"भारतकोश सम्पादकीय -आदित्य चौधरी" के अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
|-
 
|-
 
| style="border: thick groove #003333; padding:30px;" valign="top" |
 
| style="border: thick groove #003333; padding:30px;" valign="top" |
[[चित्र:Bharatkosh-copyright-2.jpg|right|50px|link=|]]  
+
[[चित्र:Bharatkosh-copyright-2.jpg|50px|right|link=|]]  
<div style=text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;><font color=#003333 size=5>कौऔं का वायरस</font></div><br />
+
<div style=text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;><font color=#003333 size=5>राज की नीति</font></div><br />
 
----
 
----
 
{{भारतकोश सम्पादकीय}}
 
{{भारतकोश सम्पादकीय}}
<br />
 
 
<poem>
 
<poem>
        एक बहुत ही सयाना कौआ अपने तीन बच्चों को दुनियादारी की ट्रेनिंग देते हुए गूढ़-ज्ञान की बातें बता रहा था। "सुनो ध्यान से! भगवान ने हमको ही सबसे ज़्यादा चालाक बनाया हो ऐसा नहीं है। असल में दूसरी तरह के कौए हमसे भी ज़्यादा चालाक हैं और हमको चैन से खाने-पीने और जीने नहीं देते। हमारी जान इसीलिए बची हुई है कि हमने जान बचाने की आदत डाल रखी है। इन ख़तरनाक कौऔं से बचने के लिए एक बहुत ज़रूरी आदत तुमको डालनी ही होगी। हमेशा-हमेशा याद रखो! अगर इस दुनियाँ में ''सरवाइव'' करना है तो जान बचाने की आदत डाल लेनी चाहिए, तो जान बचाने के लिए... "
+
:-क्या आप मुझे, अपने मकान में किराए पर एक कमरा दे सकते हैं?
 +
:नहीं !... क्योंकि तुम मकान ख़ाली नहीं करोगे। हमारे पूरे मकान पर क़ब्ज़ा कर लोगे।
 +
:-क्या आप मुझे नौकरी दे सकते हैं?
 +
:नहीं !... क्योंकि पहली बात तो पढ़े-लिखे नहीं हो; दूसरे तुम्हारा व्यवहार बेहूदा है।
 +
:-क्या आप मुझे अपने व्यापार में शामिल कर सकते हैं?
 +
:नहीं !... क्योंकि तुम हमारे व्यापार में शामिल होकर हमारे व्यापार पर क़ब्ज़ा कर लोगे। हो सकता है मुझे मरवा भी दो।
 +
:-क्या आप मुझे कुछ कर्ज़ा दे सकते हैं?
 +
:नहीं !... क्योंकि तुम कभी वापस नहीं करोगे। तुमको कर्ज़ा देने का मतलब है पैसे डूब जाना।
 +
:-क्या आप अपनी बेटी की शादी मुझसे कर सकते हैं, मैं कुँवारा हूँ?
 +
:नहीं !... क्योंकि तुमसे बेटी की शादी होने पर उसका और हमारा जीवन नर्क हो जाएगा। इससे अच्छा है कि वो ज़िंदगी भर कुँवारी रहे।
 +
:-क्या आप मुझे वोट दे सकते हैं? मैं इस बार के चुनाव में खड़ा हो रहा हूँ।
 +
:-हाँ, हम तुम्हें वोट देंगे, चंदा देंगे और तुम्हारा ज़ोरदार स्वागत भी करेंगे।
 +
:-"लेकिन क्यों! आपने मुझे किसी लायक़ नहीं समझा तो फिर मैं नेतृत्व के लायक़ क्यों हूँ?"
 +
:"क्योंकि अब ये हमारे देश की परम्परा हो गयी है जिसे हम किसी योग्य नहीं मानते उसे हम नेता बनने के योग्य तो मान ही लेते हैं। इसका कारण है कि हम हर तरीक़े से हीरो को 'दबंग' ही देखना चाहते हैं और नेता को भी दबंग ही देखना चाहते हैं। इसलिए जाओ होनहार नौजवान! नेता बन जाओ और देश का कल्याण करो (और मेरी जान छोड़ो)।" [[चित्र:Raj-ki-niti.jpg|right|300px]]
  
