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[[चित्र:Kumbhalgarh-Udaipur-1.jpg|thumb|300px|कुंभलगढ़ दुर्ग, [[उदयपुर]]]]
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{{सूचना बक्सा ऐतिहासिक स्थान
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|चित्र=Kumbhalgarh-Udaipur-1.jpg
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|विवरण=मेवाड़ [[राजस्थान]] के दक्षिण मध्य में स्थित एक प्रसिद्ध रियासत थी। इसमें [[आधुनिक भारत]] के [[उदयपुर]], [[भीलवाड़ा]], [[राजसमन्द ज़िला|राजसमंद]] तथा [[चित्तौरगढ़ ज़िला|चित्तौड़गढ़ ज़िले]] सम्मिलित थे।
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'''मेवाड़''' [[राजस्थान]] के दक्षिण मध्य में स्थित एक प्रसिद्ध रियासत थी। इसे [[उदयपुर]] राज्य के नाम से भी जाना जाता था। इसमें [[आधुनिक भारत]] के उदयपुर, [[भीलवाड़ा]], [[राजसमन्द ज़िला|राजसमंद]] तथा [[चित्तौड़गढ़]] ज़िले सम्मिलित थे। सैकड़ों सालों तक यहाँ [[राजपूत|राजपूतों]] का शासन रहा। [[गहलौत वंश|गहलौत]] तथा [[सिसोदिया वंश]] के राजाओं ने 1200 साल तक मेवाड़ पर राज किया था।
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==इतिहास==
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{{main|मेवाड़ का इतिहास}}
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राजस्थान का मेवाड़ राज्य पराक्रमी गहलौतों की भूमि रहा है, जिनका अपना एक इतिहास है। इनके रीति-रिवाज तथा इतिहास का यह स्वर्णिम ख़ज़ाना अपनी मातृभूमि, [[धर्म]] तथा [[संस्कृति]] व रक्षा के लिए किये गये गहलौतों के पराक्रम की याद दिलाता है। स्वाभाविक रूप से यह इस धरती की ख़ास विशेषताओं, लोगों की जीवन पद्धति तथा उनके आर्थिक तथा सामाजिक दशा से प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता रहा है। शक्ति व समृद्धि के प्रारंभिक दिनों में मेवाड़ सीमाएँ उत्तर-पूर्व के तरफ़ [[बयाना]], दक्षिण में रेवाकंठ तथा मणिकंठ, पश्चिम में पालनपुर तथा दक्षिण-पश्चिम में [[मालवा]] को छूती थी। [[ख़िलजी वंश]] के [[अलाउद्दीन ख़िलजी]] ने 1303 ई. में मेवाड़ के गहलौत शासक [[रतन सिंह]] को पराजित करके इसे [[दिल्ली सल्तनत]] में मिला लिया था। [[चित्र:Palace-Of-Rana-Of-Mewar-Udaipur.jpg|thumb|left|राणा का महल, मेवाड़ ([[उदयपुर]])]] [[गहलौत वंश]] की एक अन्य शाखा '[[सिसोदिया वंश]]' के हम्मीरदेव ने [[मुहम्मद बिन तुग़लक़|मुहम्मद तुग़लक]] के समय में [[चित्तौड़गढ़|चित्तौड़]] को जीत कर पूरे मेवाड़ को स्वतंत्र करा लिया। 1378 ई. में हम्मीरदेव की मृत्यु के बाद उसका पुत्र क्षेत्रसिंह (1378-1405 ई.) मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। क्षेत्रसिंह के बाद उसका पुत्र लक्खासिंह 1405 ई. में सिंहासन पर बैठा। लक्खासिंह की मृत्यु के बाद 1418 ई. में इसका पुत्र मोकल राजा हुआ। मोकल ने कविराज बानी विलास और योगेश्वर नामक विद्वानों को आश्रय अपने राज्य में आश्रय प्रदान किया था। उसके शासन काल में माना, फन्ना और विशाल नामक प्रसिद्ध शिल्पकार आश्रय पाये हुये थे। मोकल ने अनेक मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया तथा एकलिंग मंदिर के चारों तरफ़ परकोटे का भी निर्माण कराया। [[गुजरात]] शासक के विरुद्ध किये गये एक अभियान के समय उसकी हत्या कर दी गयी। 1431 ई. में मोकल की मृत्यु के बाद [[राणा कुम्भा]] मेवाड़ के राज सिंहासन पर बैठा। राणा कुम्भा तथा [[राणा सांगा]] के समय राज्य की शक्ति उत्कर्ष पर थी, लेकिन लगातार होते रहे बाहरी आक्रमणों के कारण राज्य विस्तार में क्षेत्र की सीमा बदलती रही। [[अम्बाजी (मराठा साम्राज्य)|अम्बाजी]] नाम के एक [[मराठा]] सरदार ने अकेले ही मेवाड़ से क़रीब दो करोड़ रुपये वसूले थे।
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==भौगोलिक पृष्ठभूमि==
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{{main|मेवाड़ का भूगोल}}
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मेवाड़, [[राजपूताना]] के दक्षिण भाग में स्थित है। यह उत्तरी अक्षांश 25° 58' से 49° 12' तक तथा पूर्वी देशांतर 45° 51' 30' से 73° 7' तक फैला हुआ है। लंबाई में यह उत्तर से दक्षिण तक 147.6 मील तथा चौड़ाई में पूर्व से पश्चिम तक 163.04 मील था। इस प्रकार मेवाड़ का कुल विस्तार 12,691 वर्ग मील था। इसके उत्तर में [[अजमेर]]-मेवाड़ प्रदेश तथा [[शाहपुरा]] राज्य थे, पश्चिम में [[सिरोही]], दक्षिण-पश्चिम में [[इडर]], दक्षिण में डुंगरपुर, [[बाँसवाड़ा]] का कुछ हिस्सा तथा [[प्रतापगढ़ ज़िला (राजस्थान)|प्रतापगढ़]] के राज्य थे। पूर्व में [[नीमच]] व निंबाहेड़ा के ज़िले तथा [[बूँदी राजस्थान|बूँदी]] और [[कोटा राजस्थान|कोटा]] राज्य स्थित थे। मेवाड़ राज्य आकार में आयताकार है। क़रीब-क़रीब अधिकांश क्षेत्र [[अरावली पर्वत श्रृंखला|अरावली पर्वत श्रृंखलाओं]] से आच्छादित है, जिसके [[पर्वत]] पृष्ठ तीव्र तथा [[पठार]] उथले हैं। बैरत, दुधेश्वर, कमलीघाट आदि इस क्षेत्र की प्रमुख श्रृंखलाएँ हैं तथा जागरा, रणकपुर, गोगुंडा, बोमट, गिरवा तथा मागरा आदि पठारों के उदाहरण हैं। मेवाड़ की सीमा रेखा का कार्य खाड़ी नदी करती रही, जिसका प्रादुर्भाव पश्चिमी पर्वत श्रृंखलाओं से हुआ है। मेवाड़ [[अजमेर]]-[[मारवाड़]] के बीच एक प्राकृतिक सीमा रेखा का कार्य करता है। विभिन्न बाँध तथा पोखरियाँ अपनी प्राकृतिक बनावट के कारण इसे सुरक्षा प्रदान करती हैं। मेवाड़ के देशभक्त व समर्पित योद्धा अपनी धरती के लिए लड़ने तथा अपना अधिकार प्राप्त करने के सतत् प्रयास के लिए एक आदर्श उदाहरण के रूप में सदियों तक याद किये जाते रहेंगे।
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====नदियाँ====
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{{main|मेवाड़ की नदियाँ}}
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[[चित्र:Banas-River.jpg|thumb|200px|[[बनास नदी]]]]
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मेवाड़ की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथा प्रमुख [[बनास नदी]] है, जिसका उद्गम स्थल [[अरावली पर्वतमाला]] में [[कुंभलगढ़]] के निकट है। बनास नदी यहाँ से प्रवाहित होती हुई मैदानी भाग में पहुँचती है और अंत में मांडलगढ़, जो [[उदयपुर]] के उत्तर-पूर्व में लगभग 100 मील {{मील|मील=100}} की दूरी पर स्थित है, के निकट इसमें बेड़च नदी आकर मिल जाती है। इस स्थान को 'त्रिवेणी तीर्थ' माना जाता था। अन्त में यह [[अजमेर]] तथा [[जयपुर]] रियासत की सीमा में पहुँच जाती है और [[चंबल नदी]] में जा मिलती है। बनास नदी के अतिरिक्त मेवाड़ की अन्य नदियों में खारी, मानसी, [[कोठारी नदी|कोठारी]], बेड़च, जाकम तथा [[सोम नदी|सोम]] इस प्रदेश की मुख्य नदियाँ हैं।
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==चित्रकला==
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{{main|मेवाड़ की चित्रकला}}
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17वीं और 18वीं शताब्दी में मेवाड़ की चित्रकला भारतीय लघु चित्रकला की महत्त्वपूर्ण शैलियों में से एक है। यह एक राजस्थानी शैली है, जो [[हिन्दू]] रियासत मेवाड़ ([[राजस्थान]]) में विकसित हुई। सादे चटकीले [[रंग]] और सीधा भावनात्मक आकर्षण इस शैली की विशेषता है। इस शैली की मूल स्थानों और तिथियों सहित बहुत-सी कलाकृतियाँ मिली हैं, जिनसे अन्य राजस्थानी शैलियों के मुक़ाबले मेवाड़ में चित्रकला के विकास के बारे में सटीक जानकारी मिलती है। इसके प्राचीनतम उदाहरण रंगमाला (राग-रागिनियों के भाव) श्रृंखला के हैं, जिन्हें राज्य की प्राचीन राजधानी चांवड़ में 1605 में चित्रित किया गया था। 1680 तक कुछ भिन्नताओं के साथ यह शैली अभिव्यक्तिपूर्ण और सशक्त बनी रही, जिसके बाद इस पर [[चित्रकला मुग़ल शैली|मुग़ल]] प्रभाव हावी होने लगा। साहिबदीन आरंभिक काल के कुछ प्रमुख चित्रकारों में से एक थे।
  
