देवीपाटन मंदिर

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देवीपाटन मंदिर

भारत देश की 51 सिद्ध शक्तिपीठों में से एक विश्वविख्यात उत्तर प्रदेश के देवीपाटन मंदिर में स्थित जगदमाता पाटेश्वरी अपने अलौकिक इतिहास को समेटे हुए है। युगों-युगों से ऋषि-मुनियों के तप व वैराग्य का साक्षी रहा यह स्थल अपने अतीत की गौरव गाथा खुद बयां करता है। यह ऐतिहासिक मंदिर उत्तर भारत में नेपाल सीमा से सटे बलरामपुर जिले की तुलसीपुर तहसील के सिरिया नदी के तट पर पाटन गांव में स्थित है।

मां सती और सीता की शक्तियों से परिपूर्ण देवीपाटन मंदिर अपने गौरवमयी इतिहास को समेटे हुए है। लोगों की श्रद्धा है कि यहां विद्यमान सूर्यकुंड, त्रेतायुग से जल रहा अखंड धूना व अखंड ज्योति में मां दुर्गा के शक्तियों का वास है और इतिहास गवाह है कि सिद्ध रत्‍‌ननाथ (नेपाल) व गुरु गोरक्षनाथ को सिद्धि भी यहीं प्राप्त हुई थी। कण-कण में देवत्व का वास होने से इस मंदिर पर देश-विदेश (विशेष रूप से नेपाल) से लाखों श्रद्धालु मनोकामना पूर्ण करने के लिए अनुष्ठान व्रत एवं पूजन करते हैं।

देवीपाटन मंदिर में शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कूष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यानी, कालरात्रि, महागौरी तथा सिद्धदात्री नौ दुर्गा की प्रतिमायें स्थापित है। इस शक्तिपीठ में स्थापना काल से ही दीपक प्रज्ज्वलित हो रहा है जिसे अखण्ड ज्योति कहा जाता है। शारदीय नवरात्रि के प्रथम दिन से ही पडोसी देश नेपाल व देश के कई क्षेत्रों से आये देवीभक्त नारियल, चुनरी, लावा, नथुनी, सिंदूर, मांगटीका. चूडी, बिछिया, पायल, कपूर, धूप, लौंग, इलाइची, पुष्प, चरणामृत और प्रमुख रुप से रोट का प्रसाद चढाकर मां का सिंगार करने के साथ हवन पूजन वैदिक रीति से करते हैं।

पाटेश्वरी देवी के नाम से विख्यात इस मंदिर का इतिहास रोचकता व चमत्कारों से भरा है। लोकश्रुति के अनुसार त्रेतायुग में भगवान श्रीराम अपनी अर्धांगिनी देवी सीता को राक्षस रावण के संहार के बाद जब अयोध्या लाये तो उन्हें पुन: अग्नि परीक्षा देनी पड़ी। हालांकि लंका में ही उन्होंने अग्नि में प्रवेश कर परीक्षा दे दी थी। सीता को काफी दु:ख हुआ। जिस धरती माता की गोद से उनका प्रादुर्भाव हुआ था उसी मां को उन्होंने पुकारा तो जमीन फट गयी और एक सिंहासन पर बैठकर पाताल लोक से ऊपर आयीं। अपनी धरती मां के साथ सीता जी भी पाताल लोक चली गयीं। इसलिए इस स्थान का नाम पातलेश्वरी देवी पड़ा, जो कालांतर में पाटेश्वरी देवी नाम से विख्यात हुआ। आज भी मंदिर में पाताल तक सुरंग बताई जाती है, जो चांदी के चबूतरे के रूप में दृष्टिगत है। गर्भगृह के ऊपर मां पाटेश्वरी की प्रतिमा व चांदी का चबूतरा के साथ कई रत्नजडित छतर है और ताम्रपत्र पर दुर्गा सप्तशती अंकित है। प्रसाद पहले इसी चबूतरे पर चढ़ाया जाता था लेकिन सुरक्षा की दृष्टि से अब प्रसाद बाहर चढ़ाया जाता है। चबूतरे के पास एक भव्य दुर्गा प्रतिमा स्थापित है।

वहीं शास्त्रों में उल्लिखित स्कंद पुराण के अनुसार एक बार महादेवी सती के पिता दक्ष प्रजापति ने अपने यज्ञ में सभी देवी-देवताओं को आमंत्रित किया था, लेकिन सती के पति भगवान शंकर को आमंत्रित नहीं किया। शिव के मना करने पर महादेवी सती इस यज्ञ में भाग लेने पहुंची लेकिन इस यज्ञ में भगवान शिव का उचित स्थान न देखकर क्रोधित हो उठी और अपने मायके में धधकती हवन कुंड में कूद कर अपने प्राण त्याग दिये। यह सूचना शिव को मिलते ही सती के मोह से आकुल हो उठे और उन्होंने दक्ष प्रजापति के घर पहुंचकर वहां यज्ञ को विध्वंस कर दिया। भगवान शंकर उनके मृत शरीर को कंधे पर लेकर तीनों लोकों में विचरण करने लगे और सती के शव को लेकर आकाश में तांडव नृत्य करने लगे। सभी देवी-देवता यह देखकर घबरा गये और उन्हें लगा कि अब प्रलय हो जायेगी। सभी देवता व्याकुल होकर भगवान विष्णु से प्रार्थना की कि शिव का क्रोध शांत करें। तब भगवान विष्णु ने लोकहित में अपने सुदर्शन चक्र से सती के अंगों को काट दिया। इस दौरान महादेवी सती के कटे अंग व वस्त्र जिन-जिन स्थानों पर गिरे, उन्हें सिद्ध शक्तिपीठ माना गया। इस तरह 51 शक्तिपीठ हैं। लेकिन उपवस्त्रों, उपांगों और आभूषणों के गिरने के स्थानों को मिलाकर ऐसे स्थानों की संख्या 108 है। देवीपाटन मंदिर में सती का बायां कंधा वस्त्र (वाम स्कंध वस्त्र) सहित गिरा था, जो सिद्ध शक्तिपीठ कहलाया। इस बात की पुष्टि शास्त्र में उल्लिखित इस श्लोक से होती है -

