मध्यकालीन भारत

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लगभग 632 ई. में 'हज़रत मुहम्मद' की मृत्यु के उपरान्त 6 वर्षों के अन्दर ही उनके उत्तराधिकारियों ने सीरिया, मिस्र, उत्तरी अफ़्रीका, स्पेन एवं ईरान को जीत लिया। इस समय ख़लीफ़ा साम्राज्य फ़्राँस के लायर नामक स्थान से लेकर आक्सस एवं काबुल नदी तक फैल गया था। अपने इस विजय अभियान से प्रेरित अरबियों की ललचायी आंखे भारतीय सीमा पर पड़ी। उन्होंने जल एवं थल दोनों मार्गों का उपयोग करते हुए भारत पर अनेक धावे बोले, पर 712 ई. तक उन्हें कोई महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त नहीं हुई।

भारत पर अरबों का आक्रमण

अपनी सफलताओं के जोश से भरे हुए अरबों ने अब सिंध पर आक्रमण करना शुरु किया। सिंध पर अरबों के आक्रमण के पीछे छिपे कारणों के विषय में विद्वानों का मानना है कि, ईराक का शासक 'अल हज्जाज' भारत की सम्पन्नता के कारण उसे जीत कर सम्पन्न बनाना चाहता था। दूसरे कारण के रूप में माना जाता है कि, अरबों के कुछ जहाज़, जिन्हें सिंध के देवल बन्दरगाह पर कुछ समुद्री लूटेरों ने लूट लिया था, के बदले में ख़लीफ़ा ने सिंध के राजा दाहिर से जुर्माने की माँग की। किन्तु दाहिर ने असमर्थता जताते हुए कहा कि, उसका उन डाकुओं पर कोई नियंत्रण नहीं है। इस जवाब से ख़लीफ़ा ने क्रुद्ध होकर सिंध पर आक्रमण करने का निश्चय किया। लगभग 712 में हज्जज के भतीजे एवं दामाद मुहम्मद बिन कासिम ने 17 वर्ष की अवस्था में सिंध के अभियान का सफल नेतृत्व किया। उसने देवल, नेरून, सिविस्तान जैसे कुछ महत्वपूर्ण दुर्गों को अपने अधिकार में कर लिया, जहां से उसके हाथ ढेर सारा लूट का माल लगा। इस जीत के बाद कासिम ने सिंध, बहमनाबाद, आलोद आदि स्थानों को जीतते हुए मध्य प्रदेश की ओर प्रस्थान किया।

मुहम्मद बिन कासिम के आक्रमण (711-715 ई.)

कासिम के द्वारा किये गए आक्रमणों में उसकी निम्न विजय उल्लेखनीय हैं-

देवल विजय

एक बड़ी सेना लेकर मुहम्मद बिन कासिम ने 711 ई. में देवल पर आक्रमण कर दिया। दाहिर ने अपनी अदूरदर्शिता का परिचय देते हुए देवल की रक्षा नहीं की और पश्चिमी किनारों को छोड़कर पूर्वी किनारों से बचाव की लड़ाई प्रारम्भ कर दी। दाहिर के भतीजे ने राजपूतों से मिलकर क़िले की रक्षा करने का प्रयास किया, किन्तु असफल रहा।

नेऊन विजय

नेऊन पाकिस्तान में वर्तमान हैदराबाद के दक्षिण में स्थित चराक के समीप था। देवल के बाद मुहम्मद कासिम नेऊन की ओर बढ़ा। दाहिर ने नेऊन की रक्षा का दायित्व एक पुरोहित को सौंप कर अपने बेटे जयसिंह को ब्राह्मणाबाद बुला लिया। नेऊन में बौद्धों की संख्या अधिक थी। उन्होंने मुहम्मद बिन कासिम का स्वागत किया। इस प्रकार बिना युद्ध किए ही मीर कासिम का नेऊन दुर्ग पर अधिकार हो गया।

सेहवान विजय

नेऊन के बाद मुहम्मद बिना कासिम सेहवान (सिविस्तान) की ओर बढ़ा। इस समय वहां का शासक माझरा था। इसने बिना युद्ध किए ही नगर छोड़ दिया और बिना किसी कठिनाई के सेहवान पर मुहम्मद बिन कासिम का अधिकार हो गया।

सीसम के जाटों पर विजय

सेहवान के बाद मुहम्मद बिन कासिम ने सीसम के जाटों पर अपना अगला आक्रमण किया। बाझरा यही पर मार डाला गया। जाटों ने मुहम्मद बिन कासिम की अधीनता स्वीकार कर ली।