मेवाड़ [[राजस्थान]] के दक्षिण मध्य में एक रियासत थी। मेवाड़ को [[उदयपुर]] राज्य के नाम से भी जाना जाता था। इसमें आधुनिक [[भारत]] के [[उदयपुर ज़िला|उदयपुर]], [[भीलवाड़ा ज़िला|भीलवाड़ा]], [[राजसमंद ज़िला|राजसमंद]], तथा [[चित्तौडगढ़ ज़िला|चित्तौडगढ़]] ज़िले थे। सैकड़ों सालों तक यहाँ राजपूतों का शासन रहा और इस पर गहलौत तथा सिसोदिया राजाओं ने 1200 साल तक राज किया था।
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मेवाड़ में चित्रांकन की अपनी एक विशिष्ट परंपरा रही है, जिसे यहाँ के चित्रकार पीढियों से अपनाते रहे हैं। 'चितारे'<ref>चित्रकार वर्ग</ref> अपने अनुभवों एवं सुविधाओं के अनुसार चित्रण के कई नए तरीके भी खोजते रहे। रोचक तथ्य यह है कि वहाँ के कई स्थानीय चित्रण केन्द्रों में वे परंपरागत तकनीक आज भी जीवित हैं। तकनीकों का प्रादुर्भाव पश्चिमी भारतीय चित्रण पद्धति के अनुरूप ही ताड़ पत्रों के चित्रण कार्यों में ही उपलब्ध होता है।[[चित्र:Mewar-painting-7.jpg|thumb|left|महल के तरणताल (स्वीमिंग पूल) में महाराणा भीम सिंह अपने साथियों के साथ]] यशोधरा द्वारा उल्लेखित षडांग के संदर्भ एवं 'समराइच्चकहा' एवं 'कुवलयमाला' कहा जैसे ग्रंथों में 'दट्ठुम' शब्द का प्रयोग चित्र की समीक्षा हेतु हुआ है, जिससे इस क्षेत्र की उत्कृष्ट परंपरा के प्रमाण मिलते हैं। ये चित्र मूल्यांकन की कसौटी के रूप में प्रमुख मानक तथा समीक्षा के आधार थे। विकास के इस सतत् प्रवाह में विष्णु धर्मोत्तर पुराण, समरांगण सूत्रधार एवं चित्र लक्षण जैसे अन्य ग्रंथों में वर्णित चित्र कर्म के सिद्धांत का भी पालन किया गया है। परंपरागत कला सिद्धांतों के अनुरूप ही शास्त्रीय विवेचन में आये आदर्शवाद एवं यथार्थवाद का निर्वाह हुआ है। प्रारंभिक स्वरूपों का उल्लेख आठवीं सदी में हरिभद्रसूरि द्वारा रचित 'समराइच्चिकहा' एवं 'कुवलयमालाकहा' जैसे प्राकृत ग्रंथों से प्राप्त कला संदर्भों में मिलता है। इन ग्रंथों में विभिन्न प्रकार के रंग-तुलिका एवं चित्रफलकों का तत्कालीन साहित्यिक संदर्भों के अनुकूल उल्लेख मेवाड़ में प्रामाणित रूप से चित्रण के तकनीकी पक्ष का क्रमिक विकास यहीं से मानते हैं। यहाँ के चित्रावशेष 1229 ई. के उत्कीर्ण भित्तिचित्रों एवं 1260 ई के ताल पत्रों पर मिलते हैं।<ref>{{cite web |url=http://www.ignca.nic.in/coilnet/rj133.htm |title=मेवाड़ चित्रकला की चित्रण सामग्री|accessmonthday=14 जनवरी|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=[[हिन्दी]]}}</ref>
==इतिहास==
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[[अलाउद्दीन ख़िलजी]] ने 1303 ई. में मेवाड़ के [[गहलौत राजवंश]] के शासक [[रतनसिंह]] को पराजित कर मेवाड़ को [[दिल्ली]] सल्तनत में मिलाया। गहलौत वंश की एक शाखा '''सिसोदिया वंश''' के हम्मीरदेव ने [[मुहम्मद बिन तुग़लक़|मुहम्मद तुग़लक]] के समय में [[चित्तौड़गढ़|चित्तौड़]] को जीत कर पूरे मेवाड़ को स्वतंत्र करा लिया। 1378 ई. में हम्मीदेव की मृत्यु के बाद उसका पुत्र क्षेत्रसिंह (1378 -1405 ई.) मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। क्षेत्रसिंह के बाद उसका पुत्र लक्खासिंह 1405 ई. में सिंहासन पर बैठा। लक्खासिंह की मृत्यु के बाद 1418 ई. में इसका पुत्र मोकल राजा हुआ। मोकल ने कविराज बानी विलास और योगेश्वर नामक विद्वानों को आश्रय दिया। उसके शासनकाल में माना, फन्ना और विशाल नामक प्रसिद्ध शिल्पकार आश्रय पाये हुये थे। मोकल ने अनेक मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया तथा एकलिंग मंदिर के चारों तरफ परकोटे का भी निर्माण कराया। उसकी [[गुजरात]] शासक के विरुद्ध किये गये अभियान के समय हत्या कर दी गयी। 1431 ई. में उसकी मृत्यु के बाद राणा कुम्भा मेवाड़ के राज सिंहासन पर बैठा। [[अम्बाजी]] नाम के एक मराठा सरदार ने अकेले ही मेवाड़ से क़रीब दो करोड़ रुपये वसूले थे।  
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{{seealso|मेवाड़ की चित्रकला (तकनीकी)}}
{{tocright}}
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;<u>राणा कुम्भा</u>
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==भाषा एवं लिपि==
कुम्भकरण व राणा कुम्भा के शासन काल में उसका एक रिश्तेदार रानमल काफ़ी शक्तिशाली हो गया। रानमल से ईर्ष्या करने वाले कुछ राजपूत सरदारों ने उसकी हत्या कर दी। राणा कुम्भा ने अपने प्रबल प्रतिद्वन्द्वी [[मालवा]] के शासक हुसंगशाह को परास्त कर 1448 ई. में चित्तौड़ में एक '''कीर्ति स्तम्भ''' की स्थापना की। स्थापत्य [[कला]] के क्षेत्र में उसकी अन्य उपलब्धियों में मेवाड़ में निर्मित 84 क़िलों में से 32 क़िले हैं। जिसे राणा कुम्भा ने बनवाया था। मध्य युग के शासकों में राणा कुम्भा एक महान शासक था। वह स्वयं विद्वान तथा [[वेद]], [[स्मृतियाँ|स्मृति]], मीमांसा, [[उपनिषद]], व्याकरण, राजनीति और [[साहित्य]] का ज्ञाता था। उसने चार स्थानीय भाषाओं में चार नाटकों की रचना की तथा जयदेवकृत '''गीतगोविन्द''' पर रसिक प्रिया नामक टीका लिखा। उसने [[कुम्भगढ़]] के नवीन नगर और क़िले में अनेक शानदार इमारतें बनवायीं। उसने अत्री और महेश को अपने दरबार में संरक्षण दिया था। जिन्होंने प्रसिद्ध विजय स्तम्भ की रचना की थी। उसने [[बसंतपुर]] नामक स्थान को पुनः आबाद किया। 1473 ई. में उसकी हत्या उसके पुत्र उदय ने कर दी। राजपूत सरदारों के विरोध के कारण उदय अधिक दिनों तक सत्ता-सुख नहीं भोग सका। उदय के बाद उसका छोटा भाई राजमल (1473 से 1509 ई.) गद्दी पर बैठा। 36 वर्ष के सफल शासन काल के बाद 1509 ई. में उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र राणा संग्राम सिंह या [[राणा साँगा]] (1509 से 1528 ई.) मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। उसने अपने शासन काल में [[दिल्ली]], मालवा, गुजरात के विरुद्ध अभियान किया। 1527 ई. में खानवा के युद्ध में वह [[मुग़ल]] बादशाह [[बाबर]] द्वारा पराजित कर दिया गया। इसके बाद शक्तिशाली शासन के अभाव में [[जहाँगीर]] ने इसे मुग़ल साम्राज्य के अधीन कर लिया। मेवाड़ की स्थापना [[राठौरवंश|राठौरवंशी]] शासक चुन्द ने की थी। [[जोधपुर]] की स्थापना चुन्द के पुत्र जोधा ने की थी।
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*मेवाड़ क्षेत्र की मुख्य [[भाषा]] मेवाड़ी है, जो [[हिन्दी]] का ही एक विकृत रुप है। राज्य के दक्षिण तथा पश्चिमी हिस्सों के लोगों तथा [[भील|भीलों]] की भाषा वागड़ी है, जो [[गुजराती भाषा|गुजराती]] से मिलती-जुलती है। यह यहाँ के पूर्वी हिस्से में, खैराड़ की तरफ़, बोली जाती है, जो मेवाड़ी, ढूँढाड़ी तथा हाड़ौती का ही मिश्रण है।
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*मेवाड़ राज्य की प्रचलित [[नागरी लिपि|लिपि नागरी]] है। यह यहाँ की राजकीय लिपि भी हुआ करती थी। यहाँ की नागरी लिपि लकीर खींचकर घसीट रूप में लिखी जाती है। राजकीय अदालतों में इसे कुछ अशुद्ध रूप में लिखा जाता था तथा साथ में [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] शब्दों का भी इस्तेमाल किया जाता था। महाजन लोगों के पत्र-व्यवहार में प्रयुक्त नागरी लिपि में भी शुद्धता का विचार कम ही रहता है।
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==हिन्दू धर्म का विकास==
