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शून्य

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शून्य (अंग्रेज़ी: Zero, प्रतीक - '0') की गणित में अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इसकी महत्ता को किसी भी प्रकार कम नहीं माना जा सकता। शून्य एक ऐसा अंक है, जो संख्याओं के निरूपण के लिये प्रयुक्त आज की सभी स्थानीय मान पद्धतियों का आवश्यक प्रतीक है। इसके अतिरिक्त यह एक संख्या भी है। दोनों रूपों में गणित में इसकी अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण भूमिका है। पूर्णांकों तथा वास्तविक संख्याओं के लिये यह योग का तत्समक अवयव[1] है। शून्य के आविष्कार के बारे में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता, किंतु इतना सब मानते हैं कि अन्य अंकों की भाँति इसकी खोज भी भारत में हुई थी।

खोज

शून्य से पहले दुनियाभर में कई तरह की अंक प्रणालियां विकसित थीं। शून्य का आविष्कार हो गया, तब भी ये प्राचीन प्रणालियां प्रचलित थीं। कोई ऐसा स्थान था, जहां 5 में ही काम किया जाता था, तो कहीं पर 12 अंक प्रचलित थे। कहीं पर 24 अंक हुआ करते थे तो कहीं पर 2 से ही काम चला लिया जाता था। 'माया सभ्यता' में अंकों का आधार 20 था तो 'सिंधु घाटी की सभ्यता' में 9 था। ज्यादातर जगहों पर 1 से 9 तक गिनती को मान्यता मिलने लगी। तब अंकों की तरफ़ लोगों का ध्यान जाने लगा। पहले लोग 9 के बाद 11 लिख देते या मान लेते थे, लेकिन शोधकर्ताओं द्वारा उत्तर वैदिक काल में शून्य के आविष्कार के बाद गणित में एक क्रांति हो गई।

अंकों के मामले में विश्व भारत का ऋणी है। भारत ने अंकों के अलावा शून्य की खोज की। शून्य कहने को तो शून्य है, परंतु शून्य का ही चमत्कार है कि यह एक से दस, दस से हजार, हजार से लाख, करोड़ कुछ भी बना सकता है। शून्य की विशेषता है कि इसे किसी संख्या से गुणा करो अथवा भाग दो, फल शून्य ही रहेगा। शून्य की लंबाई, चौड़ाई या गहराई नहीं होती।

प्रारंभिक वैदिक काल

2500 वर्ष प्राचीन उपलब्ध संस्कृत दस्तावेजों में भारतीयों द्वारा गणित के क्षेत्र में की गई खोजों की समृद्ध परंपरा का विवरण मिलता है। प्रारंभिक वैदिक काल (1200-600 ईसा पूर्व) में संख्याओं की दशमलव प्रणाली और अंकगणित तथा रेखागणित के नियम विकसित हो चुके थे। इन्हें मंत्रों, स्तुतियों, श्रापों, श्लोकों, ऋचाओं और अन्य धार्मिक अनुष्ठानों की एक जटिल प्रणाली में लिपिबद्ध किया गया था। शोधकर्ताओं के अनुसार मंदिर के निर्माण और यज्ञ की वेदियों की रचना के नियम बनाए गए थे और इन्हें सूत्रों के रूप में बांधा गया था। उस समय के गणितज्ञ या ऋषियों द्वारा वायु, आकाश, दिन के समय, आकाशीय पिंडों आदि की स्तुति को दस की घात की ऐसी संख्याओं में व्यक्त किया जाता था, जो प्राय: दस अरब तक पहुंच जाती थीं। 'मैथेमेटिक्स इन इंडिया' में यह स्पष्ट किया गया है कि कैसे प्राचीन भारतीय गणित का विकास धर्म, विशिष्ट नाप के मंदिरों के निर्माण और ज्योतिषीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हुआ था और गुप्त काल में कैसे यह शुद्ध रूप में गणित में बदल गया।[2]

उत्तर वैदिक काल

उत्तर वैदिक काल (1000 से 500 ईस्वी पूर्व तक) में गणित का भारत में अधिक विकास हुआ। इसी काल में उपनिषद लिखे गए और वेदों पर आधारित कई तरह के दर्शन गढ़े गए। यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है कि भारत में शून्य का आविष्कार कब और किसने किया, किंतु इसका प्रयोग उत्तर वैदिक काल से ही होता रहा है। वैदिक गणित के बारे में सभी जानते हैं। विभिन्न प्रकार की वेदियों और उन पर विभिन्न आकृतियों की सही-सही नाप बनाने की प्रथा के कारण इस काल में रेखागणित के सूत्रों का विकास हुआ, जो शुल्व सूत्रों के रूप में उपलब्ध है। 'शुल्व' का मतलब उस रस्सी से है, जो यज्ञ की वेदी बनाने में माप के काम आती है। इनमें तीन सूत्रकारों को विशेष रूप से याद किया जाता है- 'बोधायन', 'आपस्तंब' और 'कात्यायन'। इनके अतिरिक्त मानव, मैत्रायण वराह एवं वाधुल का नाम भी यदा-कदा उपलब्ध होता है, विशेषत: शुल्व-सूत्रों में। रेखागणित के अनेक सूत्र शुल्व सूत्र में मौजूद हैं। बोधायन शुल्व सूत्र को ही आज हम 'पाइथागोरस प्रमेय' के नाम से जानते हैं, जिसकी खोज आज से 3000 वर्ष पूर्व की जा चुकी थी।

