जन की विकासशील भाषा हिन्दी -भागवत झा आज़ाद

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लेखक- श्री भागवत झा आज़ाद

          महात्मा गांधी ने हिन्दी को जनता की जाह्नवी कहा था। गांधी जी भाषाविद् या साहित्यकार नहीं थे। किंतु वे उन्हें भली भांति जानते व पहचानते थे, जिनके जातीय निर्माण के साथ साथ भाषा का उद्भव होता है। उनके ज्ञान के पीछे सुदीर्घ अनुभव और व्यापक जन संपर्क का आधार था। गंगोत्री से उदित होकर हरिद्वार के समतल तक आते आते गंगा में कई नदियां मिलती हैं, जैसे पिंडार, अलकनंदा, मंदाकिनी, भागीरथी आदि। ठीक इसी प्रकार हिन्दी भी कई जनपदीय एवं महाजनपदीय बोलियों और भाषाओं के मिलन का प्रतिफल है। जातीय विकास के साथ साथ भाषा के विकास का इतिहास भी निर्मित होता रहता है। इसलिए भाषा की विकास कथा में किसी भी समाज का सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रतिबिंब झलक मारता है। हिन्दी जिस मध्य देश की उदार और पावन पुनीत धरती से उपजी है, उसी धरती ने भारत के व्यक्तित्व को ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ और ‘सत्यमेव जयते’ की गरिमा से मंडित किया है। यहां कई जनपदों और महाजनपदों का महा संगम है। इसी धरती के अनुरूप यहां की यह भाषा हिन्दी अनेकानेक भाषाओं, बोलियों की सरस धाराओं के सम्मिलन से गहरी, व्यापक और उदार बन गई है।
          भाषा वैज्ञानिकों का मत है कि मानव समाज जब जन अर्थात कबीले के रूप में संगठित हो रहा था, तभी उस जन की भाषा विकसित होने लग गई होगी। भाषा का निर्माण तभी हो गया होगा, जब जन घुमंतू जीवन व्यतीत करने का आदी था। कृृषि सभ्यता के आते आते विभिन्न जनों की बोलियों अथवा भाषाओं ने एक निश्चित स्वरूप ग्रहण कर लिया होगा। इसमें हजारों साल लगे होंगे। इस क्रम में एक भाषा का दूसरे जन की भाषा पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। एक जन का दूसरे जन से मिलन होता ही होगा, उनके साथ विचारों का आदान प्रदान भी अनिवार्य था। इस प्रकार दो या तीन बोलियों अथवा भाषाओं के बीच शब्दों का आदान प्रदान भी होने लगा होगा।
          कृषि सभ्यता के अविर्भाव के बाद विभिन्न व्यवसायों के कारण व्यापार की शुरुआत हुई होगी। व्यापार की प्रक्रिया तब तक पूरी नहीं हो सकती जब तक कोई बाजार न हो। इस बाजार के कारण विभिन्न भाषाओं और बोलियों के विकसित और समृद्ध होने की असीम सम्भावनाएं उत्पन्न हो गईं होंगी। बाजार एक ऐसा केंद्र था जहां एक जनपद के लोग ही नहीं, विभिन्न जनपदों के लोग (जन) एकत्र होते होंगे। ऐसी स्थिति में इन जनों में से किसी एक की भाषा अपनी तेजस्विता और क्षमता के आधार पर, अपने जनपद की सीमा का अतिक्रमण करके विभिन्न जनपदों की संपर्क भाषा बन जाती होगी। संसार की जितनी भी समृद्ध एवं सशक्त भाषाएं हुई हैं उनका विकास काफी हद तक इसी क्रम में हुआ है।