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मेवाड़ में वेदानुयायियों को पाँच हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है- [[शैव संप्रदाय|शैव]], [[वैष्णव संप्रदाय|वैष्णव]], [[शाक्त सम्प्रदाय|शाक्त]], गणपत्य और सौर (सूर्य)। इन पाँचों में से शैव, वैष्णव व शाक्त अधिक प्रचलित थे। संन्यासी, नाथ तथा बहुत से [[ब्राह्मण]] शैवों के आचार्य थे, लेकिन इनमें मतभेद था। वैष्णवोंरामावत, नीमावत, माधवाचार्य तथा विष्णुस्वामी, इन चारों नामों से चार सम्प्रदाय प्रसिद्ध हैं। पुनः इनमें कई प्रशाखाएँ बन गई थीं, जैसे- [[रामसनेही सम्प्रदाय]], दादूपंथी, कबीरपंथी, नारायणपंथी आदि। इनके आचार-विचार में भी कुछ-कुछ भिन्नताएँ थीं। कुछ [[अद्वैत]] सिद्धांत तो कुछ उपासना पक्ष का आश्रय लेते थे। मेवाड़ के अधिकांश राजा शैव रहे थे। शाक्तों की यहाँ दो शाखाएँ थी- एक दक्षिण व दूसरी वाम। दक्षिण शाखा के अनुयायी वेदानुकूल [[पूजा]], प्रतिष्ठा, जप, होमादि करते हैं तथा वाम शाखा तंत्रशास्र के अनुसार पशु हिंसा और मद्य-मांसाचरण करते हैं। ये लोग चर्मकारी रजकी और चाण्डाली को काशीसेवी, प्रागसेवी; मांस को शुद्धि, मद्य को तीर्थ, कांदा (प्याज) को वयाज और लहसुन को शुकदेव कहते थे। रजस्वला व चाण्डाली की पूजा करते थे। इनका मुख्य सिद्धांत इस [[श्लोक]] के अनुसार होता था-
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<blockquote><poem>अन्तः शाक्ता बहिशैवा: सभा मध्ये च वैष्णवा:।
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नाना रुप धरा: कौला विचरन्ति मही तले ।।</poem></blockquote>
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[[चित्र:Jain-temple-mewar.jpg|300px|thumb|जैन मंदिर, [[चित्तौड़गढ़]]]]
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मेवाड़ में शैव मतावलम्बियों के लिए प्रमुख स्थान कैलासपुरी है, जो [[एकलिंगजी उदयपुर|एकलिंगेश्वर]] की पुरी के रूप में भी जाना जाता है। एकलिंगेश्वर इस देश के राजा माने जाते थे तथा महाराणा इसके दीवान। शिवमत के अधिकांश मठधारी, महन्त व गोंसाई निरक्षर थे। वैष्णव मतावलम्बियों क लिए चार प्रमुख स्थान हैं- [[नाथद्वारा]], कांकड़ौली, चारभुजा और रूपनारायण। नाथद्वारा और कांकड़ौली के गुसाईयों का वैष्णव सम्प्रदाय में विशेष महत्व है। इस मत को 15वीं सदी में [[वल्लभाचार्य]] ने प्रचलित किया था। उनके सात पुत्र थे। सातों की गद्दियाँ व पूजन की मूर्तियाँ अलग-अलग थीं। सबसे बड़ी मूर्ति आठवीं नाथद्वारा के श्री गोवर्द्धननाथ की थी। सातों भाइयों में टीकेत गोस्वामी भी, नाथद्वारा के गोस्वामी ही कहलाते थे तथा कांकड़ौली वाले उनके छोटे भाइयों में से थे।<ref>{{cite web |url= http://www.ignca.nic.in/coilnet/rj127.htm|title=मेवाड़ में हिन्दू धर्म का विकास|accessmonthday=14 जनवरी|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=[[हिन्दी]]}}</ref>
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==प्रमुख लोक संस्कार==
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{{main|मेवाड़ के लोक संस्कार}}
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प्रारम्भ से ही मेवाड़ सामाजिक एवं धार्मिक रूढ़ियों में जकड़ा रहा था। इन रूढ़ियों ने कई सामाजिक-धार्मिक संस्कारों को जन्म दिया तथा उन्हें समाज में एक स्थान दिया। यहाँ प्रचलित [[सोलह संस्कार|सोलह संस्कारों]] में से कुछ संस्कार थे- [[विवाह]], [[अंत्येष्टि संस्कार|मृतक संस्कार]], [[पुंसवन संस्कार|पुंसवन]], [[सीमन्तोन्नयन संस्कार|सीमन्तोन्नयन]], [[जातकर्म संस्कार|जातकर्म]], [[नामकरण संस्कार|नामकरण]], [[अन्नप्राशन संस्कार|अन्नप्राशन]] और [[चूड़ाकरण संस्कार|चूड़ाकरण]]। इन संस्कारों में [[विवाह]] तथा [[अंत्येष्टि संस्कार|मृतक संस्कार]] सामाजिक जीवन के अभिन्न अंग थे। अन्य संस्कारों का समाज पर उतना प्रभाव नहीं था। परन्तु 19वीं सदी के उपरान्त धीरे-धीरे संस्कारों का वैदिक स्वरूप लोक संस्कारों में परिवर्तित होने लगा था तथा लम्बे समय तक व्यवहार में आते-आते धार्मिक प्रथाओं का रूप ग्रहण कर चुका था।
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==जातिगत व्यवस्था==
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[[चित्र:Mewar-festival-2.jpg|thumb|left|मेवाड़ महोत्सव]]
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{{main|मेवाड़ की जातिगत सामाजिक व्यवस्था}}
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मेवाड़ की जातिगत सामाजिक व्यवस्था परम्परागत रूप से ऊँच-नीच, पद-प्रतिष्ठा तथा वंशोत्पन्न जातियों के आधार पर संगठित थी। सामाजिक संगठन में प्रत्येक जाति का महत्व उस जाति की वंशोत्पत्ति तथा उसके द्वारा अंगीकृत व्यवसाय पर निर्भर थी। जाति-व्यवस्था को स्थायित्व प्रदान करने तथा उसके अस्तित्व को अक्षुण बनाये रखने में जाति पंचायतों की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। जातिगत पंचायतें अपनी जातियों को व्यवस्थित रूप से संचालित करते हुए खान-पान, शादी-[[विवाह]] एवं रीति-रिवाजों से सम्बन्धित समय-समय पर नियम बनाती थीं और अपनी जाति के लोगों से जातीय विभागों एवं मर्यादाओं का पालन करवाती थीं। इस कार्य में जाति-पंचायतों को राजकीय संरक्षण भी प्राप्त था। जब मेवाड़ की आलोच्यकालीन सामाजिक संरचना के स्वरूप का विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं कि सामाजिक रचना में वर्ण-व्यवस्था केवल भावात्मक रूप में विद्यमान रह गई थी। जाति और [[धर्म]] ही इस काल के वर्ग तथा व्यवसाय को प्रभावित किये हुए थे। 18वीं शताब्दी तक का मेवाड़ी समाज धर्म के आधार पर दो भागों [[हिन्दू]] तथा [[मुस्लिम]] में वर्गीकृत था। हिन्दू समुदाय में वैदिक, जैन तथा आत्मवादी माने जा सकते हैं, वही मुस्लिम समुदाय में '[[शिया]]' तथा '[[सुन्नी]]' दो उपभाग विद्यमान थे।
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====व्यवसाय करने वाली जातियाँ====
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[[चित्र:Mewar-architectural.jpg|thumb|मेवाड़ की वास्तुकला]]
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{{main|मेवाड़ की व्यवसायी जातियाँ}}
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मेवाड़ में कुछ जातियाँ ऐसी भी थीं, जो पूर्णत: [[कृषि]] करने वाली मानी जाती थीं, जैसे- जाट माली, डाँगी धाकड़ और जणवा। मेवाड़ की जनसंख्या में इनका प्रतिनिधित्व 17 प्रतिशत था। यद्यपि ये सभी जातियाँ अपने स्वजाति नियमों से आबद्ध थीं, फिर भी इनमें ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं था। सामाजिक, आर्थिक पद-स्तर पर सभी किसान अपने को 'करसा' कहलाने में गर्व का अनुभव करते थे। [[विवाह]] स्वजाति में ही होता था, किंतु विवाह के नियम कठोर नहीं थे। विधवा विवाह, पुनर्विवाह तथा विवाह विच्छेद सुगमतापूर्वक 'रित' और 'नाता' की परम्परानुसार हो जाते थे। इसीलिए समाज में उन्हें 'नातायती' जातियाँ कहा जाता था।
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==स्त्रियों की स्थिति==
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{{main|मेवाड़ी समाज में स्त्रियों की स्थिति}}
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पहले मेवाड़ी समाज में स्त्रियों को अधिक स्वतंत्रता प्राप्त थी। इसके साथ ही निर्णय आदि के कई महत्त्वपूर्ण अधिकार भी उन्हें प्राप्त थे। बाद में बदलती हुई परिस्थितियों ने समाज में इनके महत्व को कम कर दिया। अभिलेखीय एवं साहित्यिक स्रोतों से पता चलता है कि महाराणा राजसिंह द्वितीय के शासन काल तक राज परिवार एवं कुलीन वर्ग की स्त्रियों में [[पर्दा प्रथा]] नहीं थी। [[मराठा|मराठों]] एवं [[पिण्डारी|पिण्डारियों]] के आक्रमण काल से ही 'पर्दा प्रथा' आरंभ हो गई थी, जिसका प्रभाव अन्य द्विज जातियों पर भी पड़ा था। पर्दा प्रथा के प्रचलन ने समाज में स्त्रियों की स्थिति को और भी निम्न बना दिया। अब समाज में स्त्री की मर्यादाएँ निश्चित कर दी गईं। किसी भी त्योहार, उत्सव और मेला आदि के अवसार पर उनका स्वतंत्रतापूर्वक घूमना, पर-पुरुषों से बातें करना आदि कुछ हद तक सीमित होने लगा। घर में स्त्री केवल अपने पति की कामेच्छा पूर्ति का साधन मानी जाती थी।<ref>{{cite web |url=http://www.ignca.nic.in/coilnet/rj064.htm |title=मेवाड़ी समाज में स्त्रियों की स्थिति|accessmonthday=28 फ़रवरी|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
  