बौद्ध काल

एक कहानी के अनुसार बुद्ध ने अपनी होने वाली पत्नी को जीतने के लिए आंकड़ों की बड़ी-बड़ी श्रृंखलाएं अपनी याददाश्त के आधार पर सुना दी थीं। बौद्ध काल में दुनिया अपने ज्ञान के चरम पर थी। तक्षशिला, नालंदा और विक्रमशिला नामक महानतम विश्‍वविद्यालयों में विश्वभर के लोग पढ़ने आते थे और वहां ज्योतिष, गणित, खगोल और धर्म के सूत्रों को समझते थे।

यूनानी दार्शनिक सृष्टि के 4 तत्त्व मानते थे, जबकि भारतीय दार्शनिक 5 तत्त्व। यूनानी दार्शनिक आकाश को तत्त्व नहीं मानते थे। उनके अनुसार आकाश जैसा कुछ नहीं है; जबकि भारतीय दार्शनिकों के अनुसार जो नहीं है जैसा दिखाई देता है वही शून्य है। पाइथागोरस ने इस बात को स्वीकार किया था। आकाश को 'नथिंग' (कुछ नहीं) कहते थे। नथिंग का अर्थ शून्य होता है। आज से 2500 वर्ष पूर्व बुद्ध के समकालीन बौद्ध भिक्षु विमल कीर्ति और मंजूश्री के बीच जो संवाद हुआ था, वह शून्य को लेकर ही था। बौद्ध काल के कई मंदिरों पर शून्य का चिह्न अंकित है। बौद्ध काल में ही आर्किमिडी (287-212 ईसा पूर्व) के समान प्रतिभाशाली विद्वान ने भी न तो शून्य की चर्चा की और न स्थानमान पद्धति को अपनाया। लंबे समय तक यूनानियों ने बैबिलोनियाई की स्थानमान पद्धति को ही अपनाए रखा, लेकिन मौर्य साम्राज्य के दौरान भारतीय गणित की पद्धति यूनान में प्रचलित हुई। हालांकि विद्वानों के अनुसार सन 130 ईस्वी के लगभग जाकर प्रसिद्ध बैबीलोनियाई खगोलशास्त्री टॉल्मी ने षाष्टिक गणना पद्धति में यूनानी अक्षरीय अंकों में शून्य के लिए एक चिह्न का उपयोग किया था, जो एक लघु गोले पर एक शिरोरेखा के साथ था। वास्तव में टॉल्मी ने उसे मुख्यत: वही खाली स्थान भरने वाला चिह्न ही समझा था।[2]

पिंगलाचार्य का योगदान

भारत में लगभग 200 (500) ईसा पूर्व छंद शास्त्र के प्रणेता पिंगलाचार्य हुए,[3] जिन्हें द्विअंकीय गणित का भी प्रणेता माना जाता है। इसी काल में पाणिनी हुए, जिनको संस्कृत का व्याकरण लिखने का श्रेय जाता है। अधिकतर विद्वान पिंगलाचार्य को शून्य का आविष्कारक मानते हैं। पिंगलाचार्य के छंदों के नियमों को यदि गणितीय दृष्टि से देखें तो एक तरह से वे द्विअंकीय (बाइनरी) गणित का कार्य करते हैं और दूसरी दृष्टि से उनमें दो अंकों के घन समीकरण तथा चतुर्घाती समीकरण के हल दिखते हैं। गणित की इतनी ऊंची समझ के पहले अवश्य ही किसी ने उसकी प्राथमिक अवधारणा को भी समझा होगा। अत: भारत में शून्य की खोज ईसा से 200 वर्ष से भी पुरानी हो सकती है।

