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Disamb2.jpg कुरु एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- कुरु (बहुविकल्पी)
कुरु महाजनपद
Kuru Great Realm

कुरु महाजनपद पौराणिक 16 महाजनपदों में से एक था। इसमें आधुनिक हरियाणा तथा दिल्ली का यमुना नदी के पश्चिम वाला अंश शामिल था। इसकी राजधानी आधुनिक दिल्ली (इन्द्रप्रस्थ) थी। पुराण वर्णित प्रसिद्ध राजा कुरु के नाम पर ही इसका यह नाम पड़ा था।

तथ्य

  1. एक प्राचीन देश जिसका हिमालय के उत्तर का भाग 'उत्तर कुरु' और हिमालय के दक्षिण का भाग 'दक्षिण कुरु' के नाम से विख्यात था। भागवत के अनुसार युधिष्ठर का राजसूय यज्ञ और श्रीकृष्ण का रुक्मिणी के साथ विवाह यहीं हुआ था।
  2. अग्नीध के एक पुत्र का नाम 'कुरु' था जिनकी स्त्री मेरूकन्या प्रसिद्ध है।
  3. वैदिक साहित्य में उल्लिखित एक प्रसिद्ध चंद्रवंशी राजा था। कुरु के पिता का नाम संवरण तथा माता का नाम तपती था। शुभांगी तथा वाहिनी नामक इनकी दो स्त्रियाँ थीं। वाहिनी के पाँच पुत्र हुए जिनमें कनिष्ठ का नाम जनमेजय था जिसके वंशज धृतराष्ट्र और पांडु हुए। सामान्यत: धृतराष्ट्र की संतान को ही 'कौरव' संज्ञा दी जाती है, पर कुरु के वंशज कौरव-पांडवों दोनों ही थे।

कुरु-जनपद

  • प्राचीन भारत का प्रसिद्ध जनपद जिसकी स्थितिं वर्तमान दिल्ली-मेरठ प्रदेश में थी। महाभारतकाल में हस्तिनापुर कुरु-जनपद की राजधानी थी। महाभारत से ज्ञात होता है कि कुरु की प्राचीन राजधानी खांडवप्रस्थ थी। कुरु-श्रवण नामक व्यक्ति का उल्लेख ऋग्वेद में है [1]
  • अथर्ववेद संहिता 20,127,8 में कौरव्य या कुरु देश के राजा का उल्लेख है।[2]
  • महाभारत के अनेक वर्णनों से विदित होता है कि कुरुजांगल, कुरु और कुरुक्षेत्र इस विशाल जनपद के तीन मुख्य भाग थे। कुरुजांगल इस प्रदेश के वन्यभाग का नाम था जिसका विस्तार सरस्वती तट पर स्थित काम्यकवन तक था। खांडव वन भी जिसे पांडवों ने जला कर उसके स्थान पर इन्द्रप्रस्थ नगर बसाया था इसी जंगली भाग में सम्मिलित था और यह वर्तमान नई दिल्ली के पुराने क़िले और कुतुब के आसपास रहा होगा।
  • मुख्य कुरु जनपद हस्तिनापुर (ज़िला मेरठ, उ.प्र.) के निकट था। कुरुक्षेत्र की सीमा तैत्तरीय आरण्यक में इस प्रकार है- इसके दक्षिण में खांडव, उत्तर में तूर्ध्न और पश्चिम में परिणाह स्थित था। संभव है ये सब विभिन्न वनों के नाम थे। कुरु जनपद में वर्तमान थानेसर, दिल्ली और उत्तरी गंगा द्वाबा (मेरठ-बिजनौर ज़िलों के भाग) शामिल थे।
  • पपंचसूदनी नामक ग्रंथ में वर्णित अनुश्रुति के अनुसार इलावंशीय कौरव, मूल रूप से हिमालय के उत्तर में स्थित प्रदेश (या उत्तरकुरु) के रहने वाले थें । कालांतर में उनके भारत में आकर बस जाने के कारण उनका नया निवासस्थान भी कुरु देश ही कहलाने लगा। इसे उनके मूल निवास से भिन्न नाम न देकर कुरु ही कहा गया। केवल उत्तर और दक्षिण शब्द कुरु के पहले जोड़ कर उनकी भिन्नता का निर्देश किया गया [3]
  • महाभारत में भारतीय कुरु-जनपदों को दक्षिण कुरु कहा गया है और उत्तर-कुरुओं के साथ ही उनका उल्लेख भी है। [4]
  • अंगुत्तर-निकाय में 'सोलह महाजनपदों की सूची में कुरु का भी नाम है जिससे इस जनपद की महत्ता का काल बुद्ध तथा उसके पूर्ववर्ती समय तक प्रमाणित होता है।
  • महासुत-सोम-जातक के अनुसार कुरु जनपद का विस्तार तीन सौ कोस था। जातकों में कुरु की राजधानी इन्द्रप्रस्थ में बताई गई है। हत्थिनापुर या हस्तिनापुर का उल्लेख भी जातकों में है। ऐसा जान पड़ता है कि इस काल के पश्चात् और मगध की बढ़ती हुई शक्ति के फलस्वरूप जिसका पूर्ण विकास मौर्य साम्राज्य की स्थापना के साथ हुआ, कुरु, जिसकी राजधानी इस्तिनापुर राजा निचक्षु के समय में गंगा में बह गई थी और जिसे छोड़ कर इस राजा ने वत्स जनपद में जाकर अपनी राजधानी कौशांबी में बनाई थी, धीरे-धीरे विस्मृति के गर्त में विलीन हो गया। इस तथ्य का ज्ञान हमें जैन उत्तराध्यायन सूत्र से होता है जिससे बुद्धकाल में कुरुप्रदेश में कई छोटे-छोटे राज्यों का अस्तित्व ज्ञात होता है।