====<u>हल्दीघाटी का युद्ध</u>====
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==चित्र वीथिका==
[[अकबर]] ने सन 1624 में मेवाड़ पर आक्रमण कर चित्तौड़ को घेर लिया, पर राणा उदयसिंह ने उसकी अधीनता स्वीकार नहीं की थी और प्राचीन आधाटपुर के पास उदयपुर नामक अपनी राजधानी बसाकर वहाँ चला गया था। उनके बाद [[महाराणा प्रताप]] ने भी युद्ध जारी रखा और अधीनता नहीं मानी थी। उनका [[हल्दीघाटी]] का युद्ध इतिहास प्रसिद्ध है। इस युद्ध के बाद प्रताप की युद्ध-नीति छापामार लड़ाई की रही थी। अकबर ने कुम्भलमेर दुर्ग से भी प्रताप को खदेड़ दिया तथा मेवाड़ पर अनेक आक्रमण करवाये थे पर प्रताप ने अधीनता स्वीकार नहीं की थी। अंत में सन 1642 के बाद अकबर का ध्यान दूसरे कामों में लगे रहने के कारण प्रताप ने अपने स्थानों पर फिर अधिकार कर लिया था। सन 1654 में चावंड में उनकी मृत्यु हो गई थी।
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====<u>ख़ुर्रम</u>====
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चित्र:Jain-kirti-stambh-and-temple.jpg|जैन कीर्ति स्तम्भ, [[चित्तौड़गढ़]]
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चित्र:Mewar-painting-9.jpg|[[मेवाड़ की चित्रकला]]
महाराणा प्रताप के बाद उसके पुत्र अमरसिंह ने भी उसी प्रकार वीरतापूर्वक मुग़लों का प्रतिरोध किया पर अंत में उसने [[शाहजहाँ]] खुर्रम के द्वारा सम्राट [[जहाँगीर]] से सन्धि कर ली। उसने अपने राजकुमार को मुग़ल दरबार में भेज दिया पर स्वयं महाराणा ने, अन्य राजाओं की तरह दरबार में जाना स्वीकार नहीं किया था। महाराणा सन 1617 में मृत्यु को प्राप्त हुआ था। महाराणा कर्णसिंह ने कभी शाहजादा खुर्रम को [[पिछोला झील]] में बने [[जग मंदिर उदयपुर|जगमन्दिर]] नामक महल में रखा था। महाराणा का भाई भीम शाहजादे की सेवा में रहा था। जिसे उसने बादशाह बनने के बाद टोडा (टोडाभीम) की जागीर दी। खुर्रम को लाखेरी के बाद गोपालदास गौड़ ने भी मदद प्रदान की थी। बदले में महाराणा जगतसिंह ने अपने सरदारों को बादशाही दरबार में भेजा और दक्षिण के अभियान में सैनिक सहायता भी दी थी। उसका लड़का राजसिंह प्रथम भी अजमेर में बादशाह के समक्ष हाज़िर हुआ था।
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चित्र:Vijay-stambh-mewar.jpg|विजय स्तम्भ, [[चित्तौड़गढ़]]
[[चित्र:Kumbhalgarh-Udaipur.jpg|thumb|300px|कुंभलगढ़ दुर्ग, [[उदयपुर]]]]
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चित्र:Mewar-festival.jpg|मेवाड़ महोत्सव
====<u>आक्रमण</u>====
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चित्र:Mechanical-drum-Hindu-temple-mewar.jpg|हिंदू मंदिर में यांत्रिक ड्रम
महाराणा के बड़े सामंत भी बादशाही [[मनसबदार]] बन गए थे। चित्तौड़ के क़िले की मरम्मत तथा कुछ बागियों को प्रश्रय देने का बहाना कर मुग़लों ने राजसिंह पर आक्रमण किया और चित्तौड़ के क़िले दीवारों को तोड़ डाला था। इस पर समझौता हुआ था। जिसके अनुसार महाराणा का छः वर्ष का लड़का बादशाह के पास [[अजमेर]] भेजा गया था। युद्ध के समय राजसिंह ने टीकादौड़ के बहाने न केवल मेवाड़ के पुर, मांडल, बदनौर आदि को लूटा अपितु मालपुरा, टोडा, चाकसू, साम्भर, लालसोट, टोंक, सावर, केकड़ी आदि पर हमला किया और लूटपाट की थी। उसने वहाँ के अनेक भूमिपतियों से बड़ी-बड़ी रकमें भी कर के रूप में ली थीं। महाराणा ने दारा का पक्ष न लेकर [[औरंगजेब]] का पक्ष लिया और उत्तराधिकारी के युद्ध में उसकी विजय पर बधाई दी थी। किशनगढ़ की राजकुमारी चारूमती, जिसका विवाह औरंगजेब के साथ होना था को भगाकर ले जाने से आपसी रंजिश भी हुई। ऐसा ही जसवंतसिंह के नवजात पुत्र अजीतसिंह को शरण देने के कारण भी हुआ था। राजसिंह ने अपने लड़के [[जयसिंह]] को भी मुग़ल दरबार में भेजा था। औरंगजेब द्वारा [[हिन्दू|हिन्दुओं]] पर लगाये गए [[जज़िया]] का विरोध भी उसने किया था। मेवाड़ में व्यापक रूप से लूटपाट और तबाही मचाने वाली मुग़ल फ़ौजों से उसे संघर्ष करना पड़ा था। 1727 वि. में राजसिंह की मृत्यु हो गई थी। वह धर्म, [[कला]] और [[साहित्य]] का संरक्षक था। प्रसिद्ध राजसमंद का निर्माण कर वहाँ राजप्रशस्ति नामक काव्य को शिलाओं पर अंकित करवाने का श्रेय उसी को है। उसके पुत्र जयसिंह ने बहादुरशाह के समय [[जोधपुर]] तथा [[जयपुर]] के नरेशों को मेवाड़ी राजकुमारियाँ देकर राज्य प्राप्ति में उनकी सहायता की थी। महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय का काल उपद्रवों से ग्रस्त रहा था। उसके पुत्र जगतसिंह द्वितीय के समय हुरड़ा सम्मेलन हुआ पर उसके पुत्र जगतसिंह ऐसे कामकाज के लिए सक्षम नहीं था। उसने [[मराठा|मराठों]] को घूस देकर सहायता प्राप्त की जिससे मेवाड़ पर मराठों का पंजा कसता गया और महाराणाओं को बड़ी रकमें देकर उन्हें प्रसन्न करना पड़ा था।
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चित्र:City-palace-Mewar.jpg|[[सिटी पैलेस काम्‍पलेक्‍स उदयपुर|सिटी पैलेस]], [[उदयपुर]]
[[चित्र:Maharana-Pratap-Singh-2.jpg|thumb|महाराणा प्रताप सिंह द्वितीय]]
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==चित्रकला==
 
