श्रीलाल शुक्ल

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श्रीलाल शुक्ल
Shrilal Shukla55.jpg
पूरा नाम श्रीलाल शुक्ल
जन्म 31 दिसंबर,1925 ई.
जन्म भूमि लखनऊ जनपद के अतरौली गाँव में
मृत्यु 28 अक्तूबर,2011 ई.
मृत्यु स्थान =लखनऊ,भारत
कर्म-क्षेत्र साहित्यकार, लेखक
शिक्षा इलाहाबाद विश्‍वविद्‍यालय से स्नतक की उपाधि
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

श्रीलाल शुक्ल का जन्म 31 दिसंबर, 1925 को लखनऊ जनपद के अतरौली गाँव में हुआ। 1947 में इलाहाबाद विश्‍वविद्‍यालय से स्नतक की उपाधि प्राप्‍त की। तत्पश्‍चात उन्होंने भारत सरकार की सेवा की।

उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं - ‘सूनी घाट का सूरज’(1957), ‘अज्ञातवास’(1962), ‘राग दरबारी’(1968), ‘आदमी का जहर’(1972), ‘सीमाएँ टूटती हैं’(1973), ‘मकान’(1976), ‘पहला पड़ाव’(1987), ‘बिस्रामपुर का संत’(1998), ‘बब्बरसिंह और उसके साथी’(1999), ‘राग विराग’(2001)। ‘यह घर मेरी नहीं’(1979), ‘सुरक्षा और अन्य कहानियाँ’(1991), ‘इस उम्र में’(2003), ‘दस प्रतिनिधि कहानियाँ’(2003) उनके चर्चित कहानी संग्रह हैं। ‘अंगद का पाँव’(1958), ‘यहाँ से वहाँ’(1970), `मेरी श्रेष्‍ठ व्यंग्य रचनाएँ’(1979), ‘उमरावनगर में कुछ दिन’(1986), ‘कुछ जमीन में कुछ हवा में’(1990), ‘आओ बैठ लें कुछ देरे’(1995), ‘आगली शताब्दी का शहर’(1996), ‘जहालत के पचास साल’(2003) और ‘खबरों की जुगाली’(2005) उनकी प्रसिद्ध व्यंग्य रचनाएँ हैं। इसके अतिरिक्‍त ‘अज्ञेय:कुछ रंग और कुछ राग’(1999, आलोचना), ‘भगवतीचरण वर्मा’(1989, विनिबंध) और ‘अमृतलाल नागर’(1994, विनिबंध) भी उल्लेखनीय हैं।

श्रीलाल शुक्ल की रचनाओं का एक बड़ा हिस्सा गाँव के जीवन से संबंध रखता है। ग्रामीण जीवन के व्यापक अनुभव और निरंतर परिवर्तित होते परिदृश्‍य को उन्होंने बहुत गहराई से विश्‍लेषित किया है। यह भी कहा जा सकता है कि श्रीलाल शुक्ल ने जड़ों तक जाकर व्यापक रूप से समाज की छान बीन कर, उसकी नब्ज को पकड़ा है। इसीलिए यह ग्रामीण संसार उनके साहित्य में देखने को मिला है। उनके साहित्य की मूल पृष्‍ठभूमि ग्राम समाज है परंतु नगरीय जीवन की भी सभी छवियाँ उसमें देखने को मिलती हैं।

श्रीलाल शुक्ल ने साहित्य और जीवन के प्रति अपनी एक सहज धारणा का उल्लेख करते हुए कहा है कि "कथालेखन में मैं जीवन के कुछ मूलभूत नैतिक मूल्यों से प्रतिबद्ध होते हुए भी यथार्थ के प्रति बहुत आकृष्‍ट हूँ। पर यथार्थ की यह धारणा इकहरी नहीं है, वह बहुस्तरीय है और उसके सभी स्तर - आध्यात्मिक, आभ्यंतरिक, भौतिक आदि जटिल रूप से अंतर्गुम्फित हैं। उनकी समग्र रूप में पहचान और अनुभूति कहीं-कहीं रचना को जटिल भले ही बनाए, पर उस समग्रता की पकड़ ही रचना को श्रेष्‍ठता देती है। जैसे मनुष्‍य एक साथ कई स्तरों पर जीता है, वैंसे ही इस समग्रता की पहचान रचना को भी बहुस्तरीयता देती है।"

श्रीलाल शुक्ल की सूक्ष्म और पैनी दृष्‍टि व्यवस्था की छोटी-से-छोटी विकृति को भी सहज ही देख लेती है, परख लेती है। उन्होंने अपने लेखन को सिर्फ राजनीति पर ही केंद्रित नहीं होने दिया। शिक्षा के क्षेत्र की दुर्दशा पर भी उन्होंने व्यंग्य कसा। 1963 में प्रकाशित उनकी पहली रचना ‘धर्मयुग’ शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्‍त विसंगतियों पर आधारित है। व्यंग्य संग्रह ‘अंगद का पाँव’ और उपन्यास ‘राग दरबारी’ में श्रीलाल शुक्ल ने इसे विस्तार दिया है।

देश के अनेक सकारी स्कूलों की स्थिति दयनीय है। उनके पास अच्छा भवन तक नहीं है। कहीं कहीं तो तंबुओं में कक्षाएँ चलाती हैं, अर्थात न्यूतम सुविधाओं का भी अभाव है। वे इस पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि "यही हाल ‘राग दरबारी’ के छंगामल विद्‍यालय इंटरमीडियेट कॉलेज का भी है, जहाँ से इंटरमीडियेट पास करनेवाले लड़के सिर्फ इमारत के आधार पर कह सकते हैं, सैनिटरी फिटिंग किस चिड़िया का नाम है। हमने विलायती तालीम तक देशी परंपरा में पाई है और इसीलिए हमें देखो, हम आज भी उतने ही प्राकृत हैं, हमारे इतना पढ़ लेने पर भी हमारा पेशाब पेड़ के तने पर ही उतरता है।"

विडंबना यह है कि आज कल अध्यापक भी अध्यपन के अलावा सब कुछ करते हैं। ‘राग दरबारी’ के मास्टर मोतीराम की तरह वे कक्षा में पढ़ाते कम हैं और ज्यादा समय अपनी आटे की चक्‍की को समर्पित करते हैं। ज्यादात्र शिक्षक मोतीराम ही हैं, नाम भले ही कुछ भी हो। ट्‍यूशन लेते हैं, दुकान चलाते हैं और तरह तरह के निजी धंधे करते हैं। छात्रों को देने के लिए उनके पास समय कहाँ बचता है?

श्रीलाल शुक्ल ने अपने साहित्य के माध्यम से समसामयिक स्थितियों पर करारी चोट की है। वे कहते हैं कि ‘आज मानव समाज अपने पतन के लिए खुद जिम्‍मेदार है। आज वह खुलकर हँस नहीं सकता। हँसने के लिए भी ‘लाफिंग क्लब’ का सहारा लेना पड़ता है। शुद्ध हवा के लिए आक्सीजन पार्लर जाना पड़ता है। बंद बोत्ल का पानी पीना पड़ता है। इंस्टेंट फुड़ खाना पड़ता है। खेलने के लिए, एक-दूसरे से बात करने के लिए भी वक्‍त की कमी है।’ कुलमिलाकर यह कह सकते हैं कि श्रीलाल शुक्ल के साहित्य में जीवन का संघर्ष है और उनका साहित्य सामाजिक सरोकारों से जुड़ा है।



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