त्याग प्रथा

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त्याग प्रथा राजस्थान में प्रचलित थी। राजस्थान में क्षत्रिय जाति में विवाह के अवसर पर भाट आदि लड़की वालों से मुॅंह मांगी दान-दक्षिणा के लिए हठ करते थे, जिसे त्याग कहा जाता था। त्याग की इस कुप्रथा के कारण भी प्रायः कन्या का वध कर दिया जाता था। सर्वप्रथम 1841 ई. में जोधपुर राज्य में ब्रिटिश अधिकारियों के सहयोग से नियम बनाकर त्याग प्रथा को सीमित करने का प्रयास किया गया।

क्या है त्याग प्रथा

राजपूत जाति में विवाह के अवसर पर राज्य के तथा राज्य के बाहर से चारण-भट, ढोली आ जाते थे तथा मुंह-मांगी दान-दक्षिणा प्राप्त करने का हठ करते थे। चाराणों, भाटों व ढोलियों को दी जाने वाली यह दान दक्षिणा त्याग कहलाती थी। इसी प्रकार अन्य द्विज जातियों से कुम्हार, माली, नाई आदि नेग लिया करते थे। मुंहमांगी दान दक्षिणा नहीं मिलने पर उस परिवार का सामाजिक उपहास किया जाता था। चारणो की माँग पूर्ति के लिए व्यक्ति को असह्य व्यय-भार उठाना पड़ता था। लड़की के पिता के लिए तो यह व्यय-भार और भी अधिक हो जाता था। एक तरफ जब कन्या-वध की प्रथा को गैर कानूनी घोषित कर दिया गया था, तब उसे सफल बनाने के लिए इस त्याग समस्या का हल करना आवश्यक हो गया था।

त्याग प्रथा के अन्तर्गत अधिकतम त्याग की राशि देकर लोग अपनी प्रतिष्ठा व आर्थिक स्थिति को ऊपर दिखाने की कोशिश करते थे और इसी तरह के अहं प्रदर्शन की प्रतिस्पर्द्धा के कारण यह प्रथा अत्यन्त ही विकृत रूप धारण करने लगी थी।

अंत

सर्वप्रथम 1841 ई. में जब जोधपुर राज्य ने त्याग के सम्बन्ध में नियम बनाये, तब ब्रिटिश सरकार ने राजपूताना के अन्य शासकों को भी इस प्रकार के नियम जारी करने के सम्बन्ध में विशेष खरीते भेजे। फलस्वरूप महाराणा सरदार सिंह ने 1844 ई. में तथा महाराणा स्वरूपसिंह ने 1855 ई. व 1860 ई. में त्याग करने तथा सामाजिक-आर्थिक प्रदर्शनों की प्रतिस्पर्द्धा रोकने के लिए राजकीय आदेश जारी किये। इन आदेशों के अंतर्गत दूसरे राज्यों के चारण-भाटों को उदयपुर आने से रोक लगा दी गयी और उदयपुर के चारण-भाटों का अन्य राज्यों में त्याग मांगने के लिए जाने पर प्रतिबंध लगा दिया। इन आदेशों से त्याग की समस्या काफी अंशों तक हल हो गयी।

हितकारिणी सभा

सन 1888 ई. में राजपूताने के ए.जी.जी. कर्नल वाज्टर ने राजपूतों व चारणों में प्रचलित सामाजिक-आर्थिक प्रतिस्पर्धा को रोकने, शादी और गर्मी में होने वाले खर्चे में कमी करने, लड़के-लड़कियों की विवाह योग्य आयु का नियमन कर अनमेल विवाह की भावना जागृत करने आदि के लिये वाल्टर कृत राजपुत्र 'हितकारिणी सभा' की स्थापना की गई। इस सभा की प्रथम बैठक अजमेर में 1888 ई. में हुई, जिसमें प्रस्ताव पारित किया कि चारण- भाटों व ढोलियों को त्याग केवल लड़के के पिता द्वारा किया जायेगा तथा प्रत्येक राजपुत्र जागीरदार व शासक अपने ज्येष्ठ पुत्र के प्रथम विवाह पर, अपनी वार्षिक आय के 09 प्रतिशत से अधिक त्याग नहीं देगा और दूसरे पुत्रों व भाइयों के विवाह पर 01 प्रतिशत से अधिक त्याग नहीं देगा। इस सभा की बैठक प्रतिवर्ष अजमेर में होने लगी, जिसमें प्रत्येक राज्य में गठित स्थानीय समितियों की रिपोर्टों पर विचार किया जाता था। यह स्थानीय समितियाँ अपने-आप राज्यों में सभा के निर्णय लागू करवाती थीं तथा निर्णयों की अवहेलना करने वालों को चेतावनी अथवा दण्ड देती थीं। सभा की कार्यवाहियों का लाभ राजपूत जाति के साथ अन्य जातियाँ भी उठाने लगीं तथा उन जातियों के सामाजिक-आर्थिक व्यय पर नियंत्रण करने के लिये नियमों का निर्माण किया। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और 20वीं शताब्दी के आते-आते सुधारों के परिणाम दृष्टिगत होने लग गये थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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