अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में हिन्दी -प्रो. सिद्धेश्वर प्रसाद

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लेखक- प्रो. सिद्धेश्वर प्रसाद

भाषा और साहित्य की समृद्धि तथा भाषा भाषियों की संख्या आदि सभी दृष्टियों से हिन्दी संसार की विशिष्ट एवं कुछ अत्यंत महत्त्वपूर्ण भाषाओं में एक है। पिछले करीब एक हज़ार वर्षों से जब राजभाषा और राष्ट्रभाषा के रूप में संस्कृत का प्रचलन कम हो गया, हिन्दी राष्ट्रभाषा और संपर्क दोनों रूपों में भारत तथा आस पास के कुछ देशों में व्यहृत होती रही है। लेकिन स्वराज्य की प्राप्ति के बाद हिन्दी केवल भारत की राष्ट्रभाषा ही नहीं रह गई, बल्कि जब इसे संविधान में भारत की राजभाषा के रूप में भी स्वीकृत किया गया तो स्वभावत: ऐसा माना जाने लगा कि इसे देर-सबेर संयुक्त राष्ट्र संघ एवं संसार की अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं-संस्थानों में भी स्थान मिल जायेगा और अंतर्राष्ट्रीय संपर्क की भाषा के रूप में इसे भी धीरे धीरे स्वत: मान्यता प्राप्त होगी। लेकिन जिन कारणों से भारत को संयुक्त राष्ट्र संघ में या विशेष रूप से संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में स्थायी या विशेष महत्त्व नहीं प्राप्त हो सका, क़रीब-क़रीब उन्हीं कारणों से भारत की राजभाषा हिन्दी को भी वह स्थान नहीं प्राप्त हो सका।
इसमें संदेह नहीं कि सन 1947 की तुलना में आज कई दृष्टियों से स्थिति बदल गई है। जहाँ तक आंतरिक स्थिति की बात है, सबसे बड़ी बात यह हुई है कि आज देश में राष्ट्रीयता की वैसी ज्वलंत भावना नहीं है, जैसी भावना के बिना भारत जैसे देश की राजभाषा ही नहीं बल्कि अन्य आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं का भी समाधान संभव नहीं है। आज अक्सर राष्ट्रीयता जैसी मूल्यों की बात को भावुकता की बात कह कर टाल देना एक फ़ैशन सा हो गया है। परंतु क्या यह वास्तविकता नहीं है कि बगैर भावना के मानव जीवन बंजर हो जाता है और उसका जीवन पशु के समान, क्योंकि सभी मान्यताओं और आदर्शों का मूल संबंध भावना से ही है। अत: राष्ट्रीयता की भावना के बगैर हमारी अनेक समस्याओं का न तो समुचित निदान संभव है और न उनका समाधान।
एक ओर तो यह ठीक है कि अंग्रेज़ी राज की तुलना में आज कई बातों में भारत सरकार के राजकाज में हिन्दी का भारत की संपर्क भाषा के रूप में प्रयोग बढ़ा है, परंतु दूसरी ओर यह बात भी उतनी ही सही है कि स्वराज्य की प्राप्ति के बाद अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत का दबदबा भी उतनी ही तेज़ीसे बढ़ा है तथा आज सारे देश में छोटे-छोटे कस्बों में भी अंग्रेज़ी माध्यम के विद्यालय खुलते जा रहे हैं। यह इस बात का द्योतक है कि हमारी राष्ट्रीयता की भावना मंद पड़ गई है और हम भाषा जैसी राष्ट्रीय महत्त्व की बात पर भी आज राष्ट्रीय दृष्टि से विचार नहीं कर पा रहे हैं।
संविधान में स्वीकार किया गया था कि 26 जनवरी, 1965 के बाद हिन्दी भारत सरकार की राजभाषा होगी। लेकिन संविधान की इस मान्यता के साथ 15 वर्षों की अवधि में राजकाज की भाषा के रूप में हिन्दी के प्रयोग को बढ़ाने की जो बात थी, सरकार ने न केवल क़रीब-क़रीब इसकी उपेक्षा की बल्कि अंग्रेज़ी के समर्थकों की इस भावना को भी ठेस पहुँचाने में हिचकती रही है कि सन 1965 के बाद देश में अंग्रेज़ी नहीं रहेगी। इसीलिए न केवल देश के भीतर सरकारी कामकाज में बल्कि देश के बाहर के संपर्क में भी हिन्दी के व्यवहार को जो अधिकाधिक स्थान दिया जाना चाहिए था न तो उसके लिए कोई तैयारी की गई और न उस ओर कोई ध्यान ही दिया गया।
