अनेकांतवाद
भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
अनेकांतवाद जैन दर्शन का सिद्धांत है। इसका अभिप्राय यह है कि संसार की प्रत्येक वस्तु विरुद्ध प्रतीत होने वाले अनंत कर्मों के भिन्न-भिन्न आशय हैं। वस्तु के संबंध में विभिन्न दर्शनों की जो विभिन्न मान्यताएँ हैं, अपेक्षाभेद एवं दृष्टिभेद से वे सब सत्य हैं। उनमें से किसी एक को यथार्थ मानना और अन्यों को अयथार्थ मानना उचित नहीं है। वस्तु को कुछ परिमित रूपों में ही देखना नयदृष्टि है, प्रमाणदृष्टि नहीं। नयदृष्टि का अर्थ है एकांकी दृष्टि और प्रमाणदृष्टि का सर्वांगीण दृष्टि।
- इस जगत् में अनेक वस्तुएँ हैं और उनके अनेक धर्म (गुण-तत्व) हैं। जैन दर्शन मानता है कि मनुष्यों, पशुओं, पक्षियों, पेड़ और पौधों में ही चेतना या जीव नहीं होते, बल्कि धातुओं और पत्थरों जैसे दृश्यमान-जड़ पदार्थ भी जीव सकन्ध समान होता हैं। पुदगलाणु भी अनेक और अनंत हैं, जिनके संघात बनते-बिगड़ते रहते हैं।
- अनेकांतवाद कहता है कि वस्तु के अनेक गुण-धर्म होते हैं। वस्तु की पर्याएं बदलती रहती है। इसका मतलब कि पदार्थ उत्पन्न और विनष्ट होता रहता है, परिवर्तनशील, आकस्मिक और अनित्य है। अत: पदार्थ या द्रव्य का लक्षण है- बनना, बिगड़ना और फिर बन जाना। यही अनेकांतवाद का सार है।
- इसे इस तरह से समझना चाहिए कि हर वस्तु को मुख्य और गौण, दो भागों में बाँटें तो एक दृष्टि से एक चीज सत् मानी जा सकती है, दूसरी दृष्टि से असत्। अनेकांत में समस्त विरोधों का समन्वय हो जाता है। अत: सत्य को अनेक दृष्टिकोण से देखा जा सकता है।[1]
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अनेकांतवाद (हिन्दी) सुयोग्य सुधर्मा। अभिगमन तिथि: 06 अगस्त, 2014।