इलाहाबाद का इतिहास

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इलाहाबाद भारत के प्रमुख धार्मिक नगरों में से एक है। यह नगर, जिसे प्राचीन समय में 'प्रयाग' नाम से जाना जाता था, अपनी सम्पन्नता, वैभव और धार्मिक गतिविधियों के लिए जाना जाता रहा है। भारतीय इतिहास में इस नगर ने युगों के परिवर्तन देखे हैं। बदलते हुए इतिहास के उत्थान-पतन को देखा है। यह नगर राष्ट्र की सामाजिक व सांस्कृतिक गरिमा का गवाह रहा है तो राजनैतिक एवं साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र भी रहा। इलाहाबाद को 'संगम नगरी', 'कुम्भ नगरी' और 'तीर्थराज' भी कहा गया है। 'प्रयागशताध्यायी' के अनुसार काशी, मथुरा, अयोध्या इत्यादि सप्तपुरियाँ तीर्थराज प्रयाग की पटरानियाँ हैं, जिनमें काशी को प्रधान पटरानी का दर्ज़ा प्राप्त है।

नामकरण

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस नगर का प्राचीन नाम 'प्रयाग' है। यह माना जाता है कि चार वेदों की प्राप्ति के पश्चात ब्रह्मा ने यहीं पर यज्ञ किया था, इसीलिए सृष्टि की प्रथम यज्ञ स्थली होने के कारण इसे प्रयाग कहा गया। प्रयाग अर्थात 'यज्ञ'। कालान्तर में मुग़ल बादशाह अकबर इस नगर की धार्मिक और सांस्कृतिक ऐतिहासिकता से काफ़ी प्रभावित हुआ। उसने भी इस नगरी को ईश्वर या अल्लाह का स्थान कहा और इसका नामकरण 'इलहवास' किया अर्थात "जहाँ पर अल्लाह का वास है"। परन्तु इस सम्बन्ध में एक मान्यता और भी है कि 'इला' नामक एक धार्मिक सम्राट, जिसकी राजधानी प्रतिष्ठानपुर[1] थी, के वास के कारण इस जगह का नाम 'इलावास' पड़ा। कालान्तर में अंग्रेज़ों ने इसका उच्चारण इलाहाबाद कर दिया।

संगम नगरी

इलाहाबाद अत्यन्त पवित्र नगर माना जाता रहा है, जिसकी पवित्रता गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती नदी के संगम के कारण है। वेद से लेकर पुराण तक और संस्कृति कवियों से लेकर लोक साहित्य के रचनाकारों तक ने इस संगम की महिमा का गान किया है। इलाहाबाद को संगमनगरी, कुम्भनगरी और तीर्थराज भी कहा गया है। 'प्रयागशताध्यायी' के अनुसार काशी, मथुरा, अयोध्या इत्यादि सप्तपुरियाँ तीर्थराज प्रयाग की पटरानियाँ हैं, जिनमें काशी को प्रधान पटरानी का दर्ज़ा प्राप्त है। तीर्थराज प्रयाग की विशालता व पवित्रता के सम्बन्ध में सनातन धर्म में मान्यता है कि एक बार देवताओं ने सप्तद्वीप, सप्तसमुद्र, सप्तकुलपर्वत, सप्तपुरियाँ, सभी तीर्थ और समस्त नदियाँ तराजू के एक पलड़े पर रखीं, दूसरी ओर मात्र तीर्थराज प्रयाग को रखा, फिर भी प्रयागराज ही भारी रहे। वस्तुतः गोमुख से इलाहाबाद तक जहाँ कहीं भी कोई नदी गंगा से मिली है, उस स्थान को प्रयाग कहा गया है, जैसे- देवप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग आदि। केवल उस स्थान पर जहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम है, उसे 'प्रयागराज' कहा गया। प्रयागराज इलाहाबाद के बारे में गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है-

को कहि सकई प्रयाग प्रभाऊ, कलुष पुंज कुंजर मगराऊ। 
सकल काम प्रद तीरथराऊ, बेद विदित जग प्रगट प्रभाऊ।।

प्रागैतिक इतिहास

यदि प्रागैतिहासिक काल को देखा जाए तो इलाहाबाद और मिर्जापुर के मध्य अवस्थित बेलनघाटी में पुरापाषाण काल के पशुओं के अवशेष प्राप्त हुए थे। बेलनघाटी में विंध्य पर्वत के उत्तरी पृष्ठों पर लगातार तीन अवस्थायें-पुरापाषाण, मध्यपाषाण व नवपाषाण काल एक के बाद एक पाई जाती हैं। भारत में नवपाषाण युग की शुरूआत ईसा पूर्व छठीं सहस्त्राब्दी के आस-पास हुई थी। इसी समय से उपमहाद्वीप में चावल, गेहूँजौ जैसी फसलें उगायी जाने लगी थीं। इलाहाबाद ज़िले के नवपाषाण स्थलों की यह विशेषता है कि यहाँ ईसा पूर्व छठी सहस्त्राब्दी में भी चावल का उत्पादन होता था। इसी प्रकार वैदिक संस्कृति का उद्भव भले ही सप्तसिन्धु देश (पंजाब) में हुआ हो, पर विकास पश्चिमी गंगा घाटी में ही हुआ। गंगा-यमुना दोआब पर प्रभुत्व पाने हेतु तमाम शक्तियाँ संघर्षरत रहीं और नदी तट पर होने के कारण प्रयाग का विशेष महत्व रहा। आर्यों द्वारा उल्लिखित द्वितीय प्रमुख नदी सरस्वती प्रारम्भ से ही प्रयाग में प्रवाहमान थी। सिन्धु सभ्यता के बाद भारत में द्वितीय नगरीकरण गंगा के मैदानों में ही हुआ। यहाँ तक कि सभी उत्तर कालीन वैदिक ग्रंथ लगभग 1000.600 ई.पू. में उत्तरी गंगा मैदान में ही रचे गये थे। उत्तर वैदिक काल के प्रमुख नगरों में से एक कौशाम्बी भी था, जो कि वर्तमान में इलाहाबाद से एक पृथक जनपद बन गया। प्राचीन कथाओं के अनुसार महाभारत युद्ध के काफ़ी समय बाद हस्तिनापुर बाढ़ में बह गया और कुरूवंश में जो जीवित रहे, वे इलाहाबाद के पास कौशाम्बी में आकर बस गये। महात्मा गौतम बुद्ध के समय अवस्थित 16 बड़े-बड़े महाजनपदों में से एक वत्स की राजधानी कौशाम्बी थी।


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शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (अब झूसी)

बाहरी कड़ियाँ

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