"ओ.के. डॅडी! हम समझ गए! इतना डिटेल में क्यों जा रहे हैं? सीधे-सीधे काम की बात बताइए, वो कौन सी आदत है?" बच्चे ने बात बीच में ही काटी।
+
ये वार्तालाप यहीं समाप्त हुआ। अब आगे चलें...  
 +
        ज़ाहिर है पाँच राज्यों के चुनावों से राजनीति का विषय भी गर्म रहा। इस बार अपराधियों की भागीदारी सत्ता में कम से कम हो; इस बात का काफ़ी प्रचार रहा। कई नेताओं ने अपने-अपने ज़ोर आज़माए हैं... ये सब तो ठीक लेकिन ये 'नेता' होता क्या है? जिस तरह किसी नौकरी के लिए बहुत सारी अहर्ताएँ पूरी होनी चाहिए, उसी तरह नेता बनने के लिए भी किसी योग्यता अथवा 'क्वालिफ़िकेशन' की ज़रूरत है? ये सवाल अनेक बार उठते हैं।
 +
        भारतवासियों ने महात्मा गांधी को यदि नेता माना तो नेताजी सुभाष को भी गांधी जी के उम्मीदवार के ख़िलाफ़ कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया। नेहरू जी को नेता माना तो सरदार पटेल को भी प्रधानमंत्री के रूप में देखने की इच्छा करोड़ों भारतवासियों के मन में आज भी है कि काश! पटेल बने होते प्रधानमंत्री...। आज भी दिल में कराह उठती है कि काश सरदार भगतसिंह को फांसी न लगी होती। लाल बहादुर शास्त्री को ईमानदारी और पारदर्शिता का प्रतीक माना गया तो इंदिरा गांधी को लौह महिला का ख़िताब दिया गया। अब्दुल कलाम और अटल बिहारी वाजपेयी जनता में अपनी अलग विशेषताओं से लोकप्रिय हो गये... लेकिन क्यों... क्या ख़ास बात है इन नेताओं में? जिसमें नेता के कुछ ख़ास गुण हों, वही नेता बनता है।
 +
        कम से कम चार गुण तो मुख्य हैं- सबसे पहले तो वह 'जननेता' हो; उसके भाषणों में इतनी जान हो कि वह भाषण सुनने आई हुई भीड़ को वोटों में बदलने की शक्ति रखता हो। दूसरे वह 'राजनेता' हो; उसे संसदीय गरिमा का पता हो; पढ़ा लिखा हो और विद्वानों के बीच में कुछ बोलने की क्षमता रखता हो। तीसरे वह 'अच्छा प्रबन्धक' हो; उसका प्रबन्धन अच्छा हो और विपरीत परिस्थिति में भी सफल राजनैतिक गठजोड़ की क्षमता हो। चौथे वह 'कुशल प्रशासक' हो; उसे शासन प्रशासन आता हो। यहाँ यह ध्यान देने वाली बात है कि इन गुणों में कहीं भी त्याग करने की क्षमता, सत्य बोलना, भावुक या दयालु होना आदि नहीं है।
 +
        असल में राजनीति में 'राज' के साथ 'नीति' लगी हुई है। नीति आदमी तभी बनाता है; जब वह कुछ प्राप्त करना चाहता है। त्याग के लिए नीतियों की आवश्यकता नहीं होती। जब राज प्राप्त करना चाहते हैं तो राज के साथ में नीति लगाकर काम चलता है। अर्थ प्राप्त करना चाहते हैं तो अर्थ के साथ में नीति लगाते हैं, 'अर्थनीति' कर देते हैं। चाणक्य और चन्द्रगुप्त का ध्येय था; मगध का राज्य प्राप्त करना। चाणक्य ने नीति बनाई तो 'चाणक्य-नीति' कहलाने लगी। कौटिल्य का अर्थशास्त्र बना; अर्थनीति बनी।
 +