बख्शाली पाण्डुलिपि

गणित के एक बहुमूल्य ग्रंथ 'बख्शाली पाण्डुलिपि' के कुछ (70) पन्ने सन 1881 में खैबर क्षेत्र में बख्शाली गांव के निकट बहुत ही जीर्ण अवस्था में मिले थे। ये भोजपत्र पर लिखे गए हैं। इनकी भाषा के आधार पर अधिकांश विद्वान इन्हें 200 ईसा पूर्व से 300 ईस्वी का मानते हैं। यह ग्रंथ इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यह शुल्व सूत्री (वैदिक) गणित के ईसा पूर्व 800 से लेकर ईसा पूर्व 500 के काल के बाद के गणितीय रूप को दर्शाता है। इस पाण्डुलिपि में शून्य का जिक्र है।

भारतीय गणितीय ग्रंथ

भारत में उपलब्ध गणितीय ग्रंथों में 300 ईस्वी पूर्व का 'भगवती सूत्र' है, जिसमें संयोजन पर कार्य है तथा 200 ईस्वी पूर्व का 'स्थनंग सूत्र' है, जिसमें अंक सिद्धांत, रेखागणित, भिन्न, सरल समीकरण, घन समीकरण, चतुर्घाती समीकरण तथा मचय (पर्मुटेशंस) आदि पर कार्य हैं। सन 200 ईस्वी तक 'समुच्चय सिद्धांत' के उपयोग का उल्लेख मिलता है और अनंत संख्या पर भी बहुत कार्य मिलता है।[2]

गुप्त काल

गुप्त काल की मुख्‍य खोज शून्य नहीं, मुख्य खोज है 'शून्ययुक्त दशमिक स्थानमान संख्या प्रणाली।' गुप्त काल को "भारत का स्वर्णकाल" कहा जाता है। इस युग में ज्योतिष, वास्तु, स्थापत्य और गणित के कई नए प्रतिमान स्थापित किए गए। इस काल की भव्य इमारतों पर गणित के अन्य अंकों सहित शून्य को भी अंकित किया गया है। शून्य के कारण ही शालिवाहन नरेश के काल में हुए नागार्जुन ने 'शून्यवाद' की स्थापना की थी। 'शून्यवाद' या 'शून्यता' बौद्धों की 'महायान शाखा' 'माध्यमिका' नामक विभाग का मत या सिद्धांत है, जिसमें संसार को शून्य और उसके सब पदार्थों को सत्ताहीन माना जाता है। 401 ईसवी में कुमारजीव ने नागार्जुन की संस्कृत भाषा में रचित जीवनी का चीनी भाषा में अनुवाद किया था। नागार्गुन का काल लगभग 166 ईस्वी से 199 ईस्वी के बीच का माना जाता है। नई संख्या पद्धति के प्राचीन लेखों से प्राप्त सबसे प्राचीन उपलब्ध प्रमाण मिलते हैं 'लोक विभाग' (458 ई.) नामक जैन हस्तलिपि में। दूसरा प्रमाण मिलता है गुजरात में एक गुर्जर राजा के दानपात्र में। इसमें संवत 346 अंकित है, जिसका अर्थ हुआ 594 ईसवी।

आर्यभट्ट (जन्म 476 ई.) को शून्य का आविष्कारक नहीं माना जा सकता। आर्यभट्ट ने एक नई अक्षरांक पद्धति को जन्म दिया था। उन्होंने अपने ग्रंथ 'आर्यभटीय' में भी उसी पद्धति में कार्य किया है। आर्यभट्ट को लोग शून्य का जनक इसलिए मानते हैं, क्योंकि उन्होंने अपने ग्रंथ 'आर्यभटीय' (498 ई.) के गणितपाद 2 में एक से अरब तक की संख्याएं बताकर लिखा है- "स्थानात् स्थानं दशगुणं स्यात" अर्थात "प्रत्येक अगली संख्या पिछली संख्या से दस गुना है।" उनके ऐसे कहने से यह सिद्ध होता है कि निश्चित रूप से शून्य का आविष्कार आर्यभट्ट के काल से प्राचीन है। गुप्त काल में ब्रह्मगुप्त, आर्यभट्ट, श्रीधराचार्य, महावीराचार्य आदि श्रेष्ठ गणितज्ञ हुए, जिनके कारण भारतीय गणित का विश्‍वभर में नए सिरे से प्रचार-प्रसार हुआ। भारतीय गणितज्ञ श्री ब्रह्मगुप्त ने अपने ग्रंथ 'ब्रह्मस्फुट सिद्धांत' में शून्य की व्याख्या अ-अ=0 (शून्य) के रूप में की है। श्रीधराचार्य अपनी पुस्तक 'त्रिशविका' में लिखते हैं कि- "यदि किसी में शून्य से जोड़ दे तो उस संख्या में कोई परिवर्तन नहीं होता है और यदि किसी संख्या में शून्य से गुणा करते हैं तो गुणनफल भी शून्य ही मिलता है।"[2]