अत: स्वभावत: ऐसी स्थिति बन गई है कि यदि हम भारत सरकार का सरकारी कामकाज हिन्दी के माध्यम से करना चाहें तो भावनात्मक स्तर पर तो अनेक कठिनाइयों का सामना करना ही पड़ेगा, साथ ही व्यावहारिक स्तर पर भी कुछ कठिनाइयाँ सामने आ जाएँगी। इस दृष्टि से सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि हिन्दी को राजकाज की दृष्टि से संविधान के लागू होते ही जो तैयारी की जानी चाहिए उसकी ओर एकदम ध्यान नहीं दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ है कि इस दृष्टि से जो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण काम था शिक्षा-दीक्षा के माध्यम के रूप में हिन्दी एवं अन्य सभी भारतीय भाषाओं को माध्यम के रूप में स्वीकार किया जाएगा उसकी ओर कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए। उच्च शिक्षा के स्वरूप, गठन और नीति के संबंध में विचार करने के लिए डॉक्टर राधाकृष्णन की अध्यक्षता में जिस शिक्षा आयोग का गठन किया गया था, उस आयोग के अंग्रेज़ी समर्थकों एवं भारतीय भाषा विरोधी रूप के कारण उस आयोग की सिफारिशों में भारतीय भाषाओं के विकास की ओर न केवल कोई ध्यान नहीं दिया गया बल्कि उसके लिए रास्ते में अनेक कठिनाइयाँ खड़ी कर दी गईं। इसका परिणाम यह हुआ कि राष्ट्र ने औद्योगिक विकास की राष्ट्रीय नीति तो तय की, परंतु शिक्षा और सांस्कृतिक विकास की कोई राष्ट्रीय नीति आज तक तय नहीं की जा सकी। इसका अर्थ यह हुआ कि आज भी हमारे सामने यह स्पष्ट नही है कि हम भारत में किस प्रकार की समाज व्यवस्था कायम करना चाहते हैं।
भाषा का प्रश्न राजनीतिक नहीं बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक प्रश्न है। जहाँ तक भाषा के राजनीतिक पक्ष की बात है, उसका समाधान तो उसी राज हो गया जिस रोज भारत स्वतंत्र हो गया था और भाषा के सामाजिक और सांस्कृतिक पक्ष की दृष्टि तो भारत के निवासियों ने अपनी राष्ट्रभाषा और संपर्क भाषा की समस्या का समाधान अत्यन्त सहज और स्वाभाविक गति से उसी रोज ढूँढ लिया था, जिस रोज संस्कृत, पालि, प्राकृत और अपभ्रंश के स्थान पर धीरे धीरे सारे देश में हिन्दी को ही देश भर के तीर्थ यात्री, व्यवसायी और पर्यटक संपर्क भाषा के रूप में काम में लाने लगे थे। इतना ही नहीं, अंग्रेज़ी राज्य काल में भी भारत की न केवल हिन्दी भाषी रियासतें बल्कि अनेक अहिन्दी भाषी रियासतों में भी न केवल राजकाज बल्कि संपर्क भाषा के रूप में हिन्दी का प्रचलन था। अफसोस की बात यह है कि स्वराज्य की प्राप्ति के बाद इन देशी रियासतों के क्षेत्रों में भी न केवल हिन्दी का प्रचलन बंद कर दिया गया बल्कि उसके स्थान पर अंग्रेज़ी का ही एकछत्र राज्य हो गया।
हिन्दी फ़ारसी या अंग्रेज़ी की तरह न तो विदेशी भाषा है और न संस्कृत की तरह देवभाषा। अत: संस्कृत, फ़ारसी या अंग्रेज़ी की तरह राजभाषा के रूप में प्रयुक्त होने के बाद भी इसका जनभाषा का स्वरूप सदा बना रहेगा। यही हिन्दी की सबसे बड़ी शक्ति भी है और सीमा भी। आरंभ से आज तक जिन अहिन्दी भाषियों ने हिन्दी का राष्ट्रभाषा के रूप में समर्थन किया, उनका ऐसा करने का कारण यह था कि हिन्दी इस देश की सबसे बड़ी जन समूह की भाषा थी और शेष भारत में भी यह समझी-बोली जाती