        अर्थ बहुत अर्थपूर्ण होता है: शासन के लिए; राज्य के लिए। इस संबंध में चाणक्य की तरह ही मैकियावेली<ref>Niccolò Machiavelli. जो 'पुनर्जागरण काल' (''Renaissance'' 14वीं से 17वीं शताब्दी) में अपनी विवादास्पद पुस्तक 'द प्रिंस' के कारण बहुत चर्चित भी रहा और घृणा का पात्र भी बना</ref> ने भी अनेक नियम राजा या शासक के लिए बताए हैं। मैकियावेली ने लिखा है किसी भी व्यक्ति को शासक बनने से पहले आर्थिक मामलों में उदार होना चाहिए लेकिन शासन हाथ में आने पर उसका कृपण (कंजूस) हो जाना ही राज्य के हित में है, क्योंकि राज्य पैसों से ही चलता है। यदि राज्य प्राप्त करने के बाद राजा उदार हो जायेगा तो सारा ख़ज़ाना लुटा देगा और राज्य की व्यवस्थाएँ कमज़ोर पड़ जायेंगी। विदेशी ताक़तें क़ब्ज़ा कर लेंगी और आर्थिक मंदी आ जायेगी। इस तरह की नीतियाँ मैकियावेली ने अपनी किताब में लिखी हैं। मैकियावेली कोई जन-प्रिय लेखक नहीं रहा क्योंकि उसको क्रूर शासन से सम्बन्धित नीतियाँ बताने का आरोपी पाया गया। मैकियावेली का प्रभाव नीत्शे (Friedrich Nietzsche) पर पड़ा और नीत्शे का हिटलर पर।
 +
        उधर मैकियावेली का ठीक उल्टा 'थॉरो' (Henry David Thoreau 1817-62 ) है। थॉरो की नीतियाँ बिल्कुल अलग हैं और उसकी सोच बिल्कुल अलग है। थॉरो कहता है कि सरकार सबसे अच्छी वह है: जो कम से कम शासन करे; उसे शासन में न्यूनतम भागीदारी करनी पड़े; वह विकास कार्यों में अधिक ध्यान दे। यानी न्यूनतम शासन-प्रशासन वाली सरकार। इसी तरह न्यूनतम शासन करने वाला राजा सर्वश्रेष्ठ है। ये थॉरो महाशय वही हैं; जिनके विचारों से प्रभावित होकर महात्मा गांधी ने 'सविनय अवज्ञा आन्दोलन' चलाया। 'सविनय अवज्ञा' असल में थॉरो की ही सोच थी।
 +
        थॉरो की मृत्यु के बाद 1863 में प्रजातंत्र के प्रणेता अब्राहम लिंकन का विश्वप्रसिद्ध भाषण गॅटिसबर्ग (Gettysburg) में हुआ। ग़ुलामी प्रथा को ख़त्म करने का संकल्प लेकर लिंकन ने चुनाव प्रचार किया और अमरीका के राष्ट्रपति बने। दास-प्रथा के समर्थक दक्षिणी राज्यों के कारण गृहयुद्ध छिड़ गया। युद्ध में जीत जाने पर लिंकन का यह भाषण हुआ। यह वही संबोधन है जिसमें उन्होंने प्रजातांत्रिक सरकार को परिभाषित करते हुए "जनता की, जनता के द्वारा, जनता के लिए" कहा था। (of the people, by the people, for the people)। ज़रा सोचिए कि यह भाषण मात्र 2 मिनट का था और इसमें व्याकरण संबंधी भूलें भी थीं लेकिन इतने प्रभावशाली ढंग से यह भाषण दिया गया था कि इसका प्रभाव आज तक क़ायम है।
 +
        लिंकन के पिता किसान थे और साथ ही बढ़ई का काम भी करते थे। अब्राहम लिंकन से संसद में एक सदस्य ने कहा कि आपकी हैसियत ही क्या है मेरे सामने। आपके पिता मेरे पिता के यहाँ फ़र्नीचर पर पॉलिश किया करते थे। लिंकन ने कहा कि यह सही है कि मेरे पिता फ़र्नीचर पर पॉलिश करते थे लेकिन उन्होंने कभी भी ख़राब पॉलिश नहीं की होगी। उन्होंने अपना काम सर्वश्रेष्ठ तरीक़े से किया और इसका नतीजा यह हुआ कि उन्होंने अपने बेटे को इस योग्य बना दिया कि आज उनका बेटा अमरीका का राष्ट्रपति है जबकि आपके पिता बहुत अधिक पैसे वाले होने के बावजूद भी आपको ये नहीं सिखा पाये कि संसद में सदस्यों के प्रति किस प्रकार से पेश आना चाहिए।
  
