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*[[चन्द्रशेखर आज़ाद]] के अनुरोध पर 'दि फिलॉसफी ऑफ़ बम' दस्तावेज तैयार करने वाले क्रांतिकारी भगवतीचरण वोहरा की पत्नी 'दुर्गा भाभी' नाम से मशहूर दुर्गा देवी बोहरा ने [[भगत सिंह]] को [[लाहौर ज़िला|लाहौर ज़िले]] से छुड़ाने का प्रयास किया।
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*सन् [[1928]] में जब अंग्रेज़ अफ़सर साण्डर्स को मारने के बाद भगत सिंह और [[राजगुरु]] [[लाहौर]] से [[कलकत्ता]] के लिए निकले, तो कोई उन्हें पहचान न सके इसलिए दुर्गा भाभी की सलाह पर एक सुनियोजित रणनीति के तहत भगत सिंह उनके पति, दुर्गा भाभी उनकी पत्नी और राजगुरु नौकर बनकर वहां से निकल लिये।
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*सन् [[1927]] में [[लाला लाजपतराय]] की मौत का बदला लेने के लिये लाहौर में बुलायी गई बैठक की अध्यक्षता दुर्गा भाभी ने की।
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'''दुर्गावती देवी''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Durgawati Devi'', जन्म- [[7 अक्टूबर]], [[1907]], [[इलाहाबाद]]; मृत्यु- [[15 अक्टूबर]], [[1999]], [[गाज़ियाबाद]]) [[भारत]] के [[स्वतंत्रता संग्राम]] में क्रान्तिकारियों की प्रमुख सहयोगी थीं। प्रसिद्ध क्रांतिकारी [[भगतसिंह]] के साथ इन्हीं दुर्गावती देवी ने [[18 दिसम्बर]], [[1928]] को वेश बदलकर कलकत्ता मेल से यात्रा की थी। [[चन्द्रशेखर आज़ाद]] के अनुरोध पर 'दि फिलॉसफी ऑफ़ बम' दस्तावेज तैयार करने वाले क्रांतिकारी [[भगवतीचरण बोहरा]] की पत्नी दुर्गावती बोहरा क्रांतिकारियों के बीच 'दुर्गा भाभी' के नाम से मशहूर थीं। सन [[1927]] में [[लाला लाजपतराय]] की मौत का बदला लेने के लिये [[लाहौर]] में बुलायी गई बैठक की अध्यक्षता दुर्गा भाभी ने की थी। तत्कालीन [[बम्बई]] के गर्वनर हेली को मारने की योजना में टेलर नामक एक [[अंग्रेज़]] अफ़सर घायल हो गया था, जिस पर गोली दुर्गा भाभी ने ही चलायी थी।
*बैठक में अंग्रेज़ पुलिस अधीक्षक जेए स्कॉट को मारने का जिम्मा वे खुद लेना चाहती थीं, पर संगठन ने उन्हें यह ज़िम्मेदारी नहीं दी।  
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==परिचय==
*तत्कालीन [[बम्बई]] के गर्वनर हेली को मारने की योजना में टेलर नामक एक अंग्रेज़ अफ़सर घायल हो गया, जिस पर गोली दुर्गा भाभी ने ही चलायी थी।
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{{main|दुर्गा भाभी का परिचय}}
*इस केस में उनके विरुद्ध वारण्ट भी जारी हुआ और दो वर्ष से ज़्यादा समय तक फरार रहने के बाद [[12 सितम्बर]] [[1931]] को दुर्गा भाभी लाहौर में गिरफ्तार कर ली गयीं।
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दुर्गावती देवी (दुर्गा भाभी) का जन्म 7 अक्टूबर सन 1907 को [[इलाहाबाद]], [[उत्तर प्रदेश]] के शहजादपुर नामक [[गाँव]] में पंडित बांके बिहारी के यहाँ हुआ था। उनके पिता इलाहाबाद कलेक्ट्रेट में नाजिर थे और उनके बाबा महेश प्रसाद भट्ट जालौन ज़िले में थानेदार के पद पर तैनात थे। उनके दादा पंडित शिवशंकर शहजादपुर में जमींदार थे, जो बचपन से ही दुर्गा भाभी की सभी बातों को पूर्ण करते थे। दस वर्ष की अल्प आयु में ही दुर्गा भाभी का [[विवाह]] लाहौर के [[भगवतीचरण बोहरा]] के साथ हो गया। दुर्गा भाभी के श्वसुर शिवचरण जी रेलवे में ऊंचे पद पर तैनात थे। [[अंग्रेज़]] सरकार ने उन्हें 'राय साहब' का खिताब दिया था।
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==क्रांतिकारी गतिविधियाँ==
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{{main|दुर्गा भाभी की क्रांतिकारी गविविधियाँ}}
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क्रांतिकारी भगवतीचरण बोहरा के साथ विवाह हो जाने के बाद दुर्गा भाभी शीघ्र ही वे अपने पति के कार्यों में सहयोग देने लगी थीं। उनका घर क्रांतिकारियों का आश्रयस्थल था। वे सभी का आदर करतीं, स्नेहपूर्वक उनका सेवा-सत्कार करतीं। इसलिए सभी क्रांतिकारी उन्हें 'भाभी' कहने लगे थे और यही उनका नाम प्रसिद्ध हो गया। अपने क्रांतिकारी जीवन में दुर्गा भाभी ने खतरा मोल लेकर कई बड़े काम किये। उनमें सबसे बड़ा काम था- [[लाहौर]] में [[लाला लाजपत राय]] पर लाठी बरसाने वाले सांडर्स पर गोली चलाने के बाद भगतसिंह को [[कोलकाता]] पहुँचाना।
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==भगतसिंह की सहायक==
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{{main|दुर्गा भाभी द्वारा भगतसिंह की सहायता}}