थी। पर आज हिन्दी की इसी शक्ति को हिन्दी के विरोधी और अंग्रेज़ी के समर्थक यह कह कर हिन्दी के विरोध में अपने ब्रह्मस्त्र के रूप में काम में लाते हैं कि चूंकि हिन्दी जन समूह विशेष की मातृभाषा है, अत: इसके राजभाषा होने से उन लोगों को विशेष सुविधाएँ प्राप्त हो जाती है। वे लोग यह भूल जाते हैं कि तमिल, बंगला, तेलुगु, कन्नड़ आदि भारत की उन सभी क्षेत्रीय भाषाओं की अपने क्षेत्रों में राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता का आधार उनकी अपने-अपने क्षेत्र की जन भाषा ही होनी है। अत: यह स्पष्ट है कि हिन्दी के विरोध में प्रयोग किया जाने वाला यह तर्क दो धारी तलवार की तरह है वस्तुत: किसी भी जनतंत्र में यह ऐसा बचकाना तर्क है, जिसका प्रयोग जनतंत्र की जड़ पर ही कुठाराघात करता है।
नागपुर में हुए प्रथम हिन्दी सम्मेलन में सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव स्वीकृत किया गया था कि संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को मान्यता प्रदान कराने के लिए पूरा प्रयत्न किया जाए। लेकिन अब तक इस दृष्टि से कोई ठोस प्रयास नहीं किया गया है। यह ठीक है कि तत्कालीन विदेश मंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपना एक भाषण हिनदी में दिया था, परंतु उन्होंने संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी को मान्यता प्रदान करवाने के लिए सरकारी स्तर पर कोई ठोस कदम नहीं उठाया था। इसी प्रकार से वर्तमान विदेश मंत्री श्री पी. वी. नरसिंहराव ने भले ही संयुक्त राष्ट्र संघ में अपने भाषण का आरंभ हिन्दी में किया हो, लेकिन इसके लिए सरकारी तौर पर आज भी ठोस कदम नहीं उठाया गया है। इसके विपरीत दूसरी ओर स्थिति यह है कि आज भारत के बाहर संसार के करीब सौ विश्वविद्यालयों में हिन्दी पर शोध का भी महत्त्वपूर्ण कार्य किया जा रहा है। इससे यह तो असंदिग्ध है कि विश्व की एक समर्थ और समृद्ध भाषा के रूप में हिन्दी की मान्यता बढ़ती ही जा रही है। परंतु दूसरी ओर इस सच्चाई से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं में हिन्दी को स्थान दिलाने के लिए जो प्रयास किया जाना चाहिए, वह आज तक नहीं किया जा सका है और इसके लिए भारत में जो तैयारी की जानी चाहिए, उसकी ओर भी नहीं के बराबर ध्यान दिया गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ या इस प्रकार की अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं एवं संस्थानों में हिन्दी का प्रयोग आरंभ करने के लिए न केवल भारत सरकार को उसके आर्थिक व्यय को वहन करना होगा बल्कि इसके साथ ही इस कार्य के लिए उसे बड़ी संख्या में दुभाषिए और अनुवादकों को भी उपलब्ध करना होगा। लेकिन अभी तक इसके लिए भारत कोई कार्य शुरू नहीं किया जा सका है। यह ठीक है कि भारत में हिन्दी के साथ अंग्रेज़ी जानने वाले दुभाषिए और अनुवादक हज़ारों की संख्या में हैं, परंतु संयुक्त राष्ट्र संघ की फ़्रेंच, रूसी, चीनी, स्पेनिश और अरबी जैसी अन्य मान्य प्राप्त भाषाओं के लिए आवश्यक संख्या में योग्य और प्रशिक्षित दुभाषियों एवं अनुवादकों का जो अभाव है उसके कारण अंतर्राष्ट्रीय व्यवहार की दृष्टि से हिन्दी के प्रयोग में जो कठिनाई आने वाली है, उसके समाधान का मार्ग भारत को ही ढूँढना होगा।