"अबे ओ 'थ्री ईडियट्‌स' के 'रॅन्चो'!" कौआ 'प्रिंसीपल वायरस' की तरह ही दहाड़ा "चुपचाप बात समझने की कोशिश करो..." कौए ने बच्चों को ग़ुस्से से घूरा और फिर दूर से उनकी ओर आते हुए एक आदमी की ओर इशारा किया और आगे बोला-
+
अब्राहम लिंकन ने यह साबित किया कि वह 'जननेता', 'राजनेता', 'प्रबंधक', 'प्रशासक' आदि सभी कुछ उत्तम श्रेणी के थे और इसलिए उन्हें आज भी याद किया जाता है।
[[चित्र:4-crow-meeting.jpg|300px|right|border]]
 
"वो जो तुम दो पैरों पर चलता हुआ कौआ देख रहे हो। वो हमसे ज़्यादा चालाक कौआ है। कौए की इस नस्ल को 'आदमी' कहते हैं। अब जैसे ही ये पत्थर उठाने के लिए नीचे झुके तो तुमको फ़ौरन उड़ जाना चाहिए वरना गए जान से... समझ गये!"
 
  
"लेकिन डॅडी! अगर वो आदमी पहले ही से हाथ में पत्थर छुपाकर ला रहा हो और हमें पत्थर मार दे तो?" थ्री ईडियट्‌स में से एक बोला और यह कहकर उड़ गया। उसके पीछे-पीछे कौआ और उसके दोनों बच्चे भी उड़ गये। साथ-साथ उड़ते हुए कौए ने अपने बच्चों से कहा-
+
इस सप्ताह इतना ही... अगले सप्ताह कुछ और...
 
 
"तुमको किसी ट्रेनिंग की ज़रूरत नहीं है... कमबख़्तों! तुम इस आदत को अण्डे से ही लेकर आए हो।"
 
 
 
        ये क़िस्सा तो यहीं ख़त्म होता है लेकिन एक सवाल पैदा होता है कि कोई आदत कितने वक़्त में पड़ जाती है? तो जवाब है '23 दिन'। ये इस क्षेत्र के विद्वानों का अध्ययन है कि 23 दिनों तक लगातार कोई कार्य, किसी समय विशेष पर करते रहें तो 24 वें दिन ठीक उसी समय बेचैनी शुरू हो जाती है और उस कार्य को करने के बाद ही ख़त्म होती है। हमारी 'बॉडी क्लॉक' 23 दिन में प्रशिक्षित हो कर उस कार्य की 'फ़ाइल' को आदत वाले 'फ़ोल्डर' में डाल देती है और 'अलार्म' भी लगा देती है। 
 
 
 
        प्रशिक्षण की बात करें तो, बास्केटबॉल के खिलाड़ियों को, बॉल को बास्केट करने में पारंगत करने के लिए प्रशिक्षकों का ध्यान इस बात पर होता है कि खिलाड़ियों को बॉल को बास्केट करने का 'अभ्यास' नहीं बल्कि बास्केट करने की 'आदत' पड़ जानी चाहिए या 'व्यसन' जैसा हो जाना चाहिए। प्रशिक्षण के दौरान खिलाड़ियों से जब कहा जाता है कि बहुत ध्यान से बास्केट करें तो उनका प्रदर्शन ख़राब रहता है और जब वे लगातार अभ्यास कर रहे होते हैं, तब छुप कर उनका प्रदर्शन देखा जाता है तो वह बेहतर होता है।
 
  
      उदाहरण के लिए- हमने देखा है कि जब हम बिना ध्यान दिए दाढ़ी बनाते हैं तो रेज़र से कटने की संभावना कम होती है लेकिन बहुत ध्यान से अगर दाढ़ी बनाएँ तो लगातार ख़तरा बना रहता है और ग़लती हो ही जाती है। (काश ये प्रयोग मैं कर पाता लेकिन संभव नहीं हो सका क्यों कि मैं शुरू से ही दाढ़ी रखता हूँ)
 
 
      दूसरा उदाहरण- अगर हम काम करते-करते काग़ज़ की गेंद बना कर रद्दी की टोकरी में बिना ध्यान दिए ही फेंक देते हैं, तो अक्सर हम चौंक जाते हैं, यह देखकर कि गेंद सीधी टोकरी में चली गई। बाद में निशाना बना-बना कर फेंकी तो सफलता कम मिलती है।
 
