रूपकुंड झील

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रूपकुंड झील/ हिमानी झील/ रहस्यमयी झील

गढ़वाल हिमालय के अन्तर्गत अनेक सुरम्य ऐतिहासिक स्थल हैं जिनकी जितनी खोज की जाय उतने ही रहस्य सामने आ जाते हैं। इन आकर्षक एवं मनमोहक स्थलों को देखने के लिये प्राचीन काल से वैज्ञानिक, इतिहासकार, पुरातत्ववेत्ताओं भूगर्भ विशेषज्ञों एवं जिज्ञासु पर्यटकों के कदम इन स्थानों में पड़ते रहे हैं।

यहां उच्च हिमालय क्षेत्र के अन्तर्गत अनेक ताल एवं झील हैं जिनमें लगभग 16200 फीट की ऊंचाई पर स्थित प्रसिद्ध नंदादेवी राजजात यात्रा मार्ग पर एक चर्चित रहस्यमय एवं अद्वितीय सौन्दर्य स्थान है ‘रूपकुंड'। यह रूपकुंड झील त्रिशूली शिखर (24000 फीट) की गोद में ज्यूंरागली पहाड़ी के नीचे 150 फीट ब्यास (60 से 70 मीटर लम्बी), 500 फीट की परिधि तथा 40 से 50 मीटर गहरी हरे-नीले रंग की अंडाकार (आंख जैसी) आकृति में फैली स्वच्छ एवं शांत मनोहारी झील है। इससे रूपगंगा जलधारा निकलती है। अपनी मनोहारी छटा के लिये यह झील जिस कारण अत्यधिक चर्चित है वह है झील के चारों ओर पाये जाने वाले रहस्यमय प्राचीन नरकंकाल, अस्थियां, विभिन्न उपकरण, कपड़े, गहने, बर्तन, चप्पल एवं घोड़ों के अस्थि-पंजर आदि वस्तुऐं।

चमोली जनपद में समुद्रतल से 4778 मीटर की ऊंचाई पर और नन्दाघुंटी शिखर की तलहटी पर स्थित रूपकुंड झील सदैव बर्फ की परतों से ढकी रहती है। अतः इसे हिमानी झील कहते हैं। इसे रहस्यमयी झील का नाम दिया है। इसकी स्थिति दुर्गम क्षेत्र में है। झील से सटा ज्यूरांगली दर्रा (5355 मीटर) है। बहरहाल यह स्थल अब साहसी पर्यटकों के लिये आकर्षण का केन्द्र बना है।

कथाए

हर बारहवें वर्ष नौटी गांव के हजारों श्रद्धालु तीर्थ यात्री राजजय यात्रा लेकर निकलते हैं। नंदादेवी की प्रतिमा को चांदी की पालकी में बिठाकर रूपकुंड झील से आचमन करके वे देवी के पावन मंदिर में दर्शन करते हैं। इस यात्रा से संबंधित कथा के अनुसार अपने स्वामी गृह कैलाश जाते समय अनुपम सुंदरी हिमालय (हिमवन्त) पुत्री नंदादेवी जब शिव के साथ रोती-बिलखती जा रही थी मार्ग में एक स्थान पर उन्हें प्यास लगी। नंदा-पार्वती के सूखे होंठ देख शिवजी ने चारों ओर देखा परन्तु कहीं पानी नहीं दिखाई दिया, उन्होंने अपना त्रिशूल धरती पर मारा, धरती से पानी फूट पड़ा। नंदा ने प्यास बुझाई, लेकिन पानी में उन्हें एक रूपवती स्त्री दिखाई दी जो शिव के साथ बैठी थी। नंदा को चौंकते देख शिवजी समझ गये, उन्होंने नंदा से कहा यह रूप तुम्हारा ही है। प्रतिबिम्ब में शिव-पार्वती एकाकार दिखाई दिये। तब से ही वह कुंड रूपकुंड और शिव अर्द्धनारीश्वर कहलाये। यहां का पर्वत त्रिशूल और नंद-घुंघटी कहलाया, उससे निकलने वाली जलधारा नन्दाकिनी कहलायी।

पुराण कथाओं के अनुसार यहां जगदम्बा, कालका, शीतला, सतोषी आदि नव दुर्गाओं ने महिषासुर का वध किया था।

खोज, अन्वेशण व परीक्षण

रूपकुंड के आसपास पड़े अस्थियों के ढेर एवं नरकंकालों की खोज सर्वप्रथम वर्ष 1942 - 43 में भारतीय वन निगम के एक अधिकारी द्वारा की गई। उप्र वन विभाग के एक अधिकारी ने 1955 के सितम्बर में रूपकुंड क्षेत्र का भ्रमण किया व कुछ नरकंकाल, अस्थियां, चप्पल आदि वस्तुऐं एकत्रित कर लखनऊ विश्वविद्यालय के मानव शरीर रचना अध्ययन विभाग के डा. डी.एन.मजूमदार को परीक्षणार्थ सौंप दी थीं। डा. मजूमदार भी इसके बाद इस क्षेत्र में भ्रमणार्थ गये और वहां से अस्थियां आदि कुछ सामग्री एकत्रित कर ले गये। डा. डी.एन.मजूमदार ने कुछ मानव हड्डियों के नमूने अमेरिकी मानव शरीर विशेषज्ञ डा. गिफन को भेजे जिन्होंने रेडियो कार्बन विधि से परीक्षण कर इन अस्थियों को 400 - 600 साल पुराना बताया।

