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सदस्य वार्ता:दिनेश सिंह

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फिर लिखने लगा खीच खीचकर - कल्पित जीवन की रेखा - वही कल्पना खग_पुष्पों की - वही व्यथा मन रोदन की

जब नहीं शब्द ज्ञान मुझे - तो क्यों फैलाता शब्द जाल - बिन उपमा बिन अलंकार - फिर कौन कहेगा काव्यकार

कुछ रस तो लावो तुम - अपनी ललित कलित कविताओं में - कुछ काव्य सुगन्धित फैलावो - इन बहती काव्य हवाओं में

कुछ काव्य लिखो सु-मधुर सु-राग - छवि प्रतिबिम्बित हो उत्तम सन्देश - ले बहे समीरण उस दिशि में - हो जहाँ जहाँ वर्जित प्रदेश

जरा नजर काव्य की घुमाँ वहां - जो विचरण करता अन्धकार में - जो ढूंढ़ रहा है एक कण प्रकाश - जो भटक रहा निर्जन बन में

नहीं जिनको सुख दुःख का विषाद - दुःख ही बना गया हर्षोउल्लाश - रोये अन्तःकरण भीगि पलक - क्या ऋतू वर्षा क्या ऋतू तुषार

हर नई भोर बस एक सवाल - क्या भूंख मीटेगी फिर एक बार - फिर उड़ा परिंदा दाने को - औ बच्चे करते इन्तजार

स्वाभिमान से जीना उनको - कठिन हो गया अब जग में - बंद मुट्ठियाँ साहूकार की - चित्त हथेली याचक की

जिनके जीवन का सूनापन - कभी एक पल कम न हुवा - वही कार्य प्रणाली आदिकाल की - दयनीय बनी हुई जीवन शैली

दिनेश सिंह =