गुप्त साम्राज्य

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गुप्तवंश
शासक शासनकाल
1- चन्द्रगुप्त 319-335ई.
2- समुद्रगुप्त 335-375ई
3- रामगुप्त 375-375ई
4- चन्द्रगुप्त द्वितीय 375-414ई
5- कुमारगुप्त महेन्द्रादित्य 414-455ई
6- स्कन्दगुप्त 455-467ई
7- पुरुगुप्त 467-476ई.

इनके अतिरिक्त कुछ अन्य शासक नरसिंहगुप्त (बालदिल्य), कुमारगुप्त द्वितीय, बु़द्धगुप्त, वैन्यगुप्त, भानुगुप्त, कुमारगुप्त तृतीय, विष्णुगुप्त आदि में मिलकर कुल 476 ई. से 550 ई. तक शासन किया।

गुप्तकालीन प्रशासन

गुप्त सम्राटों के समय में गणतंत्रीय राजव्यवस्था का ह्मस हुआ। गुप्त प्रशासन राजतंत्रात्मक व्यवस्था पर आधारित था। देवत्व का सिद्वान्त गुप्तकालीन शासकों में प्रचलित था। राजपद वंशानुगत सिद्धान्त पर आधारित था। राजा अपने बड़े पुत्र को युवराज घोषित करता था। उसने उत्कर्ष के समय में गुप्त साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विंघ्यपर्वत तक एवं पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र तक फैला हुआ था।

गुप्त सम्राट न्याय, सेना एवं दीवानी विभाग का प्रधान होता था। प्रजा अपने राजा को पृथ्वी पर ईश्वर के प्रतिनिधि में रूप में स्वीकार करती थी। 'प्रयाग प्रशस्ति' में समुद्रगुप्त को पृथ्वी पर शासन करने वाला ईश्वर का प्रतिनिधि कहा जाता है। साथ ही इसकी तुलना कुबेर, वरुण, इन्द्रयमराज से की गई है। गुप्त सम्राट परम देवता, परभट्टारक, महाराजाधिराज, पृथ्वीपाल, परमेश्वर, सम्राट, एकाधिकार एवं चक्रवर्तिन, जैसी उपाधियां धाराण करता था। इससे यह संकेत मिलता है कि गुप्त राजाओं ने अपने साम्राज्य के भीतर छोटे-छोटे राजाओं पर शासन किया। मौर्योत्तर काल में उद्भुत सामन्तवाद अब जोर पकड़ने लगा। साम्राज्य के अधिकतर भाग सामन्तों के अधीन होते थे। वे सम्राट के दरबार में स्वयं उपस्थित होकर सम्मान निवेदन करते, नजराना चढ़ाते और विवाहार्थ अपनी पुत्री समर्पित करते। इसके बदले उन्हे अपने क्षेत्र पर अधिकार का सनद मिलता था। गुप्तकालीन रानियों को परमभट्टारिकाख् परभट्टारिकाराज्ञी एवं महादेवी जैसी उपाधियाँ दी गई।

सम्राट प्रशसन के कुशल संचालन हेतु एक मंत्रिमंडल का गठन करता था। इसमें अमात्य, सचिव एवं मंत्री होते थे। गुप्त कालीन अभिलेखों से निम्न मंत्रिमण्डलीय सदस्यों के विषयय में जानकारी मिलती है।

सदस्य विभाग

1- हरिषेण

यह समुद्रगुप्त का सन्धिविग्रहिक एवं महादण्डनायक था।

2- शाव (वीरसेन)

चन्द्रगुप्त द्वितीय का सन्धिविग्रहिक

3- शिखरस्वामी

चन्द्रगुप्त द्वितीय का मंत्री एवं कुमारामात्य

4- पृथ्वीषेण

कुमारगुप्त का मंत्री एवं कुमारामात्य


गुप्तकालीन अभिलेखों से प्राप्त केन्द्रीय अभिकारीगण 1. सर्वाध्यक्ष- राज्य के सभी केन्द्रीय विभाग का प्रमुख अधिकारी 2. प्रतिहार एवं महाप्रतिहार - सम्राट से मिलने की इच्छा रखने वालों को आज्ञापत्र देना इनका मुख्य कार्य था। प्रतिहार अन्तःपुर का रक्षक एवं महाप्रतिहार राजमहल के रक्षकों का मुखिया होताथा। 3. कुमारमात्य- पदाधिकारियों का सर्वश्रेष्ठ, वर्ग, इन्हे उच्च से उच्च पद पर नियुक्त किया जा सकता था। महादण्डनायक-