          आचार्य दंडी के अनुसार, ‘यह सृष्टि अंधकार में डूब गई होती, यदि वाणी का आविर्भाव न हुआ होता।’ इस कथन में अतिशंयोक्ति हो सकती है, किंतु इसकी सार्थकता पर संदेह नहीं किया जा सकता। भाषा हमें एक दूसरे से जोड़ती है। इसके माध्यम से हम न केवल अपने परिवार और समाज से जुड़ते हैैं बल्कि इससे अपनी पहचान भी स्थापित करते हैं। भाषा हमारे मानवोचित गुणों और बुद्धि के विकास मे स्वाभाविक रूप से सहायक सिद्ध होती है। भाषा के माध्यम से हम केवल अपने विचारों का आदान प्रदान ही नहीं करते हैं बल्कि, हमारा आंतरिक चिंतन भी भाषा की सहायता से ही संभव होता है। यही कारण है कि जातीय संस्कृति और उसकी भाषा में गहरा संबंध है।
          सर्वविदित है कि भारत में चार भाषा परिवार हैं, आर्य भाषा परिवार, द्रविड़ भाषा परिवार, कोल भाषा परिवार और नागा भाषा परिवार। 1931 की जनगणना के अनुसार आर्य भाषा भाषी 73 प्रतिशत, द्रविड़ भाषा भाषी 20 प्रतिशत, निषाद (कोल) आर्य भाषा भाषी 1.3 प्रतिशत और किरात (नागा) भाषा भाषी 0.85 प्रतिशत थे। 1961 की जनगणना के अनुसार 1200 भाषाओं को मातृभाषा के रूप में लिखाया गया था। इन भाषा परिवारों में काफी भिन्नता रही है, किंतु यह नहीं कहा जा सकता कि एक भाषा का दूसरी भाषा पर प्रभाव बिल्कुल नहीं पड़ा। भाषा वैज्ञानिकों के अनुसार द्रविड़ भाषा परिवार की बहुत सी ध्वनियां यूरोपीय भाषाओं में परिलक्षित होती हैं, जबकि उनमें आर्य परिवार की की संस्कृत की ध्वनि का प्रभाव है। इसलिए यह कहना ठीक नहीं होगा कि आर्य भाषा परिवार और द्रविड़ भाषा परिवार में पूरी तरह संस्कृतिगत भिन्नता है। पश्चिमोत्तर भारत में द्रविड़ भाषा परिवार की उपस्थिति के प्रमाण मिले हैं।
          इधर बहुत से विद्वानों ने आर्य द्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता विषयक शोध कार्य के अंतर्गत आर्य भारतीय बोलियों की प्रकृति और आर्य द्रविड़ शब्द भंडार का साम्य दर्शाया है। इन विद्वानों में प्रमुख हैं प्रोफेसर एम. बी. एमेन्यू (केलिफोर्निया), डाॅ. भगवानदास, प्रोफेसर जीत्र सुन्दर रेड्डी, डाॅ. कैलाशचंद्र भाटिया आदि।
          प्राचीन काल से भारत का मध्यदेष धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक कार्य कलापों का प्रमुख केंद्र रहा है। मध्य प्रदेश वास्तव में वह भौगोलिक इकाई थी, जिसकी प्रतिष्ठा वैदिक, सांस्कृतिक एकता के आधार पर हुई। बीकानेर (जहां सरस्वती अंतर्धान हुई) से लेकर गंगा यमुना तक के प्रदेश और बिहार में सदानीरा (गंडकी) तक के क्षेत्र इसकी सीमा में आते थे। इसी मध्य देश में भारत की विभिन्न सशक्त भाषाओं छांदस, संस्कृत, पालि, प्राकृत, शौरसेनी, अपभ्रंश आदि का निर्माण हुआ। यही राम, कृष्ण, महावीर और बुद्ध की जन्मभूमि थी और यहीं वेदों और ब्राह्मण ग्रंथों की रचना हुई।
          सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद की रचना पश्चिमोत्तर भारत में शुरू हुई और गंगा यमुना के दोआब में आकर पूरी हुई। यह ग्रंथ छांदस भाषा में है। कुछ विद्वानों का मत है कि चूंकि ऋग्वेद छंद में लिखा गया है, इसलिए इसकी भाषा को छांदस कहा गया है। भाषा वैज्ञानिकों के अनुसार, प्रत्येक युग में परिनिष्ठित भाषा के समानांतर कोई न कोई तेजस्विनी, सशक्त, लोकभाषा भी विकसित होती रहती है। कोई भाषा तभी तक चहुंमुखी विकास कर पाती है जब तक उसका संपर्क आम जनता से रहता है। जीवित भाषा निरंतर विकासशील रहती है। व्याकरण की मर्यादाओं में आबद्ध होने के बाद परिनिष्ठित अथवा साहित्यिक भाषा जनता से दूर होने लगती