पुलकेशी द्वितीय

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  • पुलकेशी प्रथम का पौत्र तथा चालुक्य वंश का चौथा राजा था, जिसने 609-42 ई. तक राज्य किया।
  • वह महाराजाधिराज हर्षवर्धन का समसामयिक तथा प्रतिद्वन्द्वी था। उसने 620 ई. में दक्षिण पर हर्ष का आक्रमण विफल कर दिया।
  • वातापी के चालुक्य वंश में पुलकेशी द्वितीय सबसे अधिक शक्तिशाली और प्रसिद्ध हुआ है। मंगलेश और पुलकेशी के गृह-कलह के अवसर पर चालुक्य वंश की शक्ति बहुत ही क्षीण हो गई थी और कीर्तिवर्मा प्रथम द्वारा विजित अनेक प्रदेश फिर से स्वतंत्र हो गए थे। इतना ही नहीं, अनेक अन्य राजाओं ने भी चालुक्य राज्य पर आक्रमण प्रारम्भ कर दिए थे। इस दशा में पुलेकशी द्वितीय ने बहुत धीरता और शक्ति का परिचय दिया। उसने न केवल विद्रोही प्रदेशों को फिर से विजय किया, अपितु अनेक नए प्रदेशों की भी विजय की।
  • राजसिंहासन पर आरूढ़ होने के बाद पुलकेशी द्वितीय ने मैसूर के गंग राजा, उत्तर कोंकण के मौर्य राजा और मलाबार के अनूप राजा को परास्त किया। लाटदेश (दक्षिणी गुजरात), मालवा और गुर्जरों ने भी पुलकेशी द्वितीय के सम्मुख सिर झुकाया और इस प्रकार उत्तर दिशा में भी उसने अपनी शक्ति का विस्तार किया। इतना ही नहीं, उत्तर-पूर्व की ओर आगे बढ़कर उसने दक्षिण कोशल और कलिंग को भी परास्त किया। दक्षिण दिशा में विजय यात्रा करते हुए पुलकेशी द्वितीय ने वंगि (कृष्णा और गोदावरी नदियों के बीच में स्थित) के राजा को जीता, और फिर पल्लव वंश के राजा को बुरी तरह परास्त कर वह कांची (काञ्जीवरम्) के समीप तक पहुँच गया। कावेरी नदी को पार कर इस प्रतापी चालुक्य राजा ने चोल, पांड्य और केरल राज्यों को अपनी अधीनता स्वीकृत करने के लिए विवश किया। इन विजयों के कारण पुलकेशी द्वितीय विन्ध्याचल के दक्षिण के सम्पूर्ण दक्षिणी भारत का अधिपति बन गया।
  • कन्नौज का सम्राट हर्षवर्धन, पुलकेशी द्वितीय का समकालीन था। वह भी उत्तरी भारत में अपने साम्राज्य की स्थापना में तत्पर था। नर्मदा नदी के उत्तर के सब प्रदेश उसकी अधीनता को स्वीकृत करते थे। वस्तुतः इस समय भारत में दो ही प्रधान राजशक्तियाँ थीं, उत्तर में हर्षवर्धन और दक्षिण में पुलकेशी द्वितीय।
  • यह स्वाभाविक था, कि उनमें संघर्ष होता। नर्मदा नदी के तट पर दक्षिणी और उत्तरी राजशक्तियों में घोर युद्ध हुआ जिसमें पुलकेशी द्वितीय हर्षवर्धन को परास्त करने में सफल हुआ। *हर्षवर्धन के साथ संघर्ष में विजयी होकर पुलकेशी सुदूर दक्षिण की विजय के लिए प्रवृत्त हुआ था, और उसने वेंगि और कांची का परास्त करते हुए चोल, पांड्य और केरल राज्यों को भी अपने अधीन किया था।
  • इस युग के अन्य भारतीय राजाओं के समान पुलकेशी द्वितीय भी किसी स्थायी साम्राज्य की नींव डाल सकने में असमर्थ रहा। पल्लव आदि शक्तिशाली राजवंशों के राजाओं को युद्ध में परास्त कर उन्हें वह अपना वशवर्ती बनाने में अवश्य सफल हुआ था, पर उसने उनका मूलोच्छेद नहीं किया था। इसीलिए जब पल्लवराज नरसिंह वर्मा ने अपने राज्य की शक्ति को पुनः संगठित किया, तो वह न केवल चालुक्य राज्य की अधीनता से मुक्त हो गया, अपितु एक शक्तिशाली सेना को साथ लेकर असने चालुक्यों के राज्य पर भी आक्रमण किया, और युद्ध में पुलकेशी को मारकर वातापी पर अधिकार कर लिया। इस युग की राजनीतिक दशा के स्पष्टीकरण के लिए इस घटना का महत्व बहुत अधिक है। जो पल्लववंश शुरू में चालुक्यों के द्वारा बुरी तरह परास्त हुआ था, एक नये महत्वाकांक्षी राजा के नेतृत्व में वह इतना अधिक शक्तिशाली हो गया था, कि उसने चालुक्य राज्य को जड़ से हिला दिया था। इस काल में साम्राज्यों के निर्माण और विनाश सम्राट के वैयक्तिक शौर्य और योग्यता पर ही आश्रित थे।
  • वह महान योद्धा था और उसने गुजरात, राजपूताना तथा मालवा को विजय किया। उसने कृष्णा और गोदावरी नदियों के बीच स्थित वेंगि का राज्य जीता और अपने भाई कुब्ज विष्णुवर्धन को वहाँ अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया। उसने दक्षिण भारत के चोल, पांड्य तथा केरल राज्यों को अपने अधीन कर लिया, पल्लव राजाओं से भी दीर्घकाल तक युद्ध किया और लगभग 609 ई. में राजा महेन्द्रवर्मा को परास्त कर दिया। उसकी कीर्ति सुदूरवर्ती फ़ारस देश तक पहुँच गयी थी। फ़ारस के शाह ख़ुसरो द्वितीय ने 625-26 ई. में पुलकेशी द्वितीय के द्वारा भेजे गये दूतमंडल से भेंट की थी। इसके बदले में उसने भी अपना दूतमंडल पुलकेशी द्वितीय की सेवा में भेजा। अजंता की गुफा संख्या 1 में एक भित्तिचित्र में फ़ारस के दूतमंडल को पुलकेशी द्वितीय के सम्मुख अपना परिचय पत्र प्रस्तुत करते हुए दिखाया गया है। चीनी यात्री ह्यु-एन-त्सांग 641 ई. में उसके राज्य में आया था और उसके राज्य का भ्रमण किया था। उसने पुलकेशी द्वितीय के शौर्य और उसके सामंतों की स्वामिभक्ति की प्रशंसा की है। किन्तु 642 ई. में इस शक्तिशाली राजा को पल्लव राजा नरसिंहवर्मा ने एक युद्ध में पराजित कर मार डाला। उसने उसकी राजधानी पर भी अधिकार कर लिया और कुछ समय के लिए उसके वंश का उच्छेद कर दिया।
  • अपने उत्कर्ष काल में चालुक्य साम्राज्य इतना विस्तृत और शक्तिशाली था, कि पुलकेशी द्वितीय ने ईरान के शाह ख़ुसरू द्वितीय के पास अपने राजदूत भेजे थे। ये दूत 652 ई. में ईरान गए थे। बदले में ख़ुसरू द्वितीय ने भी अपने दूत पुलकेशी की सेवा में भेजे।
  • अजन्ता के एक चित्र में एक ईरानी राजदूत के आगमन को अंकित भी किया गया है।



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