सदस्य विभाग

1- महासेनापति

सेना का सर्वोच्च अधिकार।

2- महापीलुपति

गजसेना का अध्यक्ष

3- महाश्वपति

अश्वसेना का अध्यक्ष

4- महासन्धिविग्रहिक

युद्ध और शांति का मंत्री

4- दण्ड पाशिक

पुलिस विभाग का मुख्य अधिकारी। इस विभाग के साधारण कर्मचारियों को चाट व भाट कहा जाता था।

5- विनय स्थिति स्थापक

सैनिकों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला प्रधान अधिकारी।

6- महाबलाधिकृत

सैनिक अधिकारी।

7- महादण्डनायग

युद्ध एवं न्याय-विभाग का कार्य देखने वाला।

8- महाभंडागाराधिकृत

राजकीय कोष का प्रधान

9- ध्रवीधिकरण

कर वसूलने वाले विभाग का प्रधान।

10- अग्रहारिक- दान

विभाग का प्रधान।

  • समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि हरिषण एक ही साथ कुमारामात्य, संधिविग्रहिक एवं महादण्डनायक का कार्य करता था।

प्रांतीय प्रशासन

कुशल प्रशासन के लिए विशाल गुप्त सम्राज्य कई प्रान्तों में बंटा था। प्रान्तों को देश, भुक्ति अथवा अवनी कहा जाता था। सम्राट द्वारा जो स्वयं शासित होता था उसकी सबसे बड़ी प्रशासनिक ईकाई देश या राष्ट्र कहलाती थी। जूनागढ़ अभिलेख मे सौराष्ट्र को एक देश कहा गया है। चन्द्रगुप्त के एक अभिलेख में सुकुती (मध्यभारत) नामक देश का उल्लेख मिलता है। देश का राष्ट्र का प्रशासक गोप्ता कहा जाता था। जूनागढ़ अभिलेख से ज्ञात होता है कि सुराष्ट्र के गोप्ता पर्णदत्त की नियुक्ति स्वयं गुप्त सम्राट ने की थी। गुप्तकालीन प्रांत प्रान्त क्षेत्र सौराष्ट्र जूनागढ़(गुजरात) पश्चिमी मालवा अवन्ति पूर्वी मालवा एरण तीरभुक्ति उत्तरी बिहार पुन्ड्रवर्द्धन उत्तरी बंगाल वर्द्धमान उत्तरी बंगाल मगध पश्चिमी बंगाल

भुक्ति के प्रशासन को ‘उपरिक‘ व ‘उपरिक महाराज‘ कहा जाता था। सीमा प्रान्तों के प्रशासक ‘गोष्ठा‘ कहलाये थे। इन पदों पर राजकुमार या राजवंश से सम्बन्धित व्यक्ति को ही नियुक्त किया जाता था। चन्द्रगुप्त द्वितीय का छोटा पुत्र गोविन्दगुप्त तीन भुक्ति का (आधुनिक दरभंगा) तथा कुमारगुप्त का प्रथम पुत्र घटोत्कचगुप्त पूर्वी मालवा का राज्यपाल था। गुप्तकालीन अभिलेखों में कुछ प्रांतीय प्रशासकों का विवरण मिलता है। इन शासकों को प्रान्तों में 5 वर्ष के लिए नियुक्त किया जाता था।

गुप्तकालीन प्रांतीय प्रशासन प्रान्तीय प्रशासक काल प्रान्त गोविन्द गुप्त चन्द्रगुप्त द्वितीय तीरभुक्ति घटोच्कच गुप्त कुमार गुप्त पूर्वी मालवा पर्णदत्त स्कन्दगुप्त सौराष्ट्र चिरादत्त कुमारगुप्त उत्तरी बंगाल