17वीं और 18वीं शताब्दी में भारतीय लघु [[चित्रकला]] (मिनिएचर) की महत्त्वपूर्ण शैलियों में से एक है। यह एक राजस्थानी शैली है, जो [[हिंदू]] रियासत मेवाड़ ([[राजस्थान]]) में विकसित हुई। सादे चटकीले [[रंग]] और सीधा भावनात्मक आकर्षण इस शैली की विशेषता है। इस शैली की मूल स्थानों और तिथियों सहित बहुत सी कलाकृतियाँ मिली हैं। जिनसे अन्य राजस्थानी शैलियों के मुक़ाबले मेवाड़ में चित्रकला के विकास के बारे में सटीक जानकारी मिलती है। इसके प्राचीनतम उदाहरण रंगमाला (राग-रागिनियों के भाव) श्रृंखला के हैं, जिन्हें राज्य की प्राचीन राजधानी चांवड़ में 1605 में चित्रित किया गया था। 1680 तक कुछ भिन्नताओं के साथ यह शैली अभिव्यक्तिपूर्ण और सशक्त बनी रही, जिसके बाद इस पर [[चित्रकला मुग़ल शैली|मुग़ल]] प्रभाव हावी होने लगा। साहिबदीन आरंभिक काल के कुछ प्रमुख चित्रकारों में से एक थे।
 