[[चित्र:Kauan-ka-virus.jpg|300px|right]]
 
      यह एक तरह की ध्यानावस्था ही है। यह एक ऐसा ध्यान है जो किया नहीं जाता या धारण नहीं करना होता बल्कि स्वत: ही धारित हो जाता है... बस लग जाता है। मनोविश्लेषण की पुरानी अवधारणा के अनुसार कहें तो अवचेतन मस्तिष्क (सब कॉन्शस) में कहीं स्थापित हो जाता है। दिमाग़ में बादाम जितने आकार के दो हिस्से, जिन्हें ''ऍमिग्डाला'' (''Amygdala'') कहते हैं, कुछ ऐसा ही व्यवहार करते हैं। ये दोनों कभी-कभी दिमाग़ को अनदेखा कर शरीर के किसी भी हिस्से को सक्रिय कर देते हैं। असल में इनकी मुख्य भूमिका संवेदनात्मक आपातकालिक संदेश देने की होती है। इस तरह की ही कोई प्रणाली संभवत: अवचेतन के संदेशों के निगमन को संचालित करती है। ''ऍमिग्डाला'' की प्रक्रिया को 'डेनियल गोलमॅन' ने अपनी किताब ''इमोशनल इंटेलीजेन्स'' में बहुत अच्छी तरह समझाया है।<ref>[http://books.google.co.in/books?id=OgXxhmGiRB0C&dq=emotional+intelligence+goleman&hl=en&sa=X&ei=jRROT4j-A4TkrAeM1qS1Dw&redir_esc=y 'इमोशनल इंटेलीजेन्स' लेखक- डेनियल गोलमॅन]</ref>
 
 
      गोलमॅन ने लिखा है कि एक बच्ची पानी में गिर गई और डूबने लगी; तभी एक आदमी भी कूद गया और उसे बचा लाया। उस आदमी ने बताया कि वो पता नहीं कैसे अचानक ही कूद गया जबकि उसे याद नहीं आया कि उसने बच्ची को पानी में गिरते देखा भी था या नहीं। यही ऍमिग्डाला का कमाल है जो संदेश आँखों को मस्तिष्क तक पहुँचाना था, वो इसने बीच में ही मस्तिष्क तक पहुँचने से पहले ही उड़ा लिया (धोनी के हॅलीकॉप्टर शॉट की तरह) और शरीर को हरकत दे दी।
 
 
      ज़िंदगी भर हम आदतों के आधीन रह कर जीवन जीते हैं। कुछ कार्य आदत बना लेने से ही हो पाते हैं, जैसे कि पढ़ाई और कसरत। छात्रों को अपनी परीक्षा में अच्छे अंक लाने की इच्छा होना स्वाभाविक ही है लेकिन वे पढ़ाई को आदत बनाना नहीं सीख पाते, इसलिए सारी गड़बड़ होती है। शारीरिक व्यायाम की बात भी कुछ ऐसी ही है। अंग्रेज़ी के मशहूर लेखक 'इरविंग वॉलिस' की किताब ''द बुक ऑफ़ लिस्ट्स''<ref>[http://www.amazon.com/Peoples-Almanac-Presents-Book-Lists/dp/0688031838/ref=pd_sim_b_3 'द बुक ऑफ़ लिस्ट्स' लेखक- इरविंग वॉलिस आदि]</ref> में दुनियाँ भर की अनोखी सूचियाँ हैं और एक सूची उबाऊ कार्यों की भी है। सबसे उबाऊ कार्य वे माने गए हैं जो घरेलू कार्य हैं जैसे- झाड़ू-पौछा, कपड़े-बर्तन धोना आदि। (महिलाओं से क्षमा याचना क्योंकि अक्सर ये कार्य महिलाओं के हिस्से में ही आते हैं) दुनियाँ के सबसे उबाऊ काम फिर भी वे नहीं हैं जो अभी मैंने बताए बल्कि सूची में सबसे ऊपर 'कसरत' है।
 
 
        जिस तरह पान मसालों के विज्ञापनों में आता है कि "क्योंकि स्वाद बड़ी चीज़ है" या "शौक़ बड़ी चीज़ है" इसी तरह याद रखिए कि 'आदत' बड़ी चीज़ है। सिर्फ़ 23 दिन सुबह जल्दी उठ लीजिए फिर ज़िन्दगी भर अपने आप जल्दी उठेंगे।
 
 
छात्रों को आने वाले इम्तिहानों के लिए ''बॅस्ट ऑफ़ लक !''
 
