महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 3 श्लोक 1-19

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तृतीय (3) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

कर्ण को ब्रह्मास्त्र की प्राप्ति और परशुराम जी का शाप

नारद जी कहते हैं- राजन! कर्ण के बाहुबल, प्रेम, इन्द्रिय संयय तथा गुरूसेवा से भृगश्रेष्ठ परशुराम जी बहुत संतुष्ट हुये। तदनन्तर तपस्वी परशुराम ने तपस्या में लगे हुए कर्ण को शान्त भाव से प्रयोग और उपसंहार विधि सहित सम्पूर्ण ब्रह्मास्त्र की विधिपूर्वक शिक्षा दी। ब्रह्मास्त्र का ज्ञान प्राप्त करके कर्ण परशुराम जी के आश्रम में प्रसन्नता पूर्वक रहने लगा। उस अद्भुत पराक्रमी वीर ने धनुर्वेद के अभ्यास के लिये बड़ा परिश्रम किया। तत्पश्चात् एक समय बुद्धिमान परशुराम जी कर्ण के साथ अपने आश्रम के निकट ही घूम रहे थे। उपवास करने के कारण उनका शरीर दुर्बल हो गया था। कर्ण के ऊपर उनका पूरा विश्वास होने के कारण उसके प्रति सौहार्द हो गया था। वे मन-ही-मन थकावट का अनुभव कर रहे थे, इसलिये गुरूवर जमदग्निनन्दन परशुराम जी, कर्ण की गोद में सिर रखकर सो गये। इसी समय लार, मेदा, मांस और रक्त का आहार करने वाला एक भयानक कीड़ा, जिसका स्पर्श (डंक मारना) बड़ा भयंकर था, कर्ण के पास आया। उस रक्त पीने वाले कीड़े ने कर्ण की जाँघ के पास पहुँच कर उसे छेद दिया; परंतु गुरूजी के जागने के भय से कर्ण न तो उसे फेंक सका और न मार ही सका। भरतनन्दन! वह कीड़ा उसे बार बार डँसता रहा, तो भी सूर्यपुत्र कर्ण ने कहीं गुरूजी जाग न उठें, इस आशंका से उसकी उपेक्षा कर दी। यद्यपि कर्ण को असहय वेदना हो रही थी तो भी वह धैर्य पूर्वक उसे सहन करके कम्पिय और व्यथित न होता हुआ परशुरामजी को गोद में लिये रहा। जब उसका रक्त परशुराम जी के शरीर में लग गया, तब वे तेजस्वी भार्गव जाग उठे और भयभीत होकर इस प्रकार बोले- ’अरे! मैं तो अशुद्ध हो गया! तू यह क्या कर रहा है? भय छोड़कर मुझे इस विषय में ठीक-ठीक बता’। तब कर्ण ने उनसे कीड़े के काटने की बात बतायी। परशुराम जी ने भी उस कीड़े को देखा, वह सूअर के समान जान पड़ता था। उसके आठ पैर थे और तीखी दाढ़ें। सुई जैसी चुभने वाली रोमावलियों से उसका सारा शरीर भरा तथा रूंधा हुआ था। वह ’अलर्क’ नाम से प्रसिद्ध कीड़ा था। परशुराम जी की दृष्टि पड़ते ही उसी रक्त से भीगे हुए कीडे़ ने प्राण त्याग दिये, वह एक अद्भुत सी बात हुई है। तदनन्तर आकाश में सब तरह के रूप धारण करने में समर्थ एक विकराल राक्षस दिखायी दिया, उसकी ग्रीवा लाल थी और शरीर का रंग काला था, वह बादलों पर आरूढ़ था। उस राक्षस ने पूर्ण मनोरथ हो, हाथ जोड़कर परशुरामजी से कहा- ’भृगश्रेष्ठ ! आपका कल्याण हो। मैं जैसे आया था, वैसे लोट जाऊँगा। मुनिप्रवर! आपने इस नरक से मुझे छुटकारा दिला दिया। आपका भला हो, मैं आपको प्रणाम करता हूँ, आपने मेरा बड़ा प्रिय कार्य किया है।' तब महाबाहु प्रतापी जमदग्निनन्दन परशुराम ने उससे पूछा- ’तू कौन है? और किस कारण से इस नरक में पड़ा था? बतलाओ।'

उसने उत्तर दिया- ’तात! प्राचीन काल के सत्ययुग की बात है। मैं दंश नाम से प्रसिद्ध एक महान् असुर था। महर्षि भृगु के बराबर ही मेरी भी अवस्था रही।’


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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