अनेक जिज्ञासु-अन्वेशक दल भी इस रहस्यमय रूपकुंड क्षेत्र की ऐतिहासिक यात्रा सम्पन्न कर चुके हैं। भारत सरकार के भूगर्भ वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों के एक दल ने भी दुर्गम क्षेत्र में प्रवेश कर अपने विषय का अन्वेशण व परीक्षण किया था। वर्ष 1955 (1957) में भारत सरकार के मानव शास्त्र विभाग के प्रसिद्ध मानव शास्त्री (नृंशशास्त्री) एवं विभाग के डायरेक्टर जनरल डा. दत्त मजूमदार ने गढ़वाल पर्वतीय क्षेत्र का व्यापक भ्रमण कर बताया कि यह घटना तीन-चार सौ वर्ष से कहीं अधिक पुरानी है और ये अस्थि अवशेष किसी तीर्थ यात्री दल के हैं। ब्रिटिश व अमेरिका के वैज्ञानिकों ने रूपकुंड क्षेत्र के मानव कंकालों के रहस्यों को सुलझाते हुए विश्वास व्यक्त किया कि ये कंकाल लगभग 600 वर्ष पुराने हैं।

रूपकुंड के वैज्ञानिक पहलू को प्रकाश में लाने का श्रेय प्रसिद्ध पर्यटक एवं हिमालय अभियान के विशेषज्ञ एवं अन्वेशक स्वामी प्रणवानन्द को है जो अनेक बार रूपकुंड गये और उन्होंने रूपकुंड के रहस्य का सभी दृष्टि से अध्ययन किया। स्वामी जी ने सन् 1956 में लगभग ढाई माह तथा सन् 1957 व 58 में दो-दो माह रूपकुंड में शिविर लगाकर नरकंकाल, अस्थियां, बालों की चुटिया, चमड़े के चप्पल व बटुआ, चूड़ियां, लकड़ी व मिट्टी के बर्तन, शंख के टुकड़े, आभूषणों के दाने आदि पर्याप्त वस्तुऐं एकत्रित कीं। उन्होंने ये वस्तुऐं वैज्ञानिक जांच हेतु बाहर भेजीं। वैज्ञानिक शोध के आधार पर ये नरकंकाल, अस्थियां आदि लगभग 650 वर्ष पुराने साबित हुए हैं। स्वामी प्रणवानन्द ने अपने अध्ययन के निष्कर्ष में रूपकुंड में प्राप्त अस्थियां आदि वस्तुऐं कन्नौज के राजा यशोधवल के यात्रा दल के माने हैं जिसमें राजपरिवार के सदस्यों के अलावा अनेक दास-दासियां, कर्मचारी तथा कारोबारी आदि सम्मिलित थे। बताया गया है कि हताहतों की संख्या कम से कम तीन सौ होगी। पशुओं का एक भी अस्थि पंजर नहीं पाया गया। स्वामी प्रणवानन्द जब पुन: चौथी बार अन्वेशण हेतु रूपकुंड गये तो बताया गया कि उप्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री डा. सम्पूर्णानन्द द्वारा प्रदत्त नाव में बैठकर उन्होंने झील की परिक्रमा की। यह झील लगभग 12 मीटर लम्बी, 10 मीटर चौड़ी व 2 मीटर गहरी है व झील का धरातल प्राय: सर्वत्र समतल प्रतीत हुआ है।

रहस्यमय इतिहास

रूपकुंड रहस्य की ऐतिहासिक एवं वैज्ञानिक आधार पर जांच पड़ताल के बाद तथा घाटी के आखिरी गांव बाक घेस बलाण के वृद्ध लोगों और लोकोक्तियों के अनुसार यह निष्कर्ष निकाला जा चुका है कि चौदहवीं शताब्दी में एक बार नंदादेवी के दोष के कारण कन्नौज के राजा यशोधवल (यशधवल) के राज्य में भयंकर अकाल, सूखा तथा अनेक प्राकृतिक प्रकोप होने लगे जिससे भयभीत होकर राजा यशोधवल ने नंदादेवी की मनौती की और गढ़वाल हिमालय में नंदा देवी राजजात हेतु सदल-बल प्रस्थान किया। गढ़वाल हिमालय के इस पावन क्षेत्र की धार्मिक यात्रा के नियमों एवं मर्यादाओं की राजमद में पालन न करते हुए घोर उपेक्षा की। राजा अपनी गर्भवती रानी व दास-दासियों सहित तमाम लश्कर दल के साथ त्रिशूली पर्वत होते हुए नंदादेवी यात्रा मार्ग पर स्थित रूपकुंड में पंहुचे। नंदादेवी के दोष के परिणामस्वरुप उस क्षेत्र में अचानक भयंकर वर्षा व ओलावृष्टि हो गई और राजा यशोधवल सपरिवार आदि सभी यात्री दल उस बर्फानी तूफान में फंस गये व दबकर मर गये। अत: ये नरकंकाल व अस्थियां आदि वस्तुऎं उसी समय के बताये गये हैं। कुछ लोग तिब्बत से आये यात्री दल के अवशेष बताते हैं।