है और वह अन्य लोक भाषाओं के शब्द भंडार उदारतापूर्वक ग्रहण करने में असमर्थ हो जाती है। इसलिए कुछ विद्वानों का विचार है कि छांदस के समानांतर लोकभाषा के रूप में कभी न कभी संस्कृत प्रचलित रही होगी। इस उक्ति मे कुछ विद्वानों का मतभेद है। डाॅ. सुनीति कुमार चाटुर्ज्या और पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी जैसे विद्वानों के विचार से यहां मूल भाषा प्राकृत रही होगी। प्राकृत को संस्कारित करके ही संस्कृत भाषा का निर्माण हुआ होगा, किंतु एक बात निश्चित सी है कि परिनिष्ठित अथवा साहित्यिक भाषा आम बोलचाल की भाषा नहीं होती।
          भगवान बुद्ध के आविर्भाव के समय संस्कृत एक परिनिष्ठित और साहित्यिक भाषा के रूप में संपूर्ण आर्यावर्त में फैल चुकी थी। भगवान बुद्ध के अनुयायियों ने उनके उपदेशों के प्रचार प्रसार के लिए संस्कृत को माध्यम न बनाकर, पालि भाषा को ही उपयुक्त समझा। इसका मात्र कारण यही था कि पालि उन दिनों सर्वव्यापी लोकभाषा थी। बौद्ध धर्म का माध्यम बनकर पालि भाषा भारत से बाहर अन्य देशों लंका, चीन, बर्मा में भी जा पहुंची, जहां बौद्ध धर्म का प्रकाश जा पहुंचा था।
          विस्तार में न जाकर यहाँ इतना लिखने से काम चल जाएगा कि पालि भाषा के परिनिष्ठित और मर्यादित होने के बाद प्राकृत शौरसेनी और अपभ्रंश जैसी लोकभाषा का परिनिष्ठित भाषा के रूप में विकास हुआ और कालांतर में दसवीं सदी के आस पास नव्य भारतीय आर्य भाषाओं का आविर्भाव हुआ। इन नव्य भारतीय आर्य भाषाओं ने दसवीं से चैदहवीं सदी के बीच स्वरूप ग्रहण कर लिया। इन भाषाओं में प्रमुख थी हिन्दी, बंगला, गुजराती, मराठी, पंजाबी, असमिया, उड़िया, सिंधी आदि। देश का राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक केंद्र और मध्य देश की प्रमुख भाषा के रूप में हिन्दी को ही प्रतिष्ठा मिली, जो विभिन्न जनपदीय भाषाओं के शब्द भंडार और साहित्य की सहायता से विकासशील और प्रवहमान बनी रही।
          भारत में हिन्दी को केवल भाषा नाम से अभिहित किया जाता था। समस्त भारतीय भाषाओं के लिए अरबी फारसी में ‘हिन्दवी’ शब्द का उपयोग छठी शताब्दी के बादशाह नौशेरवां (531-579 ई०) के दरबार मे रहने वाले विद्वान हकीम बजरोया की पुस्तक में मिलता है। हकीम बजरोया ने पंचतंत्र का अनुवाद ‘कलीला व दिमना’ (करकटक व दमनक) नाम से किया था। इस पुस्तक की भूमिका नौशेरवां के मंत्री बुजर्च मिहिर ने लिखी थी। उन्होंने भारतीय भाषाओं के लिए ‘हिन्दवी’ शब्द का पहले पहल प्रयोग किया था। कुछ विद्वानों का मत है कि भारत में पहली बार, अमीर खुसरो ने चैदहवीं सदी में मध्यदेश की भाषा के लिए ‘हिन्दी’ शब्द का प्रयोग किया।
          किंतु हम देखते हैं कि खुसरो के बहुत बाद कबीर, जायसी, तुलसीदास, केशवदास आदि महाकवियों ने मध्यदेश की सार्वदेशिक भाषा (‘हिन्दी’) के लिए केवल ‘भाषा’ शब्द का ही प्रयोग किया। उदाहरण के लिए:-

संस्कृत कबिरा कूप जल, भाषा बहता नीर -कबीर

आदि अन्त जसि कथ्था अहै, लिखत भाषा चैपाई कहे -जायसी

भाषा भनति मोर मति थोरी -तुलसीदास