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[[19 दिसम्बर]], [[1928]] का दिन था। [[भगतसिंह]] और [[सुखदेव]] सांडर्स को गोली मारने के दो दिन बाद सीधे दुर्गा भाभी के घर पहुंचे। भगतसिंह जिस नए रूप में थे, उसमें दुर्गा उन्हें पहचान नहीं पाईं। भगतसिंह ने अपने बाल कटा लिए थे, हालांकि दुर्गा इस बात से खुश नहीं थीं कि स्कॉट बच गया; क्योंकि इससे पहले हुई एक मीटिंग में दुर्गा भाभी ने खुद स्कॉट को मारने का ऑपरेशन अपने हाथ में लेने की गुजारिश की थी, लेकिन बाकी क्रांतिकारियों ने उन्हें रोक लिया था। [[लाला लाजपत राय]] पर हुए लाठीचार्ज और उसके चलते हुई मौत को लेकर उनके दिल में काफ़ी गुस्सा भरा हुआ था। इधर [[लाहौर]] के चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात थी। दुर्गा ने उन्हें [[कोलकाता]] निकलने की सलाह दी। उस वक्त कांग्रेस का अधिवेशन कोलकाता में चल रहा था और भगवतीचरण बोहरा भी उसमें भाग लेने गए थे।
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==पति की मृत्यु==
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इधर 63 दिन की भूख हड़ताल के बाद लाहौर जेल में ही [[जतिन्द्रनाथ दास]] यानी जतिन दा की मौत हो गई तो उनकी लाहौर से लेकर [[कोलकाता]] तक ट्रेन में और कोलकाता में भी अंतिम यात्रा की अगुवाई दुर्गा भाभी ने ही की। इधर उनके पति [[भगवतीचरण बोहरा]] ने [[लॉर्ड इरविन]] की ट्रेन पर बम फेंकने के बाद [[भगतसिंह]], [[राजगुरु]] और [[सुखदेव]] समेत सभी क्रांतिकारियों को छुड़ाने की योजना बनाई और इसके लिए वह [[रावी नदी]] के तट पर लाहौर में बम का परीक्षण कर रहे थे। [[28 मई]], [[1930]] का दिन था कि अचानक बम फट गया और भगवतीचरण बोहरा की मौत हो गई। दुर्गा भाभी को बड़ा झटका लगा, लेकिन वह जल्द ही उबर गईं और देश की आज़ादी को ही अपने जीवन का आखिरी लक्ष्य मान लिया। तब दुर्गा भाभी ने अंग्रेज़ों को सबक सिखाने के लिए [[पंजाब|पंजाब प्रांत]] के पूर्व गवर्नर लॉर्ड हैली पर हमला करने की योजना बनाई। दुर्गा भाभी ने उस पर [[9 अक्टूबर]], 1930 को बम फेंक भी दिया। हैली और उसके कई सहयोगी घायल हो गए, लेकिन वह घायल होकर भी बच गया। उसके बाद दुर्गा भाभी बचकर निकल गईं, लेकिन जब [[मुंबई]] से पकड़ी गईं तो उन्हें तीन साल के लिए जेल भेज दिया गया। बताया तो ये भी जाता है कि [[चंद्रशेखर आज़ाद]] के पास आखिरी वक्त में जो माउजर था, वह भी दुर्गा भाभी ने ही उनको दिया था।
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==मांटेसरी स्कूल की शुरुआत==
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एक-एक करके जब सारे क्रांतिकारी इस दुनिया में नहीं रहे तो दुर्गा भाभी के लिए काफ़ी मुश्किल हो गई। बेटा भी बड़ा हो रहा था और पुलिस भी उन्हें बार-बार परेशान कर रही थी। [[लाहौर]] से उन्हें ज़िला बदर कर दिया गया। ऐसे में वह [[1935]] में [[गाज़ियाबाद]] निकल आईं, जहां उन्होंने एक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी कर ली। दो साल के लिए [[कांग्रेस]] के साथ भी काम किया, लेकिन फिर छोड़ दिया। फिर उन्होंने [[मद्रास]] जाकर मांटेसरी सिस्टम की ट्रेनिंग ली और फिर [[लखनऊ]] में कैंट रोड पर एक मांटेसरी स्कूल खोला। शुरू में जिसमें सिर्फ पांच बच्चे थे। आज़ादी के बाद उन्होंने सत्ता और नेताओं से काफ़ी दूरी बना ली। [[1956]] में जब [[जवाहरलाल नेहरू]] को उनके बारे में पता चला तो लखनऊ में उनके स्कूल में एक बार मिलने आए। नेहरू जी ने उनकी मदद करने की पेशकश भी की थी। कहा जाता है कि दुर्गा भाभी ने विनम्रता से मना कर दिया था। दुर्गा भाभी को मांटेसरी स्कूलिंग सिस्टम के शुरुआती लोगों में गिना जाता है।
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==मृत्यु==
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मीडिया और सत्ताधीशों को दुर्गा भाभी की आखिरी खबर [[15 अक्टूबर]], [[1999]] के दिन मिली, जब [[गाज़ियाबाद]] के एक कमरे में उनकी मौत हो गई। तब वह 92 साल की थीं। ये शायद उनके पति के विचारों का ही उन पर प्रभाव था कि पहाड़ जैसी जिंदगी अकेले ही और इतने साहस के साथ गुजार दी और ना जाने कितनों को साहस से जीने की प्रेरणा दी। दुर्गा भाभी ने देश के लिए, उसकी आज़ादी के लिए अपने पति, [[परिवार]], बच्चा और एक खुशहाल जीवन सब कुछ दांव पर लगा दिया, लेकिन आज़ादी के बाद जिस तरह से उन्होंने गुमनामी की चादर ओढ़ी और खुद को बच्चों की एजुकेशन तक सीमित कर लिया, वह वाकई हैरतअंगेज था। शायद ये उनके सपनों का [[भारत]] नहीं था, जैसा उन्होंने कभी कल्पना की थी।
  
