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#कैलिगस-ये चलनशील बहि:परजीवी (एक्टोपैरासाइट) मछली के जल-श्वसनिका-वेश्म (चेंबर) में रहते हैं। इनके शरीर की रचना बहुत भद्दी होती है; रस चूसने के लिए शोषणनलिकाएँ होती हैं।
 
#कैलिगस-ये चलनशील बहि:परजीवी (एक्टोपैरासाइट) मछली के जल-श्वसनिका-वेश्म (चेंबर) में रहते हैं। इनके शरीर की रचना बहुत भद्दी होती है; रस चूसने के लिए शोषणनलिकाएँ होती हैं।
 
#हर्पिल्लोबिअस-ये परजीवी वलयी (ऐनेलिड्स) में पाए जाते हैं। मादा एक थैली की तरह होती है, जो पोषिता के शरीर से मूलकों (रूटलैट्स) द्वारा आहार खींचती है। नर भी छोटी थेली के आकार के होते हैं।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1|लेखक= |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक= नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी|संकलन= भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=234 |url=}}</ref>
 
#हर्पिल्लोबिअस-ये परजीवी वलयी (ऐनेलिड्स) में पाए जाते हैं। मादा एक थैली की तरह होती है, जो पोषिता के शरीर से मूलकों (रूटलैट्स) द्वारा आहार खींचती है। नर भी छोटी थेली के आकार के होते हैं।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1|लेखक= |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक= नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी|संकलन= भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=234 |url=}}</ref>
 
 
 
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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==संबंधित लेख==
 
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07:55, 23 मार्च 2020 के समय का अवतरण

अरित्रपाद (कोपेपोडा) कठिनि (क्रस्टेशिआ) वर्ग का एक अनुवर्ग (सबक्लास) है। इस अनुवर्ग के सदस्य जल में रहनेवाले तथा कवच से ढके प्राणी हैं। अरत्रिपाद का अर्थ है अरित्र (नाव खेने के डांड़े) के सदृश पैरवाले जीव। कोपेपॉड का भी ठीक यही अर्थ है। इस अनुवर्ग में कई जातियां हैं। अधिकांश इतने सूक्ष्म होते हैं कि वे केवल सूक्ष्म दर्शी से देखे जा सकते हैं। खारे और मीठे दोनों प्रकार के पानी में ये मिलते हैं। संसार के सागरों में कहीं भी महीन जाल डालकर खींचने से इस अनुवर्ग के प्राणी अवश्य मिलते हैं। अमरीका के एक बंदरगाह के पास एक गज के जाल को 15 मिनट तक घसीटने पर लगभग 25,00,000 जीव अरित्रपाद अनुवंश के मिले। मछलियों के आहार में ये मुख्य अवयव हैं। अधिकांश अरित्रपाद स्वच्छंद विचरते रहते हैं और अपने से छोटे प्राणी और कण खाकर जीवित रहते हैं परंतु कुछ जाति के अरित्रपाद मछलियों के शरीर में चिपके रहते हैं और उनका रुधिर चूसते रहते हैं। स्वतंत्र रूप से मीठे या खारे पानी में तैरती हुई पाई जानेवाली जातियों के अच्छे उदाहरण मध्याक्ष (साइक्लॉप्स-सिर के बीच में आंखवाले) तथा कैलानस हैं।

नर मध्याक्ष (अधर दृश्य)

पत्रनाड़ी का शरीर खंडदार है; शीर्ष और वक्ष एक में (जिसे शीर्षोरस, सेफ़ालोथेरैक्स, कहते हैं), उदर (ऐब्डोमेन) प्राय: पृथक्‌ तथा आकार एक लंबी, पतली, बीच में संकरी, विलायती नाशपाती की तरह होता है। शीर्षोरस का ऊपरी आवरण उत्कवच (कैरापेस) कहलाता है। इसके अगले सिर के पृष्ठ पर बीच में एक चक्षु होता है जो मध्यचक्षु (मीडियम आइ) कहलाता है। अंतिम उदर तनूखंडक (एब्डॉमिनल सोमाइट=रउर के लंबे खंड) से दो घूआँयुक्तपुच्छकंटिका (प्लूम्ड कॉडल स्टाइल्स) जुड़ी रहती हैं। स्पर्शसूत्रक (ऐटेन्यूलस) बहुत लंबे, एकशाखी (युनिरैमस) तथा संवेदक होते हैं और प्रचलन के काम आते हैं। तीन या चार औरस द्विशाखी पैर भी होते हैं, जो पानी में तेज चलने के काम आते हैं।

इस अनुवर्ग के सदस्य खाद्य वस्तुओं को, जो पानी में मिलते हैं, अपने मुख की ओर स्पर्शसूत्र (ऐंटेनी) तथा जंभों (मैंडिबल्स, जबड़ों) से परिचालित करके और उपजंभ (मैक्सिली) से छानकर मुख में लेते हैं।