कुरु एक प्राचीन जनपद। इसका उल्लेख उत्तर वैदिक युग से मिलता है। यह जनपद उत्तर तथा दक्षिण दो भागों में विभक्त था। कुरुओं का संबंध उत्तर में स्थित बाह्लीकों तथा महावृषों से अधिक घना था। पुरुरवा ऐल का पिता (मध्य एशिया) से मध्यप्रदेश आया था। प्रपंचसूदनी में कुरुओं को हिमालय पार के देश उत्तर कुरु का औपनिवेशिक बताया गया है। महाभारत में उत्तरकुरु को कैलास और बदरिकाश्रम के बीच रखा गया है। [5]

दक्षिण कुरु, उत्तर कुरु की अपेक्षा अधिक प्रसिद्ध है और वही कुरु के नाम से विख्यात है। यह जनपद पश्चिम में सरहिंद के पार्श्ववर्ती क्षेत्रों से लेकर सारे दक्षिणपश्चिमी पंजाब और उत्तर प्रदेश के कुछ पश्चिमी जिलों तक फैला हुआ था। ब्राह्मणों और उपनिषदों में कुरु और पांचाल का उल्लेख एक साथ हुआ है। किंतु दोनों की भौगोलिक सीमाएँ एक दूसरे से भिन्न थीं। कुरु के पूर्व में उत्तरी पांचाल तथा दक्षिण में दक्षिणी पांचाल के प्रदेश पड़ते थे। संभव है कि गंगा यमुना दोआब का कुछ उत्तरी भाग कुरुजनपद की सीमा में रहा हो। शतपथ ब्राह्मण में कुरु पांचाल को मध्यप्रदेश (ध्रुवामध्यमादिक्‌) में स्थित बताया गया है। मनुस्मृतिकार ने कुरु, मत्स्य, पांचाल और शूरसेन को ब्रह्मर्षियों का देश कहा है। महाभारत में वनवर्ष [6] कुरु की सीमा उत्तर में सरस्वती तथा दक्षिण में दृषद्वती नदियों तक बताई गई है। यह श्रीमद्भगवती और श्रीमद्भगवत का वह क्षेत्र है, जहाँ कौरवों और पांडवों के बीच भीषण और विनाशकारी युद्ध हुआ था। राजा ययाति और अनेक ऋषियों ने वहाँ अपने अनेकानेक यज्ञ किए थे। हस्तिनापुर इसकी राजधानी थी जो गढ़मुक्तेश्वर के पास गंगा के किनारे बसा था।

पालि साहित्य में भी कुछ के यथावसर अनेक उल्लेख मिलते हैं। अंगुत्तरनिकाय और महावंश में उसे प्राचीन भारत के १६ महाजनपदों में गिनाया गया है। त्रिपिटको की बुद्धघोषकृत टीकाओं में बुद्ध को कुरुओं के बीच अनेक बार उपदेश करते बताया गया है। कुरुधम्म जातक के अनुसार बोधिसत्व ने कुरुराज की रानी के गर्भ से जन्म लिया था। महासुतसोम जातक में कुरुराज्य का विस्तार ३०० योजन कहा गया है।