  
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*[http://www.mainstree.com/krantikaari_durgabhabhi.html एक सक्रिय क्रांतिकारी दुर्गा भाभी]
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*[http://www.inkhabar.com/national/32114-durga-bhabhi-saved-life-bhagat-singh-during-freedom-movement बम-पिस्तौल से खेलने वाली दुर्गा भाभी ने बचाई थी भगत सिंह की जान]
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*[http://inextlive.jagran.com/durga-bhabhi-67299 दुर्गा भाभी ने देश के लिए दे दी जान]
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05:34, 7 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण

दुर्गा भाभी
दुर्गा भाभी
पूरा नाम दुर्गावती देवी
जन्म 7 अक्टूबर, 1907
जन्म भूमि शहजादपुर, इलाहाबाद, 1999
मृत्यु 15 अक्टूबर, 1999
मृत्यु स्थान गाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश
अभिभावक पिता- पंडित बांके बिहारी
पति/पत्नी भगवतीचरण बोहरा
नागरिकता भारतीय
प्रसिद्धि भारतीय क्रांतिकारी
धर्म हिन्दू
संबंधित लेख भगवतीचरण बोहरा, भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु, चंद्रशेखर आज़ाद
अन्य जानकारी 'असेम्बली बम कांड' के बाद भगतसिंह आदि क्रांतिकारी गिरफ्तार हो गए थे। दुर्गा भाभी ने उन्हें छुड़ाने के लिए वकील को पैसे देने की खातिर अपने सारे गहने बेच दिए। तीन हज़ार रुपए वकील को दिए। फिर महात्मा गाँधी से भी अपील की कि भगतसिंह और बाकी क्रांतिकारियों के लिए कुछ करें।
दुर्गा भाभी विषय सूची