जनपद शासन

भुक्ति का विभाजन जनपदों में किया गया था। जनपदों को ‘विषय‘ कहा जताा था, जिसका प्रधान अधिकारी ‘विषयपति‘ होता था। विषयपति को कुमारामात्य भी कहा गया है। कुमारगुप्त प्रथम के मंदसौर अभिलेख में लाटा विषय का उल्लेख मिलता है। हूण शासक तोरमण के समय के एरण वराह अभिलेख में एरिकिरण विषय का वर्णन मिलता है। अंतर्वेदी विषय की नियुक्ति स्वयं सम्राट स्कंदगुप्त ने की थी।

विषयपति के अधीन कर्मचारियों में शामिल थे- (1) शौक्किक- कर वसूलने वाला। (2) गौल्मिक - स्थानीय फौज अथवा जंगलों का अधिकारी। (3) पुस्तपाल, करणिक- दस्तावेज संरक्षण विषयपति का प्रधान कार्यालय अधिष्ठान कहलाता है। विषयपति के सहयोग हेतु एक समिति होती थी। इनके सदस्यों को ‘ विषयमहत्तर‘ कहा जाता था, जिनमें निम्न वर्ग के लोग सदस्य होते थे- 1.नगरश्रेष्ठि (पूंजीपति वर्ग का नेता) 2. सार्थवाह (विषय के व्यापारियों का नेता), 3. प्रथम कुलिक (शिल्पियों व व्यवसायियों का मुखिया), 4. प्रथम कायस्थ (मुख्य लेखक)। ‘प्रस्तपाल‘ अभिलेखों को सुरक्षित रखने वाले अधिकारी को कहते थे। विषय वीथियों में बंटे थे विधि की समिति में भूस्वामियों एवं सैनिक कार्यों से सम्बद्ध व्यक्तियों को रखा गया था। वीथि से छोटी ईकाई पेठ थी। पेठ अनेक ग्राम के समूहों को कहा जाता था। यह ग्राम समूह की छोटी ईकाई थी। इसका उल्लेख संक्षोभ के खोह अभिलेख में मिलता है जहां ओपनी नामक ग्राम को कणनाग पेठ के अंतर्गत बताया गया है।

नगर प्रशासन

नगरों का प्रशासन नगर महापालिकाओं द्वारा चलाया जाता था। ‘पुरपाल‘ नगर का मुख्य अधिकारी होता था। वह कुमारामात्य के श्रेणी का अधिकारी होता था। जूनागढ़ लेख से ज्ञात होता है कि गिरनार नगर का पुरपाल चक्रपालित था। नगर के शासन के लिए नियुक्ति समिति को सम्भवतः ‘पौर‘ कहा जाता था।

ग्राम प्रशासन

‘ग्राम‘ शासन की सबसे छोटी ईकाई होती थी। ‘ग्राम सभा‘ द्वारा इसका प्रशासन संचालित होता था। ग्राम सभा का मुखिया ‘ग्रामिक‘ कहलाता था एवं सदस्यों को ‘महत्तर‘ कहा जाता था जो ग्राम के प्रतिष्ठित एवं कुलीन व्यक्तियोंा का प्रतिनिधित्व करते थे। कुछ गुप्तकालीन अभिलेखों में ग्राम सभा को ‘ग्राम जनपद‘ एवं ‘पंचमंडली‘ कहा गया है। गुप्त कालीन प्रशसनिक ईकाई अरोही क्रम में देश या राष्ट्रभुक्ति-विषय-बीधि-पेठ-ग्राम।