'पटेन सहित: स्कन्ध:, पपात यत्र भूतले। तत्र पाटेश्वरी नाम्ना, ख्यातिमाप्ता महेश्वरी।।'

गुरु गोरक्षनाथ व पीर रत्ननाथ ने इसी स्थल पर सिद्धि प्राप्त कर आगे चलकर नाथ सम्प्रदाय के प्रणेता बने। देवीपाटन मंदिर भारत-नेपाल के बीच मित्रता को न केवल सतत अक्षुण्ण बनाये हुए है, वरन उसे प्रगाढ़ बनाये रखने में महती भूमिका निभाता है। नेपाल के दांग-चोघड़ा मठ में स्थापित पीर रत्ननाथ को सिद्धि भी देवीपाटन में मिली थी। भगवान शिव के अवतार के रूप में अवतरित गुरु गोरक्षनाथ के शिष्य रत्ननाथ के दो मठ थे। रत्ननाथ की तपस्या से खुश होकर मां साक्षात् प्रकट हुई और वर मांगने के लिए कहा तो पीर रत्ननाथ ने उनसे यही वर मांगा कि उनकी पूजा इस मठ में भी हो। मां दुर्गा ने उनको ऐसा ही आशीर्वाद दिया। देवीपाटन मंदिर में नेपाल से पीर रत्ननाथ की शोभायात्रा प्रत्येक वासंती नवरात्र की पंचमी को यहां पहुंचती है और पांच दिन तक वहां से आये पुजारियों द्वारा मंदिर में पूजा के साथ-साथ रत्ननाथ की भी पूजा की जाती है। इस दौरान मंदिर में लगे घंटे आदि नहीं बजाये जाते हैं। रत्ननाथ की पूजा में शामिल होने के लिए भारत और नेपाल के हजारों श्रद्धालु भी इस अवसर पर मौजूद रहते हैं।

यह स्थल कई महापुरुषों की कर्मस्थली का साक्षी भी है। मंदिर के इतिहास के अनुसार भगवान परशुराम ने यहीं तपस्या की थी। द्वापर युग में सूर्यपुत्र कर्ण ने भी यहीं भगवान परशुराम से दिव्यास्त्रों की दीक्षा ली थी। कहते हैं कर्ण मंदिर के उत्तर स्थित सूर्यकुड में प्रतिदिन स्नान कर उसी जल से देवी की आराधना करते थे। वही परंपरा आज भी चली आ रही है। इस मंदिर का जीर्णोद्धार राजा कर्ण ने कराया था। औरंगजेब ने अपने सिपहसालार मीर समर को इसे नष्ट और भ्रष्ट करने का जिम्मा सौंपा था, जो सफल नहीं हो सका और देवी प्रकोप का शिकार हो गया। उसकी समाधि मंदिर के पूरब में आज भी अवस्थित है।

अपनी मनोवांछित फल प्राप्ति की अभिलाषा श्रद्धालुओं को बरबस ही यहां खींच लाती है। मां दुर्गा की आराधना और भक्ति के लिए शारदीय नवरात्र सबसे उपयुक्त माना जाता है। यही कारण है कि श्रद्धा की जब धारा फूटती है तब आदि शक्ति मां पाटेश्वरी के दर्शन पूजन के लिए बासंतीय नवरात्र में लगने वाले एक माह के मेले में मंदिर देवीपाटन में लाखों की भीड़ उमड़ पड़ती है। नवरात्र के प्रथम दिन से ही देवीपाटन मंदिर पर भीड़ होने लगती है, जो नवरात्र के अंतिम दिन तक रहता है। उत्तर भारत के इस सबसे बड़े मेले में देश-विदेश के लाखों श्रद्धालु आते रहते हैं और उनकी मनोकामना भी पूर्ण होती है। यही नहीं इसी नवरात्र के पंचमी तिथि को प्रत्येक वर्ष नेपाल से आने वाले सिद्ध रत्ननाथ की शोभा यात्रा लोगों के आकर्षण का केन्द्र होती है।

मंदिर व्यवस्थापक विधायक महंत कौशलेन्द्र नाथ योगी ने बताया कि यह सिद्ध शक्तिपीठ है, यहां सच्चे मन से आने वाले भक्तों की मनोकामना मां पाटेश्वरी पूरा करती हैं। इस स्थल पर लाखों भक्तगण अपने संतानों की दीर्घायु, सुरक्षा व दैवीय प्रकोप आदि से बचने के लिए उनका मुण्डन, अन्नप्रासन, यज्ञोपवीत व अक्षरारंभ संस्कार सहित अन्य संस्कार यही कराते हैं तथा नौ दिन उपवास व व्रत रखकर दुर्गा सप्तशती का पाठ, श्रीमद् देवी भागवत कथा का श्रवण करने के उपरांत यज्ञशाला में हवन कर अपना अनुष्ठान पूरा करते हैं। उन्होंने बताया कि मां दुर्गा की आराधना व अनुष्ठान के लिए मंदिर देवीपाटन भक्तों के लिए काफी महत्व रखता है। श्रद्धालु सुबह तीन बजे से ही पंक्तिबद्ध होकर मां पाटेश्वरी के दर्शन करने के लिए अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हैं।



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