सदस्य वार्ता:दिनेश सिंह

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सुझाव पर विचार

दिनेश सिंह जी, आपके दिये सुझाव पर भारतकोश टीम शीघ्र ही विचार करके आपको अवगत कराएगी। ‍‍ Nib4.pngगोविन्द राम - वार्ता 19:52, 9 अगस्त 2014 (IST)

मन रोदन ......दिनेश सिंह

फिर लिखने लगा खीच खीचकर
कल्पित जीवन की रेखा
वही कल्पना खग_पुष्पों की
वही व्यथा मन रोदन की

जब नहीं शब्द ज्ञान मुझे
तो क्यों फैलाता शब्द जाल
बिन उपमा बिन अलंकार
फिर कौन कहेगा काव्यकार

कुछ रस तो लावो तुम -
अपनी ललित कलित कविताओं में
कुछ काव्य सुगन्धित फैलावो
इन बहती काव्य हवाओं में

कुछ काव्य लिखो सु-मधुर सु-राग
छवि प्रतिबिम्बित हो उत्तम सन्देश
ले बहे समीरण उस दिशि में
हो जहाँ जहाँ वर्जित प्रदेश

जरा नजर काव्य की घुमाँ वहां
जो विचरण करता अन्धकार में
जो ढूंढ़ रहा है एक कण प्रकाश
जो भटक रहा निर्जन बन में

नहीं जिनको सुख दुःख का विषाद
दुःख ही बना गया हर्षोउल्लाश
रोये अन्तःकरण भीगि पलक
क्या ऋतू वर्षा क्या ऋतू तुषार

हर नई भोर बस एक सवाल
क्या भूंख मीटेगी फिर एक बार
फिर उड़ा परिंदा दाने को
औ बच्चे करते इन्तजार

स्वाभिमान से जीना उनको
कठिन हो गया अब जग में
बंद मुट्ठियाँ साहूकार की
चित्त हथेली याचक की

जिनके जीवन का सूनापन
कभी एक पल कम न हुवा
वही कार्य प्रणाली आदिकाल की
दयनीय बनी हुई जीवन शैली

मन की व्यथा -दिनेश सिंह

कितना सुंदर होता की हम
एक सिर्फ इन्सां होते
न जाती पाती के लिए जगह
न धर्मो के बंधन होते

शोर मचा है धर्म धर्म का
कौम कौम का लगता नारा
इस चलती कौमी बयारी में
उन्मय उन्मय जन मानस सारा

जो घूम रहा था शहर शहर
पहुँच रहा अब गाँव गाँव में
वो कौम बयारी जहर घोलते
महकती स्वच्छ हवाओं में

क्या सुलझेंगी ये मानस की गांठे घनेरी
क्या रोशन होंगी ये गलियाँ अंधेरी
क्यों बुझ जाती है गूंज आखिरी
इस उन्मन उन्मन पथ के ऊपर

प्रथम द्रश्य देखा जब तुमको -दिनेश सिंह

प्रथम द्रश्य देखा जब तुमको
था ऋतू बसंत फूलों का उपवन
छुई मुई के तरु सी लज्जित
नयनो का वो मौन मिलन

कम्पित अधरों से वो कहना
नख से धरा कुदॆर रही थी
आँखों मे मादकता चितवन
साँसों का मिलता स्पंदन

भटक रहा था एकाकी पथ पर
पथ पाया-जब मिला साथ तुम्हारा
ह्रदय शुन्य था उत्सर्ग मौन
खिल उठा पाकर स्पर्श तुम्हारा

ह्रदय के गहरे अन्धकार में
मन डूबा था विरह व्यथा में
छूकर अपने सौन्दर्य ज्योति से
फैलाया उर में प्रकाश यौवन

कितने सुख दुःख जीवन में हो
नहीं मृत्यु से किंचित भय
आँखों के सम्मुख रहो सदा जो
औ प्रीति रहे उर में चिरमय

एक सलोने से सपने में कोई -दिनेश सिंह

एक सलोने से सपने में कोई
नीदों में दस्तक दे जाती है
इन्द्रधनुष सा शतरंगी -
स्वप्न को रंगीत कर जाती है

अद्रशित सी कोई डोर
खीच रही है अपनी ओर
खीचा जाऊं हो आत्मविभोर
रूपसी कौन कौन चित चोर

अधरों में मुस्कान लिए
मुख पर शशी की जोत्स्रना
द्रगो में लाज-मुग्ध-यौवन विद्यमान
तेज रवि सा मुख-छबि-में रुचिमान

आखों का फैलाये तिछर्ण जाल
फंसाकर मेरा खग अनजान चली
जैसे नभ में छायी बदली-
पवन के झोंके उड़ा चली

संध्या सुहावनी-------------------दिनेश सिंह

दिवस अवसान का समय
चला दिनकर जलधि की गोद
हो गया स्वर्ण सा अम्बर लोल
दिये खग-दल-कुल-मुख खोल
ध्वनिमय हो गयी हिंदोल

गो वेला का समय-गोधुल नभमंडल में उड़ा
गोशावक प्रेमाग्न से-अतिव्याकुल हो रहा
उड़ पखेरू गगन में कर रहे विहारणी
दश दिशा निमज्जित हुई
प्रफुल्लित हुई हरीतिमा

दुर्गम पहाड़ो की शिखा पर
जा चढ़ी छाया पादप विटप
तिमिरांचल में है शांतपन
वेदज्ञाता कर रहे शंध्या नमन

हुई अस्त रवि किरण शैने शैने
कमल में भांवरा बंद हो रहा
विपिन में गर्जना कर रहा वनराज
गिरी कन्दरा में म्रग छिप रहा

गगन से उतरी कर पदचाप निशियामिनी -
हो गयी रवि किरण अंतर्यामिनी
पवन नव-पल्लवित हो गयी
बहने लगी मधुर-म्रदु वातसी

प्रकति की सुन्दर-----------------दिनेश सिंह

प्रकृति की सुन्दरता को देखकर
मन हो जाता है मुदित
बिपिन बिच नभचर का कलरव गूंजता
विविध ध्वनि विहंगावली

कल कल निनाद करती बहती सुरसरी
प्रकति से खेलती हो जैसे अठखली
विविध रंगों से सजी वसुंधरा
बहु परिधान ओढे खड़ी हो जैसे नववधू

कुछ लालोहित हो चले नभ लालिमा
गूंजता है सुर कलापी कोकिला
कुसुमासव सी मधुर आवाज
श्रुतिपटल पर कोई मुरली बजी

निशा का अवसान समीप हो
नवऊयान हो रही हो यामनी
शुन्य पर हो जब वातावरण
पतंगों की गूंज से , जैसे घंटी बजी

चाँद जब चादनी बिखेरे सुमेरु पर
देखते ही बन रही है अनुपम छटा
लग रहा है आज मानो अचल पर
उतर आयी हो फिर से गिरी पर गिरिसुता

लाचार कारवाँ ------------दिनेश सिंह

फिर से बज गया बिगुल
गूंज उठी फिर रणभेरी
अपने अपने रथो में सजकर
निकल पड़े है फिर महारथी

वही रथी है वही सारथी
दागदार है सैन्य खड़ी
 लड़ने को लाचार कारवाँ
कोई अन्य विकल्प नहीं

भरे हुये बातो का तरकश
प्रतिद्वंदी पर करते प्रहार
गिर गिरकर वो फिर उठते है
नहीं मानते है वो हार

बिछा दिया शतरंजी बाजी
ना नया खेल ना चाल नयी
घुमा फिरा कर वही खेल
खेल वही संकल्प वही

बात बात फिर बात वही
वही रंग पर ढंग नयी
भटके पैदल राही अन्धकार में
पर रथियों को अहसास नहीं

रण की नीति बनाकर बैठा
हर योद्धा शातिर मन वाला
कुछ भी कर गुजरेंगे वो
बस मिले जीत की जय माला

खग गीत --------------दिनेश सिंह

उड़ रे पंछी पंख फैलाकर नील गगन में
तू ही स्वतन्त्र एक इस जग में
कभी इस तरु पर कभी उस तरु पर
चाहे_डाल कही पर डेरा_या कर ले कहीं बसेरा
नहीं किसी का भय तुझको_नहीं किसी के बंधन में

गूंजे ध्वनि-हो जग विपिन मनोरम
बहे मरुत मधुरम मधुरम
ले गीत गन्ध चहुर्दिक उत्तम
गा पिक मधुर गान पञ्चम स्वर में

उड़ रे पंछी पंख फैलाकर नील गगन में

कर नृत्य मुग्ध हो नर्तकप्रिय
बरस उठे बन जल बादल
बहे ह्रदय का अन्धकार
नव प्रभात हो फिर जग में

जागे जग फिर एक बार
हो हरित नवल मसल का संचार
हो स्वप्न सजल सुखोन्माद
फिर हँसे दिशि_अखिल के कण्ठ से
उठे ध्वनि आनन्द में

उड़ रे पंछी पंख फैलाकर नील गगन में

अन्तःद्वन्द -भाग-१-दिनेश सिंह

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यह फूलों का देश सलोना
यहाँ कहाँ काँटों को ठौर
इस सुगन्धित पवमान में
जहर घोलता है कौन

असत्य का बेखौफ रथ
दौड़ता है वाच्छ्येस्थल में
बचा अभी सत्य है जो
भटकता क्यों मरुस्थल में

कहते ऊपर स्वर्ग बसा है
उसका पथ किसने देखा
मुझे बतावो जरा बन्धू
कहाँ से आती वह रेखा

यहीं स्वर्ग है यहीं नरक है
जहाँ तक मैंने जाना है
कर्म स्वर्ग अकर्म नरक
सत पुरुषों का बतलाना है

चलें सभलकर वो है ज्ञानी
हर पथ पर हर चौराहे में
बिन सोचे जो राह चले
वो कहलाते नादानों में

नव भारत के नव शिल्पकार
हे नयी सदी के सेनानी
तेरे हुंकारों में तूफान रुका
हे तरुण देश के अभिमानी

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख


अन्तःद्वन्द -भाग-2-दिनेश सिंह

हर रोज सुबह उठकर मेरा मन
एक नई व्यथा लेकर आता
उर पीड़ा को शब्द बनाकर
छंदों का वो जाल बिछाता

था बैठा लिखने प्रेम गीत
पर लेखन इतना बाध्य हुआ
सौभाग्य जगह दुर्भाग्य लिखा
क्लम बाध्य हुई मै बाध्य हुआ

सौभाग्य लिखूं मै किसका
हे देव जरा तुम बतला दो
जल रहा विश्व उसका लिख दूँ
माँ शारद पथ वो दिखला दो

कही जीर्ण जाती कही भेद भाव
कहीं ऊँच नीच की लौ उठती हैं
जल रहें स्वप्न औ उमंगें
आदर्श धूल में मिलते हैं

जल रही नारियां हाय यहांँ
केशव आ चिर बचा लो तुम
ना डोल उठे ये महा मही
महेश्वर इसे संभालो तुम

रो रही मही औ महाकाश
रो रहा देश का अभिमान
हे देव तेरे दरबार तले
रो रहा कृषक का स्वाभिमान

सकल दिशाएं रक्त रंजित
मानवता मर पाषाण हुयी
हिमालय फिर निर्वाक हुआ
निसहाय बह गंग रही

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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आत्म मंथन --भाग 3.........दिनेश सिंह

१८
हर रोज सुबह उठकर मेरा मन
एक नई व्यथा लेकर आता
उर पीड़ा को शब्द बनाकर
छंदों का वो जाल बिछाता
१९
ये मेरे आराध्य
मै कितना हूँ बाध्य
लेखनी कितनी है लाचार
लिखे सिर्फ- सिर्फ दुर्भाग्य
२०
लिखूं मै किसका सौभाग्य
धरती या आसमां का
गगन में उड़ते है जो खग
या जल में विचरते जीवों का
२१
स्त्रियों की लुट रही है आबरू
बेबस निर्बल इन्सान है
रो रही धरा औ आसमा
रो रहा किसान है
२२
दुर्भाग्य की हरियाली चहुँ ओर फैली
सौभाग्य खंडहर हो रहा है
तेरे दरबार में ये मालिक
मजदुर-किसान रो रहा है
२३
ये मालिक - कल तक स्वाधीन जो किसान था
कर्ज के बोझ में वो दब गया है
नहीं मिल रहा उसका श्रम-फल उचित
कभी कभी तुम्हारा भी शिकार हो रहा है
२४
कर्ज का भार चढ़ गया
जोड़ा था कौड़ी कौड़ी
बंधू- वो बरबाद हो गया
बिक गयी बैलो की जोडी
२५
अरमान ह्रदय के चूर हुए
सुख की खेती गयी उजड
पिता को देख मुसीबत में
बिटिया ने तज प्राण दिये
२६
हँसता- सुख मय जीवन
पल भर में बिखर गये
आरमान ह्रदय के सारे
द्रगो से बहकर निकल गये
२७
दया की भूखी चितवन-चिन्तित मन
ग्रस लेना चाहता है जीवन का तम
विरह वेदना चिन्तित भृकुटी
हर,जन,भव,भय हे जग जननी

आत्म मंथन --भाग 4........ दिनेश सिंह

२८

आवो बंधू - ऐसा करें गान
जाति पाती के पात झरें
नव पात पल्लवित हो तरु पर
मानव-मानवपन का परिचय दे
२९
नहीं सिखाता कोई ज्ञान
मत करना तुम रोष सखे
जन जन की पीड़ा शब्दों में
करता हूँ व्याख्यान सखे
३०
राग द्वेष औ भेद भाव
धर्म जाति का शोर मचा
हे दाता हे प्रभो
ह्रदय का मिथ्याचार भगा
३१
भरो तुम अब हुंकार
करें वो बन्द अब चिक्कार
जगे अब ये जनसार
हर उनके बोल मिथ्याचार
३२
रहे है खेल वो कब से
किया बेमेल हमें सबसे
रहे है झेल सब कब से
है खेले खेल वो कितने
३३
खिलाडी वो तो शातिर थे
माना हम आनाडी थे
फैलाय जाल नफरत का
सदा हम ही तो फसते थे
३४
फैला नफरत का तू चौसर
चलें हम प्रेम की बाजी
देखें आज महफिल में
बाजी कौन जीतेगा
३५
फैला तू जाल नफरत का
प्रेम से हम भी तोड़ेंगे
तेरी हर चाल को शातिर
पलटकर हम भी रखदेंगे
३६
सजायें प्रेम की महफिल
भरें हम प्रेम का प्याला
लगायें प्रेम से अधरों पर
पियें हम प्रेम की हाला
३७
ह्रदय में प्रेम -प्रेम की ज्योति जला
प्रेम से प्रेम का चढने दो नशा
जी कर देख जरा बंधू
प्रेम से जीने का आये मजा
३८
नहीं प्रेम का रूप स्वरूप सखे
है प्रेम अरूप प्रारूप सखे
आ प्रेम से दो पल जी लें सखे
दो पल भी ये सौ साल लगे
३९
नफरत का पेड़ जला ना सके
तेरा गर्म लहू किस काम का है
प्रेम की छावं में न बैठ सके
क्या मानव तू बस नाम का है

आत्म मंथन --भाग 5....... दिनेश सिंह

४०

जो सच था वो सच हो न सका
झूठ को सच होते देखा
ये दाता तेरी दुनिया में
ना जाने क्या क्या देखा
४१
सच की जीत सदा होगी
यह झूठ हुवा इस युग में भी
निष्ठूर झूठ करती म्रदंग
सच को मौन खड़े देखा
४२
ओ नीतिकार की नीती देखी
देखा धर्म धुरन्धर को
उनकी कपटी चालों से
घरों को धु धू जलते देखा
४३
यहाँ देखा उन लोगो को भी
जो आखिर दम तक लड़ते है
अत्याचारी औ पामर से
निर्भीक सामना करते है
४४
हार मिले या जीत मिले
चुप रहना उनका काम नहीं
देख पंथ अति दुर्गम
रुक जाना उनका काम नहीं
४५
जब पंथ पार करके वो
जब आगे बढ़ जायेंगे
सागर भी रास्ता देगा
पर्वत भी शीश झुकायेंगे
४६
जनम मरण औ यश अपयश
नहीं उनको कोई रोक सके
जीना पहला लछ्य नहीं
मौत उनका विश्राम नहीं

आत्म मंथन --भाग 6......... दिनेश सिंह

४७

ढूंढ़ रहा था जिसे शुन्य में
ढूंढा जिसको जग - बन में
उसको मै निज उर में पाया
ढूंढा जब अपने मन में
४८
राग द्वेष छल काम कपट
पाया अपने निज उर में
ज्ञान की गठरी सर पर रखकर
बाँट रहा था गली गली में
४९
ईर्ष्या औ जलन भावना
प्रेम जोय्ति जलने नहीं देती
घड़ा - घ्रणा का भरा हुवा है
अभिमान हमें झुकने नहीं देता
५०
म्रग तृष्णा से कैसे निकलें
मोह हमें जाने नहीं देता
जो फूटना चाहे ज्ञान का अंकुर
अज्ञान का तम उसको ढक लेता!

सुनहरा ऋतू बसंत .......दिनेश सिंह.

दूर दूर तक फैली खेतो में हरियाली
कितनी सुंदर वसुधा लगती
रँग रँग के फूल खिले है
रंग बिरंगी डाली डाली
 
मडरायें भवरें उन पर
भांति भांति की तितली उडती
रस प्रेम सुधा वे पान करें
इस वृंतों से उस वृंतों पर
 
मधुरम मधुरम पवन बह रही
भीनी भीनी गंध लिए
बज रही घंटियाँ बैलो की
गा रही कोकिला मतवाली
 
वर्षा ऋतू बीती-ऋतू शरद गयी
बसन्त ऋतू है मुसकायी
चहक रहीं चिड़ियाँ, तरु पर
भ्रू-भंग अंग-चंचल कलियाँ हरषाई
 
लहलाते खेतो को देख कृषक
यु नाच उठे मन मोर द्रंग
बादल को देख मोरनी ज्यो
हर्षित उर कर- करती म्रदंग
 
आ गयी आम्र तरु में बौरें
आ रही है गेहूँ पर बाली
सीना ताने-तरु चना खड़ा है
इठलाती अरहर रानी
 
फूली पीली सरसों के बिच
यु झाँके धरती अम्बर को
प्रथम द्रश्य ज्यो दुलहिन देखे
अपने प्रियवर प्रियतम को
 
मीठे मीठे बेर पक गये
इस डाली के उस गुच्छे पर
सुमनों से रस पी पी कर
मधुमक्खी जाती छत्तो पर
 
उर छील-छील,लील-लील,सुषमा अति
स्वरमयी दिश स्वर्गिक सुन्दरता सर्ग
उदघोषित करता प्रणय-गान
आ गया सुनहरा ऋतू बसंत