न्यायप्रशासन

सम्राट साम्राज्य का सर्वोच्च न्यायधीश होता था। इसके अतिरिक्त मुख्य न्यायधीश एवं अन्य न्यायाधीश होते थे। इस काल में अनेक विधि-ग्रंथ संकलित किए गए। पहली बार दीवानी और फौजदारी कानून भली-भांति परिभाषित और पृथक्कृत हुए। चोरी और व्याभिचार फौजदारी कानून में आए और सम्पत्ति सम्बन्धी विवाद दीवानी कानू में। व्यापारियों एवं व्यवसायियों की श्रेणी होती थी। ये श्रेणियां श्रेणीधर्म के आधार पर अपने विवादों का निपटारा करती थी। ‘पूग‘ नगर में निवास करने वाली विभिन्न जातियों की समिति होती थी। ‘कुल‘ समान परिवारों के सदस्यों की समिति होती थी। समितियां राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त थीं। ये समितियां आपसी विवाद में निर्णय देती थी। गुप्तकालीन अभिलेखों में न्यायाधीशों का उल्लेख महादण्डनायक, दण्डनायग एवं सर्वदण्डनायक के रूप में मिलता है।

सैनिक संगठन

राजा के पास स्थाई सेना थी। सेना के चार प्रमुख अंग थे- पदाति, रथरोही, अश्वारोही तथा गजसेना। सर्वाच्च सेनाधिकारी महाबलाधिकृत कहलाता था। हाथियों की सेना के प्रधान को महापीलुपति कहते थे। घुड़सवारों की सेना के प्रधान को भटाश्पति कहते थे। पदाति समानों की अवस्था करने वाले अधिकारी को रणभण्डागरिका कहते थे। पदाति सेना की टुकड़ी को चमूय कहा जाता था। गजसेना के नायक को कटुक तथा अश्वारोही सेना के प्रमुख को अटाश्वपति कहा जाता था। प्रयाग प्रशस्ति के गुप्तकाल के कुछ अस्त्र-शस्त्रों के नाम मिलते है जैसे- परशु, शर, शंकु, तोमर, मिन्दिपाल, नाराच आदि।

गुप्त काल में प्रशासन की एक मुख्य विशेषता यह थी कि इस समय वेतनों की अदायगी नकद में न देकर सामान्यतः भूमि अनुदान के रूप में की जाती थी। दो तरह का भूमि अनुदान प्रचलन में था। ‘अग्रहार‘ सिर्फ ब्राह्मणों को प्राप्त होने वाला अनुदान होता था। इसके अंतर्गत आने वाली भूमि कर मुक्त होती थी। इस भूमि पर ग्रहीता के वंशानुगत अधिकार के बाद भी राजा यदि ग्रहीता के व्यवहार से संतुष्ठ नहीं है तो वह इस भूमि को वापस ले सकता था। दूसरे प्रकार का भूमि अनुदान वह होता था जिसे राजा अपने अधिकारियों को उनकी सेवा के बदले उपहार के रूप में देता था। 5वी शती तक भूमिदान की प्रवृति में काफी परिवर्तन हुए और अब भूदान प्राप्तकर्ता को भूमि पर राजस्व प्राप्त करने के अधिकार के साथ-साथ उस भूखण्ड पर प्रशासन का भी अधिकार मिल गया। कालान्तर में इन दोनों अधिकारों से सुरक्षित वर्ग ही सामन्त कहलाया । सातवाहन काल से भूमिदान की प्रथा शुरू हुई। सर्वाधिक भूमि अनुदान गुप्तकाल में दिया गया । ग्रामीण भूमि स्वामी को ग्रामिका, कुटुम्बिका और नस्तर कहा जाता था। छोटे किसानों को कृषिवाला, कृषक और किसान कहा जाता था।

राजस्व के स्रोत

गुप्तकाल में राजकीय आय के प्रमुख स्रोत ‘कर‘ थे, जो निम्नलिखित हैं- भाग- राजा को भूमि के उत्पादन से प्राप्त होने वाला छठां हिस्सा। भोग- सम्भवतः राजा को हर दिन फल-फूल एवं सब्जियों के रूप में दिया जाने वाला कर। प्रणयकर- गुप्तकाल में ग्रामवासियों पर लगाया गया अनिवार्य या स्वेच्छा चन्दा था। भूमिकर भोग का उल्लेख मनुस्मृति में हुआ है। इसी प्रकार भेट नामक कर का उल्लेख हर्षचरित में आया है। उपरिकर एवं उद्रंगकर- यह एक प्रकार का भूमि कर होता था। भूमि कर की अदायगी दोनों ही रूपों में ‘हिरण्य‘ (नकद) या मेय (अन्न) में किया जा सकता था, किन्तु छठी शती के बाद किसानों को भूमि कर की अदायगी अन्न के रूप में करने के लिए बाध्य होना पड़ा। भूमि का स्वामी कृषकों एवं उनकी स्त्रियों से बेकार या विष्टि लिया करता था। गुप्त अभिलेखों में भूमिकर को उद्रंग या भागकर कहा गया है। स्मृति ग्रंथों में इसे ‘राजा की वृत्ति‘ के रूप में उल्लेख किया गया है।

