सूत्रकार कणाद के अनुसार रूप, रस, स्पर्श नामक गुणों का आश्रय तथा स्निग्ध द्रव्य ही जल है।<balloon title="रूपरसस्पर्शवत्य आपो द्रवा: हिनग्धा:, वै.सू. 2.1.2" style=color:blue>*</balloon>
प्रशस्तपाद ने पृथ्वी के समान जल में भी समवाय सम्बन्ध से चौदह गुणों के पाये जाने का उल्लेख किया है।
जल का रंग अपाकज और अभास्वर शुक्ल होता है।
यमुना के जल में जो नीलापन है, वह यमुना के स्त्रोत में पाये जाने वाले पार्थिव कणों के संयोग के कारण औपाधिक है। जल में स्नेह के साथ-साथ सांसिद्धिक द्रवत्व हैं।<balloon title="द्रवत्वं सांसिद्धकिरूपेण जलस्याधारणम्, सेतु पृ. 241" style=color:blue>*</balloon>
जल का शैत्य ही वास्तविक है। उसमें केवल मधुर रस ही पाया जाता है।<balloon title="किरणावली, पृ. 67-68" style=color:blue>*</balloon>
उसके अवान्तर स्वाद खारापन, खट्टापन आदि पार्थिव परमाणुओं के कारण होते हैं।
आधुनिक विज्ञान के अनुसार जल सर्वथा स्वादरहित होता है, अत: जल के माधुर्य के सम्बन्ध में वैशेषिकों का मत चिन्त्य है।<balloon title="धर्मेन्द्रनाथ शास्त्री, न्या.सि.मु. व्याख्या, पृ. 200" style=color:blue>*</balloon>
पृथ्वी की तरह जल भी परमाणु रूप में नित्य और कार्यरूप में अनित्य होता है।
कार्यरूप जल में शरीर, इन्द्रिय (रसना) और विषय-भेद से तीन प्रकार का द्रव्यारम्भकत्व समवायिकारणत्व माना जाता है। अर्थात जल शरीरारम्भक, इन्द्रियारम्भक और विषयारम्भक होता है।
सरिता, हिम, करका आदि विषय रूप जल है। जल का ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण से होता है।