दुर्गावती देवी (अंग्रेज़ी: Durgawati Devi, जन्म- 7 अक्टूबर, 1907, इलाहाबाद; मृत्यु- 15 अक्टूबर, 1999, गाज़ियाबाद) भारत के स्वतंत्रता संग्राम में क्रान्तिकारियों की प्रमुख सहयोगी थीं। प्रसिद्ध क्रांतिकारी भगतसिंह के साथ इन्हीं दुर्गावती देवी ने 18 दिसम्बर, 1928 को वेश बदलकर कलकत्ता मेल से यात्रा की थी। चन्द्रशेखर आज़ाद के अनुरोध पर 'दि फिलॉसफी ऑफ़ बम' दस्तावेज तैयार करने वाले क्रांतिकारी भगवतीचरण बोहरा की पत्नी दुर्गावती बोहरा क्रांतिकारियों के बीच 'दुर्गा भाभी' के नाम से मशहूर थीं। सन 1927 में लाला लाजपतराय की मौत का बदला लेने के लिये लाहौर में बुलायी गई बैठक की अध्यक्षता दुर्गा भाभी ने की थी। तत्कालीन बम्बई के गर्वनर हेली को मारने की योजना में टेलर नामक एक अंग्रेज़ अफ़सर घायल हो गया था, जिस पर गोली दुर्गा भाभी ने ही चलायी थी।

परिचय

दुर्गावती देवी (दुर्गा भाभी) का जन्म 7 अक्टूबर सन 1907 को इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश के शहजादपुर नामक गाँव में पंडित बांके बिहारी के यहाँ हुआ था। उनके पिता इलाहाबाद कलेक्ट्रेट में नाजिर थे और उनके बाबा महेश प्रसाद भट्ट जालौन ज़िले में थानेदार के पद पर तैनात थे। उनके दादा पंडित शिवशंकर शहजादपुर में जमींदार थे, जो बचपन से ही दुर्गा भाभी की सभी बातों को पूर्ण करते थे। दस वर्ष की अल्प आयु में ही दुर्गा भाभी का विवाह लाहौर के भगवतीचरण बोहरा के साथ हो गया। दुर्गा भाभी के श्वसुर शिवचरण जी रेलवे में ऊंचे पद पर तैनात थे। अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें 'राय साहब' का खिताब दिया था।

क्रांतिकारी गतिविधियाँ

क्रांतिकारी भगवतीचरण बोहरा के साथ विवाह हो जाने के बाद दुर्गा भाभी शीघ्र ही वे अपने पति के कार्यों में सहयोग देने लगी थीं। उनका घर क्रांतिकारियों का आश्रयस्थल था। वे सभी का आदर करतीं, स्नेहपूर्वक उनका सेवा-सत्कार करतीं। इसलिए सभी क्रांतिकारी उन्हें 'भाभी' कहने लगे थे और यही उनका नाम प्रसिद्ध हो गया। अपने क्रांतिकारी जीवन में दुर्गा भाभी ने खतरा मोल लेकर कई बड़े काम किये। उनमें सबसे बड़ा काम था- लाहौर में लाला लाजपत राय पर लाठी बरसाने वाले सांडर्स पर गोली चलाने के बाद भगतसिंह को कोलकाता पहुँचाना।

भगतसिंह की सहायक

19 दिसम्बर, 1928 का दिन था। भगतसिंह और सुखदेव सांडर्स को गोली मारने के दो दिन बाद सीधे दुर्गा भाभी के घर पहुंचे। भगतसिंह जिस नए रूप में थे, उसमें दुर्गा उन्हें पहचान नहीं पाईं। भगतसिंह ने अपने बाल कटा लिए थे, हालांकि दुर्गा इस बात से खुश नहीं थीं कि स्कॉट बच गया; क्योंकि इससे पहले हुई एक मीटिंग में दुर्गा भाभी ने खुद स्कॉट को मारने का ऑपरेशन अपने हाथ में लेने की गुजारिश की थी, लेकिन बाकी क्रांतिकारियों ने उन्हें रोक लिया था। लाला लाजपत राय पर हुए लाठीचार्ज और उसके चलते हुई मौत को लेकर उनके दिल में काफ़ी गुस्सा भरा हुआ था। इधर लाहौर के चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात थी। दुर्गा ने उन्हें कोलकाता निकलने की सलाह दी। उस वक्त कांग्रेस का अधिवेशन कोलकाता में चल रहा था और भगवतीचरण बोहरा भी उसमें भाग लेने गए थे।