हलदण्ड कर हल पर लगता था। गुप्तकाल में वणिकों, शिल्पियों, शक्कर एवं नील बनाने वाले पर राजकर लगता था। गुप्तकाल में राजस्व के अन्य महत्वपूर्ण स्रोतों में भूमि, रत्न, छिपा हुआ गुप्तधन, खान एवं नमक आदि थे। इन पर सीधे सम्राट का एकाधिपत्य होता था(नारद स्मृति) पर कदाचित् यदि इस तरह की खान या गुप्त धन किसी ऐसी भूमि पर निकल आये जो किसी को पहले से अनुदान में मिली है तो इस पर राजा का कोई भी अधिकार नहीं रह जाता था। संभवतः गुप्तकाल में भूराजस्व कुल उत्पादन का 1/4 से 1/6 तक होता था। स्मृतिकार मनु से ‘मनुस्मृति‘ कहा है कि भूमि पर उसी का अधिकार होता है जो भूमि को सर्वप्रथम जंगल से भूमि में परिवर्तित करता है। बृहस्पति और नारद स्मृतियों में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति का जमीन पर मालिका अधिकार तभी माना जा सकता है, जब उसके पास कानूनी दस्तावेज हो। इस समय प्रचलन में करीब 5 प्रकार की भूमि का उल्लेख मिलता है। 1. क्षेत्र भूमि- ऐसी भूमि जो खेती के योग्य होती हो। 2. वास्तु भूमि- ऐसी भूमि जो निवास के योग्य होती हो। 3. चारागाह भूमि - पशुओं के चारा योग्य भूमि 4. सिल - ऐसी भूमि जो जीतने योग्य नहीं होती थी। 5. अग्रहत - ऐसी भूमि जो जंगली होती थी। अमर सिंह ने ‘ अमरकोष‘ में 12 प्रकार की भूमि का उल्लेख किया है। ये हैं - 1. उर्वरा, 2.ऊसर, 3. मरु, 4. अप्रहत, 5. सद्वल, 6. पंकिल, 7. जल, 8. कच्छ, 9. शर्करा, 10, शर्कावती, 11. नदीमातृक, और 12 देवमातृक। कुषि से जुडे हुए कार्यो को महाक्षटलिक एवं कारणिक देखता था। गुप्तकाल में सिंचाई के साधनों के अभाव के कारण अधिकांश कृषि वर्षा पर आधारित थी। वराहमिहिर की वृहत्तसंहिता में वर्षा की संभावना और वर्षा के अभाव के प्रश्न पर काफी विचार विमर्श हुआ है। वृहत संहिता में ही वर्षा से होने वाली तीन फसलों का उल्लेख है। स्कन्दगुप्त में जूनागढ़, अभिलेख से यह प्रमाणित होता है कि इसने सुदर्शन झील की मरम्मत करवाई सिंचाई मंें ‘रहट‘ या घटीयंत्र या प्रयोग होता था। गुप्तकाल में सोना, चांदी, तांबा एवं लोहा जैसी धातुओं का प्रचलन था। पालने योग्य पशुओं में अमरकोष में घोड़े, भैंस, ऊंट, बकरी, भेड़, गधा, कुत्ता, बिल्ली आदि का विवरण प्राप्त होता है। ह्नेनसांग ने गुप्तकालीन फसलों के विषय में बताया है कि पश्चिमोत्तर भारत में ईख और गेहूं तथा मगध एवं उसके पूर्वी क्षेत्रों में चावल की पैदावार होती थी। अमरकोष में उल्लिखित कताई-बुनाई, हथकरघा एवं धागे के विवरण से लगता है कि गुप्तकाल में वस्त्र