  
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* [http://themewar.blogspot.com/ मेवाड़ उदयपुर क्षेत्र में मंदिर-निर्माण गतिविधियाँ]
 
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==संबंधित लेख==
 
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मेवाड़ विषय सूची
मेवाड़
कुंभलगढ़ दुर्ग
विवरण मेवाड़ राजस्थान के दक्षिण मध्य में स्थित एक प्रसिद्ध रियासत थी। इसमें आधुनिक भारत के उदयपुर, भीलवाड़ा, राजसमंद तथा चित्तौड़गढ़ ज़िले सम्मिलित थे।
राज्य राजस्थान
ज़िला उदयपुर ज़िला
संबंधित लेख बनास नदी, कुंभलगढ़, चित्तौड़, हल्दीघाटी, राणा साँगा, महाराणा प्रताप, चेतक, भामाशाह
भौगोलिक स्थिति उत्तरी अक्षांश 25° 58' से 49° 12' तक तथा पूर्वी देशांतर 45° 51' 30' से 73° 7' तक
अन्य जानकारी सैकड़ों सालों तक यहाँ राजपूतों का शासन रहा। गहलौत तथा सिसोदिया वंश के राजाओं ने 1200 साल तक मेवाड़ पर राज किया था।

मेवाड़ राजस्थान के दक्षिण मध्य में स्थित एक प्रसिद्ध रियासत थी। इसे उदयपुर राज्य के नाम से भी जाना जाता था। इसमें आधुनिक भारत के उदयपुर, भीलवाड़ा, राजसमंद तथा चित्तौड़गढ़ ज़िले सम्मिलित थे। सैकड़ों सालों तक यहाँ राजपूतों का शासन रहा। गहलौत तथा सिसोदिया वंश के राजाओं ने 1200 साल तक मेवाड़ पर राज किया था।

इतिहास

राजस्थान का मेवाड़ राज्य पराक्रमी गहलौतों की भूमि रहा है, जिनका अपना एक इतिहास है। इनके रीति-रिवाज तथा इतिहास का यह स्वर्णिम ख़ज़ाना अपनी मातृभूमि, धर्म तथा संस्कृति व रक्षा के लिए किये गये गहलौतों के पराक्रम की याद दिलाता है। स्वाभाविक रूप से यह इस धरती की ख़ास विशेषताओं, लोगों की जीवन पद्धति तथा उनके आर्थिक तथा सामाजिक दशा से प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता रहा है। शक्ति व समृद्धि के प्रारंभिक दिनों में मेवाड़ सीमाएँ उत्तर-पूर्व के तरफ़ बयाना, दक्षिण में रेवाकंठ तथा मणिकंठ, पश्चिम में पालनपुर तथा दक्षिण-पश्चिम में मालवा को छूती थी। ख़िलजी वंश के अलाउद्दीन ख़िलजी ने 1303 ई. में मेवाड़ के गहलौत शासक रतन सिंह को पराजित करके इसे दिल्ली सल्तनत में मिला लिया था।

राणा का महल, मेवाड़ (उदयपुर)

गहलौत वंश की एक अन्य शाखा 'सिसोदिया वंश' के हम्मीरदेव ने मुहम्मद तुग़लक के समय में चित्तौड़ को जीत कर पूरे मेवाड़ को स्वतंत्र करा लिया। 1378 ई. में हम्मीरदेव की मृत्यु के बाद उसका पुत्र क्षेत्रसिंह (1378-1405 ई.) मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। क्षेत्रसिंह के बाद उसका पुत्र लक्खासिंह 1405 ई. में सिंहासन पर बैठा। लक्खासिंह की मृत्यु के बाद 1418 ई. में इसका पुत्र मोकल राजा हुआ। मोकल ने कविराज बानी विलास और योगेश्वर नामक विद्वानों को आश्रय अपने राज्य में आश्रय प्रदान किया था। उसके शासन काल में माना, फन्ना और विशाल नामक प्रसिद्ध शिल्पकार आश्रय पाये हुये थे। मोकल ने अनेक मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया तथा एकलिंग मंदिर के चारों तरफ़ परकोटे का भी निर्माण कराया। गुजरात शासक के विरुद्ध किये गये एक अभियान के समय उसकी हत्या कर दी गयी। 1431 ई. में मोकल की मृत्यु के बाद राणा कुम्भा मेवाड़ के राज सिंहासन पर बैठा। राणा कुम्भा तथा राणा सांगा के समय राज्य की शक्ति उत्कर्ष पर थी, लेकिन लगातार होते रहे बाहरी आक्रमणों के कारण राज्य विस्तार में क्षेत्र की सीमा बदलती रही। अम्बाजी नाम के एक मराठा सरदार ने अकेले ही मेवाड़ से क़रीब दो करोड़ रुपये वसूले थे।

भौगोलिक पृष्ठभूमि

मेवाड़, राजपूताना के दक्षिण भाग में स्थित है। यह उत्तरी अक्षांश 25° 58' से 49° 12' तक तथा पूर्वी देशांतर 45° 51' 30' से 73° 7' तक फैला हुआ है। लंबाई में यह उत्तर से दक्षिण तक 147.6 मील तथा चौड़ाई में पूर्व से पश्चिम तक 163.04 मील था। इस प्रकार मेवाड़ का कुल विस्तार 12,691 वर्ग मील था। इसके उत्तर में अजमेर-मेवाड़ प्रदेश तथा शाहपुरा राज्य थे, पश्चिम में सिरोही, दक्षिण-पश्चिम में इडर, दक्षिण में डुंगरपुर, बाँसवाड़ा का कुछ हिस्सा तथा प्रतापगढ़ के राज्य थे। पूर्व में नीमच व निंबाहेड़ा के ज़िले तथा बूँदी और कोटा राज्य स्थित थे। मेवाड़ राज्य आकार में आयताकार है। क़रीब-क़रीब अधिकांश क्षेत्र अरावली पर्वत श्रृंखलाओं से आच्छादित है, जिसके पर्वत पृष्ठ तीव्र तथा पठार उथले हैं। बैरत, दुधेश्वर, कमलीघाट आदि इस क्षेत्र की प्रमुख श्रृंखलाएँ हैं तथा जागरा, रणकपुर, गोगुंडा, बोमट, गिरवा तथा मागरा आदि पठारों के उदाहरण हैं। मेवाड़ की सीमा रेखा का कार्य खाड़ी नदी करती रही, जिसका प्रादुर्भाव पश्चिमी पर्वत श्रृंखलाओं से हुआ है। मेवाड़ अजमेर-मारवाड़ के बीच एक प्राकृतिक सीमा रेखा का कार्य करता है। विभिन्न बाँध तथा पोखरियाँ अपनी प्राकृतिक बनावट के कारण इसे सुरक्षा प्रदान करती हैं। मेवाड़ के देशभक्त व समर्पित योद्धा अपनी धरती के लिए लड़ने तथा अपना अधिकार प्राप्त करने के सतत् प्रयास के लिए एक आदर्श उदाहरण के रूप में सदियों तक याद किये जाते रहेंगे।

