"भारतकोश सम्पादकीय 31 दिसम्बर 2012" के अवतरणों में अंतर
गोविन्द राम (चर्चा | योगदान) ('{{:यमलोक में एक निर्भय अमानत 'दामिनी' -आदित्य चौधरी}} {{भ...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
गोविन्द राम (चर्चा | योगदान) |
||
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 4 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
+ | {{सम्पादकीय}} | ||
+ | ==सम्पादकीय== | ||
{{:यमलोक में एक निर्भय अमानत 'दामिनी' -आदित्य चौधरी}} | {{:यमलोक में एक निर्भय अमानत 'दामिनी' -आदित्य चौधरी}} | ||
+ | ==कविताएँ== | ||
+ | {| width="100%" | ||
+ | |-valign="top" | ||
+ | | style="width:50%"| | ||
+ | {| width="100%" class="bgtourism" style="border:thin groove #003333; border-radius:5px; padding:8px;" | ||
+ | |+ | ||
+ | |- | ||
+ | | style="text-align:center;"|भारतकोश पर अतिथि रचनाकार<br />'चित्रा देसाई' की एक कविता<br /> | ||
+ | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;"><font size=5>[[छोटी थी -चित्रा देसाई|छोटी थी]] <small>-[[छोटी थी -चित्रा देसाई|चित्रा देसाई]]</small></font></div> | ||
+ | ---- | ||
+ | |- | ||
+ | | | ||
+ | <br /> | ||
+ | <poem> | ||
+ | छोटी थी | ||
+ | तो ज़िद करती थी | ||
+ | फ़्रॉक के लिए, | ||
+ | मेले में जाने | ||
+ | और खिलोंनों के लिए। | ||
+ | खीर पूरी खाने के लिए | ||
+ | नानी की गोदी में सोने के लिए। | ||
+ | थोड़ी बड़ी हुई ... | ||
+ | तो स्कूल के लिए, | ||
+ | नई तख़्ती और | ||
+ | क़लम दवात के लिए। | ||
+ | थोड़ी और बड़ी हुई ... | ||
+ | तो धीरे से मेरे कानों में कहा ... | ||
+ | अब ज़िद करना छोड़ दो। | ||
+ | नानी की दुलारी थी | ||
+ | सो बात मान ली | ||
+ | ज़िद करना छोड़ दिया। | ||
+ | ... और धीरे धीरे | ||
+ | मुझे पता ही नहीं चला | ||
+ | कब मेरी ज़मीन पर | ||
+ | दूसरों के गांव बसने लगे। | ||
+ | अनजान लोगों की ज़िद मानने लगी ... | ||
+ | पर आज अचानक भीड़ देखी | ||
+ | तो उस बच्ची की ज़िद याद आई। | ||
+ | बंद संदूक से | ||
+ | अपने ज़िद्दीपन को निकाला, | ||
+ | मनुहार किया अपना ही ... | ||
+ | सुनो! | ||
+ | अपने आह्वान में ... | ||
+ | मेरा भी मन जोड़ लो। | ||
+ | आओ इतनी ज़िद करें | ||
+ | कि छत और दीवार ही नहीं | ||
+ | नींव और ज़मीन भी हिल जाऐं ... | ||
+ | बंद कोठरी से | ||
+ | सबका ज़िद्दी मन निकालें, | ||
+ | खुले मैदानों में फैल जाऐं | ||
+ | अपने आसमान के लिए | ||
+ | सुनसान सड़कों पर | ||
+ | हवा से बह जाऐं। | ||
+ | आओ ... | ||
+ | आज पूरे ज़िद्दी बन जाऐं। | ||
+ | </poem> | ||
+ | |} | ||
+ | | style="width:50%"| | ||
+ | {| width="100%" class="bgtourism" style="border:thin groove #003333; border-radius:5px; padding:8px;" | ||
+ | |- | ||
+ | | style="text-align:center;"|भारतकोश प्रशासक<br />'आदित्य चौधरी' की एक कविता<br /> | ||
+ | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;"><font color=#003333 size=5>[[कैसे कह दूँ कि मैं भी इंसा हूँ -आदित्य चौधरी|कैसे कह दूँ कि मैं भी इंसा हूँ]] <small>-[[कैसे कह दूँ कि मैं भी इंसा हूँ -आदित्य चौधरी|आदित्य चौधरी]]</small></font></div> | ||
+ | ---- | ||
+ | |- | ||
+ | | | ||
+ | <br /> | ||
+ | <poem> | ||
+ | कैसे कह दूँ कि मैं भी ज़िन्दा हूँ | ||
+ | कैसे कह दूँ कि मैं भी इंसा हूँ | ||
+ | |||
+ | उसने देखे थे यहाँ ख़ाब कई | ||
+ | उसके छाँटे हुए कुछ लम्हे थे | ||
+ | सर्द फ़ुटपाथ पर पड़ी थी जहाँ बेसुध वो | ||
+ | वहीं छितरे हुए थे अहसास कई | ||
+ | लेकिन अब वो ख़ाब नहीं सदमे थे | ||
+ | |||
+ | इक तरफ़ कुचला हुआ वो घूँघट था | ||
+ | जिसे उठना था किसी ख़ास रात | ||
+ | मगर वो रात अब न आएगी कभी | ||
+ | न शहनाई, न सेहरा, न बाबुल गाएगी कभी | ||
+ | |||
+ | लेकिन मुझे तो काम थे बहुत | ||
+ | जिनसे जाना था | ||
+ | उसे उठाने के लिए तो सारा ज़माना था | ||
+ | यूँ ही गिरी पड़ी रही बेसुध वो | ||
+ | मगर मैं रुक न सका पल भर को | ||
+ | |||
+ | कैसे कह दूँ कि मैं भी ज़िन्दा हूँ | ||
+ | कैसे कह दूँ कि मैं भी इंसा हूँ | ||
+ | </poem> | ||
+ | |} | ||
+ | |} | ||
+ | |||
+ | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
+ | <references/> | ||
+ | <br /> | ||
{{भारतकोश सम्पादकीय}} | {{भारतकोश सम्पादकीय}} |
12:39, 18 जनवरी 2013 के समय का अवतरण
|
सम्पादकीय
यमलोक में एक निर्भय अमानत 'दामिनी' -आदित्य चौधरी यमलोक में यमराज अपने सिंहासन पर विराजमान हैं। चित्रगुप्त अपने बही खाते से अपरिमित ब्रह्माण्ड में व्याप्त 84 लाख योनियों का असंख्य-असंख्य युगों, चतुर्युगों और मंवंतरों का लेखा-जोखा देख रहे हैं। किसने क्या कर्म किए और वे कैसे थे, किसे स्वर्ग दें किसे नर्क, किसे मोक्ष मिले और किसे पशु योनि। यह सब चल ही रहा था कि सचिव ने घोषणा की-
यदि इस प्रकार की व्यवस्था हो सके तो सुधार संभव है वरना तो सब बेकार की बातें हैं।..." |
कविताएँ
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यह व्यवस्था बड़े शहरों के लिए ही होगी इस कड़े में यह व्यवस्था होती है कि जैसे ही इस कड़े पर दवाब बढ़ता है या इसे खोला जाता है इसकी सूचना निकटतम पुलिस तंत्र को मिल जाती है और पुलिस वहाँ पहुंच जाती है। इसके बटन को दबाने से ही पुलिस को बुलाया जा सकता है।