श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 3 श्लोक 43-53

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एकादश स्कन्ध: तृतीयोऽध्यायः (3)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: तृतीयोऽध्यायः श्लोक 43-53 का हिन्दी अनुवाद


अब छठे योगीश्वर आविर्होत्रजी ने कहा—राजन्! कर्म (शास्त्रविहित), अकर्म (निषिद्ध) और विकर्म (विहित का उल्लंघन)—ये तीनों एकमात्र वेद के द्वारा जाने जाते हैं, इनकी व्यवस्था लौकिक रीति से नहीं होती। वेद अपौरुषेय है—ईश्वररुप हैं; इसलिए उनके तात्पर्य का निश्चय करना बहुत कठिन हैव् इसी से बड़े-बड़े विद्वान भी उनके अभिप्राय का निर्णय करने में भूल कर बैठते हैं। (इसी से तुम्हरे बचपन की ओर देखकर—तुम्हें अनधिकारी समझकर सनकादि ऋषियों ने तुम्हारे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया) । यह वेद परोक्षवादात्मक[1] है। यह कर्मों की निवृत्ति के लिये कर्म का विधान करता है, जैसे बालक को मिठाई आदि का लालच देकर औषध खिलाते हैं, वैसे ही यह अनभिज्ञों को स्वर्ग आदि का प्रलोभन देकर श्रेष्ठ कर्म में प्रवृत्त करता है । जिसका अज्ञान निवृत्त नहीं हुआ है, जिसकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, वह यदि मनमाने ढंग से वेदोक्त कर्मों का परित्याग कर देता है, तो वह विहित कर्मों का आचरण न करने के कारण विकर्मरूप अधर्म ही करता है। इसलिये वह मृत्यु के बाद फिर मृत्यु को प्राप्त होता है । इसलिये फल की अभिलाषा छोड़कर और विश्वात्मा भगवान को समर्पित कर जो वेदोक्त कर्म का ही अनुष्ठान करता है, उसे कर्मों की निवृत्ति से प्राप्त होने वाली ज्ञानरूप सिद्धि मिल जाती है। जो वेदों में स्वर्गादिरूप फल का वर्णन है, उसका तात्पर्य फल की सत्यता में नहीं है वह तो कर्मों में रूचि उत्पन्न कराने के लिये है । राजन्! जो पुरुष चाहता है कि शीघ्र-से शीघ्र मेरे ब्रम्हस्वरुप आत्मा की ह्रदय-ग्रन्थि—मैं और मेरे की कल्पित गाँठ खुल जाय, उसे चाहिये कि वह वैदिक और तान्त्रिक दोनों ही पद्धतियों से भगवान की आराधना करे । पहले सेवा आदि के द्वारा गुरुदेव की दीक्षा प्राप्त करे, फिर उनके द्वारा अनुष्ठान की विधि सीखे; अपने को भगवान की जो मूर्ति प्रिय लगे, अभीष्ट जान पड़े, उसी के द्वरा पुरुषोत्तम भगवान की पूजा करे । पहले स्नानादि से शरीर और सन्तोष आदि से अन्तः-करण को शुद्ध करे, इसके बाद भगवान की मूर्ति के सामने बैठकर प्राणायाम आदि के द्वारा भूतशुद्धि—नाडी-शोधन करे, तत्पश्चात् विधिपूर्वक मन्त्र, देवता आदि के न्यास से अंगरक्षा करके भगवान की पूजा करे । पहले पुष्प आदि पदार्थों का जन्तु आदि निकालकर, पृथ्वी को सम्मार्जन आदि से, अपने को अव्यग्र होकर और भगवान की मूर्ति को पहले ही की पूजा के लगे हुए पदार्थों के क्षालन आदि से पूजा के योग्य बनाकर फिर आसन पर मन्त्रोच्चारणपूर्वक जल छिड़कर पाद्य, अर्घ्य आदि पात्रों को स्थापित करे। तदनन्तर एकाग्रचित्त होकर ह्रदय में भगवान का ध्यान करके फिर उसे सामने की श्रीमूर्ति में चिन्तन करे। तदनन्तर ह्रदय, सिर, शिखा (हृदयाय नमः, शिर से स्वाहा) इत्यादि मन्त्रों से न्यास करे और अपने इष्टदेव के मूलमन्त्र के द्वारा देश, काल आदि के अनुकूल प्राप्त पूजा-सामग्री से प्रतिमा आदि में अथवा ह्रदय में भगवान की पूजा करे । अपने-अपने उपास्यदेव के विग्रह की हृदयादि अंग, आयुधादि उपांग और पार्षदों सहित उसके मूलमन्त्र द्वारा पाद्य, अर्घ्य, आचमन, मधुपर्क, स्नान, वस्त्र, आभूषण, गन्ध, पुष्प, दधि-अक्षत के[2] तिलक, माला, धूप, दीप और नैवेद्य आदि से विधिवत् पूजा करे तथा फिर स्तोत्रों द्वारा स्तुति करके सपरिवार भगवान श्रीहरि को नमस्कार करे ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जिसमें शब्दार्थ कुछ और मालूम दे और तात्पर्यार्थ कुछ और हो—उसे परोक्षवाद कहते हैं।
  2. विष्णु भगवान् की पूजा में अक्षतों का प्रयोग केवल तिलकालंकर में ही करना चाहिये, पूजा में नहीं—‘नाक्षतैरर्ययेद् विष्णुं न केतक्या महेश्वरम्।’

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