"सजा तो वाजिब ही मिली -जवाहरलाल नेहरू" के अवतरणों में अंतर
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− | + | उनकी तेज मिजाजी की एक घटना मुझे याद है क्योंकि बचपन ही में मैं उसका शिकार हो गया था। कोई 5-6 वर्ष की उम्र रही होगी। एक रोज मैने पिताजी की मेज पर दो फाउन्टेन पेन पड़े देखे। मेरा जी ललचाया मैने दिल में कहा पिताजी एक साथ दो पेनों का क्या करेंगे? एक मैने अपनी जेब मे डाल लिया। बाद में बड़ी जोरों की तलाश हुई कि पेन कहां चला गया? तब तो मैं घबराया। मगर मैने बताया नहीं। पेन मिल गया और मैं गुनहगार करार दिया गया। पिताजी बहुत नाराज़ हुए और मेरी खूब मरम्मत की। मैं दर्द व अपमान से अपना सा मुंह लिये मां की गोद में दौड़ा गया और कई दिन तक मेरे दर्द करते हुए छोटे से बदन पर क्रीम और मरहम लगाये गये। लेकिन मुझे याद नहीं पड़ता कि इस सजा के कारण पिताजी को मैंने कोसा हो। मैं समझता हूं मेरे दिल ने यही कहा होगा कि सजा तो तुझे वाजिब ही मिली है, मगर थी ज़रूरत से ज़्यायादा। | |
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11:34, 13 अगस्त 2014 का अवतरण
सजा तो वाजिब ही मिली -जवाहरलाल नेहरू
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विवरण | जवाहरलाल नेहरू |
भाषा | हिंदी |
देश | भारत |
मूल शीर्षक | प्रेरक प्रसंग |
उप शीर्षक | जवाहरलाल नेहरू के प्रेरक प्रसंग |
संकलनकर्ता | अशोक कुमार शुक्ला |
जवाहरलाल नेहरू जी ने अपने बचपन का किस्सा बयान करते हुये अपनी पुस्तक मेरी कहानी में लिखा है कि वे अपने पिता मोतीलाल नेहरू जी का बहुत सम्मान करते थे। हांलांकि वे कड़क मिजाज थे सो वे उनसे डरते भी बहुत थे क्योंकि उन्होंने नौकर चाकरों आदि पर उन्हें बिगडते कई बार देखा था। उनकी तेज मिजाजी का एक किस्सा बताते हुये नेहरू जी ने लिखा है-
उनकी तेज मिजाजी की एक घटना मुझे याद है क्योंकि बचपन ही में मैं उसका शिकार हो गया था। कोई 5-6 वर्ष की उम्र रही होगी। एक रोज मैने पिताजी की मेज पर दो फाउन्टेन पेन पड़े देखे। मेरा जी ललचाया मैने दिल में कहा पिताजी एक साथ दो पेनों का क्या करेंगे? एक मैने अपनी जेब मे डाल लिया। बाद में बड़ी जोरों की तलाश हुई कि पेन कहां चला गया? तब तो मैं घबराया। मगर मैने बताया नहीं। पेन मिल गया और मैं गुनहगार करार दिया गया। पिताजी बहुत नाराज़ हुए और मेरी खूब मरम्मत की। मैं दर्द व अपमान से अपना सा मुंह लिये मां की गोद में दौड़ा गया और कई दिन तक मेरे दर्द करते हुए छोटे से बदन पर क्रीम और मरहम लगाये गये। लेकिन मुझे याद नहीं पड़ता कि इस सजा के कारण पिताजी को मैंने कोसा हो। मैं समझता हूं मेरे दिल ने यही कहा होगा कि सजा तो तुझे वाजिब ही मिली है, मगर थी ज़रूरत से ज़्यायादा।
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