          बहरहाल हिन्दी शब्द के भंवर जाल में न फसकर यह देखना चाहिए कि मध्यदेश की यह भाषा कब सार्वदेशिक भाषा हुई। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि खड़ी बोली हिन्दी के आदि कवि अमीर खुसरो का जन्म सन 1253 में उत्तर प्रदेश के एटा ज़िले में हुआ था। उनके पिता तुर्की के किसान थे। जाहिर है इनकी मातृभाषा न तो हिन्दी थी और न फारसी। यह भी अजीब बात है कि बाहर से आने वाले तुर्क, पठान या मुगल में से किसी की मातृभाषा फारसी नहीं थी किंतु इन लागों ने भारत में शासन स्थापित करने के बाद फारसी को ही राजभाषा बनाया क्योंकि उन दिनों फारसी का सांस्कृतिक प्रभुत्व न केवल ईरान में, बल्कि अरब और अफगानिस्तान में भी स्थापित हो गया था। इससे यह सिद्ध होता है कि भाषा का संबंध संस्कृति से गहरे रूप से जुड़ा है, धर्म से नहीं, अन्यथा उन सभी देशों की राजभाषा अरबी होती, जहां मुसलमानों का शासन था। अमीर खुसरो ने फारसी और संस्कृत के अतिरिक्त हिन्दी में भी रचनाएं की थी। उनकी पहेलियां और मुकरियां आज तक प्रचलित हैं। अमीर खुसरो निजामुद्दीन औलिया के शिष्य थे और जब उन्होंने औलिया के निधन का समाचार सुना तो दुख से वयग्र होकर लिखा:
गौरी सोवत सेज पर मुख पर डारे केस
चल खुसरो घर आपनों, रैन भयो चहु देस
          निश्चय ही आज हिन्दी में और खुसरो की इन पंक्तियों में बहुत अंतर नहीं है। मध्यदेश की लोकभाषा हिन्दी का प्रभाव महाराष्ट्र और गुजरात तक जा पहुंचा था। महाराष्ट्र के संत ज्ञानेश्वर (1275-76) की पंक्तिया, इस संदर्भ में पढ़ने योग्य हैं।
सब घट देखा माणिक मौला
कैसे कहूं मैं काला धवला
पंचरंग से न्यारा कोई,
लेना एक और देना दोई।।
          इसी प्रकार संत ज्ञानदेव जी गुजरात के नरसिंह मेहता ने इस भाषा में भजन लिखे। मध्यदेश की यह भाषा महाराष्ट्र के संतों तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि तमाशा नामक लोक नाट्य के माध्यम से आम जनता तक जा पहुंची थी। तमाशा के एक पात्र छड़ीदार की भाषा का नमूना देखिए:
छड़ीदार: हम छड़ीदार, पोशाक पेना (पहना) जड़ीदार, गले में डाला भाव मोतिन का हार,
               ज्ञान ध्यान की बांधी तलवार भगवान के नाम पुकारूं ललकार,
ये ही छड़ीदार कहलाते हैं।
पाटील: तुमने कहां नौकरी बनाई ?
छड़ीदार: दशावतार में।
पाटील: कौन से दश अवतार में ?
छड़ीदार: मच्छ, कच्छ, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, राम, श्रीकृष्ण, बौद्ध कलंकी ऐसे महाराज के देश अवतार मे नौकरी बनाई।
          कहा तो यह जाता है कि महाराष्ट्र में हिन्दी वाणी महानुभाव पंथ के प्रवर्तक चक्रधर (1194-1273) के माध्यम से ही पहुुंच गई थी। इधर बंगाल में प्रचलित ब्रजबुली के संबंध में सर्वविदित है कि यह मैथिली और ब्रजभाषा के मिलन से निर्मित भाषा थी। डाॅ. सुनीति कुमार चाटुज्र्या के अनुसार तुर्क लोगों के आने से पहले बंगाल में मातृभाषा के अलावा शौरसेनी या पछाई अपभ्रंश में भी वहां के बौद्ध ब्राह्मण धर्म कवि काव्य रचना करते थे। बंगाल से पठान राज्य की समाप्ति के बाद मुगल राज्य के प्रचार प्रसार के साथ ही बंगाल में हिन्दी को बढ़ावा मिला। डाॅ. सुनीति कुमार चाटुज्र्या ने 1948 में पेरिस की एक सभा में हिन्दी की वकालत करते हुए कहा था कि इसे राष्ट्रसंघ की भाषा बनाया जाना चाहिए। न जाने बाद में चलकर उन्हें क्या हुआ कि वे हिन्दी के विरोधी हो गये।