स्थिति जो कुछ भी हो लेकिन इतिहासकारों एवं वैज्ञानिकों के लिये रूपकुंड रहस्य एक बहुचर्चित विषय बन गया है। इस बीच इन पांच-छह दशकों में इस क्षेत्र में जितनी भी खोज तथा अन्वेशण कार्य किये गये हैं उसमें विशेषज्ञ एकमत व निष्कर्ष पर नहीं पंहुच पाये हैं। लेकिन अनेक अन्वेशक व खोजकर्ता प्राय: इस निष्कर्ष पर तो अवश्य पंहुचे हैं कि ये नरकंकाल व अस्थियां आदि वस्तुऐं छह-सात सौ वर्ष पुराने रहे होंगे।

यह रहस्यमय झील ग्रीष्मकाल वर्षा ऋतु के तीन-चार महीने (जून से सितम्बर तक) बर्फ पिघलने से दिखाई देती है और शेष अवधि में हिमाच्छादित रहती है। आज भी रूपकुंड के आसपास यत्र-तत्र व किनारों पर छुटपुट मानव कंकाल व अस्थियां के टुकड़े पड़े दिखाई देते हैं लेकिन पर्यटकों, अन्वेशकों आदि भ्रमणकर्ताओं के आगमन के बाद अब इस क्षेत्र में ये वस्तुऐं धीरे-धीरे समाप्त हो रही हैं।

रूपकुंड पंहुचने के लिये मार्ग

इस विश्वप्रसिद्ध रहस्यमय रूपकुंड स्थान में पंहुचने के लिये मुख्यत: निम्न मार्ग हैं -

  • कर्णप्रयाग से थराली, देवाल, वाण, गैरोलीपातल, वेदिनी बुग्याल, कैलोविनायक, रूपकुंड (लगभग 155 किमी)।
  • नन्दप्रयाग से घाट, सुतोल, वाण, वेदिनी बुग्याल, रूपकुंड।
  • ग्वालदम से देवाल, वाण, वेदिनी बुग्याल, रूपकुंड।

रूपकुंड तक का मार्ग अत्यंत मोहक और प्राकृतिक छटाओं से भरा है। घने जंगल, मखमली घास के चरागाह, फूलों की बहार, झरनों नदी-नालों का शोर, बड़ी-बड़ी गुफाएं, गांव, खेत सर्वत्र एक सम्मोहन पसरा हुआ है। गहरी खामोशी में डूबी चट्टानों के बीहड़ जमघट में भी एक आनन्द छुपा है।

रूपकुंड पहुंचने के लिए अंतिम बस स्टेशन बकरीगढ़ (बगरीगाड़) है। यहां से 41 किमी की पैदल यात्रा करनी पड़ती है। बगरीगाड़ में पोर्टर गाइड मिल जाते हैं, यहीं से इन्हें साथ ले चलना बेहतर रहता है। खाने-पीने, पहनने का पर्याप्त सामान लेकर ही ट्रैकिंग शुरू करनी चाहिए। कर्ण प्रयाग से पिण्डारी नदी के किनारे-किनारे थराली होते हुए देवल वहां से 13 कि.मी. बकरीगढ़ तक कच्चा मार्ग है। बकरीगढ़ से 3 कि.मी. मुन्दौली गांव होते हुए लोहागंज वहां से आखिरी गांव बाण। लोहागंज से एक रास्ता 'भेक ताल' को जाता है जो गढ़वाल मंडल की अन्य झील है। बाण से 12 कि.मी. सीधी चढ़ाई चढ़कर घने जंगलों को पार कर जिस क्षेत्र में पहुंचते हैं उसे वेदनी बुग्याल कहते हैं। आगे 4 कि.मी. खड़ी चढ़ाई के बाद 14,500 फुट पर वगुवावस पहुंचा जा सकता है। इसके बाद सीधी कठिन चढ़ाई प्रारम्भ होती है। 4 कि.मी. के बाद रूपकुंड का अद्भुत नैसर्गिक सौंदर्य देख सारी थकान दूर हो जाती है।


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