राओर विजय

सीसम विजय के बाद कासिम राओर की ओर बढ़ा। दाहिर और मुहम्मद बिन कासिम की सेनाओं के बीच घमासान युद्ध हुआ। इसी युद्ध में दाहिर मारा गया। दाहिर के बेटे जयसिंह ने राओर दुर्ग की रक्षा का दायित्व अपनी विधवा माँ पर छोड़कर ब्राह्मणावाद चला गया। दुर्ग की रक्षा करने में अपने-आप को असफल पाकर दाहिर की विधवा पत्नी ने आत्मदाह कर लिया। इसके बाद कासिम का राओर पर नियंत्रण स्थापित हो गया।

ब्राह्मणावाद पर अधिकार

ब्राह्मणावाद की सुरक्षा का दायित्व दाहिर के पुत्र जयसिंह के ऊपर था। उसने कासिम के आक्रमण का बहादुरी के साथ सामना किया, किन्तु नगर के लोगों के विश्वासघात के कारण वह पराजित हो गया। ब्राह्मणावाद पर कासिम का अधिकार हो गया। कासिम ने यहां का कोष तथा दाहिर की दूसरी विधवा रानी लाडी के साथ उसकी दो पुत्रियों सूर्यदेवी तथा परमल देवी को अपनी क़ब्ज़े में कर लिया।

आलोर विजय

ब्राह्मणावाद पर अधिकार के बाद कासिम आलोर पहुंचा। प्रारम्भ में आलोर के निवासियों ने कासिम का सामना किया, किन्तु अन्त में विवश होकर आत्मसमर्पण कर दिया।

मुल्तान विजय

आलोर पर विजय प्राप्त करने के बाद कासिम मुल्तान पहुँचा। यहाँ पर आन्तरिक कलह के कारण विश्वासघातियों ने कासिम की सहायता की। उन्होंने नगर के जलस्रोत की जानकारी अरबों को दे दी, जहाँ से दुर्ग निवासियों को जल की आपूर्ति की जाती थी। इससे दुर्ग के सैनिकों ने आत्मसमर्पण कर दिया। कासिम का नगर पर अधिकार हो गया। इस नगर से मीरकासिम को इतना धन मिला की उसने इसे 'स्वर्णनगर' नाम दिया।

मुहम्मद बिन कासिम की वापसी

714 ई. में हज्जाज की और 715 ई में ख़लीफ़ा की मृत्यु के उपरान्त मुहम्मद बिन कासिम को वापस बुला लिया गया। सम्भवतः सिंध विजय अभियान में मुहम्मद बिन कासिम की वहाँ के बौद्ध भिक्षुओं ने सहायता की थी। अरब की राजनैतिक स्थिति सामान्य न होने के कारण दाहिर ने अपने पुत्र जयसिंह को बहमनाबाद पर पुनः कब्जा करने के लिए भेजा, परन्तु सिंध के राज्यपाल जुनैद ने जयसिंह को हरा कर बंदी बना लिया। ब्राह्मणबाद के पतन के बाद मुहम्मद बिन कासिम ने दाहिर की दूसरी विधवा रानी लाडी और दाहिर की दो कन्याओं सूर्यदेवी और परमलदेवी को बन्दी बनाया। कालान्तर ने कई बार जुनैद ने भारत के आन्तरिक भागों को जीतने हेतु सेनाऐं भेजी, परन्तु नागभट्ट प्रथम (प्रतिहार), पुलकेशिन एवं यशोवर्मन (चालुक्य) ने इसे वापस खदेड़ लिया। इस प्रकार अरबियों का शासन भारत में सिंध प्रांत तक सिमट कर रह गया। कालान्तर में उन्हें सिंध का भी त्याग करना पड़ा।

अरबों के भारत पर आक्रमण का परिणाम

अरब आक्रमण का भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति पर लगभग 1000 ई. तक प्रभाव रहा। प्रारम्भ में अरबियों ने कठोरता से इस्लाम धर्म को थोपने का प्रयास किया, पर तत्कालीन शासकों के विरोध के कारण उन्हे अपनी नीति बदलनी पड़ी। सिंध पर अरबों के शासन से परस्पर दोनों संस्कृतियों के मध्य प्रतिक्रिया हुई। अरबियों की मुस्लिम संस्कृति पर भारतीय संस्कृति का काफ़ी प्रभाव पड़ा। अरब वासियों ने चिकित्सा, दर्शन, नक्षत्र विज्ञान, गणित (दशमलव प्रणाली) एवं शासन प्रबंध की शिक्षा भारतीयों से ही ग्रहण की। चरक संहिता एवं पंचतंत्र ग्रंथों का अरबी भाषा में अनुवाद किया गया। बगदाद के ख़लीफ़ाओं ने भारतीय विद्धानों को संरक्षण प्रदान किया। ख़लीफ़ा मंसूर के समय में अरब विद्धानों ने अपने साथ ब्रह्मगुप्त द्वारा रचित 'ब्रह्मसिद्धान्त' एवं 'खण्डनखाद्य' को लेकर बगदाद गये और अल-फ़ाजरी ने भारतीय विद्वानों के सहयोग से इन ग्रंथों का अरबी भाषा में अनुवाद किया। भारतीय सम्पर्क से अरब सबसे अधिक खगोल शास्त्र के क्षेत्र में प्रभावित हुआ। भारतीय खगोल शास्त्र के आधार पर अरबों ने इस विषय पर अनेक पुस्तकों की रचना की, जिसमें सबसे प्रमुख अल-फ़ाजरी की किताब-उल-जिज है