पति की मृत्यु

इधर 63 दिन की भूख हड़ताल के बाद लाहौर जेल में ही जतिन्द्रनाथ दास यानी जतिन दा की मौत हो गई तो उनकी लाहौर से लेकर कोलकाता तक ट्रेन में और कोलकाता में भी अंतिम यात्रा की अगुवाई दुर्गा भाभी ने ही की। इधर उनके पति भगवतीचरण बोहरा ने लॉर्ड इरविन की ट्रेन पर बम फेंकने के बाद भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव समेत सभी क्रांतिकारियों को छुड़ाने की योजना बनाई और इसके लिए वह रावी नदी के तट पर लाहौर में बम का परीक्षण कर रहे थे। 28 मई, 1930 का दिन था कि अचानक बम फट गया और भगवतीचरण बोहरा की मौत हो गई। दुर्गा भाभी को बड़ा झटका लगा, लेकिन वह जल्द ही उबर गईं और देश की आज़ादी को ही अपने जीवन का आखिरी लक्ष्य मान लिया। तब दुर्गा भाभी ने अंग्रेज़ों को सबक सिखाने के लिए पंजाब प्रांत के पूर्व गवर्नर लॉर्ड हैली पर हमला करने की योजना बनाई। दुर्गा भाभी ने उस पर 9 अक्टूबर, 1930 को बम फेंक भी दिया। हैली और उसके कई सहयोगी घायल हो गए, लेकिन वह घायल होकर भी बच गया। उसके बाद दुर्गा भाभी बचकर निकल गईं, लेकिन जब मुंबई से पकड़ी गईं तो उन्हें तीन साल के लिए जेल भेज दिया गया। बताया तो ये भी जाता है कि चंद्रशेखर आज़ाद के पास आखिरी वक्त में जो माउजर था, वह भी दुर्गा भाभी ने ही उनको दिया था।

मांटेसरी स्कूल की शुरुआत

एक-एक करके जब सारे क्रांतिकारी इस दुनिया में नहीं रहे तो दुर्गा भाभी के लिए काफ़ी मुश्किल हो गई। बेटा भी बड़ा हो रहा था और पुलिस भी उन्हें बार-बार परेशान कर रही थी। लाहौर से उन्हें ज़िला बदर कर दिया गया। ऐसे में वह 1935 में गाज़ियाबाद निकल आईं, जहां उन्होंने एक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी कर ली। दो साल के लिए कांग्रेस के साथ भी काम किया, लेकिन फिर छोड़ दिया। फिर उन्होंने मद्रास जाकर मांटेसरी सिस्टम की ट्रेनिंग ली और फिर लखनऊ में कैंट रोड पर एक मांटेसरी स्कूल खोला। शुरू में जिसमें सिर्फ पांच बच्चे थे। आज़ादी के बाद उन्होंने सत्ता और नेताओं से काफ़ी दूरी बना ली। 1956 में जब जवाहरलाल नेहरू को उनके बारे में पता चला तो लखनऊ में उनके स्कूल में एक बार मिलने आए। नेहरू जी ने उनकी मदद करने की पेशकश भी की थी। कहा जाता है कि दुर्गा भाभी ने विनम्रता से मना कर दिया था। दुर्गा भाभी को मांटेसरी स्कूलिंग सिस्टम के शुरुआती लोगों में गिना जाता है।

मृत्यु

मीडिया और सत्ताधीशों को दुर्गा भाभी की आखिरी खबर 15 अक्टूबर, 1999 के दिन मिली, जब गाज़ियाबाद के एक कमरे में उनकी मौत हो गई। तब वह 92 साल की थीं। ये शायद उनके पति के विचारों का ही उन पर प्रभाव था कि पहाड़ जैसी जिंदगी अकेले ही और इतने साहस के साथ गुजार दी और ना जाने कितनों को साहस से जीने की प्रेरणा दी। दुर्गा भाभी ने देश के लिए, उसकी आज़ादी के लिए अपने पति, परिवार, बच्चा और एक खुशहाल जीवन सब कुछ दांव पर लगा दिया, लेकिन आज़ादी के बाद जिस तरह से उन्होंने गुमनामी की चादर ओढ़ी और खुद को बच्चों की एजुकेशन तक सीमित कर लिया, वह वाकई हैरतअंगेज था। शायद ये उनके सपनों का भारत नहीं था, जैसा उन्होंने कभी कल्पना की थी।


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