नदियाँ

मेवाड़ की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथा प्रमुख बनास नदी है, जिसका उद्गम स्थल अरावली पर्वतमाला में कुंभलगढ़ के निकट है। बनास नदी यहाँ से प्रवाहित होती हुई मैदानी भाग में पहुँचती है और अंत में मांडलगढ़, जो उदयपुर के उत्तर-पूर्व में लगभग 100 मील (लगभग 160 कि.मी.) की दूरी पर स्थित है, के निकट इसमें बेड़च नदी आकर मिल जाती है। इस स्थान को 'त्रिवेणी तीर्थ' माना जाता था। अन्त में यह अजमेर तथा जयपुर रियासत की सीमा में पहुँच जाती है और चंबल नदी में जा मिलती है। बनास नदी के अतिरिक्त मेवाड़ की अन्य नदियों में खारी, मानसी, कोठारी, बेड़च, जाकम तथा सोम इस प्रदेश की मुख्य नदियाँ हैं।

चित्रकला

17वीं और 18वीं शताब्दी में मेवाड़ की चित्रकला भारतीय लघु चित्रकला की महत्त्वपूर्ण शैलियों में से एक है। यह एक राजस्थानी शैली है, जो हिन्दू रियासत मेवाड़ (राजस्थान) में विकसित हुई। सादे चटकीले रंग और सीधा भावनात्मक आकर्षण इस शैली की विशेषता है। इस शैली की मूल स्थानों और तिथियों सहित बहुत-सी कलाकृतियाँ मिली हैं, जिनसे अन्य राजस्थानी शैलियों के मुक़ाबले मेवाड़ में चित्रकला के विकास के बारे में सटीक जानकारी मिलती है। इसके प्राचीनतम उदाहरण रंगमाला (राग-रागिनियों के भाव) श्रृंखला के हैं, जिन्हें राज्य की प्राचीन राजधानी चांवड़ में 1605 में चित्रित किया गया था। 1680 तक कुछ भिन्नताओं के साथ यह शैली अभिव्यक्तिपूर्ण और सशक्त बनी रही, जिसके बाद इस पर मुग़ल प्रभाव हावी होने लगा। साहिबदीन आरंभिक काल के कुछ प्रमुख चित्रकारों में से एक थे।

मेवाड़ में चित्रांकन की अपनी एक विशिष्ट परंपरा रही है, जिसे यहाँ के चित्रकार पीढियों से अपनाते रहे हैं। 'चितारे'[1] अपने अनुभवों एवं सुविधाओं के अनुसार चित्रण के कई नए तरीके भी खोजते रहे। रोचक तथ्य यह है कि वहाँ के कई स्थानीय चित्रण केन्द्रों में वे परंपरागत तकनीक आज भी जीवित हैं। तकनीकों का प्रादुर्भाव पश्चिमी भारतीय चित्रण पद्धति के अनुरूप ही ताड़ पत्रों के चित्रण कार्यों में ही उपलब्ध होता है।

महल के तरणताल (स्वीमिंग पूल) में महाराणा भीम सिंह अपने साथियों के साथ

यशोधरा द्वारा उल्लेखित षडांग के संदर्भ एवं 'समराइच्चकहा' एवं 'कुवलयमाला' कहा जैसे ग्रंथों में 'दट्ठुम' शब्द का प्रयोग चित्र की समीक्षा हेतु हुआ है, जिससे इस क्षेत्र की उत्कृष्ट परंपरा के प्रमाण मिलते हैं। ये चित्र मूल्यांकन की कसौटी के रूप में प्रमुख मानक तथा समीक्षा के आधार थे। विकास के इस सतत् प्रवाह में विष्णु धर्मोत्तर पुराण, समरांगण सूत्रधार एवं चित्र लक्षण जैसे अन्य ग्रंथों में वर्णित चित्र कर्म के सिद्धांत का भी पालन किया गया है। परंपरागत कला सिद्धांतों के अनुरूप ही शास्त्रीय विवेचन में आये आदर्शवाद एवं यथार्थवाद का निर्वाह हुआ है। प्रारंभिक स्वरूपों का उल्लेख आठवीं सदी में हरिभद्रसूरि द्वारा रचित 'समराइच्चिकहा' एवं 'कुवलयमालाकहा' जैसे प्राकृत ग्रंथों से प्राप्त कला संदर्भों में मिलता है। इन ग्रंथों में विभिन्न प्रकार के रंग-तुलिका एवं चित्रफलकों का तत्कालीन साहित्यिक संदर्भों के अनुकूल उल्लेख मेवाड़ में प्रामाणित रूप से चित्रण के तकनीकी पक्ष का क्रमिक विकास यहीं से मानते हैं। यहाँ के चित्रावशेष 1229 ई. के उत्कीर्ण भित्तिचित्रों एवं 1260 ई के ताल पत्रों पर मिलते हैं।[2]

इन्हें भी देखें: मेवाड़ की चित्रकला (तकनीकी)

भाषा एवं लिपि

  • मेवाड़ क्षेत्र की मुख्य भाषा मेवाड़ी है, जो हिन्दी का ही एक विकृत रुप है। राज्य के दक्षिण तथा पश्चिमी हिस्सों के लोगों तथा भीलों की भाषा वागड़ी है, जो गुजराती से मिलती-जुलती है। यह यहाँ के पूर्वी हिस्से में, खैराड़ की तरफ़, बोली जाती है, जो मेवाड़ी, ढूँढाड़ी तथा हाड़ौती का ही मिश्रण है।
  • मेवाड़ राज्य की प्रचलित लिपि नागरी है। यह यहाँ की राजकीय लिपि भी हुआ करती थी। यहाँ की नागरी लिपि लकीर खींचकर घसीट रूप में लिखी जाती है। राजकीय अदालतों में इसे कुछ अशुद्ध रूप में लिखा जाता था तथा साथ में फ़ारसी शब्दों का भी इस्तेमाल किया जाता था। महाजन लोगों के पत्र-व्यवहार में प्रयुक्त नागरी लिपि में भी शुद्धता का विचार कम ही रहता है।

हिन्दू धर्म का विकास

मेवाड़ में वेदानुयायियों को पाँच हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है- शैव, वैष्णव, शाक्त, गणपत्य और सौर (सूर्य)। इन पाँचों में से शैव, वैष्णव व शाक्त अधिक प्रचलित थे। संन्यासी, नाथ तथा बहुत से ब्राह्मण शैवों के आचार्य थे, लेकिन इनमें मतभेद था। वैष्णवोंरामावत, नीमावत, माधवाचार्य तथा विष्णुस्वामी, इन चारों नामों से चार सम्प्रदाय प्रसिद्ध हैं। पुनः इनमें कई प्रशाखाएँ बन गई थीं, जैसे- रामसनेही सम्प्रदाय, दादूपंथी, कबीरपंथी, नारायणपंथी आदि। इनके आचार-विचार में भी कुछ-कुछ भिन्नताएँ थीं। कुछ अद्वैत सिद्धांत तो कुछ उपासना पक्ष का आश्रय लेते थे। मेवाड़ के अधिकांश राजा शैव रहे थे। शाक्तों की यहाँ दो शाखाएँ थी- एक दक्षिण व दूसरी वाम। दक्षिण शाखा के अनुयायी वेदानुकूल पूजा, प्रतिष्ठा, जप, होमादि करते हैं तथा वाम शाखा तंत्रशास्र के अनुसार पशु हिंसा और मद्य-मांसाचरण करते हैं। ये लोग चर्मकारी रजकी और चाण्डाली को काशीसेवी, प्रागसेवी; मांस को शुद्धि, मद्य को तीर्थ, कांदा (प्याज) को वयाज और लहसुन को शुकदेव कहते थे। रजस्वला व चाण्डाली की पूजा करते थे। इनका मुख्य सिद्धांत इस श्लोक के अनुसार होता था-