          गुरु गोरखनाथ ने अपने धर्म का प्रचार करने के लिए जिस भाषा (रेख्ता, साधुभाषा) का उपयोग किया वह हिन्दी ही थी, क्योंकि उसी भाषा के माध्यम से देश के विभिन्न क्षेत्रों तक विचारों का आदान प्रदान किया जा सकता था। आज भी दक्षिण के नाथपंथी मठों में हिन्दी की पांडुलिपियां उपलब्ध हैं। केरल में उसी भाषा को ‘गोसाई भाषा’ के नाम से पुकारा जाता था। सच तो यह है कि दक्षिण में ही आधुनिक हिन्दी का लालन पालन हुआ।
          अलाउद्दीन खिलजी दक्षिण अभियान, और तुगलक के राजधानी परिवर्तन (दिल्ली से देवगिरि) के कारण दिल्ली के बहुत हिन्दी भाषी निवासी दक्षिण जा पहुंचे और वहीं बस गये। इन लोगों के साथ जो भाषा हिन्दवी के नाम से दक्षिण में गई वह वहां ‘दक्खिनी’ नाम से प्रचलित हुई दक्षिण में बहमनी साम्राज्य ने उसी हिन्दवी को राजकाज की भाषा बनाया। अकबर के शासन से पहले तक, दक्षिण में निवास करने वाले मनीषियों, कवियों का सूफियों ने इसी भाषा में अपनी रचनाएं प्रस्तुत कीं। इस भाषा में मध्यदेश में बोली जाने वाली विभिन्न भाषाओं के शब्द भंडार उदारतापूर्वक शामिल किए जाते थे। जिस हिन्दी का उद्भव और विकास उत्तर भारत में हुआ, उसे तमाम उत्तर भारत के संतों, सूफियों और मनीषियों ने अपने विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया, उस हिन्दी को दिल्ली के शासकों ने राजभाषा का दर्जा नहीं दिया, लेकिन दक्षिण में जाकर उसे यह प्रतिष्ठा मिल गई।
          हिन्दी अपने उद्भव काल से ही विभिन्न प्रदेशों की संपर्क भाषा के रूप में प्रयुक्त होने लगी थी। मुगल शासन के दिनों में फारसी बेशक राजभाषा बनी रही, किंतु शासकों के महलों में हिन्दी ही बोलचाल की भाषा थी। डाॅ. रामविलास शर्मा के अनुसार अकबर के महल में बोलचाल की भाषा हिन्दी थी। जब औरंगजेब ने शाहजहां को जेल में डाल दिया तब शाहजहां ने अपना दु:ख एक हिन्दी सवैये में व्यक्त किया था, जो इस प्रकार है:-
जन्मत ही लख दान दियो,
अरु नाम रख्यो नवरंग बिहारी।
बालहि सो प्रतिपाल कियो,
अरु देस मुलुक्क दियौ बल भारी।।
सो सुत बेर बुझे मन में,
धरि हाथ दियो बंध सार में डारी।।
          अंग्रेजी हुकूमत स्थापित हो जाने के बाद अंग्रेज अफसर हिन्दी सीखते थे ताकि वे आम लोगों से सम्पर्क स्थापित कर सकें। दिल्ली के असिस्टेंट रेजीडेंट मैटाकाफ ने भी हिन्दी सीखी थी और उसने अपने गुरु गिलक्राइस्ट को पत्र लिखकर सूचित किया था कि वह भारत में जहां कहीं भी गया, हिन्दी की जानकारी होने के कारण उसे लागों से संपर्क स्थापित करने में कोई कठिनाई नहीं हुई।
          इस प्रकार हम देखते हैं कि मध्यदेश की जो हिन्दी दसवीं सदी के आस पास एक सीमित क्षेत्र सूरसैन प्रदेश (मथुरा के आस पास) में बोली जाती थी, वह विकसित होते होते इतनी सक्षम और प्रांजल हो गई कि उसे भारत के विभिन्न प्रदेशों की संपर्क भाषा के रूप में सहर्ष स्वीकार कर लिया गया। आज यदि हम फिल्म उद्योग को एक मापदंड माने तो इससे यह सिद्ध होता है कि भारत की अधिकांश जनता हिन्दी का समझती ही नहीं, बल्कि प्यार भी करती है। सन 1951 की जनगणना के अनुसार भारत में जितनी भी फिल्में बनती थीं, उनमें से आधी से अधिक केवल हिन्दी भाषा में बनती थीं और शेष भारत की अन्य सभी भाषाओं में।
