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+ | <poem>देख मेरी दयनीय दशा को | ||
+ | मन मेरा मुझसे है व्याकुल | ||
+ | बोला वह विश्व प्राङ्गणा में | ||
+ | सर,सलिल,कुसुम्म्य सभी व्याकुल | ||
+ | कौन यहाँ जो नहीं है व्याकुल | ||
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+ | जलते सूरज के प्रखर तेज से | ||
+ | धरती का कण कण है व्याकुल | ||
+ | प्राकृति के सारे नियम तोड़ | ||
+ | मानवीय सभ्यता है व्याकुल | ||
+ | |||
+ | देख सबल का प्रबल वेग | ||
+ | निर्बल का अँग अँग व्याकुल | ||
+ | निर्भीक दौड़ते भय के रथ से | ||
+ | शांति,खड़ी नतमस्तक व्याकुल | ||
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+ | धनवर्षा देख मंदिरो में | ||
+ | धन कुबेर होगा व्याकुल | ||
+ | भूखे की भूख देखकर के | ||
+ | हो रहा देव-होगा व्याकुल | ||
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+ | जहाँ मानव होता है पावन | ||
+ | वह गंग बहे निसहाय विकल | ||
+ | धो धोकर मैल हुई मलिन | ||
+ | पावन गंगा का जल निर्मल | ||
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+ | चुनी,कार्यपालिका के कार्यों से | ||
+ | यहाँ निम्नवर्ग आकुल व्याकुल | ||
+ | औ न्यायपालिका के निर्णाय से | ||
+ | है उच्चवर्ग व्याकुल विव्हल | ||
+ | |||
+ | मानव निर्मित यह हवन कुण्ड | ||
+ | जलता खगोल निसहाय विकल | ||
+ | सुन लगा ध्यान उठता तूफान | ||
+ | जाऊं!दीवार तोड़ किस ओर निकल</poem> | ||
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+ | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
+ | <references/> | ||
+ | ==संबंधित लेख== | ||
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+ | [[Category:दिनेश सिंह]] | ||
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+ | == स्वर्ण-छवि-दिनेश सिंह == | ||
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+ | <poem>रजनी तिमिर ले जा रही थी | ||
+ | छितिज से,चाँद ओझल हो रहा था | ||
+ | औ मत्त स्वर में एक खग | ||
+ | स्वर चेतना में भर रहा था | ||
+ | |||
+ | थे पुष्प के तरु मुकुट पहने | ||
+ | यौन में डूबे सभी मकरन्द थे | ||
+ | बून्द चंचल ओस के कण | ||
+ | तृप्त वसुधा कर रहे थे | ||
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+ | प्राण पपीहा मधुर स्वर में | ||
+ | था घोलता स्वर मधुर पव में | ||
+ | शैल श्रंग, दूर्वा प्रांतर पर | ||
+ | थी विभा मोति सी ओस कणों में | ||
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+ | बहु टोलियां विहग दल की | ||
+ | गान करते विविध स्वर में | ||
+ | पूर्ण यौवना जल तरंगें | ||
+ | थिरकती थी एक सर में | ||
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+ | नव्य अरुणिमा ऊषा लेकर | ||
+ | सूर्य नभ पर आ चुका था | ||
+ | बदलकर पट नील अम्बर | ||
+ | पट पीत धारण कर चुका था | ||
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+ | आ पड़ी जब किरण अलि में | ||
+ | प्रात की नव विभा लेकर | ||
+ | रंगी सकल अलि स्वर्णाभ रंग | ||
+ | स्वर्ण व्योम औ स्वर्ण सरोवर</poem> | ||
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+ | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
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+ | ==संबंधित लेख== | ||
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+ | == मौन करुणा-दिनेश सिंह == | ||
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+ | <poem>फिर ढल चुका है सूर्य नभ से | ||
+ | फिर सांध्य आयी तम लिये | ||
+ | इस तम भरी प्रेमयि गुहा में | ||
+ | मै!नित नव जलाता हूँ दिये | ||
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+ | चाह थी कितनी हृदय में | ||
+ | यदि!तुमको बता पाता कहीं | ||
+ | हृदय के पट खोल कर मै | ||
+ | तुमको दिखा पाता कही | ||
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+ | टूटी हुयी इस वेणु में है | ||
+ | रागनी कितनी बिकल | ||
+ | प्रेममयि अब शब्द भी | ||
+ | हैं हो रहे कितने प्रखर | ||