 
इस सप्ताह इतना ही... अगले सप्ताह कुछ और...
 
  
 
-आदित्य चौधरी  
 
-आदित्य चौधरी  
<small>प्रशासक एवं प्रधान सम्पादक</small>
+
<small>प्रशासक एवं प्रधान सम्पादक<br />10 मार्च 2012</small>  
 
</poem>
 
</poem>
[[चित्र:Anee-Papa.jpg|thumb|left|300px|मैं और मेरी छोटी बेटी 'अनी चौधरी' (ये फ़ोटो अनी के विशेष आग्रह पर)]]
 
 
|}
 
|}
  
पंक्ति 50: पंक्ति 46:
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
<references/>
 +
==बाहरी कड़ियाँ==
 +
*[http://books.google.co.in/books?id=AHh3d4Xk9IAC&printsec=frontcover&dq=the+prince+machiavelli&hl=en&sa=X&ei=ASNbT_KsMMvLrQf00qSEDA&redir_esc=y#v=onepage&q=the%20prince%20machiavelli&f=false 'द प्रिंस' लेखक मैकियावेली]
 +
*[http://myloc.gov/Exhibitions/gettysburgaddress/Pages/default.aspx 'गॅटिस बर्ग में लिंकन का भाषण']
 +
*[http://thoreau.eserver.org थॉरो का लेखन]
  
 
[[Category:सम्पादकीय]]
 
[[Category:सम्पादकीय]]
 
__INDEX__
 
__INDEX__

11:54, 10 मार्च 2012 का अवतरण

Bharatkosh-copyright-2.jpg
राज की नीति


-क्या आप मुझे, अपने मकान में किराए पर एक कमरा दे सकते हैं?
नहीं !... क्योंकि तुम मकान ख़ाली नहीं करोगे। हमारे पूरे मकान पर क़ब्ज़ा कर लोगे।
-क्या आप मुझे नौकरी दे सकते हैं?
नहीं !... क्योंकि पहली बात तो पढ़े-लिखे नहीं हो; दूसरे तुम्हारा व्यवहार बेहूदा है।
-क्या आप मुझे अपने व्यापार में शामिल कर सकते हैं?
नहीं !... क्योंकि तुम हमारे व्यापार में शामिल होकर हमारे व्यापार पर क़ब्ज़ा कर लोगे। हो सकता है मुझे मरवा भी दो।
-क्या आप मुझे कुछ कर्ज़ा दे सकते हैं?
नहीं !... क्योंकि तुम कभी वापस नहीं करोगे। तुमको कर्ज़ा देने का मतलब है पैसे डूब जाना।
-क्या आप अपनी बेटी की शादी मुझसे कर सकते हैं, मैं कुँवारा हूँ?
नहीं !... क्योंकि तुमसे बेटी की शादी होने पर उसका और हमारा जीवन नर्क हो जाएगा। इससे अच्छा है कि वो ज़िंदगी भर कुँवारी रहे।
-क्या आप मुझे वोट दे सकते हैं? मैं इस बार के चुनाव में खड़ा हो रहा हूँ।
-हाँ, हम तुम्हें वोट देंगे, चंदा देंगे और तुम्हारा ज़ोरदार स्वागत भी करेंगे।
-"लेकिन क्यों! आपने मुझे किसी लायक़ नहीं समझा तो फिर मैं नेतृत्व के लायक़ क्यों हूँ?"

"क्योंकि अब ये हमारे देश की परम्परा हो गयी है जिसे हम किसी योग्य नहीं मानते उसे हम नेता बनने के योग्य तो मान ही लेते हैं। इसका कारण है कि हम हर तरीक़े से हीरो को 'दबंग' ही देखना चाहते हैं और नेता को भी दबंग ही देखना चाहते हैं। इसलिए जाओ होनहार नौजवान! नेता बन जाओ और देश का कल्याण करो (और मेरी जान छोड़ो)।"
Raj-ki-niti.jpg