          जब हमें अपने देश की महानता का परिचय देना होता है तब हम वेद, उपनिषद, रामायण, गुरुग्रंथ आदि का नाम लेते हैं, संत तुलसीदास, कबीर, सूर, कुतबन, मंझन, जायसी, रसखान आदि कवियों का नाम लेते नहीं थकते, किंतु जब राष्ट्रभाषा का प्रश्न आता है तो कुछ क्षेत्रों में आवाज उठती है कि यह भाषा अभी विकसित नहीं है, सक्षम नहीं है। इसे हम एक विडंबना ही मानेंगे। महात्मा गांधी ने कहा था ‘जिस भाषा में तुलसीदास ने रामायण लिखी, वह पवित्र और महान भाषा है।’
          किसी भी भाषा के निर्माण, विकास और उसके प्रतिष्ठापन में आम लोगों का प्रमुख हाथ रहता है। गांधी जी ने इस सत्य का अनुभव किया। दक्षिण अफ्रीका में, जहां भारत से गये हुए तमिल, तेलगू, बिहारी, गुजराती मजदूर जब आपस में मिल बैठकर बाते करते थे, तो उनकी भाषा एक तरह की हिन्दी ही होती थी। माॅरीशस में भी गांधी जी को यही अनुभव हुआ, जहां भारत से, विशेषकर बिहार से काफी संख्या में मजदूर जाकर बस गए थे।
          आज भी स्थिति वही है। दूर सुदूर दक्षिण के तमिलनाडु या केरल का जन मन हरिद्वार में बद्री विशाल की महिमा का गीत गाता सुनाई पड़ता है। इसी भाषा में कच्छ की जनता कामरूप में कामख्या के चरणों मे अर्घ्य चढ़ाती है तो इसी हिन्दी भाषा में जय घोष करती है। बिहार, बंगाल की भोली भाली जनता कन्याकुमारी की पूजा अर्चना करती हुई वहां की जनता से प्रेम संवाद इसी भाषा में करती है। कोई विद्धान कोई नेता, कोई नौकरशाह इनके बीच नहीं चाहिए। दुभाषिए की कोई आवश्यकता नहीं।
          विशाल भारत देश की जनता आज जितनी स्पष्ट और सुदृढ़ है वह इसी प्यारी जनता की आध्यात्मिक, सांस्कृतिक एकता के कारण। अंग्रेजी या अंग्रेजीदां का गर बस चला होता तो पता नहीं क्या हुआ होता।
          तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन हिन्दी के इसी गुण और गुणात्मक शक्ति का परिचायक है। चीनी, हिन्दी, अंग्रेजी संसार की उन भाषाओं में है जिनकें बोलने वाले संसार के अन्य भाषाभाषियों से अधिक हैं। और भाषा की नाई हिन्दी भी किसी विचार, किसी भावना, किसी विद्या, किसी ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र को उजागर करने में समर्थ है। अन्य भाषा के विद्वान हिन्दी के प्रति अपनी अज्ञानता को हिन्दी असमर्थता का पर्यायवाची मान लेते हैं। यह उनकी भारी भूल है। कंठ लंगोटी और धूम्रपान शकट विश्राम स्थान, हिन्दी का ‘न’ आदि है, ‘न’ अंत और ‘न’ अंतराल। हिन्दी इससे परे है। जन जन की भाषा, गांव गंवई की भाषा, देश की कोटि कोटि बहुभाषी जनता के हृदय की भाषा जो आवश्यकता पड़ने पर गया, तिरुपति, सोमनाथ, श्री शैले मल्लिकार्जुन में विभिन्न भाषा भाषियों में स्वयं प्रकट हो उठती है।
          यदि स्वराज अंग्रेजी पढ़े भारतवासियों का है और केवल उनके लिए है तो संपर्क भाषा अवश्य अंग्रेजी रहती रहेगी। यदि वह करोड़ों भूखे लोगों, करोड़ों निरक्षर लोगों, निरक्षर देवियों, सताये हुए अछूतों के लिए है तो संपर्क भाषा केवल हिन्दी ही हो सकती है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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