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'''==सांची-सांची कह रह्यो==
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काशी में सन्यासी होय, वासी हों उजार हूँ को,
 
          निरगुन उपासी होय, जोग साध रहे बन में ।
 
तापते चौरासी धूनी, केते वह सिद्ध मुनि,
 
          शिवदीन कहे सुनी यही, भस्म लगा तन में ।
 
एते सब प्रपंच, केते बने हुए परमहंस,
 
          ग्यान के बिना से जांको, ध्यान जाय धन में ।
 
जब लग है स्वांग सकल, सांचा से राच्यो नहिं,
 
              कैसे हो उमंग, राम बस्यो नाहीं मन में ।
 
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14:52, 7 दिसम्बर 2014 का अवतरण


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