निर्माण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थी। श्रंेणियां, व्यवसायिक उद्यम एवं निर्माण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थी। श्रेणियां अपने आन्तरिक मामलों में पूर्ण स्वतंत्र होती थी। श्रेणी के प्रधान को ‘ज्येष्ठक‘ कहा जाता था। यह पद आनुवंशिक होता था। नालन्दा एवं वैशाली से गुप्तकालीन श्रेष्ठियों, सार्थवाहों एवं कुलिकों की मुहरें प्राप्त होती है। श्रेणियां आधुनिक बैंक का भी काम करती थी। ये धन को अपने पास जमा करती एवं ब्याज पर धन उधार देती थी। ब्याज के रूप में प्राप्त धन का उपयोग मंदिरों में दीपक जलाने के काम में किया जाता था। 437-38 ई के ‘मंदसौर अभिलेख‘ में रेशम बुनकरों की श्रेणी के द्वारा विशाल सूर्य मंदिर के निर्माण एवं मरम्मत का उल्लेख मिलता है। स्कन्दगंुप्त के इंदौर ताम्रपत्र अभिलेख में इंद्रपुर के देव विष्णु ब्राह्मण द्वारा ‘तैलिक श्रेणी‘ का उल्लेख मिलता है जो ब्याज के रुपये में से सूर्य मंदिर में दीपक जलाने में प्रयुक्त तेज के खर्च को वहन करता था। गुप्त काल में श्रेणी से बड़ी संस्था, जिसकी शिल्प श्रेणियां सदस्य होती थी, उसे निगम कहा जाता था। प्रत्येक शिल्पियों की अलग-अलग श्रेणियां होती थी। ये श्रेणियां अपने कानून एवं परम्परा की अवहेलना करने वालों को सजा देने का अधिकार रखती थीं। व्यापारिक का नंेतृत्व करने वाला ‘सार्थवाह‘ कहलाता था। निगम का प्रधान ‘श्रेष्ठि‘ कहलाता था। व्यापारिक समितियों को निगम कहते थे। गुप्तकालीन अभिलेख एवं उनके प्रवर्तक शासक/प्रर्वतक प्रमुख अभिलेख समुद्रगुप्त प्रयाग प्रशस्ति, एरण प्रशस्ति, गया ताम्र शासन लेख, नालंदा शासन लेख चन्द्रगुप्त द्वितीय सांची शिलालेख, उदयगिरि का प्रथम एवं द्वितीय शिलालेख, गढ़वा का प्रथम शिलालेख मथुरा स्तम्भ लेख, मेहरौली प्रशस्ति। कुमार गुप्त मंदसौर शिलालेख, गढ़वा का द्वितीय एवं तृतीय शिलालेख, विलसड़ स्तम्भ लेख उदयगिरि का तृतीय गुहालेख, मानकंुवर बुद्धमूर्ति लेख, कर्मदाडा लिंकलेख, धनदेह ताम्रलेख, किताईकुटी, ताम्रलेख बैग्राम ताम्रलेख, दामोदर प्रथम एवं द्वितीय ताम्रलेख। स्कन्दगुप्त जूनागढ़ प्रशस्ति, भितरी स्तम्भ लेख, सुपिया स्तम्भ लेख, कहांव स्तम्भ लेख, इन्दौर ताम्रलेख। कुमारगुप्त द्वितीय सारनाथ बुद्धमूर्ति लेख भानुगुप्त एरण स्तम्भ लेख। विष्णुगुप्त पंचम दोमोदर ताम्रलेख। बुद्धगुप्त एरण स्तम्भ लेख, राजघाट (वाराणसी) स्तम्भ लेख, पहाड़ ताम्रलेख, नन्दपुर ताम्रलेख चतुर्थ दामोदर ताम्रलेख। बैलगुप्त टिपरा (गुनईधर) ताम्रलेख।



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