मेले में घूम - घूम कर गोरक्षा के लिए आचार्य विनोभा भावे जी से प्रभावशाली पग उठाने के लिए अनुरोध पर्त्रो पर तीर्थ यात्रिओ के हस्ताक्षर एकत्र करते रहे और आचार्य धर्मेन्द्र जी अपने क्रन्तिकारी प्रवचनों को लोगो को गोरक्षा के लिए जागरूक करते रहे. इसी बीच कुम्भ मेले के अवसर पर उज्जयिनी नगरी में मदिरा और मांस के मुक्त व्यापर को देख कर आचार्य श्री का मन विचलित हो उठा और दुखी होकर उन्होंने धार्मिक पर्व धार्मिक तीर्थ में मदिरा मांस के विक्रय पर प्रतिबन्ध लगाने को लेकर अनशन प्रारंभ कर दिया. कुछ वैष्णव संतो एवं आर्य समाज के प्रबल सहयोग तथा पत्रकारों के नैतिक समर्थन के फलसवरूप १२ वें दिन शासन ने मेला क्षेत्र तथा उज्जयिनी नगर निगम की सीमा में सिंहस्थ कुम्भ पर्व की शेष अवधि में मदिरा और मांस के विक्रय पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया. इसी बीच पूर्व प्रधानमंत्री श्री गुलजारी लाल नंदा और जैन मुनि सुइशील कुमार भी आचार्य श्री के शिविर में पधारे. सिंहस्थ कुम्भ पर्व के समापन के पश्चात् उज्जयिनी नगर में १५ दिवस रूककर आचार्य श्री ने नागरिको में गोरक्षा के लिए अनुकूल वातावरण का निर्माण किया. इंदौर में अपने मिशन के परचार करके आचार्य श्री सहस्त्रो हस्ताक्षर युक्त अनुरोध पत्रों तथा अनेक गोभाक्तो के शिष्टमंडल के साथ पवनार आश्रम में परम्संत पूज्य विनोबा भावे जी से मिले. विनोबा जी ने शिष्टमंडल का हार्दिक स्वागत किया. बाबा को दिए व्यक्तिगत पत्र में भी आचार्य श्री ने अनुरोध किया की देश की जनता गोमाता की रक्षा के लिए अब केवल आपकी और देख रही है. अनुरोध की बाबा पर अनुकूल प्रतिक्रिया हुई. कुछ दिनों के पश्चात् खड़गपुर (बंगाल) में अखिल भारतीय सर्वोदय सम्मेलन आयोजित हुआ. आचार्य धर्मेन्द्र भी उसमे विशेष रूप से आमंत्रतित किये गए. २५०० सर्वोदय कार्यकर्ताओ के बीच उन्होंने गोरक्षा के लिए जो मार्मिक प्रवचन दिया वो एक एतिहासिक दस्तावेज है. कृषि गोसेवा संघ ने उस भाषण को पुस्तकाकार प्रकाशित भी किया. जुलाई १९८० में पवनार में देशभर के गोभक्त कार्यकर्ताओ का सम्मेलन बुलाया गया. श्री गुलजारी लाल नंदा की उपसिथति उल्लेखनीय थी. पूज्य विनोभा जी की मुक्त अध्यक्षता में केंद्रीय गोरक्षा समन्वय समिति का गठन किया गया जिसके उपाध्यक्ष नंदा जी तथा महामंत्री आचार्य धर्मेन्द्र महाराज चुने गए. विनोबा जी बड़ा कदम उठाने की मानसिकता में आ गए थे. उन्होंने सरकार से मांग की पूर्व सरकार और संसद द्वारा किये गए संकल्प को पूरा करे तथा संपूर्ण गोवंश निषेध के लिए प्रभावकारी कानून बनाये. आचार्य श्री के प्रयत्नों से मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यामंत्री अर्जुन सिंह ने अपनी सीमा से महाराष्ट्र के हत्याग्रहो को ले जाये जाने वाले गोवंश पर प्रतिबन्ध लगा दिया. इसी समय विनोबा जी ने गोहत्या के विरुद्ध एक बार फिर आमरण अनशन करने का निश्चय कर लिया था किन्तु उनके निकटवर्ती भक्तो ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया. १९८१ में श्री कृषण जन्माष्टमी के पर्व पर कृषि गोसेवा संघ के आह्वान पर राजधानी दिल्ली के नगर निगम सभागार में अखिल भारतीय गोरक्षा कार्यकर्ता सम्मेलन हुआ. जिसके प्रथम अध्यक्ष पद से आचार्य धर्मेन्द्र जी ने गोहत्या निषेध कानून बनाने के लिए सरकार को ६ मास का अल्टीमेटम देने