ऋग्वेद में कुरु जनपद के कुरुश्रवण, उपश्रवस्‌ और पाकस्थामन्‌ कौरायण जैसे कुछ राजाओं की चर्चा हुई है। कौरव्य और परीक्षित (अभिमन्युपुत्र परीक्षित नहीं) के उल्लेख अथर्ववेद में हैं। अधिकांश उपनिषदों और ब्राह्मणों की रचना कुरुपांचाल प्रदेशों में ही हुई थी। कुरु जनपद का इतिहास, विशद वर्णन महाभारत एवं पुराणों में मिलता है। उसका प्रारंभिक इतिहास तो पौरवों के इतिहास से संबद्ध है ही। परवर्तीकालीन इतिहास, कौरवों के नाम से प्रसिद्ध है। इसका परंपरागत इतिहास इस प्रकार है। स्वायंभुव मनु की पुत्री इला को बुध से पुरुरवा नामक पुत्र हुआ, जो चंद्रवंशी क्षत्रियों का प्रथम पुरुष था। नहुष और ययाति उसके वंश में अत्यंत प्रसिद्ध और पराक्रमी राजा हुए। ययाति के पुत्र पुरु के नाम पर पौरववंश का नाम पड़ा, जिसमें दुष्यंत के पुत्र भरत चक्रवर्ती सम्राट् हए। उसके बाद का मुख्य शासक संवरण का पुत्र कुरु था। उसी के वंश में आगे चलकर शांतनु हुए। शांतनु के पुत्र चित्रांगद और विचित्रवीर्य अधिक दिनों तक शासन नहीं कर सके और उनकी जल्दी ही मृत्यु हो गई। विचित्रवीर्य की रानियों से दो नियोगज पुत्र हुए-धृतराष्ट्र और पांडु। धृतराष्ट्र जन्म से ही अंधे थे, अत: पांडु को राजगद्दी मिली। पर वे भी जल्दी ही मर गए और धृतराष्ट्र ने राज्य की बागडोर अपने हाथों में ले ली। धृतराष्ट्र के गांधारी से दुर्योधनादि सौ पुत्र हुए, जो कौरव कहलाए। अंत में युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हुआ। वे भी बहुत दिनों तक शासन नहीं कर सके। कृष्ण की मृत्यु और यादवों के अंत का समाचार सुनकर उन्होंने राजगद्दी त्याग दी और अपने भाइयों के साथ तपस्या के लिए वन में चले गए। उनके बाद अर्जुन के पौत्र परीक्षित (अभिमन्यु के पुत्र) हस्तिनापुर में सिंहासनारूढ़ हुए। परीक्षित के सर्पों के काटने से मृत्यु की जो अनुश्रुति हैं, वह कदाचित्‌ तक्षशिला के तक्षकों अथवा नागों द्वारा हस्तिनापुर पर किए गए आक्रमण का संकेत करती है। परिक्षित के पुत्र और उत्तराधिकारी जनमेजय के नागयज्ञ की जो कथा है वह उनके तक्षशिला-विजय-प्राप्ति की कहानी हैं। ऐतरेय ब्राह्मण में भी उन्हें विजेता बताया गया है। इसी में उन्हें सार्वभौम बनने का महत्वाकांक्षी भी बताया गया है। जनमेजय के बाद शतानीक, अश्वमेघदत्त, अधिसीम कृष्ण तथ निचक्षु ने राज किया। इसी निचक्षु के राज्यकाल में हस्तिनापुर नगर गंगा की आप्लावित हो गया और उसके राज्य में टिड्डियों का भारी आक्रमण हुआ जिसके कारण निचक्षु और उसकी सारी प्रजा को हस्तिनापुर त्यागने को बाध्य होना पड़ा। वे इलाहाबाद के निकट कौशांबी चले आए। निचक्षु और कुरुओं के कुरुक्षेत्र से निकलने का उल्लेख शांख्यान श्रौतसूत्र में भी है। उसके अनुसार वृद्धद्युम्न से एक यज्ञ में भूल हो गई। उसके परिणामस्वरूप एक ब्राह्मण ने शाप दिया कि कुरुओं का निष्कासन हो जायेगा।[7]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कुरु श्रवणमावृणि राजानं त्रासदस्यवम्। मंहिष्ठंवाघता मृषि
  2. कुलायन कृण्वन कौरव्य: पतिरवदति जायया ।
  3. लॉ-ऐंशेंट मिडइंडियन क्षत्रिय ट्राइब्स, पृ0 16
  4. 'उत्तरै: कुरुभि: सार्ध दक्षिणा: कुरवस्तथा। विस्पर्धमाना व्यचरंस्तथा देवर्षिचारणै: आदि0 108,10
  5. म. भा. ३।१४५।१२-१९
  6. वनवर्ष, अध्याय ८३
  7. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 3 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 71-72 |

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