अरबों ने भारत में अन्य विजित प्रदेशों की तरह धर्म पर आधारित राज्य स्थापित करने का प्रयास नहीं किया। हिन्दुओं को महत्व के पदों पर बैठाया गया। इस्लाम धर्म ने हिन्दू धर्म के प्रति सहिष्णुता का प्रदर्शन किया। अरबों की सिंध विजय का आर्थिक क्षेत्र भी प्रभाव पड़ा। अरब से आने वाले व्यापारियों ने पश्चिम समुद्र एवं दक्षिण पूर्वी एशिया में अपने प्रभाव का विस्तार किया। अतः यह स्वाभाविक था कि, भारतीय व्यापारी उस समय की राजनीतिक शक्तियों पर दबाव डालते कि, वे अरब व्यापारियों के प्रति सहानुभूति पूर्ण रुख अपनायें।

तुर्की आक्रमण

अरबों के बाद तुर्को ने भारत पर आक्रमण किया। तुर्क, चीन की उत्तरी-पश्चिमी सीमाओं पर निवास करने वाली एक असभ्य एवं बर्बर जाति थी। उनका उद्देश्य एक विशाल मुस्लिम साम्राज्य स्थापित करना था। अलप्तगीन नामक एक तुर्क सरदार ने ग़ज़नी में स्वतन्त्र तुर्क राज्य की स्थापना की। 977 ई. में अलप्तगीन के दामाद सुबुक्तगीन ने ग़ज़नी पर अधिकार कर लिया। भारत पर आक्रमण करने वाला प्रथम मुस्लिम मुहम्मद बिन कासिम (अरबी) था, जबकि भारत पर आक्रमण करने वाला प्रथम तुर्की मुसलमान सुबुक्तगीन था। सुबुक्तगीन से अपने राज्य को होने वाले भावी ख़तरे का पूर्वानुमान लगाते हुए दूरदर्शी हिन्दुशाही वंश के शासक जयपाल ने दो बार उस पर आक्रमण किया, किन्तु दुर्भाग्यवश प्रकृति की भयाभय लीलाओं के कारण उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा। अपमान एवं क्षोभ से संतप्त जयपाल ने आत्महत्या कर ली। 986 ई. में सुबुक्तगीन ने हिन्दुशाही राजवंश के राजा जयपाल के ख़िलाफ़ एक संघर्ष में भाग लिया, जिसमें जयपाल की पराजय हुई। सुबुक्तगीन के मरने से पूर्व उसके राज्य की सीमायें अफ़ग़ानिस्तान, खुरासान, बल्ख एवं पश्चिमोत्तर भारत तक फैली थी।

सुबुक्तगीन की मुत्यु के बाद उसका पुत्र एवं उत्तराधिकारी महमूद ग़ज़नवी ग़ज़नी की गद्दी पर बैठा। ‘तारीख ए गुजीदा’ के अनुसार महमूद ने सीस्तान के राजा खलफ बिन अहमद को पराजित कर सुल्तान की उपाधि धारण की। इतिहासविदों के अनुसार सुल्तान की उपाधि धारण करने वाला महमूद पहला तुर्क शासक था। महमूद ने बगदाद के ख़लीफ़ा से ‘यामीनुदौला’ तथा ‘अमीर-उल-मिल्लाह’ उपाधि प्राप्त करते समय प्रतिज्ञा की थी, कि वह प्रति वर्ष भारत पर एक आक्रमण करेगा। इस्लाम धर्म के प्रचार और धन प्राप्ति के उद्देश्य से उसने भारत पर 17 बार आक्रमण किये। इलियट के अनुसार ये सारे आक्रमण 1001 से 1026 ई. तक किये गये। अपने भारतीय आक्रमणों के समय महमूद ने ‘जेहाद’ का नारा दिया, साथ ही अपना ‘बुत शिकन’ रखा। हालांकि इतिहासकार महमूद ग़ज़नवी को मुस्लिम इतिहास में प्रथम सुल्तान मानते हैं, किन्तु सिक्कों पर उसकी उपाधि केवल ‘अमीर महमूद’ मिलती है।




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