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+ | भावों के आवेग उठ उठ | ||
+ | हलचल मचाते है प्रबल | ||
+ | गीत के उन्मत्त स्वर भी | ||
+ | है कर रहे मुझको बिकल | ||
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+ | अब जोड़ने को बस हमें | ||
+ | कुछ यादों के है तार मिलते | ||
+ | अब भूत की बातें सभी बस | ||
+ | एक शब्दमय आधार बनते</poem> | ||
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+ | तुम नीर बनकर अश्रु धारा | ||
+ | वह क्यों नहीं भाया तुम्हे | ||
+ | लहरा रहा जो सिंधु खारा | ||
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+ | करने व्यथित क्यों लोक मेरा | ||
+ | हर पल चले आते हो तुम | ||
+ | मै वेदना जग से छुपता | ||
+ | जग को बता जाते हो तुम | ||
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+ | त्रासदी जग की सहन कर | ||
+ | जब हृदय में ज्वाल भरता | ||
+ | तुम बरस जाते मेघ बनकर | ||
+ | ज्वाला बुझा जाते हो तुम | ||
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+ | गुरु कहाँ पाये हो तुम | ||
+ | आँसुओं तुम मौन भी | ||
+ | हर भेद कह जाते हो तुम | ||
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+ | कभी प्रियतम की आँखों से बह | ||
+ | तुम अपना प्रेम जताते हो | ||
+ | हठ अपनी कभी मनाने को | ||
+ | बालक अबोध बन जाते हो | ||
+ | |||
+ | कभी ममता की आँखों से बह | ||
+ | प्रेमायी सागर भर लाते हो | ||
+ | कभी छद्द्म नीर बहाकर के | ||
+ | हृदय तोड़ तुम जाते हो | ||
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+ | बहुत पढ़ा इतिहास तुम्हारा | ||
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+ | फिर आज मेरा ये अन्तस् | ||
+ | कैसे न कोसेगा तुमको | ||
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+ | जिनके जीवन के बन में | ||
+ | दुःख की कलियाँ सूखी हो | ||
+ | फिर हरा भरा कर जाते | ||
+ | तुम कितने निर्मोही हो | ||
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+ | ह्रद के सागर को मै | ||
+ | बाँधा था बाँध बनाकर | ||
+ | बाँध तोड़ तुम जाते | ||
+ | ह्रद में तुम ज्वार उठाकर | ||
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+ | तुम मेरे अंतः के नभ पर | ||
+ | घुमड़ घुमड़ बन घन छाये | ||
+ | दो घडी को यदि सुख पाया | ||
+ | तुम खोज वेदना ले आये | ||
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+ | मेरे अन्तरिक्ष की करुणा | ||
+ | सिसक सिसक कर रोयीं | ||
+ | क्या क्या जतन किये तब | ||
+ | स्मृतियाँ समाधि पर सोयीं | ||
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+ | पहनाया पुष्प की माला | ||
+ | पर भाया तुम्हें नहीं क्यों | ||
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+ | आँखों संग नाच रहे तुम | ||
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+ | हे स्वर्णदीप्त तू सुंदरता | ||
+ | पिक के तू उर्मिल गानो में | ||
+ | नभ मंडल में बन इन्द्रधनुष | ||
+ | अवनि के कोमल संसृति मे | ||
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+ | हे स्वर्णदीप्त तू सुंदरता | ||
+ | तू किस सौरभ की माला को | ||
+ | है पलक झुकाये गूँथ रही | ||
+ | औ उठ उठ गिरती स्वागत को | ||
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+ | कभी छुपी रूपसी के कपोल पर | ||
+ | लेकर लज्जा की लाली | ||
+ | कभी छटक केश तू इठलाती | ||
+ | जब चले चाल वो मतवाली | ||
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+ | पलकों के पुतली में छिपकर | ||
+ | दीपक लौ सा वो बलखाना | ||
+ | वो छुपकर के नत कोरों में | ||
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+ | नयनो में भरकर मादकता | ||
+ | देख रहा प्रत्यक्ष कवी | ||
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+ | गगन पसारे बाँह खड़ा | ||
+ | रजनी हो शिथिल समायी | ||
+ | था तम अपनी यौवन में | ||
+ | सुंदरता कुंकुम बरसायी | ||
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+ | सम्मोहित हो गया जगत | ||
