साँझी कला

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साँझी कला ब्रज की प्रसिद्ध ललित कला है। यह बेहद बारीकी से चित्रण करने की कला है। यूं तो ब्रज की धरती पर कई सारी ललित कलाएं प्रचलित हैं, किन्तु उनमें साँझी का स्थान विशेष है। यह कह सकते हैं कि यह रंगोली और पेटिंग का मिला-जुला रूप है, लेकिन असल में इसका अलग ही महत्त्व है। बरसाना के लाड़ली जी मंदिर में पितृ पक्ष के प्रारंभ से ही रंगों की साँझी बनाई जाती है। जहाँ प्रतिदिन रात्रि को बरसाना के गोस्वामी साँझी के पद और दोहा गाते हैं।

अर्थ

'साँझी' का मतलब है- "सज्जा, श्रृंगार या सजावट"। मिथकों के अनुसार इस कला की शुरुआत स्वयं श्रीराधा जी ने की थी। मान्यता यह भी है कि साँझी शब्द दरअसल सांझ से बना है, जिसका अर्थ है 'शाम'। ब्रज में साँझी भी शाम को बनाई जाती है। इस कला का ब्रज से बड़ा गहरा नाता है। साल में एक खास मौके पर ही साँझी बनाई जाती है। यूं तो साँझी हरियाणा, मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी बनाई जाती है, लेकिन पौराणिक रूप से वे ब्रज की साँझी से अलग हैं।

राधा-कृष्ण से सम्बंध

यूं तो वैदिक काल से ही यज्ञ या दूसरे धार्मिक अनुष्ठानों के लिए रंगों से साज-सज्जा करने की परंपरा रही है, लेकिन ब्रज में इसका अलग ही रूप विकसित हुआ है। कलानिधि कहे जाने वाले श्रीकृष्ण और उनकी प्रियतमा श्रीराधा की लीलास्थली में कई सारी ललित कलाएं चलन में हैं। इनमें सबसे खास है, बेहद बारीकी से चित्रण करने की साँझी कला। साँझी देखने में भले ही रंगोली जैसी लगती है, लेकिन इसका महत्व कहीं ज्यादा है। श्रीकृष्ण के प्रति श्रीराधा के प्रेम का प्रतिबिंब है साँझी। शाम के वक्त श्रीकृष्ण जब राधा से मिलने आया करते थे, वह उन्हें रिझाने के लिए फूलों से तरह-तरह की कलाकृतियां बनाया करती थीं। जब श्रीकृष्ण गोकुल छोड़कर चले गए, तब भी श्रीराधाजी उनके साथ बिताए गए पलों की याद में इस तरह की साँझी बनाया करती थीं।

साँझी का विकास

माना जाता है कि शुरू-शुरू में तो राधा अपनी सखियों के साथ दीवारों पर रंगों, रंगीन पत्थरों और धातु के टुकड़ों के साथ साँझी बनाया करती थीं। द्वापर युग के बाद साँझी ने कई रूप ले लिए। कहीं पर फूलों से साँझी बनाई जाती, कहीं पर गोबर से, कहीं पर पानी के नीचे तो कहीं पानी की सतह पर। कहीं पर यह सूखे रंगों से बनाई जाती, तो कहीं पर दीवारों पर धातु के टुकड़ों और रंगीन पत्थरों से।

प्रकार

मथुरा और वृंदावन के आसपास साँझी के कई रूप देखने को मिलते हैं। सूखे रंगों की साँझी, पानी के अंदर या सतह पर बनने वाली साँझी देखने को मिल जाती है। ब्रज के ग्रामीण इलाकों में गोबर से भी साँझी बनाई जाती है। साँझी के निम्न प्रकार हैं-

  1. फूलों की साँझी
  2. गोबर साँझी
  3. सूखे रंगों की साँझी
  4. पानी के नीचे साँझी
  5. पानी के ऊपर साँझी

वर्तमान स्थिति

किसी समय ब्रज के घर-धर में साँझी बनाई जाती थी, किन्तु आज साँझी विलुप्त होने की कगार पर खड़ी है। ऐसे बहुत कम लोग मिलेंगे, जो साँझी बनाते हैं। पहले तो यह कला मंदिरों तक सिमटी और अब आलम यह है कि ब्रज में भी 'श्रीराधा रमण मंदिर' ही ऐसा है, जहां पर साँझी बनाई जाती है। इस मंदिर के पुजारी वैष्णवाचार्य सुमित गोस्वामी एकमात्र ऐसे शख्स हैं, जो इस कला को बनाते हैं और इसे बचाने के लिए अपने स्तर पर कड़ी मेहनत कर रहे हैं। सुमित गोस्वामी के अनुसार सप्त देवालयों में से एक 'श्रीराधा रमण मंदिर' में पिछले 300 सालों से लगातार यह कला बनाई जा रही है। अभी आसपास के इलाके में वही हैं, जो इस कला को आगे बढ़ा रहे हैं। उनका कहना है कि मंदिरों में अब यह कला देखने को नहीं मिल रही। दरअसल साँझी बनाना काफ़ी मेहनत भरा और खर्चीला काम है। एक पेंटिंग बनाने में ही 10 से 12 घंटे तक लग जाते हैं। ऐसे में नई पीढ़ी के लोगों की रुचि अपने बड़े-बुजुर्गों से इस कला को सीखने में नहीं है।

कला से बढ़कर है साँझी

साँझी एक कला मात्र नहीं है। यह एक तरह से भगवान की आराधना की तरीका है। खास बात यह है कि जिस दौरान साँझी बनाई जा रही होती है, उस दौरान कुछ पद गाए जाते हैं। इन पदों में राधा के कृष्ण के प्रति अटूट प्रेम का वर्णन किया गया है। साथ ही साँझी का इतिहास भी बताया गया है। जैसे कि एक पद इस तरह है-

नंद ग्राम गोकुल की रचना, कीनी अति मन हारी।
महल महा रमणीक बनाए, दर दालान तिवारी॥

पूजन

दस से बारह घंटों की मेहनत के बाद जब साँझी तैयार हो जाती है, तब उसकी पूरे विधान द्वारा पूजा भी की जाती है। चूकि यह सूखे रंगों से बनाई जाती है, इसलिए इसे ज्यादा समय तक रखा नहीं जा सकता। इसलिए जिस संध्या को साँझी बनाई गई होती है, अगली ही सुबह उसे सम्मानपूर्वक खंडित कर दिया जाता है।

बनाने की विधि

साँझी ज्यामितीय रचनाओं पर बनती है। सबसे पहले क्ले सतह को तैयार किया जाता है, जिसे 6x6 या 9x9 के आकार पर काटा जाता है। इसके बाद सूखे रंगों की मदद से साँझी बनाने का कार्य शुरू किया जाता है। फूल, पत्तियों, लताओं और गायों समेत कई तरह की आकृतियों वाले को कुछ सांचे होते हैं, जिनमें सूखे रंग भरे जाते हैं। यह बहुत बारीकी भरा काम है। इतना बारीक कि कोई बता भी न सके कि यह कला सूखे रंगों से तैयार की गई है। देखने में यह कैनवस पर तैयार की गई चित्रकारी की तरह की लगती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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