वाकाटक वंश

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सातवाहनों के उपरान्त वाकाटक दक्कन की महत्वपूर्ण शक्ति के रूप में उभरे। तीसरी शताब्दी ई. से छठी शताब्दी ई. तक दक्षिणापथ में शासन करने वाले समस्त राजवंशों में वाकाटक वंश सर्वाधिक सम्मानित एवं सुसंस्कृत था। मगध के चक्रवर्ती गुप्तवंश के समकालीन इस राजवंश ने मध्य भारत तथा दक्षिण भारत के ऊपरी भाग में शासन किया। इनका मूल निवास स्थान बरार, विदर्भ में था। वाकाटक वंश का संस्थापक विंध्यशक्ति था। इसको शिलालेख में वाकाटक वंशकेतु कहा गया है। वह 'विष्णु वृद्धि' गोत्र का ब्राह्मण था। विंध्यशक्ति की तुलना इन्द्र एवं विष्णु से की जाती थी। सम्भवतः वाकाटकों का दक्कन प्रदेश में तीसरी शताब्दी से लेकर 5वी शताब्दी तक शासन रहा। विंध्यशक्ति का पुत्र एवं उत्तराधिकारी 'हरितिपुत्र प्रवरसेन' ही एक मात्र वाकाटक वंश का राजा था, जिसे सम्राट की पदवी मिली थी। उसके समय में वाकाटक राज्य का विस्तार बुन्देलखण्ड से प्रारम्भ होकर दक्षिण में हैदराबाद तक हुआ।

वाकाटक विंध्यशक्ति भारशिव नागों का सामन्त था। उसके पुत्र का नाम प्रवरसेन था। भारशिव राजा भवनाग की इकलौती लड़की प्रवरसेन के पुत्र गौतमीपुत्र को ब्याही थी। इस विवाह से गौतमीपुत्र के जो पुत्र हुआ था, उसका नाम रुद्रसेन था। क्योंकि भवनाग के कोई पुत्र नहीं था, अत: उसका उत्तराधिकारी उसका दौहित्र रुद्रसेन ही हुआ। गौतमीपुत्र की मृत्यु प्रवरसेन के कार्यकाल में ही हो गयी थी। अत: रुद्रसेन जहाँ अपने पितामह के के राज्य का उत्तराधिकारी बना, वहाँ साथ ही वह अपने नाना के विशाला साम्राज्य का भी उत्तराधिकारी नियुक्त हुआ। धीरे-धीरे भारशिव और वाकाटक राज्यों का शासन एक हो गया। रुद्रसेन के संरक्षक के रूप में प्रवरसेन ने वाकाटक और भारशिव दोनों वंशों के राज्य के शासन सूत्र को अपने हाथ में ले लिया। यह प्रवरसेन बड़ा ही शक्तिशाली राजा हुआ है। इसने चारों दिशाओं में दिग्विजय करके चार बार अश्वमेध यज्ञ किये, और वाजसनेय यज्ञ करके सम्राट का गौरवमय पद प्राप्त किया। प्रवरसेन की विजयों के मुख्य क्षेत्र मालवा, गुजरात और काठियावाड़ थे। पंजाब और उत्तरी भारत से कुषाणों का शासन इस समय तक समाप्त हो चुका था। पर गुजरात-काठियावाड़ में अभी तक शक 'महाक्षत्रप' राज्य कर रहे थे। प्रवरसेन ने इनका अन्त किया। यही उसके शासन काल की सबसे महत्वपूर्ण घटना है। गुजरात और काठियावाड़ के महाक्षत्रपों को प्रवरसेन ने चौथी सदी के प्रारम्भ में परास्त किया था। वाकाटक वंश के निम्न राजा थे-

इस समय पाटलिपुत्र में जिस शक्तिशाली गुप्त साम्राज्य का विकास हो रहा था, उसके प्रताप के सम्मुख इन वाकाटकों की शक्ति सर्वथा मन्द पड़ गयी थी, और ये गुप्त साम्राज्य के अन्तर्गत अधीनस्थ राजाओं के रूप में रह गये थे।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