इसी पृष्ठभूमि और इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर प्रथम एवं द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को मान्यता दिलाने के साथ-साथ विश्व हिन्दी विद्यापीठ की स्थापना की बात को भी सर्वसम्मत प्रस्ताव के रूप में स्वीकृत किया गया था। द्वितीय भाषा के रूप में हिन्दी सिखाने के लिए विश्व हिन्दी विद्यापीठ के रूप में वर्धा में एक संस्था की स्थापना की जा चुकी है। लेकिन अभी तक इसे केंद्रीय सरकार की स्वीकृति प्राप्त नहीं हो सकी है। परंतु संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को व्यवहार में लाए जाने के लिए इतना ही काफ़ी नहीं है। इसीलिए दिल्ली में विश्व हिन्दी विद्यापीठ के एक केंद्र की स्थापना की योजना केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय के सामने प्रस्तुत की गई है, जिसके अनुसार इस केंद्र में हिन्दी के माध्यम से संयुक्त राष्ट्र संघ की मान्यता प्राप्त एवं विश्व की अन्य प्रमुख भाषाओं के लिए दुभाषिए एवं अनुवादक तैयार करना, ऐसे कार्यों के लिए संगणकों जैसे आधुनिक वैज्ञानिक यंत्रों और साधनों का प्रयोग करना, हिन्दी के एक संदर्भ पुस्तकालय की स्थापना करना तथा हिन्दी में एक ऐसी त्रैमासिक पत्रिका का प्रकाशन करना, जिसके माध्यम से भाषा और साहित्य के क्षेत्र में संसार की अन्य भाषाओं में होने वाले महत्त्वपूर्ण कार्यों का हिन्दी के पाठकों को पता चल सके और हिन्दी में हो रहे महत्त्वपूर्ण कार्यों का भारत के बाहर के लोगों को पता चल सके। इस विद्यापीठ की स्थापना से भारत की राजकाज की भाषा के रूप में पूरी तरह से व्यवहार में लाए जाने के मार्ग में हिन्दी की जो स्वाभाविक कठिनाइयाँ हैं, उन्हें दूर करने के लिए ठोस कदम भी उठाए जा सकेंगे। अभी अंग्रेज़ी के माध्यम से हमारा शेष जगत् से संपर्क रहा है। लेकिन यह न केवल अपर्याप्त है, बल्कि हमारे लिए अनेक प्रकार के कष्टों का कारण भी रहा है। अत: हमें संसार के भी राष्ट्रों से उनकी भाषा के माध्यम से संपर्क स्थापित करने के लिए ठोस कदम उठाना होगा। विश्व हिन्दी विद्यापीठ के माध्यम से ऐसा करना संभव हो सकेगा।
मारिशस, फ़िजी, सूरीनाम आदि संसार के अनेक देशों में काफ़ी बड़ी संख्या में बसे भारतीय हिन्दी के माध्यम से अपनी शिक्षा दीक्षा प्राप्त करना चाहते हैं। लेकिन अभी भारत में कोई भी ऐसा विश्वविद्यालय नहीं है, जो उनकी ऐसी शिक्षण संस्थाओं को मान्यता प्रदान कर सके या ऐसे सांस्कृतिक केंद्रों के साथ निरंतर संपर्क बनाए रख सके। विश्व हिन्दी विद्यापीठ इन दोनों कार्यों को कर सकेगा। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि शेष जगत् के साथ जीवंत सांस्कृतिक संबंध जोड़ने की दृष्टि से ये सभी बातें कितनी अधिक महत्त्व रखती है।
लेकिन यह सब केवल तृतीय विश्व हिन्दी विश्व सम्मेलन के आयोजन को सफल बना देने से नहीं होने वाला है। आयोजन की वास्तविक सफलता तो इस बात पर निर्भर करती है कि यह सम्मेलन भारत की अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ी परस्त मानसिकता को बदलने में कितनी दूर तक सफल होता है। इसीलिए वैसे यह सम्मेलन कहने भर को ही तृतीय हिन्दी विश्व सम्मेलन है, परंतु वास्तव में यह सभी भारतीय भाषाओं का सभी भारतीय भाषाओं के लिए किया जा रहा सम्मेलन है। जब तक तमिलनाडु में तमिल को, बंगाल में बंगाली को, महाराष्ट्र में मराठी को और उसी प्रकार से देश के सभी राज्यों में अपनी-अपनी भाषाओं को शिक्षा-दीक्षा और राजभाषा की भाषा के रूप में प्रयुक्त नहीं किया जाता है, तब तक अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत का भूत लोगों के सिर पर सवार रहेगा और भारतीय भाषाओं के विकास का राजमार्ग प्रशस्त नहीं पाएगा।