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+ | सकुचति छुई मुई ज्यों पात | ||
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+ | बिखेरे रति अपने जब केश | ||
+ | झील से गहरे गहरे नैन | ||
+ | डूब सा गया कवी देश | ||
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+ | अलकानगरी की रति रानी | ||
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+ | सारा अनंत यह डूबा है | ||
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14:32, 4 जनवरी 2015 के समय का अवतरण
सुझाव पर विचार
दिनेश सिंह जी, आपके दिये सुझाव पर भारतकोश टीम शीघ्र ही विचार करके आपको अवगत कराएगी। गोविन्द राम - वार्ता 19:52, 9 अगस्त 2014 (IST)
अन्तःद्वन्द -भाग-७-दिनेश सिंह |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
मन की व्यथा -दिनेश सिंह
यह लेख स्वतंत्र लेखन श्रेणी का लेख है। इस लेख में प्रयुक्त सामग्री, जैसे कि तथ्य, आँकड़े, विचार, चित्र आदि का, संपूर्ण उत्तरदायित्व इस लेख के लेखक/लेखकों का है भारतकोश का नहीं। |
कितना सुंदर होता की |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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प्रथम द्रश्य देखा जब तुमको
था ऋतू बसंत फूलों का उपवन
छुई मुई के तरु सी लज्जित
नयनो का वो मौन मिलन
कम्पित अधरों से वो कहना
नख से धरा कुदॆर रही थी
आँखों मे मादकता चितवन
साँसों का मिलता स्पंदन
भटक रहा था एकाकी पथ पर
पथ पाया-जब मिला साथ तुम्हारा
ह्रदय शुन्य था उत्सर्ग मौन
खिल उठा पाकर स्पर्श तुम्हारा
ह्रदय के गहरे अन्धकार में
मन डूबा था विरह व्यथा में
छूकर अपने सौन्दर्य ज्योति से
फैलाया उर में प्रकाश यौवन
कितने सुख दुःख जीवन में हो
नहीं मृत्यु से किंचित भय
आँखों के सम्मुख रहो सदा जो
औ प्रीति रहे उर में चिरमय
एक सलोने से सपने में कोई -दिनेश सिंह
एक सलोने से सपने में कोई
नीदों में दस्तक दे जाती है
इन्द्रधनुष सा शतरंगी -
स्वप्न को रंगीत कर जाती है
अद्रशित सी कोई डोर
खीच रही है अपनी ओर
खीचा जाऊं हो आत्मविभोर
रूपसी कौन कौन चित चोर
अधरों में मुस्कान लिए
मुख पर शशी की जोत्स्रना
द्रगो में लाज-मुग्ध-यौवन विद्यमान
तेज रवि सा मुख-छबि-में रुचिमान
आखों का फैलाये तिछर्ण जाल
फंसाकर मेरा खग अनजान चली
जैसे नभ में छायी बदली-
पवन के झोंके उड़ा चली
प्रकति की सुन्दर-----------------दिनेश सिंह
प्रकृति की सुन्दरता को देखकर
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लाचार कारवाँ ------------दिनेश सिंह
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खग गीत-दिनेश सिंह
उड़ रे पंछी पंख फैलाकर नील गगन में
तू ही स्वतन्त्र एक इस जग में
कभी इस तरु पर कभी उस तरु पर
चाहे_डाल कही पर डेरा_या कर ले कहीं बसेरा
नहीं किसी का भय तुझको_नहीं किसी के बंधन में
गूंजे ध्वनि-हो जग विपिन मनोरम
बहे मरुत मधुरम मधुरम
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गा पिक मधुर गान पञ्चम स्वर में
उड़ रे पंछी पंख फैलाकर नील गगन में
कर नृत्य मुग्ध हो नर्तकप्रिय
बरस उठे बन जल बादल
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नव प्रभात हो फिर जग में
जागे जग फिर एक बार
हो हरित नवल मसल का संचार
हो स्वप्न सजल सुखोन्माद
फिर हँसे दिशि_अखिल के कण्ठ से
उठे ध्वनि आनन्द में
उड़ रे पंछी पंख फैलाकर नील गगन में
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यह लेख स्वतंत्र लेखन श्रेणी का लेख है। इस लेख में प्रयुक्त सामग्री, जैसे कि तथ्य, आँकड़े, विचार, चित्र आदि का, संपूर्ण उत्तरदायित्व इस लेख के लेखक/लेखकों का है भारतकोश का नहीं। |
घुमड़ घुमड़कर मेघ गगन में मंडप लगे सजाने |
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यह पावसी सान्ध्य -दिनेश सिंह
हुआ ललोहित गगन और |
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अन्तःद्वन्द -भाग-८-दिनेश सिंह
मै , मेरा और अपने में |
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नयन देखते हैं नभ को-दिनेश सिंह
है ज्ञात मुझे की नहीं तुम |
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चाह मन में-दिनेश सिंह
नित चाह मन में होती प्रखरतर |