ये वार्तालाप यहीं समाप्त हुआ। अब आगे चलें...
        ज़ाहिर है पाँच राज्यों के चुनावों से राजनीति का विषय भी गर्म रहा। इस बार अपराधियों की भागीदारी सत्ता में कम से कम हो; इस बात का काफ़ी प्रचार रहा। कई नेताओं ने अपने-अपने ज़ोर आज़माए हैं... ये सब तो ठीक लेकिन ये 'नेता' होता क्या है? जिस तरह किसी नौकरी के लिए बहुत सारी अहर्ताएँ पूरी होनी चाहिए, उसी तरह नेता बनने के लिए भी किसी योग्यता अथवा 'क्वालिफ़िकेशन' की ज़रूरत है? ये सवाल अनेक बार उठते हैं।
        भारतवासियों ने महात्मा गांधी को यदि नेता माना तो नेताजी सुभाष को भी गांधी जी के उम्मीदवार के ख़िलाफ़ कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया। नेहरू जी को नेता माना तो सरदार पटेल को भी प्रधानमंत्री के रूप में देखने की इच्छा करोड़ों भारतवासियों के मन में आज भी है कि काश! पटेल बने होते प्रधानमंत्री...। आज भी दिल में कराह उठती है कि काश सरदार भगतसिंह को फांसी न लगी होती। लाल बहादुर शास्त्री को ईमानदारी और पारदर्शिता का प्रतीक माना गया तो इंदिरा गांधी को लौह महिला का ख़िताब दिया गया। अब्दुल कलाम और अटल बिहारी वाजपेयी जनता में अपनी अलग विशेषताओं से लोकप्रिय हो गये... लेकिन क्यों... क्या ख़ास बात है इन नेताओं में? जिसमें नेता के कुछ ख़ास गुण हों, वही नेता बनता है।
        कम से कम चार गुण तो मुख्य हैं- सबसे पहले तो वह 'जननेता' हो; उसके भाषणों में इतनी जान हो कि वह भाषण सुनने आई हुई भीड़ को वोटों में बदलने की शक्ति रखता हो। दूसरे वह 'राजनेता' हो; उसे संसदीय गरिमा का पता हो; पढ़ा लिखा हो और विद्वानों के बीच में कुछ बोलने की क्षमता रखता हो। तीसरे वह 'अच्छा प्रबन्धक' हो; उसका प्रबन्धन अच्छा हो और विपरीत परिस्थिति में भी सफल राजनैतिक गठजोड़ की क्षमता हो। चौथे वह 'कुशल प्रशासक' हो; उसे शासन प्रशासन आता हो। यहाँ यह ध्यान देने वाली बात है कि इन गुणों में कहीं भी त्याग करने की क्षमता, सत्य बोलना, भावुक या दयालु होना आदि नहीं है।
        असल में राजनीति में 'राज' के साथ 'नीति' लगी हुई है। नीति आदमी तभी बनाता है; जब वह कुछ प्राप्त करना चाहता है। त्याग के लिए नीतियों की आवश्यकता नहीं होती। जब राज प्राप्त करना चाहते हैं तो राज के साथ में नीति लगाकर काम चलता है। अर्थ प्राप्त करना चाहते हैं तो अर्थ के साथ में नीति लगाते हैं, 'अर्थनीति' कर देते हैं। चाणक्य और चन्द्रगुप्त का ध्येय था; मगध का राज्य प्राप्त करना। चाणक्य ने नीति बनाई तो 'चाणक्य-नीति' कहलाने लगी। कौटिल्य का अर्थशास्त्र बना; अर्थनीति बनी।
        अर्थ बहुत अर्थपूर्ण होता है: शासन के लिए; राज्य के लिए। इस संबंध में चाणक्य की तरह ही मैकियावेली[1] ने भी अनेक नियम राजा या शासक के लिए बताए हैं। मैकियावेली ने लिखा है किसी भी व्यक्ति को शासक बनने से पहले आर्थिक मामलों में उदार होना चाहिए लेकिन शासन हाथ में आने पर उसका कृपण (कंजूस) हो जाना ही राज्य के हित में है, क्योंकि राज्य पैसों से ही चलता है। यदि राज्य प्राप्त करने के बाद राजा उदार हो जायेगा तो सारा ख़ज़ाना लुटा देगा और राज्य की व्यवस्थाएँ कमज़ोर पड़ जायेंगी। विदेशी ताक़तें क़ब्ज़ा कर लेंगी और आर्थिक मंदी आ जायेगी। इस तरह की नीतियाँ मैकियावेली ने अपनी किताब में लिखी हैं। मैकियावेली कोई जन-प्रिय लेखक नहीं रहा क्योंकि उसको क्रूर शासन से सम्बन्धित नीतियाँ बताने का आरोपी पाया गया। मैकियावेली का प्रभाव नीत्शे (Friedrich Nietzsche) पर पड़ा और नीत्शे का हिटलर पर।