मध्याक्ष का बच्चा त्रयुंपाग

मादा मध्याक्षों (साइक्लॉप्स) में शुक्रधान (स्पर्माथीका =शुक्र रखने की थैली) छठे औरस खंड (थोरेसिक सेग्मेंट) में होता है। दोनों तरफ की अंडप्रणाली अंडस्यून (एग सैक) में खुलती है और शुक्रधान से भी संबंधित रहती है। नर शुक्रभर (स्पर्माटोफ़ोर) मादा के शरीर में प्रवेश करता है और निषेचन के बाद मादा निषिक्त अंडकोष, जब तक बच्चे अंड के बाहर नहीं निकलते, अंडस्यून में ही लिए फिरती है। बच्चे अंडे से निकलने पर त्युपांग (नाप्लिअस) कहलाते हैं। धीरे-धीरे और अधिक तनूखंडक तथा अपांग बनते हैं और इस तरह पांच लगातार पदों में त्यूपांग प्रौढ़ अवस्था (मध्याक्ष) को प्राप्त होता है।

परजीवी अरित्रपाद-इसमें नर अधिकांश में मादा से बहुत छोटे होते हैं। वे या तो स्वतंत्र रूप से रहते हैं या मादा से चिपटे रहते हैं। उनके शरीर का आकार और रचना मादा के शरीर की रचना से उच्च स्तर की होती है। जीवनचक्र बहुत ही जटिल एवं मनोरंजक होता है। मुख्य परजीवी अरित्रपाद निम्नलिखित हैं:

  1. अंकुशसूत्र (अर्गासिलस)-यह पर्ष मछली (मॉरोना लैब्राक्स) के गलफड़ों से चिपका रहता है। इसके उपांग बहुत छोटे होते हैं। स्पर्शसूत्र पोषिता (होस्ट) को पकड़ने के लिए अंकुश (हुक) या कांटों में परिणत हो जाते हैं।
  2. पालिकाय प्रजाति (ऐंथेसोमा)-यह शार्क मछलियों (लैम्नाकारनुबिका) के मुख में पाया जाता है। इसके शरीर का आकार अनेक अतिच्छादी पिंडकों के रहने से अन्य जातियों से बहुत भिझ होता है।
  3. विरूपा प्रजाति (निकोथी)-यह बड़े झोंगे (लाब्स्टर) की जल श्वसनिकाओं (गिल्स) में पाया जाता है। इसके स्पर्शसूत्र और मुखांग शोषण करनेवाले अंगों में परिवर्तित हो जाते हैं। वक्ष (उरस) से बड़े-बड़े पिंडक निकलने के कारण इसका रूप बहुत भद्दा लगता है।
    स्त्री मघ्याक्ष
  4. कास्यिजीविप्रजाति (कांड्राकैंथस)-यह अस्थिमत्स्य (बोनीफ़िश) की जलश्वसनिका में चिपटे हुए मिलते हैं। लंबाई में नर मादा का बारहवां भाग होता है। इसका शरीर अखंडित और चपटा होता है, जिससे बहुत से झुर्रीदार पिंडक निकले रहते हैं। नर सदा मादा से जननेंद्रिय के निकट चिपटा रहता है। इसका शरीर इतना भद्दा और कुरूप होता है कि यदि इसमें अंडस्यून न होते तो इसे अरित्रपाद नहीं कहा जा सकता था।
  5. कृमिकाय प्रजाति (लरनीआ)- यह कीड़े के आकार का होता है। इसके शीर के अगले सिरे पर पिंडक होते हैं। उपजंभ से यह पोषिता के चमड़े को छेदकर उसके शरीर से रस चूसता है- 1: स्पर्शसूत्र द्वितीय; 2: औरसपाद प्रथम; 3: औरसपाद द्वितीय; 4: अंडस्यून; 6: मध्याक्ष; 7: वृषण
  6. हूनशिर प्रजाति (लेसटीरा)- यह जेनिप्टेरेस ब्लेकोड्स नामक मछली में पाया जाता है। मादा की लंबाई अंडस्यून को छोड़कर 70 मिलीमीटर होती है। इसका सिर फूला हुआ होता है जो अपनी पोषिता मछली के चमड़े और मांसपेशियों के बीच में रहता है तथा बाकी धड़ पानी में लटकता रहता है।
  7. लंबकाय प्रजाति (ट्रेकेलिऐस्टिज)- यह अपने दूसरे उपजंभ द्वारा पोषिता से चिपटा रहता है।
  8. मांस्ट्रिला-यह प्राय: पुरुरोमिणों (पॉलिकीटा) में रहते हैं। इनका जीवनचक्र बड़ा जटिल होता है। नर एवं मादा तथा अंडे से निकले हुए त्यूपांग चलते-फिरते हैं। किंतु प्रौढ़ होने तक के बीच की अवस्थाओं में अपना आहार कई तरह से पुरुरोमिणों में परजीवी रहकर स्पर्शसूत्र द्वारा प्राप्त करते हैं।
  9. कैलिगस-ये चलनशील बहि:परजीवी (एक्टोपैरासाइट) मछली के जल-श्वसनिका-वेश्म (चेंबर) में रहते हैं। इनके शरीर की रचना बहुत भद्दी होती है; रस चूसने के लिए शोषणनलिकाएँ होती हैं।
  10. हर्पिल्लोबिअस-ये परजीवी वलयी (ऐनेलिड्स) में पाए जाते हैं। मादा एक थैली की तरह होती है, जो पोषिता के शरीर से मूलकों (रूटलैट्स) द्वारा आहार खींचती है। नर भी छोटी थेली के आकार के होते हैं।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 234 |

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