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अब वह बनी मुक्तधारा--दिनेश सिंह
स्वच्छंद नीले गगन में उड़ रही है मुक्ताहंसिनी |
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प्रियसी के प्रति---दिनेश सिंह
मेरे मन बन के आस पास |
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तंद्रिल अति तंद्रिल होता उर--दिनेश सिंह
उगता है चाँद जब अंबर पर |
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मन मीत मेरे जरा धरो धीर --दिनेश सिंह
मत हो तुम-ये मेरे मन अधीर |
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स्वर्गिगक सुखमा बसा धरा पर--दिनेश सिंह
है निवास करता-स्वर्ग-जंहाँ इस धरा का |
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सात्विक गीत बड़े महगें हैं-दिनेश सिंह
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ये खग तेरा गान खो गया कहीं कलम से |
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समय चक्र बढ़ता जाता है-दिनेश सिंह
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अगणित तारे जग के नभ पर |
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जब तुम आये मेरे जीवन में-दिनेश सिंह
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शत शत रश्मि रूप मेरा नभ धरकर |
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कवि और कविता -दिनेश सिंह
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कविते तेरी अलकानगरी में |
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कविता की पुकार-दिनेश सिंह
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छोड़कर,कोलाहल भरा संसार |
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राष्ट भाषा-दिनेश सिंह
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हिन्द तेरा हिन्द की तुम रौशनी हो |
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एक तुम्हारा चित्र बनाया-दिनेश सिंह
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देख चाँदनी को संग शशि के |
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निर्बलता और सबलता-दिनेश सिंह
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क्षितिज-वृत्त से दिनकर अपनी |
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एक चाहत -दिनेश सिंह
एक चाहत -दिनेश सिंह
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एक चाह अमिय सी जीवन में |
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उद्बोधन -दिनेश सिंह
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हम बहुत जलाये बाह्य दीप |
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कडवे पत्ते-दिनेश सिंह
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तुम हाँथ पसारे यहाँ खड़े किस आशा में |
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कौन यहाँ नहीं है व्याकुल-दिनेश सिंह
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देख मेरी दयनीय दशा को |
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स्वर्ण-छवि-दिनेश सिंह
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रजनी तिमिर ले जा रही थी |
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मौन करुणा-दिनेश सिंह
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फिर ढल चुका है सूर्य नभ से |
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आँसू-दिनेश सिंह
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क्यों आ बसे हो नयन में II-भाग बहुत पढ़ा इतिहास तुम्हारा III-भाग जब रजनी बेला में शशि |
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स्वर्णदीप्त तू सुंदरता-दिनेश सिंह
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शैल श्रृंग औ बन उपवन में II-भाग हे स्वर्णदीप्त तू सुंदरता III-भाग अलकानगरी की रति रानी |
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शरद ऋतू -दिनेश सिंह
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दिनकर किरणों के पथ से |
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