        उधर मैकियावेली का ठीक उल्टा 'थॉरो' (Henry David Thoreau 1817-62 ) है। थॉरो की नीतियाँ बिल्कुल अलग हैं और उसकी सोच बिल्कुल अलग है। थॉरो कहता है कि सरकार सबसे अच्छी वह है: जो कम से कम शासन करे; उसे शासन में न्यूनतम भागीदारी करनी पड़े; वह विकास कार्यों में अधिक ध्यान दे। यानी न्यूनतम शासन-प्रशासन वाली सरकार। इसी तरह न्यूनतम शासन करने वाला राजा सर्वश्रेष्ठ है। ये थॉरो महाशय वही हैं; जिनके विचारों से प्रभावित होकर महात्मा गांधी ने 'सविनय अवज्ञा आन्दोलन' चलाया। 'सविनय अवज्ञा' असल में थॉरो की ही सोच थी।
        थॉरो की मृत्यु के बाद 1863 में प्रजातंत्र के प्रणेता अब्राहम लिंकन का विश्वप्रसिद्ध भाषण गॅटिसबर्ग (Gettysburg) में हुआ। ग़ुलामी प्रथा को ख़त्म करने का संकल्प लेकर लिंकन ने चुनाव प्रचार किया और अमरीका के राष्ट्रपति बने। दास-प्रथा के समर्थक दक्षिणी राज्यों के कारण गृहयुद्ध छिड़ गया। युद्ध में जीत जाने पर लिंकन का यह भाषण हुआ। यह वही संबोधन है जिसमें उन्होंने प्रजातांत्रिक सरकार को परिभाषित करते हुए "जनता की, जनता के द्वारा, जनता के लिए" कहा था। (of the people, by the people, for the people)। ज़रा सोचिए कि यह भाषण मात्र 2 मिनट का था और इसमें व्याकरण संबंधी भूलें भी थीं लेकिन इतने प्रभावशाली ढंग से यह भाषण दिया गया था कि इसका प्रभाव आज तक क़ायम है।
        लिंकन के पिता किसान थे और साथ ही बढ़ई का काम भी करते थे। अब्राहम लिंकन से संसद में एक सदस्य ने कहा कि आपकी हैसियत ही क्या है मेरे सामने। आपके पिता मेरे पिता के यहाँ फ़र्नीचर पर पॉलिश किया करते थे। लिंकन ने कहा कि यह सही है कि मेरे पिता फ़र्नीचर पर पॉलिश करते थे लेकिन उन्होंने कभी भी ख़राब पॉलिश नहीं की होगी। उन्होंने अपना काम सर्वश्रेष्ठ तरीक़े से किया और इसका नतीजा यह हुआ कि उन्होंने अपने बेटे को इस योग्य बना दिया कि आज उनका बेटा अमरीका का राष्ट्रपति है जबकि आपके पिता बहुत अधिक पैसे वाले होने के बावजूद भी आपको ये नहीं सिखा पाये कि संसद में सदस्यों के प्रति किस प्रकार से पेश आना चाहिए।

अब्राहम लिंकन ने यह साबित किया कि वह 'जननेता', 'राजनेता', 'प्रबंधक', 'प्रशासक' आदि सभी कुछ उत्तम श्रेणी के थे और इसलिए उन्हें आज भी याद किया जाता है।

इस सप्ताह इतना ही... अगले सप्ताह कुछ और...


-आदित्य चौधरी
प्रशासक एवं प्रधान सम्पादक
10 मार्च 2012


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. Niccolò Machiavelli. जो 'पुनर्जागरण काल' (Renaissance 14वीं से 17वीं शताब्दी) में अपनी विवादास्पद पुस्तक 'द प्रिंस' के कारण बहुत चर्चित भी रहा और घृणा का पात्र भी बना

बाहरी कड़ियाँ