अन्य देशों में शून्य का पहुँचना

7वीं शताब्दी, जो कि ब्रह्मगुप्त का काल थी, शून्य से संबंधित विचार कम्बोडिया तक पहुंच चुके थे और दस्तावेजों से ज्ञात होता है कि बाद में ये कम्बोडिया से चीन तथा अरब जगत में फैल गए। मध्य-पूर्व में स्थित अरब देशों ने भी शून्य को भारतीय विद्वानों से प्राप्त किया। अंततः 12वीं शताब्दी में भारत का यह शून्य पश्चिम में यूरोप तक पहुंचा। भारत का 'शून्य' अरब जगत में 'सिफर' (अर्थ- खाली) नाम से प्रचलित हुआ, फिर लैटिन, इटैलियन, फ्रेंच आदि से होते हुए इसे अंग्रेज़ी में 'जीरो' (zero) कहते हैं। शून्य में किसी भी संख्या से भाग देने पर शून्य ही फल मिलता है। 500 वर्षों से अधिक के बाद भास्कराचार्य (1114-1185) ने इस शून्य द्वारा भाग देने का सही उत्तर दिया कि- "उसका फल अनंत है" और उन्होंने उसे समझाया भी था- "अनंत संख्या में से कुछ घटाने पर या कुछ जोड़ने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।"

यद्यपि शून्य के आविष्कार के बारे में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता, किंतु इतना सब मानते हैं कि अन्य अंकों की भाँति इसकी खोज भी भारत में हुई थी। ब्रह्मगुप्त को शून्य की संकल्पना का बोध था। अरबवासियों ने भारत से शून्य तथा अन्य अंकों को लिया और उनका तथा स्थैतिक मान[4] के आधार पर संख्या लेखन का प्रचार 719 ई. से स्पेन और अन्य यूरोपीय देशों में किया। 12वीं शताब्दी के महानतम, भारतीय गणितज्ञ आर्यभट्ट ने शून्य की क्रियाओं के 8 नियम दिए। ऐसे भिन्न को, जिसका 'हर'[5] शून्य और 'अंश'[6] कोई अन्य संख्या हो, आर्यभट्ट ने 'अनंत'[7] की संज्ञा दी। शून्य को अरबवासियों ने 'सिफर' कहा और उसके लैटिन अनुवाद के अपभ्रंश से अंग्रेज़ी रूपांतर 'ज़ीरो' बना। ज्ञानविकास के इतिहास में शून्य और अंकों के स्थैतिक मान के आविष्कार का प्रमुख स्थान है।[8]

गुण

  • शून्य का संकेत '0' है तथा यह सबसे छोटा अंक है। किसी संख्या में शून्य को जोड़ने अथवा घटाने पर संख्या का मान अपरिवर्तित रहता है।
उदाहरण-

25 + 0 = 25 तथा 25 - 0 = 25

  • शून्य को किसी संख्या से गुणा करने अथवा भाग देने पर गुणनफल अथवा भागफल शून्य आता है, जैसे- 0 X 25 = 0 तथा 0/25 = 0 । इसके विपरीत जब किसी संख्या को शून्य से भाग दिया जाता है तो भागफल अनन्त आता है, जैसे- 25/0 = अनंत (∞) अथवा 1/0 = अनंत (∞)
  • शून्य का शून्य से गुणनफल तथा भागफल अपरिभाषित[9] है। जैसे 0 X 0 = अपरिभाषित तथा 0/0 = अपरिभाषित।
  • शून्य में से किसी संख्या को घटाने पर संख्या का मान ऋणात्मक हो जाता है, जैसे- 0-25 = -25 तथा 0-1 = -1
  • शून्य का न तो कोई चिह्न होता है और न ही कोई मान। इसका मान उसके स्थान पर निर्भर करता है।
  • किसी संख्या के बाई ओर शून्य लगाने पर संख्या का मान अपरिवर्तित रहता है, किन्तु दाहिनी ओर लगाने पर संख्या का मान दस गुणा हो जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. additive identity
  2. 2.0 2.1 2.2 2.3 शून्य का आविष्कार, जानिए सच्चाई क्या है (हिन्दी) वेबदुनिया। अभिगमन तिथि: 20 मार्च, 2016।
  3. चाणक्य के बाद
  4. position value
  5. denominator
  6. numerator
  7. Infinity
  8. सं.ग्रं. - केंटर : हिस्ट्री ऑव मैथेमैटिक्स; डिक्सन : हिस्ट्री ऑव दि थ्योरी ऑव नंबर्स; वि. दत्त और ए.एन. सिंह : हिस्ट्री ऑव हिंदू मैथेमैटिक्स (१९३५ ई.); जे.एफ. स्टॉक : ए हिस्ट्री ऑव मैथेमैटिक्स (१९५८ ई.)।
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बाहरी कड़ियाँ

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