अत: मूल प्रश्न भारत की मानसिकता को बदलने का है। भारत की मानसिकता में बदलाव लाकर ही महात्मा गांधी ने इस देश से अंग्रेज़ों के भय के भूत को भगा दिया और इस देश के करोड़ों मूक, निरीह और असहाय लोग जब अपने पैरों पर उठ खड़े हुए तो अंग्रेज़ी राज्य का सितारा सदा के लिए डूब गया। इसके लिए राष्ट्रीयता की जिस भावना को प्रज्वलित करने की ज़रूरत पड़ी थी, आज पुन: उस बुझती भावना को प्रबल बनाने की नितांत आवश्कता है क्योंकि इसके बगैर हर महान् राष्ट्रीय प्रश्न के समाधान के मार्ग में बौने लोग छोटे-छोटे स्थानीय प्रश्नों के रोड़े अटकाते रहेंगे और भारत के विकास के महान् रथ को जिस वेग से आगे बढ़ना चाहिए, उसमें अपेक्षित गति नहीं आ पाएगी।
सांस्कृतिक दासता की जड़ राजनीतिक दासता की जड़ से भी अधिक गहरी होती है और इसके सूक्ष्म को पहचान पाना अत्यन्त कठिन होता है। लेकिन जिस प्रकार से आर्थिक स्वतंत्रता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता निरर्थक होती है, उसी प्रकार से सांस्कृतिक स्वतंत्रता के बिना राजनीतिक और आर्थिक स्वतंत्रता भी प्राणहीन होती है। सांस्कृतिक मूल्य ही सामाजिक जीवन को वह आधार प्रदान करते हैं, जिस पर राजनीतिक और आर्थिक ढांचा खड़ा किया जाता है। अत: यदि सांस्कृतिक नींव कमज़ोर रहे तो स्वभावत: सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ढांचा भी कमज़ोर होगा। जब स्वराज्य प्राप्ति के लिए आंदोलन चल रहा था तो उस अवधि में महात्मा गांधी जब तक इस मूलभूत बात की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते रहते थे। स्वामी विवेकानंद, रवींद्रनाथ ठाकुर, लोकमान्य तिलक और श्री अरविंद ने तो बराबर कहा था कि हम स्वराज्य के साथ साथ उन मूल्यों के लिए लड़ रहे हैं, जिन्हें अंग्रेज़ी राज्य ने क़रीब क़रीब समाप्त-सा कर दिया है। पश्चिमी सभ्यता के स्वरूप की आलोचना करते समय जब महात्मा गांधी उसकी महाजनी सभ्यता कहकर तिरस्कार करते थे, तो उसके पीछे भी मूल बात मूल्यों की ही होती थी। यहाँ मैं भाषा के संदर्भ में इन बातों का स्मरण इसलिए करा रहा हूँ कि आज यह बात भुला दी गई है कि भारत की राजभाषा का सवाल एक ओर मानसिकता का सवाल है और दूसरी ओर वह हमारे राष्ट्रीय जीवन के उन बुनियादी मूल्यों से जुड़ा हुआ है, जिनके बगैर स्वतंत्रता अपनी गरिमा खो देती है।
जन जीवन से जुड़ी होने के कारण हिन्दी लोकतंत्र के उन बुनियादी मूल्यों से भी जुड़ी हुई है, जिनके बिना लोकतंत्र में प्राण का संचार नहीं हो सकता। लोकतांत्रिक पद्धति राजकाज का कोई ढांचा मात्र नहीं है, जहाँ पर समय पर चुनाव करा दिया जाए और फिर राजकाज चलता रहे। लोकतंत्र तो लोकतांत्रिक तरीकों से उन समस्याओं का समाधान खोज निकालता है, जिनका लोक जीवन से गहरा संबंध हुआ करता है। अत: चुनाव के अवसर पर तो लोक भाषा का प्रयोग किया जाए और पांच साल के लिए उसे भुला दिया जाए तो यह न केवल अलोकतांत्रिक नीति है बल्कि ऐसे मूल संकट को भी निमंत्रण देती है, जिसके कारण अंत में लोकतंत्र के पूरे ढांचे पर भी खतरे की आशंका बन सकती है। इसलिए पंचायत से लेकर अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ के हिन्दी के प्रयोगों के सभी पक्षों पर विचार करते समय मूल बात यह है कि लोकतंत्र के बुनियादी मूल्यों में हमारी श्रद्धा कितनी गहरी है। जिस भाषा में कबीर, सूर, जायसी, तुलसी, रहम, मीरा, जयशंकर प्रसाद और प्रेमचंद जैसे लोकविश्रुत साहित्यकारों ने अपनी अनुभूतियों को व्यक्त किया, उस भाषा के माध्यम से संसार का सारा काम चलाया जा सकता है। पर यह तभी संभव है, जब इसके लिए हम संकल्प ले लें और पंचायत स्तर से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ तक हिन्दी के प्रयोग को भारतीय राष्ट्रीयता की कसौटी मानकर चलें।
