"कैसे कह दूँ कि मैं भी इंसा हूँ -आदित्य चौधरी" के अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
छो ("कैसे कह दूँ कि मैं भी इंसा हूँ -आदित्य चौधरी" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (अनिश्चित्त अवधि) [move=sysop] (अनिश्�)
पंक्ति 10: पंक्ति 10:
 
| style="width:35%"|
 
| style="width:35%"|
 
<poem style="color=#003333">
 
<poem style="color=#003333">
 +
कैसे कह दूँ कि मैं भी ज़िन्दा हूँ
 
कैसे कह दूँ कि मैं भी इंसा हूँ
 
कैसे कह दूँ कि मैं भी इंसा हूँ
कैसे कह दूँ कि मैं भी ज़िन्दा हूँ
 
  
 
उसने देखे थे यहाँ ख़ाब कई
 
उसने देखे थे यहाँ ख़ाब कई
पंक्ति 28: पंक्ति 28:
 
उसे उठाने के लिए तो सारा ज़माना था
 
उसे उठाने के लिए तो सारा ज़माना था
 
यूँ ही गिरी पड़ी रही बेसुध वो
 
यूँ ही गिरी पड़ी रही बेसुध वो
मगर मैं रूक न सका पल भर को
+
मगर मैं रुक न सका पल भर को
  
 +
कैसे कह दूँ कि मैं भी ज़िन्दा हूँ
 
कैसे कह दूँ कि मैं भी इंसा हूँ
 
कैसे कह दूँ कि मैं भी इंसा हूँ
कैसे कह दूँ कि मैं भी ज़िन्दा हूँ
 
 
</poem>
 
</poem>
 
| style="width:30%"|
 
| style="width:30%"|

11:57, 18 जनवरी 2013 का अवतरण

Copyright.png
कैसे कह दूँ कि मैं भी इंसा हूँ -आदित्य चौधरी

कैसे कह दूँ कि मैं भी ज़िन्दा हूँ
कैसे कह दूँ कि मैं भी इंसा हूँ

उसने देखे थे यहाँ ख़ाब कई
उसके छाँटे हुए कुछ लम्हे थे
सर्द फ़ुटपाथ पर पड़ी थी जहाँ बेसुध वो
वहीं छितरे हुए थे अहसास कई
लेकिन अब वो ख़्वाब नहीं सदमे थे

इक तरफ़ कुचला हुआ वो घूँघट था
जिसे उठना था किसी ख़ास रात
मगर वो रात अब न आएगी कभी
न शहनाई,न बाबुल, न सेहरा गाएगी कभी

लेकिन मुझे तो काम थे बहुत 
जिनसे जाना था
उसे उठाने के लिए तो सारा ज़माना था
यूँ ही गिरी पड़ी रही बेसुध वो
मगर मैं रुक न सका पल भर को

कैसे कह दूँ कि मैं भी ज़िन्दा हूँ
कैसे कह दूँ कि मैं भी इंसा हूँ