गिरमिट प्रथा
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- गिरमिट प्रथा मजदूरों की भर्ती के लिए उन्नसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में आरम्भ की गई।
- गिरमिट प्रथा के अंतर्गत भारतीय मजदूरों से किसी बग़ीचे पर एक निर्धारित अवधि तक (प्राय: पाँच से सात साल) काम करने के लिए एक अनुबन्ध कराया जाता था। जिसे आम बोलचाल की भाषा में 'गिरमिट प्रथा' कहने लगे।
- 'गिरमिट' से मुक्त होने पर मजदूर को छूट रहती थी कि वह या तो भारत लौट जाए या स्वतंत्र मजदूर की हैसियत से वहीं पर उपनिवेश में बस जाए। यदि वह स्वदेश लौटना चाहता था तो उसे किराया दिया जाता था।
- 'गिरमिट' की यह सामान्य प्रथा कहीं-कहीं पर कुछ परिवर्तित रूप में भी प्रचलित थी। भारतीय मजदूर अनपढ़ और असंगठित होते थे। उन्हें रोज़ी की तलाश थी, इसलिए न्याय के विचार से शून्य धनी ठेकेदार बहुधा मजदूरों से मनमानी शर्तें भी करा लेते थे।
- गिरमिट प्रथा के अंतर्गत बहुसंख्यक भारतीय मजदूर हिन्द महासागर में स्थित मॉरीशस, प्रशांत महासागरों में स्थित फ़िजी, मलय प्रायद्वीप तथा द्वीपपुंज, श्रीलंका, केनिया, टांगानायका, उगांडा, दक्षिण अफ़्रीका, ट्रनिडाड, जमायका और ब्रिटिश गायना गये।
- इनमें से बहुतेरों ने 'गिरमिट मुक्त' होने पर उसी स्थान पर बस जाना पंसद किया।
- वे वहाँ पर या तो स्वतंत्र मजदूर बनकर या छोटे-मोटे व्यापारी बनकर जीविका कमाने लगे।
- इस तरह उपर्युक्त ब्रिटिश उपनिवेश में प्रवासी भारतीयों की काफ़ी बड़ी संख्या हो गई।
- प्रवासी भारतीयों की संख्या जब बढ़ी और वे समृद्ध होने लगे तो उन उपनिवेशों में रहने वाले गोरे उनसे ईर्ष्या करने लगे और उनके विरोधी बन गये।
- गोरों ने इस बात को भुला दिया कि प्रवासी भारतीयों के पुरखों को उन्हीं लोगों ने अपने देश में आमंत्रित किया था और गिरमिटिया मजदूरों की सेवाओं से भारी लाभ उठाया था। उन्होंने उन उपनिवेशों की समृद्धि में उतना ही योगदान दिया था, जितना वहाँ के गोरे निवासियों ने। अब चूंकि वे गोरों की गुलामी नहीं करना चाहते थे, तो उन्हें अवाँछित व्यक्ति करार दिया गया। इस तरह गिरमिट प्रथा के कारण जातीय भेदभाव पर आधारित नयी समस्याएँ उठ खड़ी हुईं, जिनका अभी तक समाधान नहीं हो सका है।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पुस्तक 'भारतीय इतिहास कोश' पृष्ठ संख्या-126