अन्तः शाक्ता बहिशैवा: सभा मध्ये च वैष्णवा:।
नाना रुप धरा: कौला विचरन्ति मही तले ।।

जैन मंदिर, चित्तौड़गढ़

मेवाड़ में शैव मतावलम्बियों के लिए प्रमुख स्थान कैलासपुरी है, जो एकलिंगेश्वर की पुरी के रूप में भी जाना जाता है। एकलिंगेश्वर इस देश के राजा माने जाते थे तथा महाराणा इसके दीवान। शिवमत के अधिकांश मठधारी, महन्त व गोंसाई निरक्षर थे। वैष्णव मतावलम्बियों क लिए चार प्रमुख स्थान हैं- नाथद्वारा, कांकड़ौली, चारभुजा और रूपनारायण। नाथद्वारा और कांकड़ौली के गुसाईयों का वैष्णव सम्प्रदाय में विशेष महत्व है। इस मत को 15वीं सदी में वल्लभाचार्य ने प्रचलित किया था। उनके सात पुत्र थे। सातों की गद्दियाँ व पूजन की मूर्तियाँ अलग-अलग थीं। सबसे बड़ी मूर्ति आठवीं नाथद्वारा के श्री गोवर्द्धननाथ की थी। सातों भाइयों में टीकेत गोस्वामी भी, नाथद्वारा के गोस्वामी ही कहलाते थे तथा कांकड़ौली वाले उनके छोटे भाइयों में से थे।[3]

प्रमुख लोक संस्कार

प्रारम्भ से ही मेवाड़ सामाजिक एवं धार्मिक रूढ़ियों में जकड़ा रहा था। इन रूढ़ियों ने कई सामाजिक-धार्मिक संस्कारों को जन्म दिया तथा उन्हें समाज में एक स्थान दिया। यहाँ प्रचलित सोलह संस्कारों में से कुछ संस्कार थे- विवाह, मृतक संस्कार, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन और चूड़ाकरण। इन संस्कारों में विवाह तथा मृतक संस्कार सामाजिक जीवन के अभिन्न अंग थे। अन्य संस्कारों का समाज पर उतना प्रभाव नहीं था। परन्तु 19वीं सदी के उपरान्त धीरे-धीरे संस्कारों का वैदिक स्वरूप लोक संस्कारों में परिवर्तित होने लगा था तथा लम्बे समय तक व्यवहार में आते-आते धार्मिक प्रथाओं का रूप ग्रहण कर चुका था।

जातिगत व्यवस्था

मेवाड़ महोत्सव

मेवाड़ की जातिगत सामाजिक व्यवस्था परम्परागत रूप से ऊँच-नीच, पद-प्रतिष्ठा तथा वंशोत्पन्न जातियों के आधार पर संगठित थी। सामाजिक संगठन में प्रत्येक जाति का महत्व उस जाति की वंशोत्पत्ति तथा उसके द्वारा अंगीकृत व्यवसाय पर निर्भर थी। जाति-व्यवस्था को स्थायित्व प्रदान करने तथा उसके अस्तित्व को अक्षुण बनाये रखने में जाति पंचायतों की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। जातिगत पंचायतें अपनी जातियों को व्यवस्थित रूप से संचालित करते हुए खान-पान, शादी-विवाह एवं रीति-रिवाजों से सम्बन्धित समय-समय पर नियम बनाती थीं और अपनी जाति के लोगों से जातीय विभागों एवं मर्यादाओं का पालन करवाती थीं। इस कार्य में जाति-पंचायतों को राजकीय संरक्षण भी प्राप्त था। जब मेवाड़ की आलोच्यकालीन सामाजिक संरचना के स्वरूप का विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं कि सामाजिक रचना में वर्ण-व्यवस्था केवल भावात्मक रूप में विद्यमान रह गई थी। जाति और धर्म ही इस काल के वर्ग तथा व्यवसाय को प्रभावित किये हुए थे। 18वीं शताब्दी तक का मेवाड़ी समाज धर्म के आधार पर दो भागों हिन्दू तथा मुस्लिम में वर्गीकृत था। हिन्दू समुदाय में वैदिक, जैन तथा आत्मवादी माने जा सकते हैं, वही मुस्लिम समुदाय में 'शिया' तथा 'सुन्नी' दो उपभाग विद्यमान थे।

व्यवसाय करने वाली जातियाँ

मेवाड़ की वास्तुकला

मेवाड़ में कुछ जातियाँ ऐसी भी थीं, जो पूर्णत: कृषि करने वाली मानी जाती थीं, जैसे- जाट माली, डाँगी धाकड़ और जणवा। मेवाड़ की जनसंख्या में इनका प्रतिनिधित्व 17 प्रतिशत था। यद्यपि ये सभी जातियाँ अपने स्वजाति नियमों से आबद्ध थीं, फिर भी इनमें ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं था। सामाजिक, आर्थिक पद-स्तर पर सभी किसान अपने को 'करसा' कहलाने में गर्व का अनुभव करते थे। विवाह स्वजाति में ही होता था, किंतु विवाह के नियम कठोर नहीं थे। विधवा विवाह, पुनर्विवाह तथा विवाह विच्छेद सुगमतापूर्वक 'रित' और 'नाता' की परम्परानुसार हो जाते थे। इसीलिए समाज में उन्हें 'नातायती' जातियाँ कहा जाता था।

स्त्रियों की स्थिति

पहले मेवाड़ी समाज में स्त्रियों को अधिक स्वतंत्रता प्राप्त थी। इसके साथ ही निर्णय आदि के कई महत्त्वपूर्ण अधिकार भी उन्हें प्राप्त थे। बाद में बदलती हुई परिस्थितियों ने समाज में इनके महत्व को कम कर दिया। अभिलेखीय एवं साहित्यिक स्रोतों से पता चलता है कि महाराणा राजसिंह द्वितीय के शासन काल तक राज परिवार एवं कुलीन वर्ग की स्त्रियों में पर्दा प्रथा नहीं थी। मराठों एवं पिण्डारियों के आक्रमण काल से ही 'पर्दा प्रथा' आरंभ हो गई थी, जिसका प्रभाव अन्य द्विज जातियों पर भी पड़ा था। पर्दा प्रथा के प्रचलन ने समाज में स्त्रियों की स्थिति को और भी निम्न बना दिया। अब समाज में स्त्री की मर्यादाएँ निश्चित कर दी गईं। किसी भी त्योहार, उत्सव और मेला आदि के अवसार पर उनका स्वतंत्रतापूर्वक घूमना, पर-पुरुषों से बातें करना आदि कुछ हद तक सीमित होने लगा। घर में स्त्री केवल अपने पति की कामेच्छा पूर्ति का साधन मानी जाती थी।[4]

चित्र वीथिका


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शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. चित्रकार वर्ग
  2. मेवाड़ चित्रकला की चित्रण सामग्री (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 14 जनवरी, 2013।
  3. मेवाड़ में हिन्दू धर्म का विकास (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 14 जनवरी, 2013।
  4. मेवाड़ी समाज में स्त्रियों की स्थिति (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 28 फ़रवरी, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख