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|+style="text-align:left; padding-left:10px; font-size:18px"|<font color="#003366">[[भारतकोश सम्पादकीय 22 दिसम्बर 2013|भारतकोश सम्पादकीय <small>-आदित्य चौधरी</small>]]</font>
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|+style="text-align:left; padding-left:10px; font-size:18px"|<font color="#003366">[[भारतकोश सम्पादकीय 28 जनवरी 2014|भारतकोश सम्पादकीय <small>-आदित्य चौधरी</small>]]</font>
 
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<center>[[भारतकोश सम्पादकीय 22 दिसम्बर 2013|ताऊ का इलाज]]</center>
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<center>[[भारतकोश सम्पादकीय 28 जनवरी 2014|किसी देश का गणतंत्र दिवस]]</center>
[[चित्र:Tau.jpg|right|100px|border|link=भारतकोश सम्पादकीय 22 दिसम्बर 2013]]
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[[चित्र:Bhikhari-ka-katora.jpg|right|100px|border|link=भारतकोश सम्पादकीय 28 जनवरी 2014]]
 
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         "कछुआ भैया - कछुआ भैया, तेरे ताऊ की तबियत बहुत ख़राब है... अस्पताल से ख़बर आई है..."
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         हमने नदियों का भी पूरा ख़याल रखा है। लोग कुछ समय पहले तक नदियों का पानी पी पीकर उनको सुखाए दे रहे थे। उसमें नहाते भी थे और उसके पानी को बर्तनों में भरकर भी ले जाते थे। इस ग़लत परम्परा के चलते नदियाँ सूखने लगीं। हमने छोटे-बड़े शहरों के पूरे मलबे-कचरे को इन नदियों में डलवाया जिससे इनका पानी पीने तो क्या नहाने लायक़ भी नहीं रहा। नदियों की रक्षा के लिए हमने करोड़ों-अरबों रुपया ख़र्च करके यह योजना बनाई जो आज सुचारू रूप से चल रही है। [[भारतकोश सम्पादकीय 28 जनवरी 2014|...पूरा पढ़ें]]
"क्या...?" कछुए का मुँह खुला का खुला रह गया... 'मल्टीटास्किंग' की आदत के चलते कछुए ने अपने खुले मुँह में तुरंत शकरकंदी के एक बड़े से टुकड़े को रख लिया। शकरकंदी का टुकड़ा गरम था और मुँह की क्षमता से अधिक भी, इसलिए कुछ देर अजीब-अजीब तरह से फड़फड़ा-फड़फड़ा कर और हाथों की विभिन्न मुद्राओं के साथ कछुए ने जो कुछ कहा उसका सारांश यह निकला कि उसे तुरंत पास के गाँव में जाना होगा और यहाँ यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि मुझे भी कछुआ के साथ जाना था। [[भारतकोश सम्पादकीय 22 दिसम्बर 2013|...पूरा पढ़ें]]
 
 
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| [[भारतकोश सम्पादकीय -आदित्य चौधरी|पिछले सभी लेख]] →
 
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14:10, 28 जनवरी 2014 का अवतरण

भारतकोश सम्पादकीय -आदित्य चौधरी
किसी देश का गणतंत्र दिवस
Bhikhari-ka-katora.jpg

         हमने नदियों का भी पूरा ख़याल रखा है। लोग कुछ समय पहले तक नदियों का पानी पी पीकर उनको सुखाए दे रहे थे। उसमें नहाते भी थे और उसके पानी को बर्तनों में भरकर भी ले जाते थे। इस ग़लत परम्परा के चलते नदियाँ सूखने लगीं। हमने छोटे-बड़े शहरों के पूरे मलबे-कचरे को इन नदियों में डलवाया जिससे इनका पानी पीने तो क्या नहाने लायक़ भी नहीं रहा। नदियों की रक्षा के लिए हमने करोड़ों-अरबों रुपया ख़र्च करके यह योजना बनाई जो आज सुचारू रूप से चल रही है। ...पूरा पढ़ें

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