का प्रस्ताव रखा जो सर्वसम्मति से स्वीकार हो गया. १९८२ की वसंत पंचमी से महाशिवरात्रि तक 'सौम्य सत्याग्रह' देश भर में क्रमिक उपवासों के रूप में सफलतापूर्वक अनेक नगरो में संपन्न हुआ. १९८३ में गोहत्या के दुःख को मन में लेकर विनोबा जी ने प्राण त्याग दिए. देह विसर्जित करने से पूर्व उन्होंने कोई भी आहार, पथ्य या औषध लेना बंद कर दिया था. =====श्री राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन ===== पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता श्री दाऊ दयाल खन्ना ने मार्च, १९८३ में मुजफ्फरनगर में संपन्न एक हिन्दू सम्मेलन में अयोध्या, मथुरा और काशी के स्थलों को फिर से अपने अधिकार में लेने हेतु हिन्दू समाज का प्रखर आह्वान किया। दो बार देश के अंतरिम प्रधानमंत्री रहे श्री गुलजारी लाल नंदा भी मंच पर उपस्थित थे। पहली धर्म संसद - अप्रैल, १९८४ में विश्व हिन्दू परिषद् द्वारा विज्ञान भवन (नई दिल्ली) में आयोजित पहली धर्म संसद ने जन्मभूमि के द्वार से ताला खुलवाने हेतु जनजागरण यात्राएं करने का प्रस्ताव पारित किया। राम जानकी रथ यात्रा - विश्व हिन्दू परिषद् ने अक्तूबर, १९८४ में जनजागरण हेतु सीतामढ़ी से दिल्ली तक राम-जानकी रथ यात्रा शुरू की। लेकिन श्रीमती इंदिरा गांधी की निर्मम हत्या के चलते एक साल के लिए यात्राएं रोकनी पड़ी थीं। अक्तूबर, १९८५ में रथ यात्राएं पुन: प्रारंभ हुईं। कारसेवकों का बलिदान - २ नवम्बर, १९९० को मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश दिया, जिसमें कोलकाता के राम कोठारी और शरद कोठारी (दोनों भाई) सहित अनेक रामभक्तों ने अपने जीवन की आहुतियां दीं। ये दोनों कोठारी बंधू आचार्य श्री के शिष्य थे. इस आन्दोलन में आचार्य श्री आचार्य धर्मेन्द्र देव के नाम से जाने गए. अपने क्रातिकारी भाषण कुशलता से ये पहले से ही विख्यात थे और इस आन्दोलन में आचार्य श्री, साध्वी ऋतंभरा और उमा भारती जैसे फायर ब्रांड नेता भारतीय लोगो के आत्म स्वाभिमान से प्रेरित विषय को भारत भूमि के घर - घर तक ले जा रहे थे. श्री राम जन्मभूमि आन्दोलन और आचार्य श्री एक दुसरे के पूरक है. भारतीय समाज को सबसे ज्यादा झकझोरने वाला कोई आन्दोलन है वो वो राम जन्मभूमि का है. यह सांस्कृतिक चेतना अधूरी ही रहती अगर इसमें आचार्य धर्मेन्द्र का मार्गदर्शन नहीं होता. राम जन्मभूमि आन्दोलन के दोरान इन्होने सारे हिन्दू समाज को जगाकर रख दिया था. "जो राम का नहीं वो हमारे काम का नहीं" प्रशिद्ध नारा परम पूज्य आचार्य जी की ही देन है.भगवान राम के नाम को हिन्दू समाज की ताकत बनाने का काम आचार्य जी ने ही किया. जय श्री राम के नारे में जो शक्ति की अनुभूति होती है वो आचार्य श्री के व्याख्यानों का ही कमाल है. सन १९९४ में इन्होने राम मंदिर बनाने के लिए 18 दिन का अनशन किया था. आचार्य जी की तर्क वितर्क के सामने मिडिया वाले भी अपने सवाल भूल जाते है. ये विश्व हिन्दू परिषद के केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल में शामिल है. श्रीमद भागवत गीता का इन्होने स्वयं हिंदी में लिखा और अपनी मधुर आवाज में गया भी है. इन्होने सन्वत् २०३४ (सन १९७७ ई०) मे वज्रांग विनय स्तोत्र की रचना की। वज्रांग विनय स्तोत्र मशहूर गायक सुदेश भोंसले ने गाया है.



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