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अंग्रेज़ी की अग्रणी तोरु दत्त (जन्म- [[4 मार्च]], 1856 [[बंगाल]],मृत्यु- [[5 जुलाई]], [[1877]]) [[अंग्रेज़ी भाषा]] की सर्वश्रेष्ठ प्रतिभान्वित कवयित्री थी।
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तोरु दत्त (जन्म- [[4 मार्च]], 1856 [[बंगाल]],मृत्यु- [[5 जुलाई]], [[1877]]) [[अंग्रेज़ी भाषा]] की सर्वश्रेष्ठ प्रतिभान्वित कवयित्री थी।
 
==जीवन परिचय==
 
==जीवन परिचय==
तोरु दत्त का जन्म 4 मार्च 1856 को बंगाल में एक हिन्दू परिवार में हुआ था। तोरु दत्त जब केवल 6 वर्ष की थी, इनके परिवार ने [[ईसाई धर्म]] स्वीकार कर लिया। कुछ का मत है कि तोरु के जन्म से पूर्व ही परिवार ईसाई बन चुका था। इनके पिता गोविंद चंद्र दत्त इन्हें [[संस्कृत]] और प्राचीन भारतीय [[संस्कृति]] की शिक्षा दिलाने ने बड़ी रुचि लेते थे।  
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तोरु दत्त का जन्म 4 मार्च 1856 को बंगाल में एक [[हिन्दू]] परिवार में हुआ था। तोरु दत्त जब केवल 6 वर्ष की थी, इनके परिवार ने [[ईसाई धर्म]] स्वीकार कर लिया। कुछ का मत है कि तोरु के जन्म से पूर्व ही उनका परिवार ईसाई बन चुका था। इनके पिता गोविंद चंद्र दत्त इन्हें [[संस्कृत]] और प्राचीन भारतीय [[संस्कृति]] की शिक्षा दिलाने ने बड़ी रुचि लेते थे।  
==यात्रा==
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==विदेश यात्रा==
 
[[1868]] ई. में तोरु के परिवार ने यूरोप की यात्रा की। [[फ्रांस]] में तोरुको फ्रेंच भाषा सीखने का अवसर मिला। तोरु ने कैम्ब्रिज में अंग्रेज़ी का अध्ययन किया। तोरु दत्त विदेश में ही वह अंग्रेज़ी में कविताएँ लिखने लगी थीं। [[1873]] में तोरु का परिवार [[कोलकाता]] वापस आ गया।  
 
[[1868]] ई. में तोरु के परिवार ने यूरोप की यात्रा की। [[फ्रांस]] में तोरुको फ्रेंच भाषा सीखने का अवसर मिला। तोरु ने कैम्ब्रिज में अंग्रेज़ी का अध्ययन किया। तोरु दत्त विदेश में ही वह अंग्रेज़ी में कविताएँ लिखने लगी थीं। [[1873]] में तोरु का परिवार [[कोलकाता]] वापस आ गया।  
 
==ख्याति ==
 
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तोरु दत्त की ख्याति [[भारत]] की अंग्रेज़ी भाषा की श्रेष्ठ प्रतिभावान कवयित्री के रूप में है। इन्होंने साहित्य को अपने जीवन का मुख्य लक्ष्य बनाया। ये संस्कृत साहित्य के आधार पर [[सीता]], [[सावित्री]], [[लक्ष्मण]], [[ध्रुव]], [[प्रह्लाद]] आदि की कथाओं को अपनी प्रतिभा का पुट देकर अंग्रेज़ी काव्य में व्यक्त करने लगीं।  
 
तोरु दत्त की ख्याति [[भारत]] की अंग्रेज़ी भाषा की श्रेष्ठ प्रतिभावान कवयित्री के रूप में है। इन्होंने साहित्य को अपने जीवन का मुख्य लक्ष्य बनाया। ये संस्कृत साहित्य के आधार पर [[सीता]], [[सावित्री]], [[लक्ष्मण]], [[ध्रुव]], [[प्रह्लाद]] आदि की कथाओं को अपनी प्रतिभा का पुट देकर अंग्रेज़ी काव्य में व्यक्त करने लगीं।  
 
==मृत्यु==
 
==मृत्यु==
21 वर्ष की अल्प आयु में 5 जुलाई, 1877 में तोरु का देहांत न हो जाता तो अवश्य ही वह पूर्व और पश्चिम की संस्कृति के बीच साहित्यिक-सेतु का काम करती।<ref>{{cite book | last =लीलाधर | first =शर्मा  | title =भारतीय चरित कोश  | edition = | publisher =शिक्षा भारती | location =भारतडिस्कवरी पुस्तकालय  | language =[[हिन्दी]]  | pages =352| chapter = }}</ref>
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तोरु दत्त की मृत्यु 5 जुलाई, 1877 में हुई थी। अगर 21 वर्ष की अल्प आयु में तोरु का देहांत न हो जाता तो वह अवश्य ही पूर्व और पश्चिम की संस्कृति के बीच साहित्यिक-सेतु का काम करती।<ref>{{cite book | last =लीलाधर | first =शर्मा  | title =भारतीय चरित कोश  | edition = | publisher =शिक्षा भारती | location =भारतडिस्कवरी पुस्तकालय  | language =[[हिन्दी]]  | pages =352| chapter = }}</ref>
  
  

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तोरु दत्त (जन्म- 4 मार्च, 1856 बंगाल,मृत्यु- 5 जुलाई, 1877) अंग्रेज़ी भाषा की सर्वश्रेष्ठ प्रतिभान्वित कवयित्री थी।

जीवन परिचय

तोरु दत्त का जन्म 4 मार्च 1856 को बंगाल में एक हिन्दू परिवार में हुआ था। तोरु दत्त जब केवल 6 वर्ष की थी, इनके परिवार ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया। कुछ का मत है कि तोरु के जन्म से पूर्व ही उनका परिवार ईसाई बन चुका था। इनके पिता गोविंद चंद्र दत्त इन्हें संस्कृत और प्राचीन भारतीय संस्कृति की शिक्षा दिलाने ने बड़ी रुचि लेते थे।

विदेश यात्रा

1868 ई. में तोरु के परिवार ने यूरोप की यात्रा की। फ्रांस में तोरुको फ्रेंच भाषा सीखने का अवसर मिला। तोरु ने कैम्ब्रिज में अंग्रेज़ी का अध्ययन किया। तोरु दत्त विदेश में ही वह अंग्रेज़ी में कविताएँ लिखने लगी थीं। 1873 में तोरु का परिवार कोलकाता वापस आ गया।

ख्याति

तोरु दत्त की ख्याति भारत की अंग्रेज़ी भाषा की श्रेष्ठ प्रतिभावान कवयित्री के रूप में है। इन्होंने साहित्य को अपने जीवन का मुख्य लक्ष्य बनाया। ये संस्कृत साहित्य के आधार पर सीता, सावित्री, लक्ष्मण, ध्रुव, प्रह्लाद आदि की कथाओं को अपनी प्रतिभा का पुट देकर अंग्रेज़ी काव्य में व्यक्त करने लगीं।

मृत्यु

तोरु दत्त की मृत्यु 5 जुलाई, 1877 में हुई थी। अगर 21 वर्ष की अल्प आयु में तोरु का देहांत न हो जाता तो वह अवश्य ही पूर्व और पश्चिम की संस्कृति के बीच साहित्यिक-सेतु का काम करती।[1]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. लीलाधर, शर्मा भारतीय चरित कोश (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: शिक्षा भारती, 352।

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