महात्मा गांधी ने जब यह कहा था कि राष्ट्र गूंगा है तो उन्होंने भारतीयों के हृदय की मूक भावना को ही वाणी प्रदान की थी। अत: एक राष्ट्र के लिए राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगीत की तरह राष्ट्रभाषा भी अनिवार्य है और जिस प्रकार से राष्ट्रगीत एवं राष्ट्रध्वज को संपूर्ण राष्ट्र गौरव का स्थान प्रदान करता है, उसी प्रकार से राष्ट्रभाषा को भी गौरव का स्थान देना ही होगा। आश्चर्य की बात तो यह है कि जब राष्ट्रभाषा की बात आती है, तो संविधान के बड़े-बड़े पंडित तक हिन्दी के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं और राष्ट्रभाषा के संबंध में संविधान में जो बात कही गई, उसे सर्वथा अनदेखा कर जाते हैं। यह उनकी दासता और मानसिकता का परिणाम है, जो उन्हें भारतीय जन जीवन से अपने को अलग रख कर अपनी विशेषता बनाये रखने की विषाक्त प्रेरणा पदान करता है।
जैसा कि कहा जा चुका है, भाषा का प्रश्न राजनीतिक नहीं है बल्कि सांस्कृतिक एवं सामाजिक है। अत: जब हम अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत की मानसिकता और दासता से उभरकर भारत की स्वतंत्र सांस्कृतिक, सामाजिक सत्ता की खोज की ओर उन्मुख होंगे, तभी हमें हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं के गौरव का बोध होगा। साहित्य के विद्यार्थी इस बात को जानते हैं कि जब श्रीमती सरोजिनी नायडू ने अंग्रेज़ी के रोमांटिक कवियों के अनुकरण पर कविताएँ लिखीं तो उन्हें कवियित्री के रूप में कोई अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त नहीं हुई, लेकिन जब रवींद्रनाथ ठाकुर ने उपनिषदों और संतों की परंपरा में गीताजंलि की रचना की तो नोबल पुरस्कार के रूप में उन्हें अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त हुई। आश्चर्य और दु:ख की बात यह है कि आज इस ऐतिहासिक तथ्य को भुला दिया गया है और नकल की आँधी में हम बहते जा रहे हैं। संसार भारत को भारत के रूप में देखना चाहता है, न कि इंग्लैंड, अमेरिका, रूस, चीन, अरब या किसी अन्य देश की फूहड़ नकल के रूप में। यह तभी संभव है जब भारतीय के रूप में हमें अपनी राष्ट्रीय अस्मिता का बोध होगा और उसकी पहचान यह होगी कि हम हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं को अपने रोजमर्रा के व्यवहार, शिक्षा और दीक्षा के माध्यम एवं भारतीय तथा अंतर्राष्ट्रीय कामकाज की भाषा के रूप में हिन्दी का सहज भाव से कितनी सफलतापूर्वक प्रयोग करते हैं। जिस रोज भारत एक राष्ट्र के रूप में ऐसा करने का संकल्प ले लगा, उस रोज भारत के सांस्कृतिक और सामाजिक विकास के मार्ग की सारी मानसिक बाधाएँ दूर हो जाएंगी और उसका वह तेज पुन: प्रकट होगा, जिसकी संसार सदैव से प्रतीक्षा कर रहा है। यह काम किसी ग्रह से आने वाला कोई प्राणी नहीं करेगा, बल्कि इसे हम भारतीयों को करना होगा।



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